..............................................................................


मानसरोवर भाग 3


कहानी-संग्रह


- लेखक-मुंशी प्रेमचंद



गुल्ली-डण्डा


--------------------------


हमारे अँग्रेजी दोस्त मानें या न मानें, मैं तो यही कहूँगा कि गुल्ली-डण्डा सब
खेलों का राजा है । अब भी कभी लड़कों को गुल्ली-डण्डा खेलते देखता हूँ, तो जो लोट-
पोट हो जाता है कि इनके साथ जाकर खेलने लगूँ । न लॊन की जरूरत, न कोर्ट की, न
नेट की, न थापी की । मजे से किसी पेड़ से एक टहनी काट ली, गुल्ली बना ली, और दो
आदमी भी आ गये, तो खेल शुरू हो गया । विलायती खेलों में सबसे बड़ा ऐब है कि उनके
सामान महँगे होते हैं । जब तक कम-से-कम एक सैकड़ा न खर्च कीजिए, खिलाड़ियों में
शुमार ही नहीं हो सकता । यहाँ गुल्ली-डण्डा है कि बिना हर्र फिटकरी के चोखा रंग
देता है; पर हम अँग्रेजी चीजों के पीछे दीवाने हो रहे हैं कि अपनी सभी चीजों से
अरुचि हो गयी है । हमारे स्कूलों में हरेक लड़के से तीन चार रुपये सालाना केवल
खेलने की फीस ली जाती है । किसी को यह नहीं सूझता कि भारतीय खेल खिलायें; जो
बिना दाम-कौड़ी के खेले जाते हैं । अँग्रेजी खेल उनके लिए हैं, जिनके पास धन है ।
गरीब लड़कों के सिर क्यों यह ध्यान मढ़ते हो । ठीक है गुल्ली से आँख फूट जाने का
भय रहता है । तो क्या क्रिकेट से सिर फूट जाने, तिल्ली फट जाने, टाँग टूट जाने का
भय नहीं रहता ? अगर हमारे माथे में गुल्ली का दाग आज तक बना हुआ है, तो हमारे
कई दोस्त ऐसे भी हैं, जो थापी को बैसाखी से बदल बैठे । खैर, यह अपनी-अपनी रुचि है ।
मुझे गुल्ली ही सब खेलों से अच्छी लगती है और बचपन की मीठी स्मृतियों में गुल्ली ही
सबसे मीठी है । वह प्रातःकाल घर से निकल जाना, वह पेड़ पर चढ़कर टहनियाँ काटना
और गुल्ली-डण्डे बनाना, वह उत्साह, वह लगन, वह खिलाड़ियों के जम-घटे, वह पढ़ना और
पढ़ाना, वह लड़ाई-झगड़े, सरल स्वभाव, जिसमें छूत-अछूत, अमीर-गरीब का बिलकुल भेद न
रहता था, जिसमें अमीराना चोंचलों की, प्रदर्शन की, अभिमान की गुञ्जाइश ही न थी, यह
उसी वक्त भूलेगा जब...जब...। घरवाले बिगड़ रहे हैं, पिता जी चौके पर बैठे वेग से
रोटियों पर अपना क्रोध उतार रहे हैं ।
अम्माँ की दौड़ केवल द्वार तक है, लेकिन उनकी विचार-धारा में मेरा अन्धकारमय भविष्य
टूटी हुई नौका की तरह डगमगा रहा है, और मैं हूँ कि पदाने में मस्त हूँ, न नहाने की
सुधि है, न खाने की । गुल्ली है तो जरा सी; पर उसमें दुनिया भर की मिठाइयों की
मिठास और तमाशों का आनन्द भरा हुआ है ।
मेरे हमजोलियों में एक लड़का गया नाम का था । मुझसे दो-तीन साल बड़ा होगा । दुबला,
लाँबा, बन्दरों की-सी लम्बी-लम्बी पतली-पतली उँगलियाँ, बन्दरों की-सी-ही चपलता, वही
झल्लाहट । गुल्ली कैसी हो, उस पर इस तरह लपकता था; जैसे छिपकली कीड़ों पर लपकती
है । मालूम नहीं उसके माँ बाप थे या नहीं, कहाँ रहता था, क्या खाता था, पर था हमारे
गुल्ली-क्लब का चेम्पियन । जिसकी तरफ वह आ जाय, उसकी जीत निश्चित थी । हम सब
उसे दूर से आते देख,उसका दौड़ कर स्वागत करते थे और उसे अपना गोइयाँ बना लेते थे ।
एक दिन हम और गया दो ही खेल रहे थे । वह पदा रहा था, मैं पद रहा था; मगर कुछ
विचित्र बात है कि पदाने में हम दिन भर मस्त रह सकते हैं, पदना एक मिनट का भी अखरता
है । मैंने गला छुड़ाने के लिए सब चालें चलीं, जो ऐसे अवसर पर शास्त्र-विहित न होने
पर भी क्षम्य हैं, लेकिन गया अपना दाँव लिये बगैर मेरा पिण्ड न छोड़ता था ।
अनुनय-विनय का कोई असर न हुआ । मैं घर की ओर भागा ।
गया ने मुझे दौड़कर पकड़ लिया और डण्डा तानकर बोला--मेरा दाव देकर जाओ । पदाया तो
बड़े बहादुर बनके, पदने की बेर क्यों भागे जाते हो ?
`तुम दिन भर पदाओ तो मैं दिन भर पदता रहूँ !'
`हाँ, तुम्हें दिन भर पदना पड़ेगा ।'
`न खाने जाऊँ न पीने जाऊँ ?'
`हाँ, मेरा दाव दिये बिना कहीं नहीं जा सकते ।'
`मैं तुम्हारा गुलाम हूँ ।'
`हाँ, मेरे गुलाम हो ।
`मैं घर जाता हूँ, देखूँ मेरा क्या कर लेते हो ।'
`घर कैसे जाओगे, कोई दिल्लगी है । दाव दिया है, दाव लेंगे ।'
`अच्छा, कल मैंने तुम्हें अमरूद खिलाया था । वह लौटा दो ।'
`वह तो पेट में चला गया ।'
`निकालो पेट से । तुमने क्यों खाया मेरा अमरूद ?'
`अमरूद तुमने दिया, तब मैंने खाया । तुमसे माँगने न गया था ।'
`जब तक मेरा अमरूद न दोगे, मैं दाव न दूँगा ।'
मैं समझता था, न्याय मेरी ओर है । आखिर मैंने किसी स्वार्थ से ही उसे अमरूद खिलाया
होगा । कौन निःस्वार्थ किसी के साथ सलूक करता है । भिक्षा तक तो स्वार्थ के लिए ही
देते हैं । जब गया ने अमरूद खाया, तो फिर उसे मुझसे दाव लेने का क्या अधिकार है ?
रिश्वत देकर तो लोग खून पचा जाते हैं । यह मेरा अमरूद यों ही हजम कर जायगा ? अमरूद
पैसे के पाँच वाले थे , जो गया के बाप को भी नसीब न होंगे । यह सरासर अन्याय था ।
गया ने मुझे अपनी ओर खींचते हुए कहा- मेरा दाँव देकर जाओ, अमरूद-समरूद मैं नहीं
जानता ।
मुझे न्याय का बल था । वह अन्याय पर डटा हुआ था । मैं हाथ छुड़ाकर भागना चाहता था ।
वह मुझे जाने न देता था ! मैंने गाली दी, उसने उससे कड़ी गाली दी, और गाली ही नहीं,
दो एक चाँटा जमा दिया । मैंने उसे दाँत काट लिया । उसने मेरी पीठ पर डंडा जमा
दिया । मैं रोने लगा । गया मेरे इस अस्त्र का मुकाबला न कर सका । भागा । मैंने
तुरन्त आँसू पोंछ डाले , डंडे की चोट भूल गया और हँसता हुआ घर जा पहुँचा ! मैं थाने
दार का लड़का एक नीच जात के लौंडे के हाथों पिट गया, यह मुझे उस समय भी अपमान
जनक मालूम हुआ; लेकिन घर में किसी से शिकायत न की ।

(2)


उन्हीं दिनों पिता जी का वहाँ से तबादला हो गया । नई दुनिया देखने की खुशी में ऐसा
फूला कि अपने हमजोलियों से बिछुड़ जाने का बिलकुल दुःख न हुआ । पिता जी दुःखी थे ।
यह बड़ी आमदनी की जगह थी । अम्माँ जी भी दुःखी थीं, यहाँ सब चीजें सस्ती थीं, और
मुहल्ले की स्त्रियों से घराव-सा हो गया था, लेकिन मैं मारे खुशी के फूला न समाता
था ।
लड़कों से जीट उड़ा रहा था, वहाँ ऐसे घर थोड़े ही होते हैं । ऐसे -ऐसे ऊँचे घर हैं
कि आसमान से बातें करते हैं । वहाँ के अंग्रेजी स्कूल में कोई मास्टर लड़कों को
पीटे, तो उसे जेहल हो जाय । मेरे मित्रों की फैली हुई आँखें और चकित-मुद्रा बतला
रही थीं कि मैं उनकी निगाह में कितना ऊँचा उठ गया हूँ । बच्चों में मिथ्या को सत्य
बना लेने की वह शक्ति है, जिसे हम, जो सत्य को मिथ्या बना लेते हैं, क्या समझेंगे ।
उन बेचारों को मुझसे कितनी स्पर्द्धा हो रही थी । मानो कह रहे थे-तुम भाग्यवान हो
भाई ,जाओ, हमें तो इस ऊजड़ ग्राम में जीना भी है और मरना भी ।
बीस साल गुजर गये । मैंने इञ्जीनियरी पास की और उसी जिले का दौरा करता हुआ, उसी
कस्बे में पहुँचा और डाकबँगले में ठहरा । उस स्थान को देखते ही इतनी मधुर बाल-
स्मृतियाँ हृदय में जाग उठीं कि मैंने छड़ी इठाई और कस्बे की सैर करने निकला ।
आँखें किसी प्यासे पथिक की भाँति बचपन के उन क्रीड़ा-स्थलों को देखने के लिए
व्याकुल हो रही थीं , पर उस परिचित नाम के सिवा वहाँ और कुछ परिचित न था । जहाँ
खँडहर था, वहाँ पक्के मकान खड़े थे । जहाँ बरगद का पुराना पेड़ था, वहाँ अब एक
सुन्दर बगीचा था । स्थान की काया-पलट हो गयी थी । अगर उसके नाम और स्थिति का
ज्ञान न होता, तो मैं इसे पहचान भी न सकता । बचपन की संचित और अमर स्मृतियाँ
बाँहे खोले अपने उन पुराने मित्रों से गले मिलने को अधीर हो रही थीं ; मगर वह
दुनिया बदल गयी थी । ऐसा जी होता था कि उस धरती से लिपटकर रोऊँ और कहूँ, तुम
मुझे भूल गयीं ! मैं तो अब भी तुम्हारा वही रूप देखना चाहता हूँ ।
सहसा एक खुली हुई जगह में मैंने दो तीन लड़कों को गुल्ली-डंडा खेलते देखा । एक क्षण
के लिए मैं अपने को बिलकुल भूल गया । भूल गया कि मैं एक ऊँचा अफसर हूँ, साहबी
ठाठ में, रोब और अधिकार के आवरण में ।
जाकर एक लड़के से पूछा--क्यों बेटे, यहाँ कोई गया नाम का आदमी रहता है ?
एक लड़के ने गुल्ली-डंडा समेटकर सहमें हुए स्वर में कहा--कौन गया ? गया चमार ?
मैंने यों ही कहा--हाँ-हाँ वही । गया नाम का कोई आदमी है तो । शायद वही हो ।
`हाँ, है तो ।'
`जरा उसे बुला ला सकते हो ?
लड़का दौड़ा हुआ गया और एक क्षण में एक पाँच हाथ के काले देव को साथ लिये आता दिखाई
दिया । मैं दूर ही से पहचान गया । उसकी ओर लपकना चाहता था कि उसके गले लिपट जाऊँ;
पर कुछ सोचकर रह गया । बोला--कहो गया, मुझे पहचानते हो ?
गया ने झुककर सलाम किया - हाँ मालिक, भला पहचानूँगा क्यों नहीं ? आप मजे में रहे ?
`बहुत मजे में । तुम अपनी कहो ?'
`डिप्टी साहब का साईस हूँ ।'
`मतई, मोहन, दुर्गा यह सब कहाँ हैं ? कुछ खबर है ?'
मतई तो मर गया, दुर्गा और मोहन दोनों डाकिये हो गये हैं, आप ?'
`मैं तो जिले का इञ्जीनियर हूँ ?'
`सरकार तो पहले ही बड़े जहीन थे ।'
`अब कभी गुल्ली-डंडा खेलते हो ?'
गया ने मेरी ओर प्रश्न की आँखों से देखा--अब गुल्ली-डंडा क्या खेलूँगा सरकार, अब तो
पेट के धंधे से छुट्टी नहीं मिलती ।
आओ, आज हम तुम खेलें । तुम पदाना, हम पदेंगे । तुम्हारा एक दाँव हमारे ऊपर है । वह
आज ले लो ।
गया बड़ी मुश्किल से राजी हुआ । वह ठहरा टके का मजदूर, मैं एक बड़ा अफसर । हमारा
और उसका क्या जोड़ ? बेचारा झेंप रहा था; लेकिन मुझे भी कुछ कम झेंप न थी ; इसलिए
नहीं कि मैं गया के साथ खेलने जा रहा था; बल्कि इसलिए कि लोग इस खेल को अजूबा समझ
कर इसका तमाशा बना लेंगे और अच्छी-खासी भीड़ लग जायगी । उस भीड़ में वह आनन्द कहाँ
रहेगा; पर खेले बगैर तो रहा नहीं जाता था । आखिर निश्चय हुआ कि दोनों जने बस्ती से
दूर जाकर एकान्त में खेलें । वहाँ कौन कोई देखनेवाला बैठा होगा ।
मजे से खेलेंगे और बचपन की उस मिठाई का खूब रस ले लेकर खायेंगे । मैं गया को लेकर
डाक बँगले पर आया और मोटर में बैठकर दोनों मैदान की ओर चले । साथ में एक कुल्हाड़ी
ले ली । मैं गम्भीर भाव धारण किये हुए था, लेकिन गया इसे अभी तक मजाक ही समझ रहा
था । फिर भी उसके मुख पर उत्सुकता या आनन्द का कोई चिह्न न था । शायद वह हम दोनों
में जो अन्तर हो गया था, वही सोचने में मगन था ।
मैंने पूछा--तुम्हें कभी हमारी याद आती थी गया ? सच कहना ।
गया झेंपता हुआ बोला--मैं आपको क्या याद करता हुजूर, किस लायक हूँ । भाग में आपके
साथ कुछ दिन खेलना बदा था, नहीं मेरी क्या गिनती ।
मैंने कुछ उदास होकर कहा--लेकिन मुझे तो बराबर तुम्हारी याद आती थी । तुम्हारा वह
डंडा, जो तुमने तानकर जमाया था, याद है न ?
गया ने पछताते हुए कहा--वह लड़कपन था सरकार, उसकी याद न दिलाओ ।
`वाह ! वह मेरे बाल-जीवन की सबसे रसीली याद है । तुम्हारे उस डंडे में जो रस था,
वह तो अब न आदर-सम्मान में पाता हूँ, न धन में । कुछ ऐसी मिठास थी उसमें कि आज
तक उससे मन मीठा होता रहता है ।
इतनी देर में हम बस्ती से कोई तीन मील निकल आये हैं । चारों तरफ सन्नाटा है ।
पश्चिम की ओर कोसों तक भीमताल फैला हुआ है, जहाँ आकर हम किसी समय कमल के पुष्प
तोड़ ले जाते थे और उसके झुमके बनाकर कानों में डाल लेते थे । जेठ की संध्या केसर
में डूबी चली आ रही है । मैं लपक कर एक पेड़ पर चढ़ गया और एक टहनी काट लाया ।
चटपट गुल्ली-डंडा बन गया ।
खेल शुरू हो गया । मैंने गुच्ची में गुल्ली रखकर उछाली । गुल्ली गया के सामने से
निकल गयी । उसने हाथ लपकाया जैसे मछली पकड़ रहा हो । गुल्ली उसके पीछे जाकर गिरी
। यह वही गया है, जिसके हाथों में गुल्ली जैसे आप-ही-आप जाकर बैठ जाती थी । वह
दाहिने-बायें कहीं हो, गुल्ली उसकी हथेलियों में ही पहुँचती थी । जैसे गुल्लियों पर
वशीकरण डाल देता हो । नई गुल्ली, पुरानी गुल्ली, छोटी गुल्ली, बड़ी गुल्ली, नोकदार
गुल्ली, सपाट गुल्ली, सभी उसे मिल जाती थी ।
जैसे उसके हाथों में कोई चुम्बक हो, जो गुल्लियों को खींच लेता हो, लेकिन आज गुल्ली
को उससे प्रेम नहीं रहा । फिर तो मैंने पदाना शुरू किया । मैं तरह-तरह की धाँधलियाँ
कर रहा था । अभ्यास की कसर बेईमानी से पूरी कर रहा था । हुच जाने पर भी डंडा खेले
जाता था; हालाँकि शास्त्र के अनुसार गया की बारी आनी चाहिए थी । गुल्ली पर जब ओछी
चोट पड़ती और वह जरा दूर पर गिर पड़ती, तो मैं झटपट उसे खुद उठा लेता और दोबारा
टाँड़ लगाता । गया यह सारी बे-कायदगियाँ देख रहा था; पर कुछ न बोलता था, जैसे उसे
वह सब कायदे-कानून भूल गये । उसका निशाना कितना अचूक था । गुल्ली उसके हाथ से
निकलकर टन-से डंडे में आकर लगती थी । उसके हाथ से छूटकर उसका काम था डंडे से
टकरा जाना; लेकिन आज वह गुल्ली डंडे में लगती ही नहीं । कभी दाहिने जाती है, कभी
बायें, कभी आगे, कभी पीछे ।
आध घण्टे पदाने के बाद एकबार गुल्ली डंडे में आ लगी । मैंने धाँधली की, गुल्ली डंडे
में नहीं लगी, बिलकुल पास से गयी' लेकिन लगी नहीं ।
गया ने किसी प्रकार का असन्तोष न प्रकट किया ।
`न लगी होगी ।'
`डंडे में लगती तो क्या मैं बेईमानी करता ?'
नहीं भैया, तुम भला बेईमानी करोगे ?'
बचपन में मजाल था, कि मैं ऐसा घपला कर के जीता बचता ! यही गया गरदन पर चढ़ बैठता;
लेकिन आज मैं उसे कितनी आसानी से धोखा दिये चला जाता था । गधा है ! सारी बातें भूल
गया ।
सहसा गुल्ली फिर डंडे में लगी और इतने जोर से लगी जैसे बन्दूक छूटी हो । इस प्रमाण
के सामने अब किसी तरह की धाँधली करने का साहस मुझे इस वक्त भी न हो सका; लेकिन
क्यों न एकबार सच को झूठ बनाने की चेष्टा करूँ ? मेरा हरज ही क्या है । मान गया, तो
वाह-वाह, नहीं तो दो-चार हाथ पदना ही तो पड़ेगा । अँधेरे का बहाना करके जल्दी से
गला छुड़ा लूँगा । फिर कौन दाव देने आता है ।
गया ने विजय के उल्लास में कहा - लग गयी, लग गयी ! टन से बोली ।
मैंने अनजान बनने की चेष्टा करके कहा - तुमने लगते देखा ? मैंने तो नहीं देखा ।
`टन से बोली है सरकार !'
`और जो किसी ईंट में लग गयी हो ?'
मेरे मुख से यह वाक्य उस समय कैसे निकला, इसका मुझे खुद आश्चर्य है । इस सत्य
को झुठलाना वैसा ही था, जैसे दिन को रात बताना । हम दोनों ने गुल्ली को डंडे में
जोर से लगते देखा था; लेकिन गया ने मेरा कथन स्वीकार कर लिया ।
`हाँ किसी ईंट में ही लगी होगी । डंडे में लगती, तो इतनी आवाज न आती ।'
मैंने फिर पदाना शुरू कर दिया; लेकिन इतनी प्रत्यक्ष धाँधली कर लेने के बाद, गया की
सरलता पर मुझे दया आने लगी ; इसलिए जब तीसरी बार गुल्ली डंडे में लगी, तो मैंने
बड़ी उदारता से दाँव देना तय कर लिया ।
गया ने कहा--अब तो अँधेरा हो गया है भैया, कल पर रखो ।
मैंने सोचा कल बहुत-सा समय होगा, यह न जाने कितनी देर पदाये, इसी लिए इसी वक्त
मुआमला साफ कर लेना अच्छा होगा ।
`नहीं,नहीं । अभी बहुत उजाला है । तुम अपना दाँव ले लो ।'
`गुल्ली सूझेगी नहीं ।'
`कुछ परवाह नहीं ।'
गया ने पदाना शुरू किया; पर उसे अब बिलकुल अभ्यास न था । उसने दो बार टाँड़ लगाने
का इरादा किया; पर दोनों ही बार हुच गया । एक मिनट से कम में वह दाँव पूरा कर
चुका । बेचारा घण्टा भर पदा; पर एक मिनट ही में अपना दाँव खो बैठा । मैंने अपने
हृदय की विशालता का परिचय दिया ।
एक दाँव और खेल लो । तुम तो पहले ही हाथ में हुच गये ।
`नहीं भैया, अब अँधेरा हो गया ।'
`तुम्हारा अभ्यास छूट गया । क्या कभी खेलते नहीं ?'
`खेलने का समय कहाँ मिलता है भैया !'
हम दोनों मोटर पर जा बैठे और चिराग जलते जलते पड़ाव पर पहुँच गये । गया चलते-चलते
बोला--कल यहाँ गुल्ली-डंडा होगा । सभी पुराने खिलाड़ी खेलेंगे । आप भी आओगे । जब
आपको फुरसत हो, तभी खिलाड़ियों को बुलाऊँ । मैंने शाम का समय दिया और दूसरे दिन मैच
देखने आया । कोई दस-दस आदमियों की मण्डली थी । कई मेरे लड़कपन के साथी निकले ।
अधिकांश युवक थे, जिन्हें पहचान न सका । खेल शुरू हुआ । मैं मोटर पर बैठा-बैठा
तमाशा देखने लगा । आज गया का खेल, उसका वह नैपुण्य देखकर मैं चकित हो गया । टाँड़
लगाता, तो गुल्ली आसमान से बातें करती । कल की-सी वह झिझक, वह हिचकिचाहट, वह
बेदिली आज न थी । लड़कपन में जो बात थी, आज उसने प्रौढ़ता प्राप्त कर ली । कहीं कल
इसने मुझे इस तरह पदाया होता, तो मैं जरूर रोने लगता । उसके डंडे की चोट खाकर
गुल्ली दो सौ गज की खबर लाती थी ।
पदनेवालों में एक युवक ने धाँधली की । उसने अपने विचार में गुल्ली रोक ली थी । गया
का कहना था--गुल्ली जमीन में लगकर उछली थी । इस पर दोनों में तान ठोंकने की नौबत
आयी । युवक दब गया । गया का तमतमाया हुआ चेहरा देखकर डर गया । अगर वह दब न जाता,
तो जरूर मार-पीट हो जाती । मैं खेल में न था; पर दूसरों के इस खेल से मुझे वही
लड़कपन का आनन्द आ रहा था, जब हम सब कुछ भूलकर खेल में मस्त हो जाते थे । अब मुझे
मालूम हुआ कि कल गया ने मेरे साथ खेला नहीं, केवल खेलने का बहाना किया । उसने मुझे
दया का पात्र समझा । मैंने धाँधली की, बेईमानियाँ कीं; पर उसे जरा भी क्रोध न आया ।
इसलिए कि वह खेल न रहा था, मुझे खेला रहा था, मेरा मन रख रहा था । वह मुझे पदाकर
मेरा कचूमर नहीं निकालना चाहता था । मैं अब अफसर हूँ । यह अफसरी मेरे और उसके
बीच में दीवार बन गयी है । मैं अब उसका लिहाज पा सकता हूँ , अदब पा सकता हूँ, साह
चर्य नहीं पा सकता । लड़कपन था, तब मैं उसका समकक्ष था । हममें कोई भेद न था । यह
पद पाकर अब मैं केवल उसकी दया के योग्य हूँ । वह मुझे अपना जोड़ नहीं समझता । वह
बड़ा हो गया है, मैं छोटा हो गया हूँ ।

................................................................................



