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खन्ना और गोविन्दी में नहीं पटती. क्यों नहीं पटती, यह बताना कठिन है. ज्योतिष के हिसाब से उनके ग्रहों में कोई विरोध है, हालांकि विवाह के समय ग्रह और नक्षत्र खूब मिला लिये गये थे. कामशास्त्र के हिसाब से इस अनबन का और कोई रहस्य हो सकता है, और मनोविज्ञान वाले कुछ और ही कारण खोज सकते हैं. हम तो इतना ही जानते हैं कि उनमें नहीं पटती. खन्ना धनवान है, रसिक है, मिलनसार है, रूपवान है,अच्छे खासे पढ़े-लिखे हैं और नगर के विशिष्ट पुरुषों में हैं. गोविन्दी अप्सरा न हो, पर रूपवती अवश्य है. गेहुंआ रंग, लज्जाशील आंखें, जो एक बार सामने उठकर फिर झुक जाती हैं, कपोलों पर लाली न हो, पर चिकनापन है, गात कोमल, अंग-विन्यास सुडोल, गोल बाहें, मुख पर एक प्रकार की अरुचि, जिसमें कुछ गर्व की झलक भी है, मानों संसार के व्यवहार और व्यापार को हेय समझती है. खन्ना के पास विलास के ऊपरी साधनों की कमी नहीं, अव्वल दर्जे का बंगला है, अव्वल दर्जे का फर्नीचर, अव्वल दर्जे की कार और अपार धन, पर गोविन्दी की दृष्टि में जैसे इन चीजों का कोई मूल्य नहीं. इस खारे सागर में वह प्यासी पड़ी रहती है. बच्चों का लालन-पालन और गृहस्थी के छोटे-मोटे काम ही उसके लिए सब कुछ है. वह इनमें इतनी व्यस्त रहती है कि भोग की ओर उसका ध्यान नहीं जाता. आकर्षण क्या वस्तु है और कैसे उत्पन्न हो सकता है,इसकी ओर उसने कभी विचार नहीं किया. वह पुरूष का खिलौना नहीं है, न उसके भोग की वस्तु, फिर क्यों आकर्षक बनने की चेष्टा करें? अगर पुरूष उसका असली सौन्दर्य देखने के लिये आंखे नहीं रखता, कामिनियों के पीछे मारा-मारा फिरता है, तो वह उसका दुर्भाग्य है. वह उसी प्रेम और निष्ठा से पति की सेवा किये जाती है, जैसे द्वेष और मोह जैसी भावनाओं को उसने जीत लिया है. और यह अपार सम्पत्ति तो जैसे उसकी आत्मा को कुचलती रहती है. इन आडम्बरों और पाखण्डों से मुक्त होने के लिए उसका मन सदैव ललचाया करता है.अपने सरल और स्वाभाविक जीवन में वह कितनी सुखी रह सकती थी इसका वह नित्य स्वप्न देखती रहती है. तब क्यों मालती उसके मार्ग में आकर बाधक हो जाती है? क्यों वेश्याओं के मुजरे होते, क्यों यह सन्देह और बनावट और अशान्ति उसके जीवन-पथ मैं कांटा बनती? बहुत पहले जब वह बालिका विद्यालय में पढ़ती थी, उसे कविता का रोग लग गया था, जहां दुःख और वेदना ही जीवन का तत्त्व है, सम्पत्ति और विलास तो केवल इसलिए है कि उसकी होली जलायी जाये, तो मनुष्य को असत्य और अशान्ति की ओर ले जाता है. वह अब कभी-कभी कविता रचती थी, लेकिन सुनाये किसे? उसकी कविता केवल मन की तरंग या भावना की उड़ान न थी,उसके एक-एक शब्द में उसके जीवन की व्यथा और उसके आंसुओ की ठण्डी जलन भरी होती थी. किसी ऐसे प्रदेश में जा बसने की लालसा, जहां वह पाखण्डों और वासनाओं से दूर, अपनी शान्त कुटिया में सरल आनन्द का उपभोग करे. खन्ना कविताएं देखते, तो उनका मजाक उड़ाते और कभी-कभी फाड़कर फेंक देते. और सम्पत्ति की यह दीवार दिन-दिन ऊंची होती जाती थी और दम्पति को एक-दूसरे से दूर और पृथक करती जाती थी. खन्ना अपने ग्राहकों के साथ जितना ही मीठा और नम्र था, घर में उतना ही कटु और उद्दण्ड. अक्सर क्रोध में गोविन्दी को अपशब्द कह बैठता, शिष्टता उसके लिए दुनिया को ठगने