ज्योति


- लेखक - मुंशी प्रेमचंद


------------------


विधवा हो जाने के बाद बूटी का स्वभाव बहुत कटु हो गया था । जब बहुत जी जलता तो
अपने मृत पति को कोसती--आप तो सिधार गये, मेरे लिये यह सारा जञ्जाल छोड़ गये ! जब
इतनी जल्दी जाना था, तो ब्याह न जाने किस लिए किया । घर में भूनी भाँग नहीं, चले थे
ब्याह करने । वह चाहती तो दूसरी सगाई कर लेती । अहीरों में इसका रिवाज है । देखने-
सुनने में भी बुरी न थी । दो एक आदमी तैयार भी थे; लेकिन बूटी पतिव्रता कहलाने के
मोह को न छोड़ सकी । और यह सारा क्रोध उतरता था, बड़े लड़के मोहन पर ! जो सोलह
साल का था । सोहन अभी छोटा था और मैना लड़की थी । ये दोनों अभी किसी लायक न थे ।
अगर यह तीनों न होते, तो बूटी को क्यों इतना कष्ट होता । जिसका थोड़ा-सा काम कर
देती; वह रोटी कपड़ा दे देता । जब चाहती किसी के सिर बैठ जाती । अब अगर कहीं बैठ
जाय, तो लोग यही कहेंगे कि तीन-तीन लड़कों के होते इसे यह क्या सूझी । मोहन भरसक
उसका भार हल्का करने की चेष्टा करता । गायों, भैसों की सानी-पानी, दुहना-मथन यह सब
कर लेता, लेकिन बूटी का मुँह सीधा न होता था । वह रोज एक-न-एक खुचड़ निकालती रहती
और मोहन ने भी उसकी घुड़कियों की परवाह करना छोड़ दिया था । पति उसके सिर गृहस्थी
का यह भार पटककर क्यों चला गया । उसे यही गिला थी । बेचारी का सर्वनाश ही कर दिया !
न खाने का सुख मिला, न पहनने-ओढ़ने का, न और किसी बात का । इस घर में क्या आयी,
मानो भट्ठी में पड़ गयी ! उसकी वैधव्य साधना और अतृप्त भोग-लालसा में सदैव द्वन्द्व
सा मचा रहता था और उसकी जलन में उसके हृदय की सारी मृदुता जलकर भस्म हो गयी थी ।
पति के पीछे और कुछ नहीं तो बूटी के पास चार-पाँच सौ के गहने थे, लेकिन एक-एक करके
सब उसके हाथ से निकल गये । उसी मुहल्ले में, उसके बिरादरी में, कितनी औरतें थीं, जो
उससे जेठ होने पर भी गहने झमकाकर, आँखों में काजल लगाकर, माँग में सेंदुर की मोटी
सी रेखा डालकर मानो उसे जलाया करती थीं ,
इसलिए जब उनमें से कोई विधवा हो जाती, तो बूटी को खुशी होती और यह सारी जलन वह
लड़कों पर निकालती, विशेषकर मोहन पर । वह शायद सारे संसार की स्त्रियों को अपने ही
रूप में देखना चाहती थी । कुत्सा में उसे विशेष आनन्द मिलता था । उसकी वंचित लालसा
जल न पाकर ओस चाट लेने में ही संतुष्ट होती थी; फिर यह कैसे सम्भव था कि वह मोहन के
विषय में कुछ सुने और पेट में डाल ले । ज्योंही मोहन सन्ध्या समय दूध बेचकर घर आया,
बूटी ने कहा--देखती हूँ, तू अब साँड बनने पर उतारू हो गया है ।
मोहन ने प्रश्न के भाव से देखा - कैसा साँड़ ! क्या बात है ?
`तू रुपिया से छिप-छिपकर नहीं हँसता-बोलता ? उस पर कहता है कैसा साँड ? तुझे लाज
नहीं आती ! घर में पैसे-पैसे की तंगी है और वहाँ उसके लिए पान लाये जाते हैं, कपड़े
रँगाये जाते हैं ।'
मोहन ने विद्रोह का भाव धारण किया - अगर उसने मुझसे चार पैसे के पान माँगे तो क्या
करता ? कहता कि पैसे दो तो लाऊँगा । अपनी धोती रँगने को दी, तो उससे रँगाई माँगता ?
`टोले में एक तू ही बड़ा धन्नासेठ है ? और किसी से उसने क्यों न कहा ?'
`यह वह जाने, मैं क्या बताऊँ ।'
`तुझे अब छैला बनने की सूझती है ! घर में भी कभी एक पैसे का पान लाया ?'
`यहाँ पान किसके लिए लाता ?'
`क्या तेरे लेखे घर में सब मर गये ?'
मैंने न जानता था, तुम पान खाना चाहती हो ?'
`संसार में एक रुपिया ही पान खाने जोग है ?'
`शौक-सिंगार की भी तो उमिर होती है ।'
बूटी जल उठी । उसे बुढ़िया कह देना उसकी सारी साधना पर पानी फेर देना था । बुढ़ापे
में उन साधनाओं का महत्त्व ही क्या । जिस त्याग-कल्पना के बल पर वह सब स्त्रियों
के सामने सिर उठाकर चलती थी, उस पर इतना कठोराघात ! इन्हीं लड़कों के पीछे उसने
अपनी जवानी धूल में मिला दी ! उसके आदमी को मरे आज पाँच साल हुए । तब उसकी
चढ़ती जवानी थी ।
तीन लड़के भगवान ने उसके गले मढ़ दिये, नहीं अभी वह है कै दिन की । चाहती तो आज
वह भी ओंठ लाल किये, पाँव में महावर लगाये, अनवट-बिछुये पहने मटकती फिरती । यह सब
कुछ उसने इन लड़कों के कारण त्याग दिया और आज मोहन उसे बुढ़िया कहता है ? रुपिया
उसके सामने खड़ी करदी जाय, तो चुहिया-सी लगे । फिर भी वह जवान है, और बूटी बुढ़िया
है !
बोली - हाँ और क्या । मेरे लिए तो अब फटे-चिथड़े पहनने के दिन हैं । जब तेरा बाप
मरा तो मैं रुपिया से दो ही चार साल बढ़ी थी । उस वक्त कोई घर लेती, तो तुम लोगों
का कहीं पता न लगता । गली-गली भीख माँगते फिरते । लेकिन मैं कहे देती हूँ । अगर तू
फिर उससे बोला तो या तो तू ही घर में रहेगा या मैं ही रहूँगी ।
मोहन ने डरते-डरते कहा--मैं उसे बात दे चुका हूँ अम्माँ ।
`कैसी बात ।'
`सगाई की ।'
`अगर रुपिया मेरे घर में आई तो झाड़ू मार कर निकाल दूँगी । यह सब उसकी माँ की माया
है । वह कुटनी मेरे लड़के को मुझसे छीने लेती है । राँड़ से इतना भी नहीं देखा
जाता । चाहती है कि उसे सौत बनाकर छाती पर बैठा दें ।'
मोहन ने व्यथित कण्ठ से कहा - अम्माँ, ईश्वर के लिए चुप रहो । क्यों अपना पानी आप
खो रही हो । मैंने तो समझा था, चार दिन में मैना अपने घर चली जायगी; तुम अकेली पड़
जाओगी; इसलिए उसे लाने की बात सोच रहा था । अगर तुम्हें बुरा लगता है तो जाने दो ।
`तू आज से यहीं आँगन में सोया कर ।'
`और गायें-भैंसे बाहर पड़ी रहेंगी ?'
`पड़ी रहने दे, कोई डाका नहीं पड़ा जाता ।'
`मुझ पर तुझे इतना सन्देह है ?'
`हाँ।'
`तो मैं यहाँ न सोऊँगा ।'
`तो निकल जा मेरे घर से ।'
`हाँ, तेरी यही इच्छा है तो निकल जाऊँगा ।'
मैना ने भोजन पकाया । मोहन ने कहा, मुझे भूख नहीं है ! बूटी उसे मनाने न आई । मोहन
का युवक-हृदय माता के इस कठोर शासन को किसी तरह स्वीकार नहीं कर सकता । उसका घर है,
ले, ले । अपने लिए वह कोई दूसरा ठिकाना ढूँढ़ निकालेगा ।
रुपिया ने उसके रूखे जीवन में एक स्निग्धता भर दी थी । जब वह एक अव्यक्त कामना से
चंचल हो रहा था, जीवन कुछ सूना-सूना लगता था, रुपिया ने नव-वसन्त की भाँति आकर उसे
पल्लवित कर दिया । मोहन को जीवन में एक मीठा स्वाद मिलने लगा । कोई काम करता होता;
पर ध्यान रुपिया की ओर लगा रहता । सोचता; उसे क्या दे दे कि वह प्रसन्न हो जाय ! अब
वह कौन मुँह लेकर उसके पास जाय ? क्या उससे कहे कि अम्माँ ने मुझे तुझसे मिलने को
मना किया है ? अभी कल ही तो बरगद के नीचे दोनों में कैसी-कैसी बाते हुई थीं । मोहन
ने कहा था, रूपा तुम इतनी सुन्दर हो; तुम्हारे सौ गाहक निकल जायेंगे । मेरे घर में
तुम्हारे लिए क्या रक्खा है ? इस पर रुपिया ने जो जवाब दिया था, वह तो संगीत की तरह
अब भी उसके प्राणों में बसा हुआ था - मैं तो तुमको चाहती हूँ मोहन, अकेले तुमको ।
परगने के चौधरी हो जाव, तब भी मोहन हो; मजूरी करने लगो, तब भी मोहन हो । उसी
रुपिया से आज वह जाकर कहे--अब तुमसे कोई सरोकार नहीं है ।
नहीं, यह नहीं हो सकता । उसे घर की परवाह नहीं हैं । वह रुपिया के साथ माँ से अलग
रहेगा । इस जगह न सही, किसी दूसरे मोहल्ले में सही । इस वक्त भी रुपिया उसकी राह
देख रही होगी । कैसे अच्छे बीड़े लगाती है । कहीं अम्माँ सुन पावें कि यह रात को
रुपिया के द्वार पर गया था तो परान ही दे दें । दे दें परान ! अपने भाग तो नहीं बखा
नती कि ऐसी देवी बहू मिली जाती है । न जाने क्यों रुपिया से इतना चिढ़ती है । वह
जरा पान खा लेती है, जरा साड़ी रँगकर पहनती है । बस यही तो ।
चूड़ियों की झनकार सुनाई दी । रुपिया आ रही है । हाँ, वही है ।
रुपिया उसके सिरहाने आकर बोली - सो गये क्या मोहन ? घड़ी भर से तुम्हारी राह देख
रही हूँ । आये क्यों नहीं ?
मोहन नींद का मक्कर किये पड़ा रहा ।
रुपिया ने उसका सिर हिलाकर फिर कहा - क्या सो गये मोहन ?
उन कोमल उँगलियों के स्पर्श में क्या सिद्धि थी, कौन जाने । मोहन की सारी आत्मा
उन्मत्त हो उठी । उसके प्राण मानो बाहर निकलकर रुपिया के चरणों में समर्पित हो जाने
के लिए उछल पड़े । देवी वरदान लिए सामने खड़ी है । सारा विश्व जैसे नाच रहा है ।
उसे उसका शरीर लुप्त हो गया है, केवल वह मधुर स्वर की भाँति विश्व की गोद से चिमटा
हुआ उसके साथ नृत्य कर रहा है ।
रुपिया ने फिर कहा--अभी से सो गये क्या जी ?
मोहन बोला--हाँ जरा नींद आ गई थी रूपा । तुम इस वक्त क्या करने आईं । कहीं अम्माँ
देख लें, तो मुझे मार ही डालें ।
`तुम आज आये क्यों नहीं ?'
`आज अम्माँ से लड़ाई हो गई ।'
`क्या कहती थीं ?'
`कहती थीं, रुपिया से बोलेगा तो मैं परान दे दूँगी ।'
`तुमने पूछा नहीं, रुपिया से क्या चिढ़ती हो ?'
`अब उनकी बात क्या कहूँ रूपा । वह किसी का खाना-पहनना नहीं देख सकतीं । अब मुझे
तुमसे दूर रहना पड़ेगा ।'
`मेरा जी तो न मानेगा ।'
`ऐसी बात करोगी, तो मैं तुम्हें लेकर भाग जाऊँगा ।'
`तुम मेरे पास एकबार रोज आ जाया करो । बस, और मैं कुछ नहीं चाहती ।'
`और अम्माँ जो बिगड़ेगी ।'
`तो मैं समझ गई । तुम मुझे प्यार नहीं करते ।'
`मेरा बस होता तो तुमको अपने परान में रख लेता ।'
इसी समय घर के किवाड़ खटके । रुपिया भाग गई ।

(2)


मोहन दूसरे दिन सोकर उठा तो उसके हृदय में आनन्द का सागर-सा भरा हुआ था । वह
सोहन को बराबर डाँटता रहता था । सोहन आलसी था । घर के काम-धंधे में जी न लगाता था ।
आज भी वह आँगन में बैठा अपनी धोती में साबुन लगा रहा था । मोहन को देखते ही वह
साबुन छिपाकर भाग जाने का अवसर खोजने लगा ।
मोहन ने मुस्कराकर कहा--क्या धोती बहुत मैली हो गयी है सोहन ? धोबी को क्यों नहीं
देते ?
सोहन को इन शब्दों में स्नेह की गन्ध आई ।
धोबिन पैसे माँगती है ।'
`तो पैसे अम्माँ से क्यों नहीं माँग लेते ?'
`अम्माँ कौन पैसे दिये देती है ।'
`तो मुझसे ले लो !'
यह कहकर उसने एक इकन्नी उसकी ओर फेंक दी । सोहन प्रसन्न हो गया । भाई और माता दोनों
ही उसे धिक्कारते थे । बहुत दिनों बाद आज उसे स्नेह की मधुरता का स्वाद मिला ।
इकन्नी उठा ली और धोती को वहीं छोड़कर गाय को खोलकर ले चला ।
मोहन ने कहा - तुम रहने दो, मैं इसे लिए जाता हूँ ।
सोहन ने पगहिया भाई को देकर फिर पूछा - तुम्हारे लिए चिलम रख लाऊँ ?
जीवन में आज पहली बार सोहन ने भाई के प्रति ऐसा सद्भाव प्रकट किया । इसमें क्या
रहस्य है, यह मोहन की समझ में न आया । बोला--आग हो तो रख लाओ ।
मैना सिर के बाल खोले आँगन में घरौंदा बना रही थी । मोहन को देखते ही उसने घरौंदा
बिगाड़ दिया और अंचल से बाल छिपाकर रसोईघर में बरतन उठाने चली ।
मोहन ने पूछा - क्या खेल रही थी मैना ?
मैना डरी हुई बोली - कुछ तो नहीं ।
`तू तो बहुत अच्छे घरौंदे बनाती है । जरा बना, देखूँ ।'
मैना का रुँआसा चेहरा खिल उठा । प्रेम के शब्द में कितना जादू है । मुँह से निकलते
ही जैसे सुगन्ध फैल गयी । जिसने सुना उसका हृदय खिल उठा ।
जहाँ भय था, वहाँ विश्वास चमक उठा । जहाँ कटुता थी, वहाँ अपनापा छलक पड़ा । चारों
ओर चेतनता दौड़ गई । कहीं आलस्य नहीं, कहीं खिन्नता नहीं । मोहन का हृदय आज प्रेम
से भरा हुआ है । उसमें सुगन्ध का विकर्षण हो रहा है ।
मैना घरौंदा बनाने बैठ गई ।
मोहन ने उसके उलझे हुए बालों को सुलझाते हुए कहा - तेरी गुड़िया का ब्याह कब होगा
मैना, नेवता दे, कुछ मिठाई खाने को मिले ।
मैना का मन आकाश में उड़ने लगा । अब भैया पानी माँगे, तो वह लोटे को राख से खूब चमा
चम करके पानी ले जायगी ।
`अम्माँ पैसे नहीं देती । गुड्डा तो ठीक हो गया है । टीका कैसे भेजूँ ।'
`कितने पैसे लेगी ?'
`एक पैसे के बतासे लूँगी और एक पैसे का रंग । जोड़े तो रंगे जायँगे कि नहीं ।'
`तो दो पैसे में तेरा काम चल जायगा ?'
`तो दो पैसे दे दो भैया, तो तेरी गुड़िया का ब्याह धूमधाम से हो जाय ।'
मोहन ने पैसे हाथ में लेकर मैना को दिखाये । मैना लपकी, मोहन ने हाथ ऊपर उठाया,
मैना ने हाथ पकड़कर नीचे खींचना शुरू किया । मोहन ने उसे गोद में उठा लिया । मैना
ने पैसे ले लिये और नीचे उतरकर नाचने लगी । फिर अपनी सहेलियों को विवाह का नेवता
देने के लिए भागी ।
उसी वक्त बूटी गोबर का झौवा लिये आ पहुँची । सोहन को खड़े देखकर कठोर स्वर में बोली
-अभी तक मटरगस्ती ही हो रही है । भैंस कब दुही जायगी ?
आज बूटी को मोहन ने विद्रोह-भरा जवाब न दिया । जैसे उसके मन में माधुर्य का कोई
सोता-सा खुल गया हो । माता को गोबर का बोझ लिये देखकर उसने झौवा उसके सिर से उतार
लिया ।
बूटी ने कहा--रहने दे,रहने दे, जाकर भैंस दुह, मैं तो गोबर लिये जाती हूँ ।
`तुम इतना भारी बोझ क्यों उठा लेती हो, मुझे क्यों नहीं बुला लेतीं ?'
माता का हृदय वात्सल्य से गद्गद हो उठा ।
`तू जा अपना काम देख । मेरे पीछे क्यों पड़ता है ?'
`गोबर निकालने का काम मेरा है ।'
`और दूध कौन दुहेगा ?'
`वह भी मैं करूँगा ।'
`तू इतना बड़ा जोधा है कि सारे काम कर लेगा !'
`जितना कहता हूँ कर लूँगा ।'
`तो मैं क्या करूँगी ?'
`तुम लड़कों से काम लो; जो तुम्हारा धर्म है ।'
`मेरी सुनता है कोई ?'

(3)


आज मोहन बाजार से दूध पहुँचाकर लौटा, दो पान, कत्था, सुपारी, एक छोटा-सा पानदान और
थोड़ी-सी मिठाई लाया । बूटी बिगड़कर बोली--आज पैसे कहीं फालतू मिल गये थे क्या ? इस
तरह उड़ावेगा तो कै दिन निबाह होगा ?
मैंने तो एक पैसा भी नहीं उड़ाया अम्माँ । पहले मैं समझता था, तुम पान खाती ही
नहीं ।' `तो अब मैं पान खाऊँगी !'
`हाँ और क्या । जिसके दो-दो जवान बेटे हों, क्या वह इतना शौक भी न करे ।'
बूटी के सूखे कठोर हृदय में कहीं से कुछ हरियाली निकल आयी, एक नन्हीं-सी कोपल थी ;
लेकिन उसके अन्दर कितना जीवन ,कितना रस था । उसने मैना और सोहन को एक-एक
मिठाई दे दी और एक मोहन को देने लगी ।
`मिठाई तो लड़कों के लिए लाया था अम्माँ ।'
`और तू बुढ़ा हो गया, क्यों ?'
`इन लड़कों के सामने तो बूढ़ा ही हूँ ।'
`लेकिन मेरे सामने तो लड़का ही है ।'
मोहन ने मिठाई ले ली । मैना ने मिठाई पाते ही गप से मुँह में डाल ली थी । वह केवल
मिठास का स्वाद जीभ पर छोड़कर कब की गायब हो चुकी थी । मोहन की मिठाई को ललचाई
आँखों से देखने लगी । मोहन ने आधा लड्डू तोड़ कर मैना को दे दिया । एक मिठाई दोने
में और बची थी । बूटी ने उसे मोहन की तरफ बढ़ाकर कहा--लाया भी तो इतनी-सी मिठाई ।
यह ले ले ।
मोहन ने आधी मिठाई मुँह में डालकर कहा--वह तुम्हारा हिस्सा है, अम्माँ ।
`तुम्हें खाते देखकर मुझे जो आनन्द मिलता है, उसमें मिठास से ज्यादा स्वाद है ।'
उसने आधी मिठाई सोहन को और आधी मोहन को दे दी; फिर पानदान खोलकर देखने लगी ।
आज जीवन में पहली बार उसे सौभाग्य प्राप्त हुआ ।
धन्य भाग कि पति के राज में जिस विभूति के लिए तरसती रही, वह लड़के के राज में
मिली । पानदान में कइ कुल्हियाँ हैं । और देखो, दो छोटी-छोटी चिमचियाँ भी हैं, ऊपर
कड़ा लगा हुआ है । जहाँ चाहो लटकाकर ले जाव । ऊपर की तश्तरी में पान रखे जायेंगे ।
ज्योंही मोहन बाहर चला गया, उसने पानदान को माँज-धोकर उसमें चूना-कत्था भरा, सुपारी
काटी, पान को भिगो कर तश्तरी में रखा । तब एक बीड़ा लगाकर खाया । उस बीड़े के रस ने
जैसे उसके वैधव्य की कटुता को स्निग्ध कर दिया । मन की प्रसन्नता, व्यवहार में
उदारता बन जाती है । अब वह घर में नहीं बैठ सकती । उसका मन इतना गहरा नहीं है कि
इतनी बड़ी विभूति उसमें जाकर गुम हो जाय । एक पुराना आईना पड़ा हुआ था । उसने उसमें
अपना मुँह देखा । ओठों पर लाली तो नहीं है । मुँह लाल करने के लिए उसने थोड़े ही
पान खाया है ।
धनिया ने आकर कहा--काकी, तनक रस्सी दे दो , मेरी रस्सी टूट गई है ।
कल बूटी ने साफ कह दिया होता, मेरी रस्सी गाँव भर के लिए नहीं है । रस्सी टूट गई है
तो बनवा लो । आज उसने धनिया को रस्सी निकालकर प्रसन्न मुख से दे दी और सद्भाव से
पूछा--लड़के के दस्त बन्द हुए कि नहीं धनिया ?
धनिया ने उदास मन से कहा--नहीं काकी, आज तो दिन भर दस्त आये । जाने दाँत आ रहे है ।
`पानी भर ले तो चल देखूँ, दाँत ही है कि और कुछ फसाद है । किसी की नजर-वजर तो नहीं
लगी ?'
`अब क्या जाने काकी, कौन जाने किसी की आँख फूटी हो ।'
`चोंचाल लड़कों को नजर का बड़ा डर रहता है ।'
`जिसने चुमकारकर बुलाया, झट उसकी गोद में चला जाता है । ऐसा हँसता है कि तुमसे क्या
कहूँ ।'
`कभी-कभी माँ की नजर भी लग जाया करती है ।'
`ऐ नौज काकी, भला कोई अपने लड़के को नजर लगायेगा !'
`यही तो तू समझती नहीं । नजर आप-ही आप लग जाती है ।'
धनिया पानी लेकर आई तो बूटी उसके साथ बच्चे को देखने चली ।
`तू अकेली है ! आजकल घर के काम-धंधे में बड़ा अंडस होता होगा ।'
`नहीं अम्माँ, रुपिया आ जाती है, घर का कुछ काम कर देती है, नहीं अकेले तो मेरी
मरन हो जाती ।'
बूटी को आश्चर्य हुआ । रुपिया को उसने केवल तितली समझ रक्खा था ।
`रुपिया !'
`हाँ काकी, बेचारी बड़ी सीधी है । झाड़ू लगा देती है, चौका बरतन कर देती है, लड़के
को सँभालती है । गाढ़े समय कौन किसी की बात पूछता है काकी !'
`उसे तो अपने मिस्सी-काजल से छुट्टी नहीं मिलती होगी !'
`यह तो अपनी-अपनी रुचि है काकी । मुझे तो इस मिस्सी-काजल वाली ने जितना सहारा
दिया, उतना किसी भक्तिन ने न दिया । बेचारी रात भर जागती रही । मैंने कुछ दे तो
नहीं दिया । हाँ, जब तक जीऊँगी उसका जस गाऊँगी ।'
`तू उसके गुन अभी नहीं जानती धनिया । पान के लिए पैसे कहाँ से आते हैं ? किनारदार
साड़ियाँ कहाँ से आती हैं ?
` मैं इन बातों में नहीं पड़ती काकी । फिर शौक-सिंगार करने को किसका जी नहीं
चाहता । खाने-पहनने की यही तो उमिर है ।'
धनिया का घर आ गया । आँगन में रुपिया बच्चे को गोद में लिये थपक रही थी ।
बच्चा सो गया था ।
धनिया ने खटोले पर सुला दिया । बूटी ने बच्चे के सिर पर हाथ रक्खा । रुपिया बेनिया
लाकर उसे झलने लगी ।
बूटी ने कहा--ला बेनिया मुझे दे दे ।
`मैं डूला दूँगी तो क्या छोटी हो जाऊँगी ।'
`तू दिन भर यहाँ काम-धंधा करती रही है । थक गई होगी ।'
तुम इतनी भलीमानस हो, और यहाँ लोग कहते थे कि वह बिना गाली के बात नहीं करती ।
मारे डर के तुम्हारे पास न आयी ।'
बूटी मुस्कराई ।
`लोग झूठ तो नहीं कहते ।'
`मैं आँखों की देखी मानूँ कि कानों की सुनी ?'
आज भी रुपिया आँखों में काजल लगाये, पान खाये, रंगीन साड़ी पहने हुए थी; किन्तु आज
बूटी को मालूम हुआ, इस फूल में केवल रंग नहीं, सुगन्ध भी है । उसके मन में रुपिया
से जो घृणा हो गई थी, वह किसी दैवी-मन्त्र से धुल-सी गई । कितनी सुशील लड़की है,
कितनी लज्जाधुर । बोली कितनी मीठी है । आजकल की लड़कियाँ अपने बच्चों की तो
परवाह नहीं करतीं, दूसरों के लिए कौन मरता है । सारी रात धनिया के लड़के को लिये
जागती रही ! मोहन ने कल की बातें इससे कह तो दी होंगी । दूसरी लड़की होती तो मेरी
ओर से मुँह फेर लेती , मुझे जलाती, मुझसे ऐंठती । इसे तो जैसे कुछ मालूम ही न हो ।
हो सकता है कि मोहन ने इससे कुछ कहा ही न हो । हाँ यही बात है ।
आज रुपिया बूटी को बड़ी सुन्दर लगी । ठीक तो है, अभी शौक-सिंगार न करेगी तो कब
करेगी । शौक-सिंगार इसलिए बुरा लगता है कि ऐसे आदमी अपने भोग-विलास में मस्त रहते
हैं । किसी के घर में आग लग जाय, उनसे मतलब नहीं । उनका काम तो खाली दूसरों को
रिझाना है । जैसे अपने रूप की दूकान सजाए, राह-चलतों को बुलाते हों कि जरा इस दूकान
की सैर भी करते जाइए । ऐसे उपकारी प्राणियों का सिंगार बुरा नहीं लगता नहीं, बल्कि
और अच्छा लगता है ।
इससे मालूम होता है कि इसका रूप जितना सुन्दर है, उतना ही मन भी सुन्दर है; फिर कौन
नहीं चाहता कि लोग उसके रूप का बखान करें । किसे दूसरों की आँखों में खुब जाने की
लालसा नहीं होती ? बूटी का योवन कब का विदा हो चुका; फिर भी यह लालसा उसे बनी हुई
है । कोई उसे रस-भरी आँखों से देख लेता है, तो उसका मन कितना प्रसन्न हो जाता है ।
जमीन पर पाँव नहीं पड़ते; फिर रूपा तो अभी जवान है ।
उस दिन से रूपा प्रायः दो-एक बार नित्य बूटी के घर आती । बूटी ने मोहन से आग्रह कर
उसके लिए एक अच्छी-सी साड़ी मँगवा दी । अगर रूपा कभी बिना काजल लगाये या बेरंगी
साड़ी पहने आ जाती, तो बूटी कहती--बहू-बेटियों का यह जोगिया भेस अच्छा नहीं लगता
है । यह भेस तो हम-जैसी बुढ़ियों के लिए है ।
रूपा ने एक दिन कहा--तुम बूढ़ी काहे से हो गयीं अम्माँ ! लोगों को इशारा मिल जाय,
तो भौंरों की तरह तुम्हारे ऊपर मँडराने लगें । मेरे दादा तो तुम्हारे द्वार पर धरना
देने लगें ।
बूटी ने तिरस्कार से कहा--चल, मै तेरी माँ की सौत बनकर जाऊँगी ।
`अम्माँ तो बूढ़ी हो गयीं !
`तो क्या तेरे दादा अभी जवान बैठे हैं ?'
`हा ऐया, बड़ी अच्छी मिट्टी है उनकी ।'
बूटी ने उसकी ओर रस-भरी आँखों से देखकर पूछा - अच्छा बता, मोहन से तेरा ब्याह कर
दूँ ?
रूपा लजा गयी । मुख पर गुलाब की आभा दौड़ गयी ।
आज मोहन दूध बेचकर लौटा तो बूटी ने कहा - कुछ रुपये-पैसे जुटा मैं रूपा से तेरी बात
चीत कर रही हूँ ।

................................................................................



दिल की रानी


- लेखक - मुंशी प्रेमचंद


------------------


जिन वीर तुर्कों के प्रखर प्रताप से ईसाई-दुनिया काँप रही थी, उन्हीं का रक्त आज
कुस्तुन्तुनिया की गलियों में बह रहा है । वही कुस्तुन्तुनिया, जो सौ साल पहले
तुर्कों के आतंक से आहत हो रहा था, आज उनके गर्म रक्त से अपना कलेजा ठण्डा कर रहा
है । सत्तर हजार तुर्क योद्धाओं की लाशे बासफरस की लहरों पर तैर रही हैं और तुर्की
सेनापति एक लाख सिपाहियों के साथ तैमूरी तेज के सामने अपनी किस्मत का फैसला सुनने
के लिए खड़ा है ।
तैमूर ने विजय भरी आँखें उठाईं और सेनापति यज्रदानी की ओर देखकर सिंह के समान गरजा-
क्या चाहते हो जिन्दगी या मौत ?
यज्रदानी ने गर्व से सिर उठाकर कहा - इज्जत की जिन्दगी मिले तो जिन्दगी, वरना मौत ।
तैमूर का क्रोध प्रचण्ड हो उठा । उसने बड़े-बड़े अभिमानियों का सिर नीचा कर दिया था
यह जवाब इस अवसर पर सुनने की उसे ताब न थी । इन एक लाख आदमियों की जान उसकी
मुट्ठी में है । उन्हें वह एक क्षण में मसल सकता है । उस पर भी इतना अभिमान । इज्जत
की जिन्दगी ! इसका यही तो अर्थ है कि गरीबों का जीवन अमीरों के भोग-विलास पर बलिदान
किया जाय, वही शराब की मजलिसें जमें, वही अरमीनियाँ और काफ की परियाँ...नहीं,
तैमूर ने खलीफा बायजीद का घमण्ड इसलिए नहीं तोड़ा है कि तुर्कों को फिर उस मदान्ध
स्वाधीनता में इस्लाम का नाम डुबाने को छोड़ दे । तब उसे इतना रक्त बहाने की जरूरत
थी ! मानव-रक्त का प्रवाह संगीत का प्रवाह नहीं, रस का प्रवाह नहीं - एक वीभत्स
दृश्य है, जिसे देखकर आँखें मुँह फेर लेती हैं, हृदय सिर झुका लेता है । तैमूर कोई
हिंसक पशु नहीं है, जो यह दृश्य देखने के लिए अपने जीवन की बाजी लगा दे ।
वह अपने शब्दों में धिक्कार भरकर बोला--जिसे तुम इज्जत की जिन्दगी कहते हो, वह
गुनाह और जहन्नुम की जिन्दगी है ।
यजदानी को तैमूर से दया या क्षमा की आशा न थी । उसकी या उसके योद्धाओं की जान किसी
तरह नहीं बच सकती । फिर क्यों दबे और क्यों न जान पर खेलकर तैमूर के प्रति उसके मन
में जो घृणा है, उसे प्रकट कर दे । उसने एकबार कातर नेत्रों से उस रूपवान युवती की
ओर देखा, जो उसके पीछे खड़ा जैसे अपनी जवानी की लगाम खींच रहा था । सान पर चढ़े हुए
इस्पात के समान अंग-अंग से अतुल क्रोध की चिन्गारियाँ निकल रही थीं ।यजदानी ने उसकी
सूरत देखी और जैसे अपनी खींची हुई तलवार म्यान में कर ली और खून के घूँट पीकर बोला-
जहाँपनाह इस वक्त फतहमंद हैं, लेकिन अपराध क्षमा हो तो कह दूँ कि अपने जीवन के विषय
में तुर्कों को तातारियों से उपदेश लेने की जरूरत नहीं पड़ी । दुनिया से अलग, तातार
के ऊसर मैदानों में , त्याग और व्रत की उपासना की जा सकती है और न मयस्सर होनेवाले
पदार्थों का बहिष्कार किया जा सकता है; पर जहाँ खुदा ने नेमतों की वर्षा की हो,
वहाँ उन नेमतों को भोग न करना नाशुक्री है । अगर तलवार ही सभ्यता की सनद होती, तो
गाल कौम रोमनों से कहीं ज्यादा सभ्य होती ।
तैमूर जोर से हँसा और उसके सिपाहियों ने तलवारों पर हाथ रख लिये । तैमूर का ठहाका
मौत का ठहाका था, या गिरनेवाले वज्र का तड़ाका ।
`तातारवाले पशु हैं, क्यों ?'
`मैं यह नहीं कहता ।'
`तुम कहते हो, खुदा ने इन्सान को बन्दगी के लिए पैदा किया है और इसके खिलाफ जो कोई
कुछ करता है, वह काफिर है, जहन्नुमी है । रसूलेपाक हमारी जिन्दगी को पाक करने के
लिए आये थे, हमें सच्चा इन्सान बनाने के लिये आये थे, हमें हराम की तालीम देने
नहीं ! तैमूर दुनिया को इस कुफ्र से पाक कर देने का बीड़ा उठा चुका है । रसूलेपाक
के कदमों की कसम; मैं बेरहम नहीं हूँ, जालिम नहीं हूँ, खूँख्वार नहीं हूँ; लेकिन
कुफ्र की सजा मेरे ईमान में मौत के सिवा कुछ नहीं है ।'
उसने तातारी सिपहसालार की तरह कातिल नजरों से देखा और तत्क्षण एक-देव-सा आदमी
तलवार सौंतकर यजदानी के सिर पर आ पहुँचा ।
तातारी सेना भी तलवारें खींच-खींचकर तुर्की सेना पर टूट पड़ी और दम-के-दम में कितनी
ही लाशें जमीन पर फड़कने लगीं ।

(2)


सहसा वहीं रूपवान युवक, जो यजदानी के पीछे खड़ा था, आगे बढ़कर तैमूर के सामने आया
और जैसे मौत को अपनी बँधी हुई मुट्ठियों में मसलता हुआ बोला-ऐ अपने को मुसलमान कहने
वाले बादशाह ! क्या यही वह इस्लाम है, जिसकी तबलीग का तूने बीड़ा उठाया है ? इस्लाम
की यही तालीम है कि तू उन बहादुरों का इस बेदर्दी से खून बहाये, जिन्होंने इसके
सिवा कोई गुनाह नहीं किया कि अपने खलीफा और अपने मुल्क की हिमायत की ।
चारों तरफ सन्नाटा छा गया । एक युवक , जिसकी अभी मसें न भीगी थीं, तैमूर जैसे
तेजस्वी बादशाह का इतने खुले हुए शब्दों में तिरस्कार करे और उसकी जबान तालू से न
खिंचवा ली जाय ! सभी स्तम्भित हो रहे थे और तैमूर सम्मोहित-सा बैठा उस युवक की
ओर ताक रहा था ।
युवक की तातारी सिपाहियों की तरफ, जिनके चेहरों पर कुतूहलमय प्रोत्साहन झलक रहा था,
देखा और बोला - तू इन मुसलमानों को काफिर कहता है और समझता है कि तू इन्हें कत्ल
करके खुदा और इस्लाम की खिदमत कर रहा है । मैं तुझसे पूछता हूँ, अगर वह लोग खुदा के
सिवा और किसी के सामने सिजदा नहीं करते, जो रसूलेपाक को अपना रहबर समझते हैं,
मुसलमान नहीं हैं तो कौन मुसलमान है ? मैं कहता हूँ, हम काफिर सही, लेकिन तेरे कैदी
तो है ? क्या इस्लाम जंजीर में बँधें हुए कैदियों के कत्ल की इजाजत देता है ? खुदा
ने अगर मुझे ताकत दी है, अख्तियार दिया है, तो क्या इसलिए कि तू खुदा के बन्दों का
खून बहाये ? क्या गुनहगारों को कत्ल करके उन्हें सीधेरास्ते पर ले जायगा ? तूने
कितनी बेरहमी से सत्तर हजार बहादुर तुर्कों को धोखा देकर सुरंग से उड़वा दिया, और
उनके मासूम बच्चों और निरपराध स्त्रियों को अनाथ कर दिया, तुझे कुछ अनुमान है ?
क्या यही कारनामे हैं, जिन पर तू अपने को मुसलमान होने का गर्व करता है ? क्या इसी
कत्ल, खून और जुल्म की सियाही से तू दुनिया में अपना नाम रोशन करेगा ? तूने तुर्कों
के खून बहते दरिया में अपने घोड़ों के सुम नहीं भिगाये है, बल्कि इस्लाम को जड़ से
खोदकर फेंक दिया है ।
यह वीर तुर्कों का ही आत्मोत्सर्ग है, जिसने यूरोप में इस्लाम की तौहीद फैलाई । आज
सोफिया के गिरजे में तुझे अल्लाहो अकबर की सदा सुनाई दे रही है, सारा यूरोप इस्लाम
का स्वागत करने को तैयार है । क्या ये कारनामे इसी लायक हैं कि उनका यह इनाम मिले ?
इस खयाल को दिल से निकाल दे कि तू खूँरेजी से इस्लाम की खिदमत कर रहा है । एक दिन
तुझे भी परवरदिगार के सामने अपने कर्मों का जवाब देना पड़ेगा और तेरा कोई उज्र न
सुना जायगा; क्योंकि अगर तुझमें अब भी नेक और बद की तमीज बाकी है, तो अपने दिल से
पूछ ! तूने यह जिहाद खुदा की राह में किया या अपनी हविस के लिए, और मैं जानता हूँ
तुझे जो जवाब मिलेगा, वह तेरी गर्दन शर्म से झुका देगा ।
खलीफा अभी सिर झुकाये ही था कि यजदानी ने काँपते हुए शब्दों में अर्ज की--जहाँपनाह,
यह गुलाम का लड़का है । इसके दिमाग में कुछ फितूर है । हुजूर इसकी गुस्ताखियों को
मुआफ करें । मैं उसकी सजा झेलने को तैयार हूँ ।
तैमूर उस युवक के चेहरे की तरफ स्थिर नेत्रों से देख रहा था । आज जीवन में पहली बार
उसे ऐसे निर्भीक शब्दों के सुनने का अवसर मिला । उसके सामने बड़े-बड़े सेनापतियों,
मन्त्रियों और बादशाहों की जबान न खुलती थी । वह जो कुछ करता या कहता था, वही कानून
था, किसी को उसमें चूँ करने की ताकत न थी । उनकी खुशामदों ने उसकी अहम्मन्यता को
आसमान पर चढ़ा दिया था । उसे विश्वास हो गया था कि खुदा ने उसे इस्लाम को जगाने और
सुधारने के लिए ही उसे दुनिया में भेजा है । उसने पैगम्बरी का दावा तो नहीं किया
था; पर उसके मन में यह भावना दृढ़ हो गयी थी; इसलिए जब आज एक युवक ने प्राणों
का मोह छोड़ उसकी कीर्ति का पर्दा खोल दिया तो उसकी चेतना जैसे जाग उठी । उसके मन
में क्रोध और हिंसा की जगह श्रद्धा का उदय हुआ । उसकी आँखों का एक इशारा इस युवक
की जिन्दगी का चिराग गुल कर सकता था । उसकी संसार-विजयनी शक्ति के सामने यह दुध
मुँहा बालक मानो अपने नन्हें-नन्हें हाथों से समुद्र के प्रवाह को रोकने के लिए
खड़ा हो । कितना हास्यास्पद साहस था; पर उसके साथ ही कितना आत्मविश्वास से भरा
हुआ । तैमूर को ऐसा जान पड़ा कि इस निहत्थे बालक के सामने वह कितना निर्बल है ।
मनुष्य में ऐसे साहस का एक ही स्रोत हो सकता है और वह सत्य पर अटल विश्वास है ।
उनकी आत्मा दौड़कर उस युवक के दामन में चिमट जाने के लिए अधीर हो गयी; वह दार्शनिक
न था, जो सत्य में भी शंका करता है । वह सरल सैनिक था जो असत्य को भी अपने विश्वास
से सत्य बना देता है ।
यजदानी ने उसी स्वर से कहा--जहाँपनाह इसकी बदजबानी का खयाल न फरमावें ।...
तैमूर ने तुरन्त तख्त से उठकर यजदानी को गले लगा लिया और बोला-काश, ऐसी गुस्ताखियों
और बदजबानियों के सुनने का इत्तफाक होता, तो आज इतने बेगुनाहों का खून मेरी
गर्दन पर न होता । मुझे इस जवान में किसी फरिश्ते की रूह का जलवा नजर आता है, जो
मुझ जैसे गुमराहों को सच्चा रास्ता दिखाने के लिए भेजी गयी है । मेरे दोस्त, तुम
खुशनसीब हो कि ऐसे फरिश्ता-सिफत बेटे के बाप हो । क्या मैं उसका नाम पूछ सकता हूँ ?
यजदानी पहले आतशपरस्त था, पीछे मुसलमान हो गया था; पर अभी तक कभी-कभी उसके मन
में शंकाएँ उठती रहती थीं कि उसने क्यों इस्लाम कबूल किया । जो कैदी फाँसी के तख्ते
पर खड़ा सूखा जा रहा था कि एक क्षण में रस्सी उसकी गर्दन में पड़ेगी और वह लटकता रह
जायगा; उसे जैसे किसी फरिश्ते ने गोद में ले लिया । वह गद्गद कण्ठ से बोला - उसे
हबीब कहते हैं ।
तैमूर ने युवक के सामने जाकर उसका हाथ पकड़ लिया और उसे आँखों से लगाता हुआ बोला--
मेरे जवान दोस्त, तुम सचमुच खुदा के हबीब हो । मैं वह गुनहगार हूँ;जिसने अपनी जहालत
में हमेशा अपने गुनाहों को सवाब समझा, इसलिए कि मुझसे कहा जाता था, तेरी जात बेऐब
है । आज मुझे मालूम हुआ कि मेरे हाथों इस्लाम को कितना नुकसान पहुँचा । आज से मैं
तुम्हारा ही दामन पकड़ता हूँ । तुम्हीं मेरे खिज्र; तुम्हीं मेरे रहनुमा हो । मुझे
यकीन हो गया कि तुम्हारे ही वसीले से मैं खुदा के दरगाह तक पहुँच सकता हूँ ।
यह कहते हुए उसने युवक के चेहरे पर नजर डाली, तो उस पर शर्म की लाली छायी हुयी
थी । उस कठोरता की जगह मधुर संकोच झलक रहा था ।
युवक ने सिर झुकाकर कहा--यह हुजूर की कदरदानी है, बरना मेरी क्या हस्ती है !
तैमूर ने उसे खींचकर अपनी बगल में तख्त पर बैठा दिया और अपने सेनापति को हुक्म
दिया, सारे तुर्क कैदी छोड़ दिये जायँ, उनके हथियार वापस कर दिये जायँ और जो माल
लूटा गया है, वह सिपाहियों में बराबर बाँट दिया जाय ।
वजीर तो इधर इस हुक्म की तामील करने लगा, उधर तैमूर हबीब का हाथ पकड़े हुए अपने
खेमे में गया और दोनों मेहमानों की दावत का प्रबन्ध करने लगा । और जब भोजन समाप्त
हो गया, तो उसने अपने जीवन की सारी कथा रो-रोकर सुनायी, जो आदि से अन्त तक मिश्रित
पशुता और बर्बरता के कृत्यों से भरी हुई थी । और उसने यह सब कुछ इस भ्रम में किया
कि वह खुदा को कौन मुँह दिखायेगा ? रोते-रोते उसकी हिचकियाँ बँध गयीं ।
अन्त में उसने हबीब से कहा--मेरे जवान दोस्त, अब मेरा बेड़ा आप ही पार लगा सकते हैं
आपने मुझे राह दिखाई है तो मञ्जिल पर पहुँचाइए । मेरी बादशाहत को अब आप ही सँभाल
सकते हैं । मुझे अब मालूम हो गया कि मैं उसे तबाही के रास्ते पर लिये जाता था ।
मेरी आप से यही इल्तमास (प्रार्थना) है कि आप उसकी वजारत कबूल करें । देखिए, खुदा
के लिए इन्कार न कीजिए, वरना मैं कहीं का न रहूँगा ।
यजदानी ने अरज की--हुजूर, इतनी कदरदानी फरमाते हैं, यह आपकी इनायत है, लेकिन अभी
इस लड़के की उम्र ही क्या है । वजारत की खिदमत यह क्या अञ्जाम दे सकेगा ? अभी तो
इसकी तालीम के दिन हैं ।
इधर से इन्कार होता रहा और उधर तैमूर आग्रह करता रहा । यजदानी इन्कार तो कर रहे थे;
पर छाती फूली जाती थी । मूसा आग लेने गये थे, पैगम्बरी मिल गयी । कहाँ मौत के मुँह
में जा रहे थे, वजारत मिल गयी । लेकिन यह शंका भी थी कि ऐसे अस्थिर-चित्त आदमी का
क्या ठिकाना ? आज खुश हुए, वजारत देने को तेयार हैं, कल नाराज हो गये, तो जान की
खैरियत नहीं । उन्हें हबीब की लियाकत पर भरोसा था, फिर भी जी डरता था कि बिराने देश
में न जाने कैसी पड़े, कैसी न पड़े । दरबारवालों में षड़यन्त्र होते ही रहते हैं ।
हबीब नेक है, समझदार है, अवसर पहचानता है , लेकिन वह तजरबा कहाँ से लायेगा, जो उम्र
ही से आता है ।
उन्होंने इस प्रश्न पर विचार करने के लिए एक दिन की मुहलत माँगी और रुखसत हुए ।

(3)


हबीब यजदानी का लड़का नहीं, लड़की थी । उसका नाम उम्मतुल हबीब था । जिस वक्त यजदानी
और उसकी पत्नी मुसलमान हुए, तो लड़की की उम्र कुल बारह साल की थी; पर प्रकृति ने
उसे बुद्धि और प्रतिभा के साथ विचार स्वातन्त्र्य भी प्रदान किया था । वह जब तक
सत्यासत्य की परीक्षा न कर लेती, कोई बात स्वीकार न करती । माँ-बाप के धर्म-
परिवर्तन से उसे अशान्ति तो हुई ; पर जब तक इन्तजाम का अच्छी तरह अध्ययन न कर ले,
वह केवल माँ-बाप को खुश करने के लिए इस्लाम की दीक्षा न ले सकती थी । माँ-बाप भी उस
पर किसी तरह का दबाब न डालना चाहते थे । जैसे उन्हें अपने धर्म को बदल देने का
अधिकार है, वैसे ही उसे अपने धर्म पर आरूढ़ रहने का भी अधिकार है । लड़की को संतोष
हुआ । लेकिन उसने इस्लाम और जरतुश्त धर्म-दोनों ही का तुलनात्मक अध्यन आरम्भ किया,
और पूरे दो साल के अन्वेषण और परीक्षण के बाद उसने भी इस्लाम की दीक्षा ले ली ।
माता-पिता फूले न समाये । लड़की उनके दबाव से मुसलमान नहीं हुई है; बल्कि स्वेच्छा
से, स्वाध्याय से और ईमान से । दो साल तक उन्हें जो शंका घेरे रहती थी, वह मिट
गयी ।
यजदानी के कोई पुत्र न था और उस युग में, जब कि आदमी की तलवार ही सबसे बड़ी अदालत
थी, पुत्र का न रहना संसार का सबसे बड़ा दुर्भाग्य था । यजदानी बेटे का अरमान बेटी
से पूरा करने लगा । लड़कों की ही भाँति उसकी शिक्षा-दीक्षा होने लगी । बालकों के-से
कपड़े पहनती, घोड़े पर सवार होती, शस्त्र-विद्या सीखती और अपने बाप के साथ अक्सर
खलीफा बायजीद के महलों में जाती और राजकुमारों के साथ शिकार खेलने जाती । इसके
साथ ही वह दर्शन, काव्य, विज्ञान और अध्यात्म का भी अभ्यास करती थी । यहाँ तक कि
सोलहवें वर्ष में वह फौजी विद्यालय में दाखिल हो गयी और दो साल के अन्दर वहाँ की
सबसे ऊँची परीक्षा पास करके फौज में नौकर हो गयी ।
शस्त्र-विद्या और सेना-संचालन कला में वह इतनी निपुण थी और खलीफा बायजीद उसके
चरित्र से इतना प्रसन्न था कि पहले ही पहल उसे एक हजारी मन्सब मिल गया । ऐसी युवती
के चाहने वालों की क्या कमी ? उसके साथ के कितने ही अफसर ; राज-परिवार के कितने
ही युवक उस पर प्राण देते थे; पर कोई उसकी नजरों में न जँचता था । नित्य ही निकाह
के पैगाम आते रहते थे; पर वह हमेशा इन्कार कर देती थी । वैवाहिक जीवन ही से उसे
अरुचि थी । उसकी स्वाधीन प्रकृति इस बन्धन में न पड़ना चाहती थी । फिर नित्य ही वह
देखती थी कि युवतियाँ कितने अरमानों से ब्याह कर लायी जाती हैं और फिर कितने निरादर
से महलों में बन्द कर दी जाती हैं । उनका भाग्य पुरुषों की दया के अधीन है । अक्सर
ऊँचे घराने की महिलाओं से उसको मिलने-जुलने का अवसर मिलता था । उनके मुख से उनकी
कथा सुन-सुनकर वह वैवाहिक पराधीनता से और भी घृणा करने लगती थी । और यजदानी
उसकी स्वाधीनता में बिलकुल बाधा न देता था । लड़की स्वाधीन है ।
उसकी इच्छा हो विवाह करे या क्वाँरी रहे, वह अपनी आप मुख्तार है । उसके पास पैगाम
आते, तो वह साफ जवाब दे देता--मैं इस बारे में कुछ नहीं जानता; इसका फैसला वही
करेगी । यद्यपि एक युवती का पुरुष वेष में रहना, युवकों से मिलना-जुलना समाज में
आलोचना का विषय था; पर यजदानी और उसकी स्त्री दोनों ही को उसके सतीत्व पर विश्वास
था । हबीब के व्यवहार और आचार में उन्हें कोई ऐसी बात नजर न आती थी, जिससे उन्हें
किसी तरह की शंका होती । यौवन की आँधी और लालसाओं के तूफान में भी वह चौबीस वर्षों
की वीरबाला अपने हृदय की सम्पत्ति लिये अटल और अजेय खड़ी थी, मानो सभी युवक उसके
सगे भाई हैं ।

(4)


कुस्तुन्तुनिया में कितनी खुशियाँ मनायी गयीं, हबीब का कितना सम्मान और स्वागत हुआ,
उसे कितनी बधाइयाँ मिलीं; यह सब लिखने की बात नहीं । शहर तबाह हुआ जाता था ।
सम्भव था, आज उसके महलों और बाजारों से आग की लपटें निकलती होतीं ।
राज्य और नगर को उस कल्पनातीत विपत्ति से बचानेवाला आदमी कितने आदर, प्रेम, श्रद्धा
और उल्लास का पात्र होगा; इसकी तो कल्पना भी नहीं की जा सकती । उस पर कितने फूलों
और कितने लाल और जवाहर की वर्षा हुई, इसका अनुमान तो कोई कवि ही कर सकता है ।
और नगर की महिलाएँ हृदय के अक्षय भण्डार से असीसें निकाल निकाल कर उस पर लुटाती थीं
और गर्व से फूली हुई उसका मुख निहारकर अपने को धन्य मानती थीं । उसने देवियों का
मस्तक ऊँचा कर दिया था ।
रात को तैमूर के प्रस्ताव पर विचार होने लगा । सामने गद्देदार कुर्सी पर यजदानी था-
सौम्य, विशाल, तेजस्वी । उसकी दाहिनी तरफ उसकी पत्नी थी, ईरानी लिबास में, आँखों
में दया और विश्वास की ज्योति भरे हुए । बायीं तरफ उम्मतुल हबीब थी, जो इस समय रमणी
-वेष में मोहनी बनी हुई थी, ब्रह्मचर्य के तेज से दीप्त ।
यजदानी ने प्रस्ताव का विरोध करते हुए कहा--मैं अपनी तरफ से कुछ नहीं कहना चाहता,
लेकिन यदि मुझे सलाह देने का अधिकार है, तो मैं स्पष्ट कहता हूँ कि तुम्हें इस
प्रस्ताव को कभी स्वीकार न करना चाहिए । तैमूर से यह बात बहुत दिन तक छिपी नहीं रह
सकती कि तुम क्या हो । उस वक्त क्या परिस्थिति होगी, मैं नहीं कह सकता । और यहाँ इस
विषय में जो कुछ टीकाएँ होंगी, वह मुझसे ज्यादा जानती हो । यहाँ मैं मौजूद था और
कुत्सा को मुँह न खोलने देता था ; पर वहाँ तुम अकेली रहोगी और कुत्सा को मनमाने
आरोप करने का अवसर मिलता रहेगा ।
उसकी पत्नी स्वेच्छा को इतना महत्व न देना चाहती थी । बोली--मैंने सुना है, तैमूर
निगाहों का अच्छा आदमी नहीं है । मैं किसी तरह तुझे न जाने दूँगी । कोई बात हो जाय
तो सारी दुनिया हँसे । योंही हँसनेवाले क्या कम हैं ?
इसी तरह स्त्री-पुरुष बड़ी देर तक ऊँच-नीच सुझाते और तरह-तरह की शंकाएँ करते रहे;
लेकिन हबीब मौन साधे बैठी हुई थी । यजदानी ने समझा, हबीब भी उनसे सहमत है । इन्कार
की सूचना देने के लिए ही था कि हबीब ने पूछा--आप तैमूर से क्या कहेंगे ?
`यही, जो यहाँ तय हुआ है ।'
`मैने तो अभी कुछ नहीं कहा ।'
`मैंने तो समझा, तुम भी हमसे सहमत हो ।'
`जी नहीं । आप उनसे जाकर कह दें, मैं स्वीकार करती हूँ ।'
माता ने छाती पर हाथ रखकर कहा--यह क्या गजब करती है बेटी, सोच तो दुनिया
क्या कहेगी ?
यजदानी भी सिर थाम कर बैठ गये, मानो हृदय में गोली लग गयी हो । मुँह से एक शब्द
भी न निकला ।
हबीब त्योरियों पर बल डाल कर बोली - अम्मीजान, मैं आपके हुक्म से जी-भर भी मुँह
नहीं फेरना चाहती । आपको पूरा अख्तियार है, मुझे जाने दें या न जाने दें, लेकिन
खल्क की खिदमत का ऐसा मौका शायद मुझे जिन्दगी में फिर न मिले । इस मौके को हाथ से
खो देने का अफसोस मुझे उम्र भर रहेगा । मुझे यकीन हे कि अमीर तैमूर को मैं अपनी
दियानत, बेगरजी और सच्ची वफादारी से इन्सान बना सकती हूँ और शायद उसके हाथों खुदा
के बन्दों का खून इतनी कसरत से न बहे । वह दिलेर है; मगर बेरहम नहीं ! कोई दिलेर
आदमी बेरहम नहीं हो सकता । उसने अब तक जो कुछ किया है; मजहब के अन्धे जोश में
किया है । आज खुदा ने मुझे वह मौका दिया है कि मैं उसे दिखा दूँ कि मजहब खिदमत का
नाम है, लूट और कत्ल का नहीं । अपने बारे में मुझे मुतलक अन्देशा नहीं है । मैं
अपनी हिफाजत आप कर सकती हूँ । मुझे दावा है कि अपने फर्ज की नेकनीयती से अदा
करके मैं दुश्मनों की जबान भी बन्द कर सकती हूँ और मान लीजिए मुझे नाकामी भी हो, तो
क्या सचाई और हक के लिए कुर्बान हो जाना जिन्दगी की सबसे शानदार फतह नहीं है ?
अब तक मैंने जिस उसूल पर जिन्दगी बसर की है, उसने मुझे धोखा नहीं दिया और उसी के
फैज से आज मुझे यह दर्जा हासिल हुआ है जो बड़े-बड़ों के लिए जिन्दगी का ख्वाब है ।
ऐसे आजमाये हुए दोस्त मुझे कभी धोखा नहीं दे सकते । तैमूर पर मेरी हकीकत खुल भी
जाय, तो क्या खौफ ? मेरी तलवार मेरी हिफाजत कर सकती है । शादी पर मेरे खयाल आपको
मालूम हैं । अगर मुझे कोई ऐसा आदमी मिलेगा, जिसे मेरी रूह कबूल करती हो, जिसकी
जात अपनी हस्ती को खोकर मैं अपनी रूह को ऊँचा उठा सकूँ, तो मैं उसके कदमों
पर गिरकर अपने को उसकी नजर कर दूँगी ।
यजदानी ने खुश होकर बेटी को गले लगा लिया । उसकी स्त्री इतनी जल्द आश्वस्त न हो
सकी । वह किसी तरह बेटी को अकेली न छोड़ेगी । उसके साथ वह भी जायगी ।

(5)


कई महीने गुजर गये । युवक हबीब तैमूर का वीर है, लेकिन वास्तव में वही बादशाह है ।
तैमूर उसी की आँखों से देखता है, उसी के कानों से सुनता है और उसी की अक्ल से
सोचता है । वह चाहता है, हबीब आठों पहर उसके पास रहे । उसके सामीप्य में, उसे
स्वर्ग का-सा सुख मिलता है । समरकन्द में एक प्राणी भी ऐसा नहीं, जो उससे जलता हो ।
उसके बर्ताव ने सभी को मुग्ध कर लिया है, क्योंकि वह इन्साफ से जौ भर भी कदम नहीं
हटाता । जो लोग उसके हाथों चलती हुई न्याय की चक्की में पिस जाते हैं, वे भी उससे
सद्भाव ही रखते हैं, क्योंकि वह न्याय को जरूरत से ज्यादा कटु नहीं होने देता ।
सन्ध्या हो गयी थी । राज्य कर्मचारी जा चुके थे । शमादान में मोम की बत्तियाँ जल
रही थीं । अगर की सुगन्ध से सारा दीवान महक रहा था ।हबीब भी उठने ही को था कि
चोबदार ने खबर दी- हुजूर, जहाँपनाह तशरीफ ला रहे हैं ।
हबीब इस खबर से कुछ प्रसन्न नहीं हुआ । अन्य मंत्रियों की भाँति वह तैमूर की सोहबत
का भूखा नहीं है । वह हमेशा तैमूर से दूर रहने की चेष्टा करता है । ऐसा शायद ही कभी
हुआ हो कि उसने शाही दस्तरखान पर भोजन किया हो । तैमूर की मजलिसों में भी वह कभी
शरीक नहीं होता । उसे जब शांति मिलती है, तब एकान्त में अपनी माता के पास बैठकर दिन
भर का माजरा उससे कहता है और वह उस पर अपनी पसन्द की मुहर लगा देती है ।
उसने द्वार पर जाकर तैमूर का स्वागत किया । तैमूर ने मसनद पर बैठते हुए कहा--मुझे
ताज्जुब होता है कि तुम इस जवानी में जाहिदों की-सी जिन्दगी कैसे बसर करते हो हबीब!
खुदा ने तुम्हें वह हुस्न दिया है कि हसीन-से-हसीन नाजनीन भी तुम्हारी माशूक बनकर
अपने को खुशनसीब समझेंगी । मालूम नहीं तुम्हें खबर है या नहीं, जब तुम अपने मुश्की
घोड़े पर सवार होकर निकलते हो, तो समरकन्द की खिड़कियों पर हजारों आँखें तुम्हारी
एक झलक देखने के लिए मुन्तजिर बैठी रहती हैं, पर तुम्हें किसी ने किसी तरफ आँखे
उठाते नहीं देखा ।
मेरा खुदा गवाह है, मैं कितना चाहता हूँ कि तुम्हारे कदमों के नक्शापर चलूँ; पर
दुनिया मेरी गर्दन नहीं छोड़ती । क्यों अपनी पाक जिन्दगी का जादू मुझ पर नहीं डालते
? मैं चाहता हूँ जैसे तुम दुनिया में रहकर भी दुनिया से अलग रहते हो, वैसे मैं भी
रहूँ; लेकिन मेरे पास न वह दिल है, न वह दिमाग । मैं हमेशा अपने आप पर सारी दुनिया
पर दाँत पीसता रहता हूँ । जैसे मुझे हरदम खून की प्यास लगी रहती है, जिसे तुम बुझने
नहीं देते, और यह जानते हुए भी कि तुम जो कुछ करते हो, इससे बेहतर कोई दूसरा नहीं
कर सकता । मैं अपने गुस्से को काबू में नहीं कर सकता । तुम जिधर से निकलते हो,
मुहब्बत और रोशनी फैला देते हो । जिसको तुम्हारा दुश्मन होना चाहिए, वह भी तुम्हारा
दोस्त है । मैं जिधर से निकलता हूँ, नफरत और शुबहा फैलाता हुआ निकलता हूँ । जिसे
मेरा दोस्त होना चाहिए, वह भी मेरा दुश्मन है । दुनिया में बस यही एक जगह है, जहाँ
मुझे आफीयत मिलती है । अगर तुम समझते हो, यह ताज और तख्त मेरे रास्ते के रोड़े हैं
तो खुदा की कसम मैं आज इन पर लात मार दूँ । मैं आज तुम्हारे पास यही दरख्वास्त लेकर
आया हूँ कि तुम मुझे रास्ता दिखाओ, जिससे मैं सच्ची खुशी पा सकूँ । ,मैं चाहता हूँ
तुम इसी महल में रहो ताकि मैं तुमसे सच्ची जिन्दगी का सबक सीखूँ ।
हबीब का हृदय धक् से हो उठा । कहीं अमीर पर उसके नारीत्व का रहस्य खुल तो नहीं
गया ? उसकी समझ में न आया कि उसे क्या जवाब दे । उसका कोमल हृदय तैमूर की इस
करुण आत्मग्लानि पर द्रवित हो गया । जिसके नाम से दुनिया काँपती है, वह उसके सामने
एक दयनीय प्रार्थी बना हुआ उससे प्रकाश की भिक्षा माँग रहा है ! तैमूर की उस कठोर
विकृत, शुष्क, हिंसात्मक मुद्रा में उसे एक स्निग्ध मधुर ज्योति दिखाई दी, मानो
उसका विवेक भीतर से झाँक रहा हो । उसे अपना स्थिर जीवन; जिसमें ऊपर उठने की
स्फूर्ति ही न रही थी, इस विफल उद्योग के सामने तुच्छ जान पड़ा ।
उसने मुग्ध कण्ठ से कहा--हुजूर, इस गुलाम की इतनी कद्र करते है, यह मेरी खुशनसीबी
है; लेकिन मेरा शाही महल में रहना मुनासिब नहीं ।
तैमूर ने पूछा - क्यों
`इसलिए कि जहाँ दौलत ज्यादा होती है, वहाँ डाके पड़ते हैं और जहाँ कद्र ज्यादा होती
है, वहाँ दुशमन भी ज्यादा होते हैं ।'
`तुम्हारा दुश्मन भी कोई हो सकता है ?
`मैं खुद अपना दुश्मन हो जाऊँगा । आदमी का सबसे बड़ा दुश्मन गरूर है ।'
तैमूर को जैसे कोई रत्न मिल गया । उसे अपनी मनःतुष्टि का आभास हुआ । `आदमी का
सबसे बड़ा दुश्मन गरूर है' इस वाक्य को मन-ही-मन दोहराकर उसने कहा--तुम मेरे काबू
में कभी न आओगे हबीब । तुम वह परिन्दे हो, जो आसमान में ही उड़ सकता है । उसे
सोने के पिंजरे में भी रखना चाहो तो फड़फड़ाता रहेगा । खैर, खुदा हाफिज !
वह तुरन्त अपने महल की ओर चला, मानो उस रत्न को सुरक्षित स्थान में रख देना चाहता
हो । यह वाक्य आज पहली बार उसने न सुना था, पर आज इसमें जो ज्ञान, जो आदेश, जो
सद्प्रेरणा उसे मिली, वह कभी न मिली थी ।

(6)


इत्खर के इलाके से बगावत की खबर आयी है । हबीब को शंका है कि तैमूर वहाँ पहुँचकर
कहीं कत्लेआम न कर दे । वह शान्तिमय उपायों से इस विद्रोह को ठण्डा करके तैमूर को
दिखाना चाहता है कि सद्भावना में कितनी शक्ति है । तैमूर उसे इस मुहिम पर नहीं
भेजना चाहता ; लेकिन हबीब के आग्रह के सामने बेबस है । हबीब को जब और कोई युक्ति
न सूझी, तो उसने कहा-गुलाम के रहते हुए हुजूर अपनी जान खतरे में डालें, यह नहीं हो
सकता ।
तैमूर मुस्कराया- मेरी जान की तुम्हारी जान के मुकाबले में कोई हकीकत नहीं है हबीब।
फिर मैंने तो कभी जान की परवाह न की । मैंने दुनिया में कत्ल और लूट के सिवा और
क्या यादगार छोड़ी ? मेरे मर जाने पर दुनिया मेरे नाम को रोयेगी नहीं, यकीन मानो ।
मेरे जैसे लुटेरे हमेशा पैदा होते रहेंगे; लेकिन खुदा न करे, तुम्हारे दुश्मनों को
कुछ हो गया, तो यह सल्तनत खाक में मिल जायगी, और तब मुझे भी सीने में खंजर चुभा
लेने के सिवा और कोई रास्ता नहीं रहेगा । मैं नहीं कह सकता हबीब, तुमसे मैंने कितना
पाया ।
काश, दस-पाँच साल पहले तुम मुझे मिल जाते, तो तैमूर तारीख में इतना रूसियाह न
होता । आज अगर जरूरत पड़े तो अपने जैसे तैमूरों को तुम्हारे ऊपर निसार कर दूँ । यही
समझ लो कि तुम मेरी रूह को अपने साथ लिये जा रहे हो । आज मैं तुमसे कहता हूँ हबीब
कि मुझे तुमसे इश्क है, वह इश्क जो मुझे आज तक किसी हसीना से नहीं हुआ । इश्क क्या
चीज है, इसे मैं अब जान पाया हूँ । मगर इसमें क्या बुराई है कि मैं भी तुम्हारे साथ
चलूँ ?हबीब ने धड़कते हुए हृदय से कहा --अगर मैं आपकी जरूरत समझूँगा तो इत्तला
दूँगा ।
तैमूर ने दाढ़ी पर हाथ रखकर कहा - जैसी तुम्हारी मर्जी; लेकिन रोजाना कासिद भेजते
रहना, वरना शायद मैं बेचैन होकर चला आऊँ ।
तैमूर ने कितनी मुहब्बत से हबीब के सफर की तैयारियाँ कीं । तरह-तरह के आराम और
तकल्लुफ की चीजें उसके लिए जमा कीं । उस कोहिस्तान में यह चीजें कहाँ मिलेगी ।
वह ऐसा संलग्न था, मानो माता अपनी लड़की को ससुराल भेज रही हो ।
जिस वक्त हबीब फौज के साथ चला; तो सारा समरकन्द उसके साथ था । और तैमूर आँखों
पर रूमाल रक्खे, अपने तख्त, पर ऐसा सिर झुकाये बैठा था, मानो कोई पक्षी आहत हो गया
हो ।

(7)


इस्तखर अरमनी ईसाइयों का इलाका था । मुसलमानों ने उन्हें परास्त करके वहाँ अपना अधि
कार जमा लिया था और ऐसै नियम बना दिये थे, जिनसे ईसाइयों को पग-पग पर अपनी पराधीनता
का स्मरण होता रहता था । पहला नियम जजिए का था, जो हरेक को देना पड़ता था, जिससे
मुसलमान मुक्त थे । दूसररा नियम था कि गिर्जों में घण्टा न बजे । तीसरा नियम मदिरा
का था, जिसे मुसलमान हराम समझते थे । ईसाइयों ने इन नियमों का क्रियात्मक विरोध
किया और मुसलमान अधिकारियों ने शस्त्र-बल से काम लेना चाहा, तो ईसाइयों ने बगावत
कर दी, मुसलमान सूबेदार को कैद कर लिया और किले पर सलीबी झण्डा उड़ने लगा ।
हबीब को यहाँ आज दूसरा दिन है; पर इस समस्या को कैसे हल करे ।
उसका उदार हृदय कहता था, ईसाइयों पर इन बन्धनों का कोई अर्थ नहीं,हरेक धर्म का समान
रूप से आदर होना चाहिए । लेकिन मुसलमान इन कैदों को उठा देने पर कभी राजी न होंगे ।
और यह लोग मान भी जायँ तो तैमूर क्यों मानने लगा ? उसके धार्मिक विचारों में कुछ
उदारता आयी है, फिर भी वह इन कैदों को उठाना कभी मंजूर न करेगा । लेकिन क्या वह
इसलिए ईसाइयों को सजा दे कि वे अपनी धार्मिक स्वाधीनता के लिए लड़ रहे हैं । जिसे
वह सत्य समझता है, उसकी हत्या कैसे करे ? नहीं, उसे सत्य का पालन करना होगा,
चाहे इसका नतीजा कुछ भी हो । न अमीर समझेंगे, मैं जरूरत से ज्यादा बढ़ा जा रहा
हूँ । कोई मिजायका नहीं ।
दूरे दिन हबीब ने प्रातःकाल डंके की चोट ऐलान कराया--जजिया माफ किया गया, शराब और
घण्टों पर कोई कैद नहीं है ।
मुसलमानों में तहलका पड़ गया । यह कुफ्र है, हरामपरस्ती है । अमीर तैमूर ने जिस
इस्लाम को अपने खून से सींचा, उसकी जड़ उन्हीं के वजीर हबीब पाशा के हाथों खुद रही
है ! पाँसा पलट गया । शाही फौजें मुसलमानों से जा मिलीं । हबीब ने इस्तखर के किले
में पनाह ली । मुसलमानों की ताकत शाही फौज के मिल जाने से बहुत बढ़ गयी । उन्होंने
किला घेर लिया और यह समझकर कि हबीब ने तैमूर से बगावत की है, तैमूर के पास इसकी
सूचना देने और परिस्थिति समझाने के लिए कासिद भेजा ।

(8)


आधीरात गुजर चुकी थी । तैमूर को दो दिनों से इस्तखर की खबर न मिली थी । तरह-तरह की
शंकाएँ हो रही थीं । मन में पछतावा हो रहा था कि उसने क्यों हबीब को अकेला जाने
दिया । माना कि वह बड़ा नीतिकुशल है; पर बगावत कहीं जोर पकड़ गई, तो मुट्ठी भर
आदमियों से वह क्या कर सकेगा ? और बगावत यकीनन जोर पकड़ेगी । वहाँ के ईसाई बला के
सरकश हैं । जब उन्हें मालूम होगा कि तैमूर की तलवार में जंग लग गया और उसे अब महलों
की जिन्दगी ज्यादा पसन्द है, तो उनकी हिम्मते दूनी हो जायेंगी । हबीब कहीं दुश्मनों
में घिर गया, तो बड़ा गजब हो जायगा ।
उसने अपने जानू पर हाथ मारा और पहलू बदलकर अपने ऊपर झुँझलाया । वह इतना पस्त
-हिम्मत क्यों हो गया ? क्या उसका तेज और शौर्य उससे विदा हो गया ? जिसका नाम सुनकर
दुश्मनों में कम्पन पड़ जाता था, वह आज अपना मुँह छिपाकर महलों में बैठा हुआ है !
दुनिया की आँखों में इसका एक ही अर्थ हो सकता है कि तैमूर अब मैदान का शेर नहीं,
कालीन का शेर हो गया । हबीब फरिश्ता है, इन्सान की बुराइयों से वाकिफ नहीं । जो
रहम और साफदिल और बेगरजी का देवता है, वह क्या जाने इन्सान कितना शैतान हो सकता
है । अमन के दिनों में तो ये बातें कौम और मुल्क को तरक्की के रास्ते पर ले जाती
है, पर जंग में, जब कि शैतानी जोश का तूफान उठता है, इन खूबियों की गुंजाइश नहीं ।
उस वक्त तो उसी की जीत होती है, जो इन्सानी खून का रंग खेले, खेतों खलियानों की
होली जलाये, जंगलों को बसाये और बस्तियों को वीरान करे ! अमन का कानून जंग के
कानून से बिलकुल जुदा है ।
सहसा चोबदार ने इस्तखर से एक कासिद के आने की खबर दी । कासिद ने जमीन चूमी और एक
किनारे अदब से खड़ा हो गया । तैमूर का रौब ऐसा छा गया कि जो कुछ कहने आया था, वह सब
भूल गया ।
तैमूर ने त्योरियाँ चढ़ाकर पूछा--क्या खबर लाया है ? तीन दिन के बाद आया भी तो इतनी
रात गये ?
कासिद ने फिर जमीन चूमी और बोला--खुदाबन्द, वजीर साहब ने जजिया मुआफ कर दिया ।
तैमूर गरज उठा--क्या कहता है; जजिया माफ कर दिया ?
`हाँ खुदाबन्द ।'
`किसने ?'
`वजीर साहब ने ।'
`किसके हुक्म से ?'
`अपने हुक्म से हुजूर ।'
`हूँ !'
`और हुजूर, शराब का, भी हुक्म दे दिया ।'
`हूँ !'
`गिरजों में घण्टे बजाने का भी हुक्म हो गया है ।'
`हूँ!'
`और खुदाबन्द, ईसाइयों से मिलकर मुसलमानों पर हमला कर दिया !'
`तौ मैं क्या करूँ ?'
`हुजूर हमारे मालिक हैं । अगर हमारी कुछ मदद न हुई, तो वहाँ एक मुसलमान भी जिन्दा न
बचेगा ।'
`हबीब पाशा इस वक्त कहाँ है ?'
`इस्तखर के किले में हुजूर ।'
`और मुसलमान क्या कर रहे हैं ?'
`हमने ईसाइयों को किले में घेर लिया है ।'
`उन्हीं के साथ हबीब को भी ?'
`हाँ हुजूर, वह हुजूर से बागी हो गये हैं ।'
`और इसलिए मेरे वफादार इस्लाम के खादिमों ने उन्हें कैद कर रक्खा है । मुमकिन है
मेरे पहुँचते पहुँचते उन्हें कत्ल भी करदें । बदजात,दूर हो जा मेरे सामने से । मुसल
मान समझते हैं, हबीब मेरा नौकर है और मैं उसका आका हूँ । यह गलत है, झूठ है ।
इस सल्तनत का मालिक हबीब है, तैमूर उसका अदना गुलाम है । उसके फैसले में तैमूर
दस्तन्दाजी नहीं कर सकता । बेशक जजिया मुआफ होना चाहिए । मुझे कोई मजाज नहीं कि
दूसरे मजहब वालों से उनके ईमान का तावान लूँ ! कोई मजाज नहीं है; अगर मस्जिद में
अजान होती है तो कलीसा में घण्टा क्यों न बजे ? घण्टे की आवाज में कुफ्र नहीं है ।
सुनता है बदजात ! घण्टे की आवाज में कुफ्र नहीं है । काफिर वह है, जो दूसरों का हक
छीन ले, जो गरीबों को सताये, दगाबाज हो, खुद गरज हो । काफिर वह नहीं, जो मिट्टी या
पत्थर के टुकड़े में खुदा का नूर देखता है; जो नदियों और पहाड़ों में; दरख्तों और
झाड़ियों में, खुदा का जलवा पाता हो । वह हमसे और तुमसे ज्यादा खुदापरस्त है, जो
मस्जिद में खुदा को बन्द समझते हैं । तू समझता है, मैं कुफ्र बक रहा हूँ ? किसी को
काफिर समझना ही कुफ्र है । हम सब खुदा के बन्दे हैं, सब ।
बस जा और उन बागी मुसलमानों से कह दे, अगर फौरन मुहासरा न उठा लिया गया, तो तैमूर
कयामत की तरह आ पहुँचेगा ।'
कासिद हतबुद्धि-सा खड़ा ही था कि बाहर खतरे का बिगुल बज गया और फौजें किसी समर-
यात्रा की तैयारी करने लगीं ।
तीसरे दिन तैमूर इस्तखर पहुँचा, तो किले का मुहासरा उठ चुका था । किले की तोपों ने
उसका स्वागत किया । हबीब ने समझा तैमूर ईसाइयों को सजा देने आ रहा है । ईसाइयों के
हाथ-पाँव फूले हुए थे, मगर हबीब मुकाबले के लिए तैयार था । ईसाइयों के स्वत्व की
रक्षा में यदि उसकी जान भी जाय; तो कोई गम नहीं । इस मुआमले पर किसी तरह का सम
झौता नहीं हो सकता । तैमूर अगर तलवार से काम लेना चाहता है, तो उसका जवाब तलवार से
दिया जायगा ।
मगर यह क्या बात है ! शाही फौज सफेद झण्डा दिखा रही है । तैमूर लड़ने नहीं सुलह
करने आया है । उसका स्वागत दूसरी तरह का होगा । ईसाई सरदारों को साथ लिये हबीब
किले के बाहर निकला । तैमूर अकेला घोड़े पर सवार चला आ रहा था । हबीब घोड़े से उतर
कर आदाब बजा लाया । तैमूर भी घोड़े से उतर पड़ा और हबीब का माथा चूम लिया और
बोला--मैं सब कुछ सुन चुका हूँ हबीब ! तुमने बहुत अच्छा किया और वही किया जो
तुम्हारे सिवा दूसरा नहीं कर सकता था । मुझे जजिया लेने का या ईसाइयों के मजहबी हक
छीनने का कोई मजाज न था । मैं आज दरबार करके इन बातों की तसदीक कर दूँगा और तब
मैं एक ऐसी तजबीज करूँगा, जो कई दिन से मेरे जेहन में आ रही है, और मुझे उम्मीद है
कि तुम उसे मंजूर कर लोगे । मंजूर करना पड़ेगा ।
हबीब के चेहरे का रंग उड़ रहा था । कहीं हकीकत खुल तो नहीं गयी ? वह क्या तजबीज है,
उसके मन में खलबली पड़ गयी ।
तैमूर ने मुस्कराकर पूछा--तुम मुझसे लड़ने को तैयार थे ?
हबीब ने शरमाते हुए कहा--हक के सामने अमीर तैमूर की भी कोई हकीकत नहीं ।
`बेशक, बेशक ! तुममें फरिश्तों का दिल है, तो शेरों कि हिम्मत भी है,
लेकिन अफसोस यही है कि तुमने गुमान ही क्यों किया कि तैमूर तुम्हारे फैसले को
मन्सूख कर सकता है ? यह तुम्हारी जात है, जिसने मुझे बतलाया है कि सल्तनत किसी
आदमी की जायदाद नहीं, बल्कि एक ऐसा दरख्त है जिसकी हरेक शाख और पत्ती एक-सी
खुराक पाती है ।'
दोनों किले में दाखिल हुए । सूरज डूब चुका था । आन-की-आन में दरबार लग गया और उसमें
तैमूर ने ईसाइयों के धार्मिक अधिकारों को स्वीकार किया ।
चारों तरफ से आवाज आयी--खुदा हमारे शहंशाह की उम्र दराज करे ।
तैमूर ने उसी सिलसिले में कहा - दोस्तों, मैं इस दुआ का हकदार नहीं हूँ । जो चीज
मैंने आपसे जबरन छीन ली थी, उसे मैं आपको वापस देकर मैं दुआ का काम नहीं कर रहा हूँ
इससे कहीं ज्यादा मुनासिब यह है कि आप मुझे लानत दें कि मैंने इतने दिनों तक आपके
हकों से आपको महरूम रखा ।
चारों तरफ से आवाज आयी--महरबा ! महरबा !!
`दोस्तों, उन हकों के साथ-साथ मैं आपकी सल्तनत भी आपको वापस करता हूँ; क्योंकि
खुदा की निगाह में सभी इन्सान बराबर हैं और किसी कौम या शख्स को दूसरी कौंम पर
हुकूमत करने का अख्तियार नहीं है । आज से आप अपने बादशाह हैं । मुझे उम्मीद है कि
आप भी मुस्लिम आबादी को उसके जायज हकों से मरहूम न करेंगे । अगर कभी ऐसा मौका
आये कि कोई जाबिर कौम आप की आजादी छीनने कि कोशिश करे, तो तैमूर आपकी मदद करने
को हमेशा तैयार रहेगा ।'
किले में जश्न खतम हो चुका है । उमरा और हुक्काम रुखसत हो चुके हैं । दीवाने-साख
में सिर्फ तैमूर और हबीब रह गये हैं । हबीब के मुख पर आज स्मित हास्य की वह छटा है,
जो सदैव गम्भीरता के नीचे दबी रहती थी । आज उसके कपोलों पर जो लाली, आँखों में जो
नशा, अंगों में जो चंचलता है, वह तो और कभी नजर न आयी थी । वह कई बार तैमूर से
शोखियाँ कर चुका है, कई बार हँसी कर चुका है, उसकी युवती चेतना, पद और अधिकार को
भूलकर चहकती फिरती है ।
सहसा तैमूर ने कहा--हबीब, मैंने आज तक तुम्हारी हरेक बात मानी है ।
अब मैं तुमसे यह तजबीज करता हूँ, जिसका मैंने जिक्र किया, उसे तुम्हें कबूल करना
पड़ेगा ।
हबीब ने धड़कते हुए हृदय से सिर झुकाकर कहा--फरमाइये !
`पहले वादा करो कि तुम कबूल करोगे ।'
`मैं तो आपका गुलाम हूँ !'
`नहीं ,तुम मेरे मालिक हो , मेरी जिन्दगी की रोशनी हो । तुमसे मैंने कितना फैज पाया
है, उसका अन्दाजा नहीं कर सकता । मैंने अब तक सल्तनत को अपनी जिन्दगी की
सबसे प्यारी चीज समझा था । इसके लिए मैंने सब कुछ किया, जो मुझे न करना चाहिए था ।
अपनों के खून से भी इन हाथों को दागदार किया, गैरों के खून से भी । मेरा काम अब
खत्म हो चुका । मैंने बुनियाद जमा दी, इस पर महल बनाना तुम्हारा काम है । मेरी यही
इल्तजा है कि आज से तुम इस बादशाहत के अमीन हो जाओ, मेरी जिन्दगी में भी और मेरे
मरने के बाद भी ।
हबीब ने आकाश में उड़ते हुए कहा--इतना बड़ा बोझ ! मेरे कन्धे इतने मजबूत नहीं हैं ।
तैमूर ने दीन आग्रह के स्वर में कहा--नहीं, मेरे प्यारे दोस्त, मेरी यह इल्तजा
तुम्हें माननी पड़ेगी । हबीब की आँखों में हँसी थी, अधरों पर संकोच । उसने अहिस्ता
से कहा--मंजूर है ।
तैमूर ने प्रफुल्लित स्वर में कहा--खुदा तुम्हें सलामत रखे ।
`लेकिन अगर आपको मालूम हो जाय कि हबीब एक कच्ची अक्ल की क्वाँरी बालिका है तो ?'
`तो वह मेरी बादशाहत के साथ मेरे दिल की भी रानी हो जायगी ।'
`आपको बिलकुल ताज्जुब नहीं हुआ ?'
`मैं जानता था ।'
`कब से ?'
`जब तुमने पहली बार अपनी जालिम आँखों से मुझे देखा ।'
`मगर आपने छिपाया खूब ! !'
`तुम्हीं ने तो सिखाया । शायद मेरे सिवा यहाँ किसी को यह बात मालूम नहीं !
`आपने कैसे पहचान लिया !'
तैमूर ने मतवाली आँखों से देखकर कहा--यह न बताऊँगा ।
यही हबीब तैमूर की `बेगम हमीदा' के नाम से मशहूर है ।

...........................................................................



धिक्कार


- लेखक - मुंशी प्रेमचंद


------------------


अनाथ और विधवा मानी के लिए जीवन में अब रोने के सिवा दूसरा अवलंब न था । वह
पाँच ही वर्ष की थी जब पिता का देहान्त हो गया । माता ने किसी तरह उसका पालन किया ।
सोलह वर्ष की अवस्था में मुहल्लेवालों की मदद से उसका विवाह भी हो गया, पर साल के
अन्दर ही माता और पति दोनों विदा हो गये । इस विपत्ति में उसे अपने चचा वंशीधर के
सिवा और कोई ऐसा नजर न आया जो उसे आश्रय देता । वंशीधर ने अब तक जो व्यवहार किया
था, उससे यह आशा न हो सकती थी कि वहाँ वह शांति के साथ रह सकेगी । पर, वह सब कुछ
सहने और सब करने को तैयार थी । वह गाली, झिड़की, मारपीट सब सह लेगी, कोई उस पर
संदेह तो न करेगा, उस पर मिथ्या लांछन तो न लगेगा, शोहदों और लुच्चों से उसकी रक्षा
होगी । वंशीधर को कुल-मर्यादा की कुछ चिन्ता हुई । मानी की याचना को अस्वीकार न कर
सके ।
लेकिन दो-चार महीनों में ही मानी को मालूम हो गया कि इस घर में बहुत दिनों तक उसका
निबाह न होगा । वह घर का सारा काम करती, इशारों पर नाचती, सबको खुश रखने की कोशिश
करती; पर न जाने क्यों चचा और चची दोनों उससे जलते रहते । उसके आते ही महरी अलग
कर दी गयी । नहलाने-धुलाने के लिए एक लौंडा था, उसे भी जवाब दिया गया । पर मानी से
इतना उबार होने पर भी चचा और चची न जाने क्यों उससे मुँह फुलाये रहते । कभी चचा
घुड़कियाँ जमाते, कभी चची कोसतीं, यहाँ तक कि उसकी चचेरी बहन ललिता भी बात-बात पर
उसे गालियाँ देती । घर-भर में केवल उसके चचरे भाई गोकुल को ही उससे सहानुभूति थी ।
उसी की बातों में कुछ आत्मीयता, कुछ स्नेह का परिचय मिलता था । वह अपनी माता का
स्वभाव जानता था । अगर वह उसे समझाने की चेष्टा करता, या खुल्लम-खुल्ला मानी का
पक्ष लेता, तो मानी को एक घड़ी घर में रहना कठिन हो जाता । इसलिए उसकी सहानुभूति
मानी ही को दिलासा देने तक रह जाती थी ।
वह कहता-- बहन , मुझे कहीं नौकर हो जाने दो, फिर तुम्हारे कष्टों का अन्त हो जायगा
। तब देखूँगा कौन तुम्हें तिर्छी आँखें से देखता है । जब तक पढ़ता हूँ, तभी तक
तुम्हारे बुरे दिन हैं । मानी ये स्नेह में डूबी बातें सुनकर पुलकित हो जाती और
उसका रोआँ-रोआँ गोकुल को आशीर्वाद देने लगता ।

(2)


आज ललिता का विवाह है । सबेरे से ही मेहमानों का आना शुरू हो गया है । गहनों की
झनकार से घर गूँज रहा है । मानी भी मेहमानों को देख-देख कर खुश हो रही है । उसकी
देह पर कोई आभूषण नहीं है और न उसे सुन्दर कपड़े ही दिये गये हैं, फिर भी उसका मुख
प्रसन्न है ।
आधी रात हो गई थी । विवाह का मुहुर्त निकट आ गया । जनवासे से चढ़ावे की चीजें आयीं
सभी औरतें उत्सुक हो-होकर उन चीजों को देखने लगीं । ललिता को आभूषण पहिनाये जाने
लगे । मानी के हृदय में बड़ी इच्छा हुई कि जाकर वधू को देखे । अभी कल जो बालिका थी
उसे आज वधू-वेश में देखने की इच्छा न रोक सकी । वह मुस्कराती हुई कमरे में घुसी।
सहसा उसकी चाची ने झिड़ककर कहा--तुझे यहाँ किसने बुलाया था, निकल जा यहाँ से !
मानी ने बड़ी-बड़ी यातनाएँ सही थीं ; पर आज की वह झिड़की उसके हृदय में बाण की तरह
चुभ गई । उसका मन उसे धिक्कारने लगा । `तेरे छिछोरेपन का यही पुरस्कार है, यहाँ
सुहागिनों के बीच में तेरे आने की क्या जरूरत थी ।' वह खिसीयाई हुई कमरे से निकली
और एकांत में बैठकर रोने के लिए ऊपर जाने लगी । सहसा जीने पर उसकी इन्द्रनाथ से मुठ
भेड़ हो गई इन्द्रनाथ गोकुल का सहपाठी और परम मित्र था । वह भी न्यौते में आया हुआ
था । इस वक्त गोकुल को खोजने के लिए ऊपर आया था । मानी को वह दो-एक बार देख चुका
था और यह भी जानता था कि यहाँ उसके साथ बड़ा दुर्व्यवहार किया जाता है । चची की
बातों की भनक उसके कान में भी पड़ गई थी । मानी को ऊपर जाते देखकर वह उसके चित्त का
भाव समझ गया और उसे सांत्वना देने के लिए ऊपर आया ; मगर दरवाजा भीतर से बन्द था ।
उसने किवाड़ की दरार से भीतर झाँका । मानी मेज के पास खड़ी रो रही थी । उसने धीरे
से कहा-- मानी, द्वार खोल दो !
मानी उसकी आवाज सुनकर कोने में छिप गयी और गम्भीर स्वर में बोली - क्या है ?
इन्द्रनाथ ने गद्गद् स्वर में कहा--तुम्हारे पैरों पड़ता हूँ मानी, खोल दो ।
यह स्नेह में डूबा हुआ विनय मानी के लिए अभूतपूर्व था । इस निर्दय संसार में कोई
उससे ऐसी विनती भी कर सकता है, इसकी उसने स्वप्न में भी कल्पना न की थी । मानी
ने काँपते हुए हाथों से द्वार खोल दिया ।इन्द्रनाथ झपटकर कमरे में घुसा, देखा कि छत
के पंखे के कड़े से एक रस्सी लटक रही है । उसका हृदय काँप उठा । उसने जेब से चाकू
निकाल कर रस्सी काट दी और बोला, क्या करने जा रही थी मानी ? जानती हो इस अपराध
का क्या दंड है ?
मानी ने गर्दन झुकाकर कहा--इस दंड से कोई और दंड कठोर हो सकता है ? जिसकी सूरत से
लोगों को घृणा हो, उसे मरने पर भी अगर कठोर दंड दिया जाय, तो मैं यही कहूँगी कि
ईश्वर के दरबार में न्याय का नाम भी नहीं है । तुम मेरी दशा का अनुभव नहीं कर
सकते ।
इन्द्रनाथ की आँखें सजल हो गयीं ! मानी की बातों में कितना कठोर सत्य भरा हुआ था ।
बोला - सदा ये दिन नहीं रहेंगे मानी । अगर तुम यह समझ रही हो कि संसार में तुम्हारा
कोई नहीं है तो यह तुम्हारा भ्रम है । संसार में कम-से-कम एक मनुष्य ऐसा है जिसे
तुम्हारे प्राण अपने प्राणों से भी प्यारे हैं !
सहसा गोकुल आता हुआ दिखायी दिया । मानी कमरे से निकल गयी । इन्द्रनाथ के शब्दों ने
उसके मन में एक तूफान-सा उठा दिया था । उसका क्या आशय है, यह उसकी समझ में
न आया । फिर भी आज उसे अपना जीवन सार्थक मालूम हो रहा था । जीवन में एक प्रकाश
का उदय हो गया ।

(3)


इन्द्रनाथ को वहाँ बैठे और मानी को कमरे से जाते देखकर गोकुल को खटक गया । उसकी
त्योरियाँ बदल गयीं । कठोर स्वर में बोला - तुम यहाँ कब आये ?
इन्द्रनाथ ने अविचलित भाव से कहा - तुम्हीं को खोजता हुआ यहाँ आया था । तुम यहाँ न
मिले तो नीचे लौटा जा रहा था । अगर मैं चला गया होता तो इस वक्त तुम्हें यह कमरा
बन्द मिलता और पंखे के कड़े में एक लाश लटकती हुई नजर आती ।
गोकुल ने समझा, यह अपने अपराध को छिपाने के लिए कोई बहाना निकाल रहा है । तीव्र कंठ
से बोला - तुम यह विश्वासघात करोगे, मुझे ऐसी आशा न थी ।
इंद्रनाथ का चेहरा लाल हो गया । वह आवेश में आकर खड़ा हो गया और बोला-न मुझे यह आशा
थी कि तुम मुझ पर इतना बड़ा लाँछन रख दोगे । मुझे न मालूम था कि तुम मुझे इतना नीच
और कुटिल समझते हो । मानी तुम्हारे लिए तिरस्कार की वस्तु हो, मेरे लिए श्रद्धा की
वस्तु है और रहेगी । मुझे तुम्हारे सामने अपनी सफाई देने की जरूरत नहीं है ; लेकिन
मानी मेरे लिए उससे कहीं पवित्र है, जितनी तुम समझते हो । मैं नहीं चाहता कि इस
वक्त तुमसे ये बातें कहूँ । इसके लिए और अनुकूल परिस्थितियों की राह देख रहा था;
लेकिन मुआमला आ पड़ने पर कहना ही पड़ रहा है । मैं यह तो जानता था कि मानी का
तुम्हारे घर में कोई आदर नहीं; लेकिन तुम लोग उसे इतना नीच और त्याज्य समझते हो, यह
आज तुम्हारी माता जी की बातें सुनकर मालूम हुआ । केवल इतनी-सी बात के लिए कि वह
चढ़ावे के गहने देखने चली गयी थी, तुम्हारी माता ने उसे इस बुरी तरह झिड़का, जैसे
कोई कुत्ते को भी न झिड़केगा । तुम कहोगे इसे मैं क्या करूँ, मैं कर ही क्या सकता
हूँ । जिस घर में एक अनाथ स्त्री पर इतना अत्याचार हो, उस घर का पानी पीना भी हराम
है । अगर तुमने अपनी माता को पहले ही दिन समझा दिया होता, तो आज यह नौबत न आती ।
तुम इस इलजाम से नहीं बच सकते । तुम्हारे घर में आज विवाह का उत्सव है, मैं
तुम्हारे माता-पिता से कुछ बातचीत नहीं कर सकता; लेकिन तुमसे कहने में कोई संकोच
नहीं है कि मैं मानी को अपनी जीवन-सहचरी बनाकर अपने को धन्य समझूँगा । मैंने समझा
था अपना कोई ठिकाना करके तब यह प्रस्ताव करूँगा, पर मुझे भय है कि और विलम्ब करने
में शायद मानी से हाथ धोना पड़े;
इसलिए तुम्हें और तुम्हारे घरवालों को चिन्ता से मुक्त करने के लिए मैं आज ही वह
प्रस्ताव किये देता हूँ ।
गोकुल के हृदय में इन्द्रनाथ के प्रति ऐसी श्रद्धा कभी न हुई थी । उस पर ऐसा सन्देह
करके वह बहुत ही लज्जित हुआ । उसने यह अनुभव भी लिया कि माता के भय से मैं मानी
के विषय में तटस्थ रहकर कायरता का दोषी हुआ हूँ । यह केवल कायरता थी और कुछ
नहीं । कुछ झेंपता हुआ बोला - अगर अम्माँ ने मानी को इस बात पर झिड़का तो यह उनकी
मूर्खता है, मैं उनसे अवसर मिलते ही पूछूँगा ।
इन्द्रनाथ - अब पूछने-पाछने का समय निकल गया । मैं चाहता हूँ कि तुम मानी से इस
विषय में सलाह करके मुझे बतला दो ! मैं नहीं चाहता कि अब वह यहाँ क्षण-भर भी रहे ।
मुझे आज मालूम हुआ कि वह गर्विणी प्रकृति की स्त्री है और सच पूछो तो मैं उसके
स्वभाव पर मुग्ध हो गया हूँ । ऐसी स्त्री अत्याचार नहीं सह सकती !
गोकुल ने डरते डरते कहा - लेकिन तुम्हें मालूम है - वह विधवा है ।
जब हम किसी के हाथों अपना असाधारण हित होते देखते हैं तो हम अपनी सारी बुराइयाँ
उसके सामने खोलकर रख देते हैं । हम उसे दिखाना चाहते हैं कि हम आपकी इस कृपा के
सर्वथा अयोग्य नहीं हैं ।
इन्द्रनाथ ने मुस्कराकर कहा - जानता हूँ, सुन चुका हूँ और इसीलिए तुम्हारे बाबूजी
से कुछ कहने का मुझे अब तक साहस नहीं हुआ; लेकिन न जानता तो भी इसका मेरे निश्चय
पर कोई असर न पड़ता । मानी विधवा ही नहीं, अछूत हो, उससे भी गई-बीती अगर कुछ हो
सकती है, वह भी हो, फिर भी मेरे लिए वह रमणी-रत्न है । हम-मोटे कामों के लिए तजर्बे
कार आदमी खोजते हैं, मगर जिसके साथ हमें जीवन-यात्रा करनी है, उसमें तजर्बे का होना
ऐब समझते हैं । मैं न्याय का गला घोटनेवालों में नहीं हूँ ! विपत्ति से बढ़कर
तजर्बा सिखानेवाला कोई विद्यालय आज तक नहीं खुला । जिसने इस विद्यालय में डिग्री ले
ली उसके हाथों में हम निश्चिन्त होकर जीवन की बागडोर दे सकते हैं । किसी रमणी का
विधवा होना मेरी आँखों में दोष नहीं, गुण है ।
गोकुल ने प्रसन्न होकर कहा - लेकिन तुम्हारे घर के लोग ?
इन्द्रनाथ ने दृढ़ता से कहा - मैं अपने घरवालों को इतना मूर्ख नहीं समझता कि इस
विषय में आपत्ति करें; लेकिन वे आपत्ति करें तो मैं अपनी किस्मत अपने हाथ में ही
रखना पसन्द करता हूँ । मेरे बड़ों को मुझ पर अनेकों अधिकार हैं । बहुत-सी बातों में
उनकी इच्छा को कानून समझता हूँ; लेकिन मैं किसी से दबना नहीं चाहता; मैं इस गर्व का
आनन्द उठाना चाहता हूँ कि मैं स्वयं अपने जीवन का निर्माता हूँ !
गोकुल ने कुछ शंकित होकर कहा - और अगर मानी न मंजूर करे ।
इन्द्रनाथ को यह शंका बिलकुल निर्मूल जान पड़ी । बोले - तुम इस समय बच्चों की-सी
बातें कर रहे हो गोकुल । यह मानी हुई बात है कि मानी आसानी से मंजूर न करेगी । वह
इस में ठोकरें खायेगी, झिड़कियाँ सहेगी, गालिया सुनेगी; पर इसी घर में रहेगी ।
युगों के संस्कारों को मिटा देना आसान नहीं है, लेकिन में उसको राजी करना पड़ेगा ।
उसके मन से संचित संस्कारों को निकालना पड़ेगा । मैं विधवाओं के पुनर्विवाह के पक्ष
में नहीं हूँ । मेरा ख्याल है कि पतिव्रत का यह अलौकिक आदर्श संसार का अमूल्य रत्न
है और हमें बहुत सोच-समझकर उस पर आघात करना चाहिए; लेकिन मानी के विषय में वह
बात ही नहीं उठती । प्रेम और भक्ति नाम से नहीं, व्यक्ति से होती है । जिस पुरुष की
उसने सूरत भी नहीं देखी, उससे उसे प्रेम नहीं हो सकता । केवल रस्म की बात है । इस
आडम्बर की, इस दिखावे की हमें परवाह न करनी चाहिए । देखो, शायद कोई तुम्हें बुला
रहा है । मैं भी चलता हूँ । दो -तीन दिन में फिर मिलूँगा ; मगर ऐसा न हो कि तुम
संकोच में पड़कर सोचते-विचारते रह जाओ और दिन निकलते चले जायें ।
गोकुल ने उसके गले में हाथ डाल कर कहा - मैं परसों खुद ही आऊँगा ।

(4)


बारात बिदा हो गयी थी । मेहमान भी रुखसत हो गये थे । रात के नौ बज रहे थे । विवाह
के बाद की नींद मशहूर है । घर के सभी लोग सरेशाम से सो रहे थे । कोई चारपाई पर, कोई
तख्त पर, कोई जमीन पर, जिसे जहाँ जगह मिल गयी, वहीं सो रहा था ।
केवल मानी घर की देख-भाल कर रही थी , और ऊपर गोकुल अपने कमरे में बैठा हुआ समाचार
पत्र पढ़ रहा था । सहसा गोकुल ने पुकारा - मानी, एक ग्लास ठंडा पानी तो लाना, बड़ी
प्यास लगी है ।
मानी पानी लेकर ऊपर गयी और मेज पर पानी रखकर लौटना चाहती थी कि गोकुल ने कहा--
जरा मानी, तुमसे कुछ कहना है ।
मानी ने कहा - अभी फुरसत नहीं है भाई, सारा घर सो रहा है । कहीं कोई घुस आये तो
लोटा-थाली भी न बचे !
गोकुल ने कहा - घुस आने दो, मैं तुम्हारी जगह होता तो चोरों से मिलकर चोरी करवा
देता । मुझे इसी वक्त इन्द्रनाथ से मिलना है । मैंने उससे आज मिलने का वचन दिया है-
देखो संकोच मत करना, जो बात पूछ रहा हूँ उसका जल्द उत्तर देना । देर होगी तो वह
घबरायेगा । इन्द्रनाथ को तुमसे प्रेम है, यह तुम जानती हो न ?
मानी ने मुँह फेर कर कहा - यही बात कहने के लिए मुझे बुलाया था । मैं कुछ नहीं
जानती ।
गोकुल - खैर, यह वह जाने और तुम जानो । वह तुमसे विवाह करना चाहता है । वैदिक
रीति से विवाह होगा । तुम्हें स्वीकार है ?
मानी की गर्दन शर्म से झुक गई । वह कुछ जवाब न दे सकी ।
गोकुल ने फिर कहा - दादा और अम्माँ से यह बात नहीं कही गयी, इसका कारण तुम जानती
ही हो । वह तुम्हें घुड़कियाँ दे-देकर, जला जलाकर चाहे मार डालें, पर विवाह करने की
सम्मति कभी न देंगे । इससे उनकी नाक कट जायगी । इसलिए अब इसका निर्णय तुम्हारे ऊपर
है । मैं तो समझता हूँ, तुम्हें स्वीकार कर लेना चाहिए । इन्द्रनाथ तुमसे प्रेम तो
करता है ही; यों भी निष्कलंक चरित्र का आदमी है और बला का दिलेर । भय तो उसे छू ही
नहीं गया । मुझे तुम्हें सुखी देखकर सच्चा आनन्द होगा !
मानी के हृदय में एक वेग उठ रहा था, मगर मुँह से आवाज न निकली । गोकुल ने अबकी
खीझकर कहा--देखो मानी, यह चुप रहने का समय नहीं है, सोचती क्या हो ?
मानी ने काँपते हुए स्वर में कहा--हाँ !
गोकुल के हृदय का बोझ हलका हो गया । मुसकराने लगा । मानी शर्म के मारे वहाँ से भाग
गई ।

(5)


शाम को गोकुल ने अपनी माँ से कहा - अम्माँ, इन्द्रानाथ के घर आज कोई उत्सव है ।
उसकी माता अकेली घबड़ा रही थीं कि कैसे काम होगा ? मैंने कहा, मानी को भेज दूँगा,
तुम्हारी आज्ञा हो तो मानी को पहुँचा दूँ । कल-परसों तक चली आयेगी ।
मानी उसी वक्त वहाँ आ गयी । गोकुल ने उसकी ओर कनखियों से ताका । मानी लज्जा से गड़
गयी । भागने का रास्ता न मिला ।
माँ ने कहा - मुझसे क्या पूछते हो, वह जाय ले जाओ !
गोकुल ने कहा - कपड़े पहन कर तैयार हो जाओ, तुम्हें इन्द्रनाथ के घर चलना है ।
मानी ने आपत्ति की - मेरा जी अच्छा नहीं है, मैं न जाऊँगी ।
गोकुल की माँ ने कहा - चली क्यों नहीं जाती, क्या वहाँ कोई पहाड़ खोदना है ।
मानी एक सफेद साड़ी पहनकर ताँगे पर बैठी, तो उसका हृदय काँप रहा था और बार-बार
आँखों में आँसू भर आते थे, उसका हृदय बैठा जाता था, मानो नदी में डूबने जा रही हो ।
ताँगा कुछ दूर निकल गया तो उसने गोकुल से कहा - भैया, मेरा जी न जाने कैसा हो रहा
है, घर लौट चलो, तुम्हारे पैर पड़ती हूँ ।
गोकुल ने कहा - तू पागल है । वहाँ सब लोग तेरी राह देख रहे हैं और तू कहती है लौट
चलो ।
मानी - मेरा मन कहता है कोई अनिष्ट होने वाला है ।
गोकुल - और मेरा मन कहता है तू रानी बनने जा रही है ।
मानी - दस-पाँच दिन ठहर क्यों नहीं जाते । कह देना मानी बीमार है ।
गोकुल - पागलों की-सी बातें न करो ।
मानी - लोग कितना हँसेंगे ?
गोकुल - मैं शुभ कार्य में किसी की हँसी की परवा नहीं करता ।
मानी - अम्माँ तुम्हें घर में घुसने न देंगी । मेरे कारण तुम्हें भी झिड़कियाँ
मिलेंगी ।
गोकुल - इसकी कोई परवा नहीं है । उनकी तो यह आदत ही है ।
ताँगा पहुँच गया । इन्द्रनाथ की माता विचारशील महिला थीं । उन्होंने आकर वधू को
उतारा और भीतर ले गयीं ।

(6)


गोकुल यहाँ से घर चला तो ग्यारह बज रहे थे । एक ओर तो शुभ कार्य के पूरा करने का
आनन्द था, दूसरी ओर भय था कि कल मानी न जायगी तो लोगों को क्या जवाब दूँगा ।
उसने निश्चय किया चलकर सब साफ-साफ कह दूँ । छिपाना व्यर्थ है । आज नहीं कल, कल
नहीं परसों तो सब कुछ कहना ही पड़ेगा । आज ही क्यों न कह दूँ ।
यह निश्चय करके वह घर में दाखिल हुआ ।
माता ने किवाड़ खोलते हुए कहा - इतनी रात तक क्या करने लगे ? उसे भी क्यों न लेते
आए, कल सबेरे चौका-बरतन कौन करेगा ?
गोकुल ने सिर झुकाकर कहा--वह तो अब शायद लौटकर न आवे अम्माँ । उसके वहीं रहने का
प्रबन्ध हो गया है ।
माता ने आँख फाड़कर कहा--क्या बकता है, भला वह वहाँ कैसे रहेगी ?
गोकुल - इन्द्रनाथ से उसका विवाह हो गया है ।
माता मानो आकाश से गिर पड़ीं । उन्हें कुछ सुध न रही कि मेरे मुँह से क्या निकल
रहा । कुलांगार, भड़वा, हरामजादा, और न जाने क्या-क्या कहा । यहाँ तक कि गोकुल का
धैर्य चरम सीमा का उल्लंघन कर गया । उसका मुँह लाल हो गया, त्योरियाँ चढ़ गयीं ।
बोला-अम्माँ, बस करो, अब मुझमें इससे ज्यादा सुनने की सामर्थ्य नहीं है । अगर मैंने
कोई अनुचित कर्म किया होता, तो आपकी जूतियाँ खाकर भी सिर न उठाता; मगर मैंने कोई
अनुचित कर्म नहीं किया । मैंने वही किया जो ऐसी दशा में मेरा कर्तव्य था और जो हर
एक भले आदमी को करना चाहिए । तुम मूर्ख हो, तुम्हें कुछ नहीं मालूम कि समय की
क्या प्रगति है । इसलिए अब तक मैंने धैर्य के साथ तुम्हारी गालियाँ सुनीं ।
तुमने, और मुझे दुःख के साथ कहना पड़ता है कि पिता जी ने भी, मानी के जीवन को नार
कीय बना रखा था । तुमने उसे ऐसी-ऐसी ताड़नाएँ दीं जो कोई अपने शत्रु को भी न देगा ।
इसीलिए कि वह तुम्हारी आश्रित थी ? इसीलिए न कि वह अनाथिनी थी ? अब वह तुम्हारी
गालियाँ खाने न आवेगी । जिस दिन तुम्हारे घर विवाह का उत्सव हो रहा था, तुम्हारे ही
कठोर वाक्य से आहत होकर वह आत्महत्या करने जा रही थी । इन्द्रनाथ उस समय ऊपर न
पहुँच जाते तो आज हम, तुम और सारा घर हवालात में बैठे होते ।
माता ने आँखें मटकाकर कहा - आहा ! कितने सपूत बेटे हो तुम कि सारे घर को संकट से
बचा लिया ।क्यों न हो ! अभी बहन की बारी है । कुछ दिन में मुझे ले जाकर किसी के गले
बाँध आना । फिर तुम्हारी चाँदी हो जायगी । यह रोजगार सबसे अच्छा है । पढ़-लिखकर
क्या करोगे ।
गोकुल मर्म-वेदना से तिलमिला उठा । व्यथित कंठ से बोला - ईश्वर न करे कि कोई बालक
तुम-जैसी माता के गर्भ से जन्म ले । तुम्हारा मुँह देखना भी पाप है ।
यह कहता हुआ वह घर से निकल पड़ा और उन्मत्तों की तरह एक तरफ चल खड़ा हुआ । जोर
के झोंके चल रहे थे; पर उसे ऐसा मालूम हो रहा था कि साँस लेने के लिए हवा नहीं है ।

(7)


एक सप्ताह बीत गया; पर गोकुल का कहीं पता नहीं । इन्द्रनाथ को बम्बई में एक जगह मिल
गयी थी । वह वहाँ चला गया था । वहाँ रहने का प्रबन्ध करके वह अपनी माता को तार देगा
और तब सास और बहू वहाँ चली जायँगी । वंशीधर को पहले संदेह हुआ कि गोकुल इन्द्रनाथ
के घर छिपा होगा; पर जब वहाँ पता न चला तो उन्होंने सारे शहर में खोज-पूछ शुरु की ।
जितने मिलने वाले, मित्र, स्नेही, सम्बन्धी थे, सभी के घर गये; पर सब जगह से साफ
जवाब पाया । दिन भर दौड़-धूप कर शाम को घर आते तो स्त्री को आड़े हाथों लेते - और
कोसों लड़के को, पानी पी-पीकर कोसो । न जाने तुम्हें कभी बुद्धि आयेगी भी या नहीं ।
गयी थी चुड़ैल, जाने देती । एक बोझ सिर से टला ।
एक महरी रख लो काम चल जायगा । जब वह न थी, तो घर क्या भूखों मरता था ।
विधवाओं के पुनर्विवाह चारों ओर तो हो रहे हैं, यह कोई अनहोनी बात नहीं है । हमारे
वश की बात होती तो इन विधवा-विवाह के पक्षपातियों को देश से निकाल देते, शाप देकर
जला देते; लेकिन यह हमारे वश की बात नहीं । फिर तुमसे इतना भी न हो सका कि मुझसे
तो पूछ लेतीं । मैं जो उचित समझता, करता । क्या तुमने यह समझा था, मैं दफ्तर से लौट
कर आऊँगा ही नहीं, वहीं मेरी अन्त्येष्ठी हो जायगी । बस लड़के पर टूट पड़ी । अब
रोओ, खूब दिल खोलकर ।
संध्या हो गयी थी । वंशीधर स्त्री को फटकारें सुनाकर द्वार पर उद्वेग की दशा में
टहल रहे थे । रह-रहकर मानी पर क्रोध आता था । इसी राक्षसी के कारण मेरे घर का
सर्वनाश हुआ । न जाने किस बुरी साइत में आयी कि घर को मिटाकर छोड़ा ! वह न आयी
होती, तो आज क्यों बुरे दिन देखने पड़ते । कितना होनहार, कितना प्रतिभाशाली लड़का
था । न जाने कहाँ गया ।
एकाएक एक बुढ़िया उनके समीप आयी और बोली - बाबू साहब, यह खत लायी हूँ । ले
कीजिए ।
वंशीधर ने लपककर बुढ़िया के हाथ से पत्र ले लिया; उनकी छाती आशा से धक्-धक् करने
लगी । गोकुल ने शायद यह पत्र लिखा होगा । अँधेरे में कुछ न सूझा । पूछा--कहाँ से
लायी है ?
बुढ़िया ने कहा--वही जो बाबू हुसेनगंज में रहते हैं; जो बंबई में नौकर हैं, उन्हीं
की बहू ने भेजा है ।
वंशीधर ने कमरे में जाकर लैम्प जलाया और पत्र पढ़ने लगे । मानी का खत था । लिखा था--
`पूज्य चाचा जी, अभागिनी मानी का प्रणाम स्वीकार कीजिए ।
मुझे यह सुनकर अत्यन्त दुःख हुआ कि गोकुल भैया कहीं चले गये और अब तक उनका पता
नहीं है । मैं ही इसका कारण हूँ । यह कलंक मेरे ही मुख पर लगना था, वह भी लग गया ।
मेरे कारण आपको इतना शोक हुआ इसका मुझे बहुत दुःख है ; मगर भैया आवेंगे अवश्य, इसका
मुझे विश्वास है । मैं इसी नौ बजनेवाली गाड़ी से बंबई जा रही हूँ ।
मुझसे जो कुछ अपराध हुए हैं, उन्हें क्षमा कीजिए और चाची से मेरा प्रणाम कहिएगा ।
मेरी ईश्वर से यही प्रार्थना है कि गोकुल भैया सकुशल घर लौट आवें । ईश्वर की इच्छा
हुई तो भैया के विवाह में आपके चरणों के दर्शन करूँगी ।
वंशीधर ने पत्र को फाड़कर पुर्जेपुर्जे कर डाला । घड़ी में देखा तो आठ बज रहे थे ।
तुरन्त कपड़े पहने, सड़क पर आकर एक्का किया और स्टेशन चले ।

(8)


बंबई मेल प्लेटफार्म पर खड़ा था । मुसाफिरों में भगदड़ मची हुई थी । खोंचे वालों की
चीख-पुकार से कान में पड़ी आवाज न सुनाई देती थी । गाड़ी छूटने में थोड़ी ही देर
थी । मानी और उसकी सास एक जनाने कमरे में बैठी हुई थीं । मानी सजल नेत्रों से सामने
ताक रही थीं । अतीत चाहे दुःखद ही क्यों न हो, उसकी स्मृतियाँ मधुर होती हैं । मानी
आज उन बुरे दिनों को स्मरण करके सुखी हो रही थी । गोकुल से अब न जाने कब भेंट
होगी । चाचाजी आ जाते तो उनके दर्शन कर लेती । कभी कभी बिगड़ते थे तो क्या, उसके
भले ही के लिए डाँटते थे ! वह आवेंगे नहीं । अब तो गाड़ी छूटने में थोड़ी ही देर
है । कैसे आवें, समाज में हलचल न मच जायगी । भगवान की इच्छा होगी, तो अब की जब
यहाँ आऊँगी तो जरूर उनके दर्शन करूँगी ।
एकाएक उसने लाला वंशीधर को आते देखा । वह गाड़ी से निकलकर बाहर खड़ी हो गयी और चाचा
जी की ओर बड़ी । उनके चरण पर गिरना चाहती थी कि वह पीछे हट गये और आँखें निकालकर
बोले - मुझे मत छू, दूर रह, अभागिनी कहीं की । मुँह में कालिख लगाकर मुझे पत्र
लिखती है । तुझे मौत भी नहीं आती ! तूने मेरे कुल का सर्वनाश कर दिया । आज तक
गोकुल का पता नहीं है । तेरे ही कारण वह घर से निकला और तू अभी तक मेरी छाती पर
मुँग दलने को बैठी है । तेरे लिए क्या गंगा में पानी नहीं है ? मैं तुझे ऐसी कुलटा,
ऐसी हरजाई समझता, तो पहले दिन ही तेरा गला घोंट देता । अब मुझे अपनी भक्ति दिखलाने
चली है ! तुझ जैसी पापिष्ठाओं का मरना ही अच्छा है, पृथ्वी का बोझ कम हो जायगा ।
प्लेटफार्म पर सैकड़ों आदमियों की भीड़ लग गयी थी, और वंशीधर निर्लज्ज भाव से
गालियोँ की बौछार कर रहे थे । किसी की समझ में न आता था, क्या माजरा है; पर मन में
सब लाला को धिक्कार रहे थे ।
मानी पाषाण-मूर्ति के समान खड़ी थी । मानो वहीं जम गयी हो । उसका सारा अभिमान चूर-
चूर हो गया । ऐसा जी चाहता था, धरती फट जाय और मैं समा जाऊँ, कोई वज्र गिराकर
उसके जीवन--अधम जीवन--का अन्त कर दे । इतने आदमियों के सामने उसका पानी उतर
गया ! उसकी आँखों से आँसू की एक बूँद भी न निकली । हृदय में आँसू न थे । उसकी जगह
एक दावानल-सा दहक रहा था जो मानो वेग से मतिष्क की ओर बढ़ता चला जाता था । संसार
में कौन जीवन अधम होगा !
सास ने पुकारा - बहू, अन्दर आ जाओ ।

(9)


गाड़ी चली तो माता ने कहा - ऐसा बेशर्म आदमी मैंने नहीं देखा । मुझे तो ऐसा क्रोध आ
रहा था कि उसका मुँह नोच लूँ ।
मानी ने सिर ऊपर न उठाया ।
माता फिर बोली - न जाने इन सड़ियलों को कब बुद्धि आयेगी, अब तो मरने के दिन भी आ
गये । पूछो, तेरा लड़का भाग गया तो हम क्या करें; अगर ऐसे पापी न होते तो यह वज्र
ही क्यों गिरता ।
मानी ने फिर मुँह न खोला । शायद उसे कुछ सुनाई न देता था । शायद उसे अपने अस्तित्व
का ज्ञान भी न था । वह टकटकी लगाये खिड़की की ओर ताक रही थी । उस अन्धकार में उसे
न जाने क्या सूझ रहा था ।
कानपुर आया । माता ने पूछा - बेटी कुछ खायेगी ? थोड़ी सी मिठाई खा लो ; दस बज गये ।
मानी ने कहा - अभी तो भूख नहीं है अम्माँ, फिर खा लूँगी ।
माता सोई । मानी भी लेटी; पर चचा की वह सूरत आँखों के सामने खड़ी थी और उनकी बातें
कानों में गहूँज रही थीं - आह ! मैं इतनी नीच हूँ, ऐसी पतित, कि मेरे मर जाने से
पृथ्वी का भार हल्का हो जायगा ! क्या कहा था, तू अपने माँ-बाप की बेटी है तो फिर
मुँह मत दिखाना । न दिखाऊँगी जिस मुँह पर कालिमा लगी हुई हो उसे किसी को दिखाने
की इच्छा भी नहीं है ।
गाड़ी अन्धकार को चीरती हुई चली जा रही थी । मानी ने अपना ट्रन्क खोला और अपने
आभूषण निकाल कर उसमें रख दिये । फिर इन्द्रनाथ का चित्र निकाल कर उसे देर तक
देखती रही । उसकी आँखों में गर्व की एक झलक-सी दिखाई दी । उसने तस्वीर रख दी और
आप-ही-आप - नहीं-नहीं, मैं तुम्हारे जीवन को कलंकित नहीं कर सकती । तुम देवतुल्य हो
तुमने मुझ पर दया की है ! मैं अपने पूर्व-संस्कारों का प्रायश्चित कर रही थी ।तुमने
मुझे उठाकर हृदय से लगा लिया ; लेकिन मैं तुम्हें कलंकित न करूँगी । तुम्हें मुझसे
प्रेम है । तुम मेरे लिए अनादर, अपमान निन्दा सब सह लोगे; पर मैं तुम्हारे जीवन का
भार न बनूँगी ।
गाड़ी अन्धकार को चीरती चली जा रही थी । मानी आकाश की ओर इतनी देर तक देखती रही कि
सारे तारे अदृश्य हो गये और अन्धकार में उसे अपनी माता का स्वरूप दिखाई दिया - ऐसा
उज्ज्वल, ऐसा प्रत्यक्ष कि उसने चौंककर आँखें बन्द कर लीं । फिर कमरे के अन्दर देखा
तो माता जी सो रहीं थीं ।

(10)


न जाने कितनी रात गुजर चुकी थी । दरवाजा खुलने की आहट से माता जी की आँख खुल गयी ।
गाड़ी तेजी से चली जा रही थी; मगर बहू का पता न था । वह आँखें मलकर उठ बैठीं और
पुकारा - बहू ! बहू ! कोई जवाब न मिला ।
उनका हृदय धक्-धक् करने लगा । ऊपर के बर्थ पर नजर डाली, पेशाब खाने में देखा,
बेंचों के नीचे देखा, बहू कहीं न थी । तब वह द्वार पर आकर खड़ी हो गयी । शंका हुई,
यह द्वार किसने खोला ? कोई गाड़ी में तो नहीं आया ! उनका जी घबड़ाने लगा । उन्होंने
किवाड़ बन्द कर दिये और जोर-जोर से रोने लगीं । किससे पूछें ? डाक गाड़ी अब न जाने
कितनी देर में रुकेगी । कहती थी, बहू मरदानी गाड़ी में बैठो । पर मेरा कहना न
माना । कहने लगी, अम्माँ जी आपको सोने की तकलीफ होगी । यही आराम दे गयी ?
सहसा उसे खतरे की जंजीर याद आयी । उसने जोर-जोर से कई बार जंजीर खींची । कई
मिनट के बाद गाड़ी रुकी । गार्ड आया । पड़ोस के कमरे से दो चार आदमी और भी आये ।
फिर लोगों ने सारा कमरा तलाश किया । नीचे तख्ते को ध्यान से देखा । रक्त का कोई
चिह्न न था ।
असबाब की जाँच की । बिस्तर, सन्दूक, सन्दूकची, बरतन सब मौजूद थे । ताले भी सबके
बन्द थे । कोई चीज गायब न थी । अगर बाहर से कोई आदमी आता तो चलती गाड़ी से जाता
कहाँ? एक स्त्री को लेकर गाड़ी से कूद जाना असम्भव था । सब लोग इन लक्षणों से इसी
नतीजे पर पहुँचे कि मानी द्वार खोलकर बाहर झाँकने लगी होगी और मुठिया हाथ से छूट
जाने के कारण गिर पड़ी होगी । गार्ड भला आदमी था । उसने नीचे उतरकर एक मील तक सड़क
के दोनों तरफ तलाश किया । मानी का कोई निशान न मिला । रात को इससे ज्यादा और क्या
किया जा सकता था । माता जी को कुछ लोग आग्रह-पूर्वक एक मरदाने डब्बे में ले गये ।
यह निश्चय हुआ कि माता जी अगले स्टेशन पर उतर पड़े और सबेरे इधर-उधर दूर तक देख-भाल
की जाय । विपत्ति में हम परमुखापेक्षी हो जाते हैं । माता जी कभी इसका मुँह देखती,
कभी उसका । उनकी याचना से भरी हुई आँखें मानो सबसे कह रही थीं - कोई मेरी बच्ची
को खोज क्यों नहीं लाता ? हाय ! अभी तो बेचारी की चूँदरी भी नहीं मैली हुई । कैसे-
कैसे साधों और अरमानों से भरी पति के पास जा रही थी ! कोई उस दुष्ट वंशीधर से जाकर
कहता क्यों नहीं - ले तेरी मनोभिलाषा पूरी हो गयी - जो तू चाहता था, वह पूरा हो
गया । क्या अब भी तेरी छाती नहीं जुड़ाती ।
वृद्धा बैठी रो रही थी और गाड़ी अन्धकार को चीरती चली गयी ।

(11)


रविवार का दिन था । संध्या समय इन्द्रनाथ दो-तीन मित्रों के साथ अपने घर की छत पर
बैठा हुआ था । आपस में हास-परिहास हो रहा था । मानी का आगमन इस परिहास का विषय था ।
एक मित्र बोले - क्यों इन्द्र , तुमने तो वैवाहिक जीवन का कुछ अनुभव किया है, हमें
क्या सलाह देते हो ? बनायें कहीं घोंसला, या यों ही डालियों पर बैठे-बैठे दिन काटें
पत्र-पत्रिकाओं को देखकर तो यही मालूम होता है कि वैवाहिक जीवन और नरक में कुछ
थोड़ा ही-सा अन्तर है ।
इन्द्रनाथ ने मुस्कराकर कहा--यह तो तकदीर का खेल है भाई, सोलहों आना तकदीर का ।
अगर एक दशा में वैवाहिक जीवन नरक-तुल्य है, तो दूसरी दशा में स्वर्ग से कम नहीं ।
दूसरे मित्र बोले - इतनी आजादी तो भला क्या रहेगी ?
इन्द्रनाथ - इतनी क्या, इसका शतांश भी न रहेगी । अगर तुम रोज सिनेमा देखकर बारह बजे
घर लौटना चाहते हो, नौ बजे सोकर उठना चाहते हो और दफ्तर से चार बजे लौटकर ताश
खेलना चाहते हो, तो तुम्हें विवाह करने से कोई सुख न होगा । और जो हर महीने सूट
बनवाते हो, तब शायद साल भर में भी न बनवा सको ।
`श्रीमती जी तो आज रात की गाड़ी से आ रही है ?'
`हाँ मेल से । मेरे साथ चलकर उन्हें रिसीव करोगे न ?'
`यह भी पूछने की बात है ! अब घर कौन जाता है; मगर कल दावत खिलानी पड़ेगी ।'
सहसा तार के चपरासी ने आकर इन्द्रनाथ के हाथ में तार का लिफाफा रख दिया ।
इन्द्रनाथ का चेहरा खिल उठा । झट तार खोलकर पढ़ने लगा । एकबार पढ़ते ही उसका हृदय
धक् से हो गया, साँस रुक गयी, सिर घुमने लगा । आँखों की रोशनी लुप्त हो गयी, जैसे
विश्व पर काला परदा पड़ गया हो । उसने तार को मित्रों के सामने फेंक दिया और दोनों
हाथों से मुँह ढ़ाँपकर फूट-फूटकर रोने लगा । दोनों मित्रों ने घबड़ाकर तार उठा लिया
और उसे पढ़ते ही हतबुद्धि से हो दीवार की ओर ताकने लगे । क्या सोच रहे थे और क्या
हो गया !
तार में लिखा था--मानी गाड़ी से कूद पड़ी । उसकी लाश लालपुर से तीन मील पर पायी गयी
मैं लालपुर में हूँ । तुरन्त आओ ।
एक मित्र ने कहा - किसी शत्रु ने झूठी खबर न भेज दी हो ।
दूसरे मित्र ने कहा - हाँ, कभी-कभी लोग ऐसी शरारतें करते हैं ।
इन्द्रनाथ ने शून्य नेत्रों से उनकी ओर देखा; पर मुँह से कुछ बोले नहीं !
कई मिनट तीनों आदमी निर्वाक निस्पन्द बैठे रहे । एकाएक इन्द्रनाथ खड़े हो गये और
बोले - मैं इस गाड़ी से जाऊँगा ।
बम्बई से नौ बजे रात को गाड़ी छूटती थी । दोनों मित्रों ने चटपट बिस्तर आदि बाँधकर
तैयार कर दिया । एक ने बिस्तर उठाया, दूसरे ट्रंक । इंद्रनाथ ने चटपट कपड़े पहने
और स्टेशन चले । निराशा आगे थी; आशा रोती हुई पीछे ।

(12)


एक सप्ताह गुजर गया था । लाला वंशीधर दफ्तर से आकर द्वार पर बैठे ही थे कि
इन्द्रनाथ ने आकर प्रणाम किया । वंशीधर उसे देखकर चौंक पड़े, उसके अनपेक्षित आगमन
पर नहीं, उसकी विकृत दशा पर ; मानों वीतराग शोक सामने खड़ा हो, मानो कोई हृदय से
निकली हुई आह मूर्तिमान हो गयी हो ।
वंशीधर ने पूछा - तुम बम्बई चले गये थे न ?
इन्द्रनाथ ने जवाब दिया - जी हाँ, आज ही आया हूँ ।
वंशीधर ने तीखे स्वर में कहा - गोकुल को तो तुम ले बीते !
इन्द्रनाथ ने अपनी अँगूठी की ओर ताकते हुए कहा--वह मेरे घर पर हैं ।
वंशीधर के उदास मुख पर हर्ष का प्रकाश दौड़ गया । बोले-तो यहाँ क्यों नहीं आये ?
तुमसे कहाँ उसकी भेंट हुई ? क्या बम्बई चला गया था ?
`जी नहीं, कल मैं गाड़ी से उतरा तो स्टेशन पर मिल गये ।'
`तो, जाकर लिवा आओ न, जो किया अच्छा किया ।'
यह कहते हुए वह घर में दौड़े । एक क्षण में गोकुल की माथा ने उसे अन्दर बुलाया ।
वह अन्दर गया तो माता ने उसे सिर से पाँव तक देखा - तुम बीमार थे क्या भैया ?
चेहरा क्यों इतना उतरा हुआ है ?
इन्द्रनाथ ने कुछ उत्तर न दिया ।
गोकुल की माता ने पानी का लोटा रखकर कहा--हाथ मुँह धो डालो बेटा, गोकुल है तो अच्छी
तरह ? कहाँ रहा इतने दिन ! तब से सैकड़ों मन्नतें मान डालीं । आया क्यों नहीं ?
इन्द्रनाथ ने हाथ-मुँह धोते हुए कहा--मैंने तो कहा था चलो, लेकिन डर के मारे नहीं
आते ।
`और था कहाँ इतने दिन ?'
`कहते थे, देहातों में घूमता रहा ।'
`तो क्या तुम अकेले बम्बई से आये हो ?'
`जी नहीं, अम्माँ भी आयी हैं ।'
गोकुल की माता ने कुछ सकुचाकर पूछा - मानी तो अच्छी तरह है ?
इन्द्रनाथ ने हँसकर कहा--जी हाँ, अब वह बड़े सुख से हैं । संसार के बन्धनों से छूट
गयीं ।
माता ने विश्वास करके कहा - चल नटखट कहीं का । बेचारी को कोस रहा है, मगर
इतनी जल्द बम्बई से लौट क्यों आये !
इन्द्रनाथ ने मुस्कराते हुए कहा--क्या करता ! माता जी का तार बम्बई में मिला कि
मानी ने गाड़ी से कूदकर प्राण दे दिये ! वह लालपुर में पड़ी हुई थीं, दौड़ा हुआ आया
वहीं दाह-क्रिया की । आज घर चला आया । अब मेरा अपराध क्षमा कीजिए ।
वह और कुछ न कह सका । आँसुओं के वेग ने गला बन्द कर दिया । जेब से एक पत्र निकाल
कर माता, के सामने रखता हुआ बोला - उनके संदूक में यही पत्र मिला है ।
गोकुल की माता कई मिनट तक मर्माहत-सी जमीन की ओर ताकती रहीं । शोक और उससे अधिक
पश्चाताप ने सिर को दबा रक्खा था । फिर पत्र उठाकर पढ़ने लगी ।
`स्वामी !
जब यह पत्र आपके हाथों में पहुँचेगा तब तक मैं इस संसार से विदा हो जाऊँगी । मैं
बड़ी अभागिनी हूँ । मेरे लिए इस संसार में स्थान नहीं है । आपको भी मेरे कारण क्लेश
और निन्दा मिलेगी । मैंने सोचकलर देखा और यही निश्चय किया कि मेरे लिए मरना ही
अच्छा है । मुझ पर आपने जो दया की थी, उसके लिए आपको क्या प्रतिदान करूँ ? जीवन
मैंने कभी किसी वस्तु की इच्छा नहीं की; परन्तु मुझे दुःख है कि आपके चरणों पर सिर
रख कर न मर सकी । मेरी अन्तिम याचना है कि मेरे लिए आप शोक न कीजिएगा । ईश्वर
आपको सदा सुखी रक्खे ।'
माता जी ने पत्र रख दिया और आँखों से आँसू बहने लगे । बरामदे में निश्चित निस्पंद
खड़े थे और जैसे मानी लज्जानत उनके सामने खड़ी थी ।

................................................................................



कायर


- लेखक - मुंशी प्रेमचंद


------------------


युवक का नाम केशव था, युवती का प्रेमा । दोनों एक ही कालेज के और एक ही क्लास के
विद्यार्थी थे । केशव नये विचारों का युवक था, जात-पाँत के बन्धनों का विरोधी ।
प्रेमा पुराने संस्कारों की कायल थी, पुरानी मर्यादाओं और प्रथाओं में पूरा विश्वास
रखनेवाली; लेकिन फिर भी दोनों में गाढ़ा प्रेम हो गया था । और यह बात सारे कालेज
में मशहूर थी । केशव ब्राह्मण होकर भी वैश्य-कन्या प्रेमा से विवाह करके अपना जीवन
सार्थक करना चाहता था । उसे अपने माता-पिता की परवाह न थी । कुल मर्यादा का विचार
भी उसे स्वाँग-सा लगता था । उसके लिए सत्य कोई वस्तु थी, तो प्रेम थी; किन्तु
प्रेमा के लिए माता-पिता और कुल-परिवार के आदेश के विरुद्ध एक कदम बढ़ाना भी
असम्भव था ।
सन्ध्या का समय है । विक्टोरिया-पार्क के एक निर्जन स्थान में दोनों आमने सामने हरि
याली पर बैठे हुए हैं । सैर करने वाले एक-एक करके विदा हो गये ; किन्तु ये
दोनों अभी वहीं बैठे हुए हैं । उनमें एक प्रसंग छिड़ा हुआ है, जो किसी तरह समाप्त
नहीं होता ।
केशव ने झुँझलाकर कहा--इसका यह अर्थ है कि तुम्हें मेरी परवाह नहीं है ?
प्रेमा ने उसको शांत करने की चेष्टा करके कहा--तुम मेरे साथ अन्याय कर रहे हो,
केशव ! लेकिन मैं इस विषय को माता-पिता के सामने कैसे छेडूँ, वह मेरी समझ में नहीं
आता । वे लोग पुरानी रूढ़ियों के भक्त हैं । मेरी तरफ से कोई ऐसी बात सुनकर उनके मन
में जो-जो शंकाएँ होंगी, उनकी तुम कल्पना कर सकते हो ?
केशव ने उग्र भाव से पूछा - तो तुम भी उन्हीं पुरानी रूढ़ियों की गुलाम हो ?
प्रेमा ने अपनी बड़ी-बड़ी आँखों में मृदु -स्नेह भरकर कहा - नहीं, मैं उनकी गुलाम
नहीं हूँ, लेकिन माता-पिता की इच्छा मेरे लिए और सब चीजों से अधिक मान्य है ।
`तुम्हारा व्यक्तित्व कुछ नहीं है ?'
`ऐसा ही समझा लो ।'
मैं तो समझता था कि ये ढकोसले मूर्खों के लिए ही हैं; लेकिन अब मालूम हुआ कि तुम
जैसी विदुषियाँ भी उनकी पूजा करती हैं । जब मैं तुम्हारे लिए संसार को छोड़ने पर
तैयार हूँ, तो तुमसे भी यही आशा करता हूँ ।'
प्रेमा ने मन में सोचा, मेरा अपनी देह पर क्या अधिकार है । जिन माता-पिता ने अपने
रक्त से मेरी सृष्टि की है, और अपने स्नेह से उसे पाला है, उनकी मरजी के खिलाफ कोई
काम करने का उसे कोई हक नहीं ।
उसने दीनता के साथ केशव से कहा - क्या प्रेम स्त्री और पुरुष के रूप ही में रह सकता
है, मैत्री के रूप में नहीं ? मैं तो प्रेम को आत्मा का बन्धन समझती हूँ ।
केशव ने कठोर भाव से कहा - इस दार्शनिक विचारों से तुम पागल कर दोगी, प्रेमा ! बस,
इतना ही समझ लो मैं निराश होकर जिन्दा नहीं रह सकता । मैं प्रत्यक्षवादी हूँ, और
कल्पनाओं के संसार में प्रत्यक्ष का आनन्द उठाना मेरे लिए असम्भव है ।
यह कहकर, उसने प्रेमा का हाथ पकड़कर, अपनी ओर खींचने की चेष्टा की । प्रेमा ने
झटके से हाथ छुड़ा लिया और बोली - नहीं केशव, मैं कह चुकी हूँ कि में स्वतंत्र नहीं
हूँ । तुम मुझसे वह चीज न माँगो, जिस पर मेरा कोई अधिकार नहीं ।
केशव को अगर प्रेमा ने कठोर शब्द कहे होते तो भी उसे इतना दुःख न हुआ होता । एक
क्षण तक वह मन मारे बैठा रहा, फिर उठकर निराशा भरे स्वर में बोला - `जैसी तुम्हारी
इच्छा !' और आहिस्ता-आहिस्ता कदम-सा उठाता हुआ वहाँ से चला गया । प्रेमा अब भी वहीं
बैठी आँसू बहाती रही ।

(2)


रात को भोजन करके प्रेमा जब अपनी माँ के साथ लेटी, तो उसकी आँखों में नींद न थी ।
केशव ने उसे एक ऐसी बात कह दी थी, जो चंचल पानी में कहे तो कैसे ?
लज्जा मुँह बन्द कर देती थी । उसने सोचा, अगर केशव के साथ मेरा विवाह न हुआ तो
उस समय मेरा क्या कर्तव्य होगा । अगर केशव ने कुछ उद्दंडता कर डाली तो मेरे लिए
संसार में फिर क्या रह जायगा; लेकिन मेरा बस ही क्या है । इन भाँति-भाँति के
विचारों में एक बात जो उसके मन में निश्चित हुई, वह यह थी कि केशव के सिवा वह
और किसी से विवाह न करेगी ।
उसकी माता ने पूछा - क्या तुझे अब तक नींद न आयी ? मैंने तुझसे कितनी बार कहा कि
थोड़ा-बहुत घर का काम-काज किया कर; लेकिन तुझे किताबों से ही फुरसत नहीं मिलती ।
चार दिन में तु पराये घर जायगी, कौन जाने कैसा घर मिले । अगर कुछ काम करने की आदत
न रही, तो कैसे निबाह होगा ?
प्रेमा ने भोलेपन से कहा - मैं पराये घर जाऊँगी ही क्यों ?
माता ने मुस्कराकर कहा--लड़कियों के लिए यही तो सबसे बड़ी विपत्ति है, बेटी ! माँ-
बाप की गोद में पलकर ज्यों ही सयानी हुई, दूसरों की हो जाती है । अगर अच्छे प्राणी
मिले, तो जीवन आराम से कट गया. नहीं रो-रोकर दिन काटना पड़ा । सब कुछ
भाग्य के अधीन है । अपनी बिरादरी में तो मुझे कोई घर नहीं भाता कहीं लड़कियों का
आदर नहीं; लेकिन करना तो बिरादरी में ही पड़ेगा । न जाने यह जात-पाँत का बन्धन कब
टूटेगा ?
प्रेमा डरते-डरते बोली--कहीं-कहीं तो बिरादरी के बाहर भी विवाह होने लगे है !
उसने कहने को कह दिया; लेकिन उसका हृदय काँप रहा था कि माता जी कुछ भाँप न जाय ।
माता ने विस्मय के साथ पूछा - क्या हिन्दुओं में ऐसा हुआ है !
फिर उसने आप-ही-आप उस प्रश्न का जवाब दिया - अगर दो-चार जगह ऐसा हो गया, तो उससे
क्या होता है ?
प्रेमा ने इसका कुछ जवाब न दिया, भय हुआ कि माता कहीं उसका आशय समझ न जायँ ।
उसका भविष्य एक अँधेरी खाई की तरह उसके सामने मुँह खोले खड़ा था, मानो उसे निगल
जायगा ।
उसे न जाने कब नींद आ गयी ।

(3)


प्रातःकाल प्रेमा सोकर उठी, तो उसके मन में एक विचित्र साहस का उदय हो गया था । सभी
महत्वपूर्ण फैसले हम आकस्मिक रूप से कर लिया करते हैं, मानो कोई दैवी-शक्ति हमें
उनकी ओर खींच ले जाती है; वही हालत प्रेमा की थी । कल तक वह माता-पिता के निर्णय को
मान्य समझती थी; पर संकट को सामने देखकर उसमें उस वायु की हिम्मत पैदा हो गयी थी,
जिसके सामने कोई पर्वत आ गया हो । वही मन्द वायु प्रबल वेग से पर्वत के मस्तक पर
चढ़ जाती है और उसे कुचलती हुई दूसरी तरफ जा पहुँचती है । प्रेमा मन में सोच रही थी
- माना, यह देह माता-पिता की है; किन्तु आत्मा तो मेरी है ।
मेरी आत्मा को जो कुछ भुगतना पड़ेगा, वह इसी देह से तो भुगतना पड़ेगा । अब वह विषय
में संकोच करना अनुचित ही नहीं, घातक समझ रही थी । अपने जीवन को क्यों एक झूठे
सम्मान पर बलिदान करे ? उसने सोचा, विवाह का आधार अगर प्रेम न हो, तो वह देह का
विक्रय है । आत्म-समर्पण क्या बिना प्रेमके भी हो सकता है ? इस कल्पना ही से कि न
जाने किस अपरिचित युवक से उसका विवाह हो जायगा, उसका हृदय विद्रोह कर उठा ।
वह अभी नाश्ता करके कुछ पढ़ने जा रही थी कि उसके पिता ने प्यार से पुकारा - मैं कल
तुम्हारे प्रिन्सिपल के पास गया था, वे तुम्हारी बड़ी तारीफ कर रहे थे ।
प्रेमा ने सरल भाव से कहा - आप तो योंही कहा करते है ।
`नहीं, सच ।'
यह कहते हुए उन्होंने अपनी मेज की दराज खोली, और मखमली चौखटों, में जड़ी हुई एक
तस्वीर निकालकर उसे दिखाते हुए बोले - यह लड़का आई0 सी0 एस0 के इम्तहान में प्रथम
आया है । इसका नाम तो तुमने सुना होगा ?
बूढ़े पिता ने ऐसी भूमिका बाँध दी थी कि प्रेमा उनका आशय न समझ सकी लेकिन प्रेमा
भाँप गयी ! उसका मन तीर की भाँति लक्ष्य पर जा पहुँचा । उसने बिना तस्वीर की ओर
देखे ही कहा - नहीं, मैंने तो उसका नाम नहीं सुना ।
पिता ने बनावटी आश्चर्य से कहा - क्या ? तुमने उसका नाम ही नहीं सुना ? आज के दैनिक
पत्र में उसका चित्र और जीवन-वृत्तांत छपा है ।
प्रेमा ने रुखाई से जवाब दिया - होगा, मगर मैं तो उस परीक्षा का कोई महत्त्व नहीं
समझती ।
मैं तो समझती हूँ, जो लोग इस परीक्षा में बैठते हैं वे पल्ले सिरे के स्वार्थी होते
हैं । आखिर उनका उद्देश्य इसके सिवा और क्या होता है कि अपने गरीब, निर्धन, दलित
भाइयों पर शासन करें और खूब धन संचय करें । यह तो जीवन का कोई ऊँचा उद्देश्य नहीं
है ।
इस आपत्ति में जलन थी, अन्याय था, निर्दयता थी । पिता जी ने समझा था, प्रेमा यह
बखान सुनकर लट्टू हो जायगी । यह जवाब सुनकर तीखे स्वर में बोले - तू तो ऐसी
बातें कर रही है, जैसे तेरे लिए धन और अधिकार का कोई मूल्य नहीं ।
प्रेमा ने ढिठाई से कहा - हाँ, मैं तो इसका मूल्य नहीं समझती । मैं तो आदमी में
त्याग देखती हूँ । मैं ऐसे युवकों को जानती हूँ, जिन्हें यह पद जबरदस्ती भी दिया
जाये, तो स्वीकार न करेंगे ।
पिता ने उपहास के ढंग से कहा - यह तो आज मैंने नई बात सुनी । मैं तो देखता हूँ कि
छोटी-छोटी नौकरियों के लिए लोग मारे-मारे फिरते हैं । मैं जरा उस लड़के की सूरत
देखना चाहता हूँ, जिसमें इतना त्याग हो । मैं तो उसकी पूजा करूँगा । शायद किसी
दूसरे अवसर पर ये शब्द सुनकर प्रेमा लज्जा से सिर झुका लेती; पर इस समय उसकी दशा
उस सिपाही की सी थी, जिसके पीछे गहरी खाई हो । आगे बढ़ने के सिवा उसके लिए और कोई
मार्ग न था । अपने आवेश को संयम से दबाती हुई, आँखों में विद्रोह भरे, वह अपने कमरे
में गयी, और केशव के कई चित्रों में से वह एक चित्र चुनकर लायी, जो उसकी निगाह में
सबसे खराब था, और पिता के सामने रख दिया । बूढ़े पिता जी ने चित्र को उपेक्षा के
भाव से देखना चाहा; लेकिन पहली दृष्टि ही में उसने आकर्षित कर लिया । ऊँचा कद था
और दुर्बल होने पर भी उसका गठन, स्वास्थ्य और संयम का परिचय दे रहा था । मुख पर
प्रतिभा का तेज न था; पर विचार-शीलता का कुछ ऐसा प्रतिबिम्ब था, जो उसके मन में
विश्वास पैदा करता था ।
उन्होंने उस चित्र की ओर देखते हुए पूछा - यह किसका चित्र है ?
प्रेम ने संकोच से सिर झुकाकर कहा--यह मेरे ही क्लास में पढ़ते हैं ।
`अपनी ही बिरादरी का है ?'
प्रेमा की मुखमुद्रा धूमिल हो गयी । इसी प्रश्न के उत्तर पर उसकी किस्मत का फैसला
हो जायगा ।
उसके मन में पछतावा हुआ कि व्यर्थ में इस चित्र को यहाँ लायी । उसमें एक क्षण के
लिए जो दृढ़ता आयी थी, वह इस पैने प्रश्न के सामने कातर हो उठी । दबी हुई आवाज में
बोली - `जी नहीं, वह ब्राह्मण है,' और यह कहने के साथ ही क्षुब्ध होकर कमरे से निकल
गयी मानो वहाँ की वायु में उसका गला घुटा जा रहा हो और दीवार की आड़ में होकर रोने
लगी ।
लाला जी को तो पहले ऐसा क्रोध आया कि प्रेमा को बुलाकर साफ-साफ कह दें कि यह असम्भव
है । वे उसी गुस्से में दरवाजे तक आये, लेकिन प्रेमा को रोते देककर नम्र हो गये ।
इस युवक के प्रति प्रेमा के मन में क्या भाव थे, यह उनसे छिपा न रहा । वे स्त्री-
शिक्षा के पूरे समर्थक थे; लेकिन इसके साथ ही कुल-मर्यादा की रक्षा भी करना चाहते
थे । अपनी ही जाति के सुयोग्य वर के लिए अपना सर्वस्व अर्पण कर सकते थे; लेकिन उस
क्षेत्र के बाहर कुलीन से कुलीन और योग्य से योग्य वर की कल्पना भी उनके लिए असह्य
थी । इससे बड़ा अपमान वे सोच ही न सकते थे ।
उन्होंने कठोर स्वर में कहा--आज से कालेज जाना बन्द कर दो,मगर शिक्षा कुल-मर्यादा
को डुबोना ही सिखाती है, तो कु-शिक्षा है ।
प्रेमा ने कातर कंठ से कहा - परीक्षा तो समीप आ गयी है ।
लालाजी ने दृढ़ता से कहा - आने दो ।
और फिर अपने कमरे में जाकर विचारों में डूब गये ।

(4)


छः महीने गुजर गये ।
लालाजी ने घर में आकर पत्नी को एकान्त में बुलाया और बोले - जहाँ तक मुझे मालूम हुआ
है, केशव बहुत ही सुशील और प्रतिभाशाली युवक है । मैं तो समझता हूँ प्रेमा इस शोक
में घुल-घुलकर प्राण दे देगी । तुमने भी समझाया, मैंने भी समझाया, दूसरों ने भी
समझाया; पर उस पर कोई असर ही नहीं होता । ऐसी दशा में हमारे लिए और क्या उपाय है ।
उनकी पत्नी ने चिन्तित भाव से कहा--कर तो दोगे; लेकिन रहोगे कहाँ ! न जाने कहाँ से
यह कुलच्छनी मेरी कोख में आयी ?
लालाजी ने भवें सिकोड़कर तिरस्कार के साथ कहा- यह तो हजार दफा सुन चुका; लेकिन
कुल-मर्यादा के नाम को कहाँ तक रोयें । चिड़िया का पर खोलकर यह आशा करना कि वह
तुम्हारे आँगन में ही फुदकती रहेगी भ्रम है । मैंने इस प्रश्न पर ठण्डे दिल से
विचार किया है और इस नतीजे पर पहुँचता हूँ कि हमें इस आपद्धर्म को स्वीकार कर ही
लेना ही चाहिए । कुल-मर्यादा के नाम पर मैं प्रेमा की हत्या नहीं कर सकता । दुनिया
हँसती हो, हँसे; मगर वह जमाना बहुत जल्द आनेवाला है, जब ये सभी बन्धन टूट जायेंगे ।
आज भी सैकड़ों विवाह जात-पाँत के बन्धनों को तोड़कर हो चुके हैं । अगर विवाह का
उद्देश्य स्त्री और पुरुष का सुखमय जीवन है तो हम प्रेमा की उपेक्षा नहीं कर सकते ।
वृद्धा ने क्षुब्ध होकर कहा--जब तुम्हारी यही इच्छा है, तो मुझसे क्या पूछते हो ?
लेकिन मैं कहे देती हूँ, कि मैं इस विवाह के नजदीक न जाऊँगी, न कभी इस छोकरी का
मुँह देखूँगी, समझ लूँगी, जैसे और सब लड़के मर गये, वैसे यह भी मर गयी ।
`तो फिर आखिर तुम क्या करने को कहती हो ?'
`क्यों नहीं उस लड़के से विवाह कर देते, उसमें क्या बुराई है? वह दो साल में सिविल
सरविस पास करके आ जायगा । केशव के पास क्या रखा है, बहुत होगा किसी दफ्तर में
क्लर्क हो जायगा ।'
`और अगर प्रेमा प्राण-हत्या कर ले, तो ?'
`तो कर ले, तुम तो उसे और शह देते हो ? जब उसे हमारी परवाह नहीं है, तो हम उसके
लिए अपने नाम को क्यों कलंकित करें ? प्राण-हत्या करना कोई खेल नहीं है । यह सब
धमकी है मन घोड़ा है, जब तक उसे लगाम न दो, पुट्ठे पर हाथ भी न रखने देगा ।
जब उसके मन का यह हाल है, तो कौन कहे, केशव के साथ ही जिन्दगी भर निबाह करेगी ।
जिस तरह आज उससे प्रेम है, उसी तरह कल दूसरे से हो सकता है । तो क्या पत्ते पर अपना
माँस बिकवाना चाहते हो ?
लाला जी ने स्त्री को प्रश्न-सूचक दृष्टि से देखकर कहा--और अगर वह कल खुद जाकर केशव
से विवाह कर ले, तो तुम क्या कर लोगी ? फिर तुम्हारी कितनी इज्जत रह जायगी । वह
चाहे संकोच-वश, या हम लोगों के लिहाज से यों ही बैठी रहे; पर यदि जिद पर कमर बाँध
ले, हम-तुम कुछ नहीं कर सकते ।
इस समस्या का ऐसा भीषण अन्त भी हो सकता है, यह इस वृद्धा के ध्यान में भी न आया
था । यह प्रश्न बम के गोले की तरह उसके मस्तक पर गिरा । एक क्षण तक वह अवाक् बैठी
रह गयी, मानो इस आघात ने उसकी बुद्धि की धज्जियाँ उड़ा दी हों । फिर पराभूत होकर
बोली - तुम्हें अनोखी ही कल्पनाएँ सूझती हैं । मैंने तो आज तक भी नहीं सुना कि किसी
कुलीन कन्या ने अपनी इच्छा से विवाह किया है ।
`तुमने न सुना हो; लेकिन मैंने सुना है, और देखा है और ऐसा होना बहुत सम्भव है ।'
`जिस दिन ऐसा होगा, उस दिन तुम मुझे जीती न देखोगे ।'
`मैं यह नहीं कहता कि ऐसा होगा ही;लेकिन होना सम्भव है ।'
`तो जब ऐसा होना है, तो इससे तो यही अच्छा है कि हमीं इसका प्रबन्ध करें । जब नाक
ही कट रही है, तो तेज छुरी से क्यों न कटे । कल केशव को बुलाकर देखो, क्या कहता
है ।

(5)


केशव के पिता सरकारी पेन्शनर थे, मिजाज के चिड़चिड़े और कृपण । धर्म के आडम्बर में
ही उनके चित्त को शान्ति मिलती थी । कल्पना-शक्ति का अभाव था । किसी के मनोभावों का
सम्मान न कर सकते थे । वे अब भी उस संसार में रहते थे, जिसमें उन्होंने बचपन और
जवानी के दिन काटे थे । नवयुग की बढ़ती हुई लहर को वे सर्वनाश कहते थे, और कम-से-कम
अपने घर को दोनों पैरों का जोर लगाकर उससे बचाये रखना चाहते थे; इसलिए जब एक दिन
प्रेमा के पिता उनके पास पहुँचे और केशव से प्रेमा के विवाह का प्रस्ताव किया, तो
बूढ़े पण्डित जी अपने आपे में न रह सके । धुँधली आँखें फाड़कर बोले आप भंग तो नहीं
खा गये हैं ? इस तरह का सम्बन्ध और चाहे जो कुछ हो, विवाह नहीं है । मालूम होता है,
आपको भी नये जमाने की हवा लग गयी ।
बूढ़े बाबूजी ने नम्रता से कहा--मैं खुद ऐसा सम्बन्ध नहीं पसन्द करता ।
इस विषय में मेरे भी वही विचार हैं, जो आपके; पर बात ऐसी आ पड़ी है कि मुझे विवश
होकर आपकी सेवा में आना पड़ा । आजकल के लड़के और लड़कियाँ कितने स्वेच्छाचारी हो
गये हैं, यह तो आप जानते ही हैं । हम बूढ़े लोगों के लिए अब अपने सिद्धान्तों की
रक्षा करना कठिन हो गया है । मुझे भय है कि कहीं ये दोनों निराश होकर अपनी जान पर
न खेल जायँ ।
बूढ़े पण्डित जी जमीन पर पाँव पटकते हुए गरज उठे - आप क्या कहते हैं, साहब ! आपको
शरम नहीं आती ? हम ब्राह्मण हैं और ब्राह्मणों में भी कुलीन । ब्राह्मण कितने ही
पतित हो गये हों; इतने मर्यादा-शून्य नहीं हुए हैं कि बनिये बक्कालों की लड़की से
विवाह करते फिरें ! जिस दिन कुलीन ब्राह्मणों में लड़कियाँ न रहेंगी, उस दिन यह
समस्या उपस्थित हो सकती है । मैं कहता हूँ, आपको मुझसे यह बात कहने का साहस कैसे
हुआ ?
बूढ़े बाबू जी जितना ही दबते थे, उतना ही पण्डित जी बिगड़ते थे । यहाँ तक कि लाला
जी अपना अपमान ज्यादा न सह सके, और अपनी तकदीर को कोसते हुए चले गये ।
उसी वक्त केशव कालेज से आया । पण्डित जी ने तुरन्त उसे बुलाकर कठोर कंठ से कहा--
मैंने सुना है, तुमने बनिये की लड़की से अपना विवाह कर लिया है । यह खबर कहाँ तक
सही है ?
केशव ने अनजान बनकर पूछा - आपसे किसने कहा ?
`किसी ने कहा । मैं पूछता हूँ, यह बात ठीक है, या नहीं ? अगर ठीक है, और तुमने अपनी
मर्यादा को डुबाना निश्चय कर लिया है, तो तुम्हारे लिए हमारे घर में कोई स्थान
नहीं । तुम्हें मेरी कमाई का एक धेला भी नहीं मिलेगा । मेरे पास जो कुछ है, वह मेरी
अपनी कमाई है, मुझे अख्तियार है कि मैं उसे जिसे चाहूँ, दे दूँ । तुम यह अनीति करके
मेरे घर में कदम नहीं रख सकते ।'
केशव पिता के स्वभाव से परिचित था । प्रेमा से उसे प्रेम था । वह गुप्त रूप से
प्रेमा से विवाह कर लेना चाहता था । बाप हमेशा तो बैठे न रहेंगे । माता के स्नेह पर
उसे विश्वास था । उस प्रेम की तरंग में वह सारे कष्टों को झेलने के लिए तैयार मालूम
होता था; लेकिन जैसे कोई कायर सिपाही बन्दूक के सामने जाकर हिम्मत खो बैठता है और
कदम पीछे हटा लेता है वही दशा केशव की हुई ।
वह साधारण युवकों की तरह सिद्धान्तों के लिए बड़े-बड़े तर्क कर सकता था, जबान से
उनमें अपनी भक्ति की दोहाई दे सकता था; लेकिन इसके लिए यातनाएँ झेलने की सामर्थ्य
उसमें न थी । अगर वह अपनी जिद पर अड़ा और पिता ने भी अपनी टेक रखी, तो उसका कहाँ
ठिकाना लगेगा ? उसका जीवन ही नष्ट हो जायगा ।
उसने दबी जबान से कहा - जिसने आपसे यह कहा है, बिलकुल झूठ कहा है ।
पंडित जी ने तीव्र नेत्रों से देखकर कहा - तो यह खबर बिलकुल गलत है ?
`जी हाँ, बिलकुल गलत ।'
`तो तुम आज ही इसी वक्त उस बनिये को खत लिख दो और याद रखो कि अगर इस तरह की
चर्चा फिर कभी उठी, तो मैं तुम्हारा बड़ा शत्रु होऊँगा । बस, जाओ ।
केशव और कुछ न कह सका । वह यहाँ से चला; तो ऐसा मालूम होता था कि पैरों में दम
नहीं है ।

(6)


दूसरे दिन प्रेमा ने केशव के नाम यह पत्र लिखा--
`प्रिय केशव !'
तुम्हारे पूज्य पिता जी ने लाला जी के साथ जो अशिष्ट और अपमानजनक व्यवहार किया है,
उसका हाल सुनकर मेरे मन में बड़ी शंका उत्पन्न हो रही है । शायद उन्होंने तुम्हें
भी डाँट-फटकार बताई होगी, ऐसी दशा में मैं तुम्हारा निश्चय सुनने के लिए बिकल हो
रही हूँ । तुम्हारे साथ हर तरह का कष्ट झेलने को तैयार हूँ । मुझे तुम्हारे पिताजी
की सम्पत्ति का मोह नहीं है, मैं तो केवल तुम्हारा प्रेम चाहती हूँ और उसी में
प्रसन्न हूँ । आज शाम को यहीं आकर भोजन करो । दादा और माँ दोनों तुमसे मिलने के
लिए बहुत इच्छुक हैं । मैं वह स्वप्न देखने में मग्न हूँ, जब हम दोनों उस सूत्र में
बँध जायँगे, जो टूटना नहीं जानता । जो बड़ी-से-बड़ी आपत्ति में भी अटूट रहता है ।
तुम्हारी--
प्रेमा !
संध्या हो गयी और इस पत्र का कोई जवाब न आया । उसकी माता बार-बार पूछती थी--
केशव आये नहीं ? बूढ़े लाला भी द्वार की ओर आँख लगाये बैठे थे । यहाँ तक कि रात के
नौ बज गये, पर न तो केशव ही आये, न उनका पत्र ।
प्रेमा के मन में भाँति-भाँति के संकल्प-विकल्प उठ रहे थे, कदाचित् उन्हें पत्र
लिखने का अवकाश न मिला होगा, या आज आने की फुरसत न मिली होगी, कल अवश्य आ जायँगे ।
केशव ने पहले उसके पास जो प्रेम-पत्र लिखे थे, उन सबको उसने फिर पढ़ा । उनके एक-एक
शब्द से कितना अनुराग टपक रहा था, उनमें कितना कम्पन था, कितनी विकलता, कितनी तीव्र
आकांक्षा ! फिर उसे केशव के वे वाक्य याद आये, जो उसने सैकड़ों ही बार कहे थे ।
कितनी बार वह उसके सामने रोया था । इतने प्रमाणों के होते हुए निराशा के लिए कहाँ
स्थान था, मगर फिर भी सारी रात उसका मन जैसे सूली पर टँगा रहा ।
प्रातःकाल केशव का जवाब आया । प्रेमा ने काँपते हुए हाथों से पत्र लेकर पढ़ा । पत्र
हाथ से गिर गया । ऐसा जान पड़ा, मानो उसकी देह का रक्त स्थिर हो गया हो । लिखा था--
`मैं बड़े संकट में हूँ, कि तुम्हें क्या जवाब दूँ ! मैंने इधर इस समस्या पर खूब
ठण्डे दिल से विचार किया है और इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि वर्तमान दशाओं में मेरे
पिता की आज्ञा की उपेक्षा करना दुःसह है । मुझे कायर न समझना । मैं स्वार्थी भी
नहीं हूँ, लेकिन मेरे सामने जो बाधाएँ हैं उन पर विजय पाने की शक्ति मुझमें नहीं
है । पुरानी बातों को भूल जाओ । उस समय मैंने इन बाधाओं की कल्पना न की थी !'
प्रेमा ने एक लम्बी, गहरी, जलती हुई साँस खींची और उस खत को फाड़कर फेंक दिया ।
उसकी आँखों से अश्रुधारा बहने लगी । जिस केशव को उसने अपने अन्तःकरण से वर लिया था,
वह इतना निष्ठुर हो जायगा, इसकी उसको रत्ती भर भी आशा न थी । ऐसा मालूम पड़ा,
मानो अब तक वह कोई सुनहला स्वप्न देख रही थी; पर आँख खुलने पर वह सब कुछ अदृश्य
हो गया । जीवन में जब आशा ही लुप्त हो गयी, तो अब अन्धकार के सिवा और क्या था !
अपने हृदय की सारी सम्पत्ति लगाकर उसने एक नाव लदवाई थी,
वह नाव जलमग्न हो गयी । अब दूसरी नाव वह कहाँ से लदवाये; अगर वह नाव टूटी है
तो उसके साथ वह भी डूब जायगी ।
माता ने पूछा - क्या केशव का पत्र है ?
प्रेमा ने भूमि की ओर ताकते हुए कहा - हाँ, उनकी तबियत अच्छी नहीं है । इसके सिवा
वह और क्या कहे ? केशव की निष्ठुरता और बेवफाई का समाचार कहकर लज्जित होने का
साहस उसमें न था ।
दिन भर वह घर के काम-धन्धों में लगी रही, मानो उसे कोई चिन्ता ही नहीं है । रात को
उसने सबको भोजन कराया, खुद भी भोजन किया और बड़ी देर तक हारमोनियम पर गाती रही ।
मगर सबेरा हुआ, तो उसके कमरे में उसकी लाश पड़ी हुइ थी । प्रभात की सुनहरी किरणें
उसके पीले मुख को जीवन की आभा प्रदान कर रही थीं ।

................................................................................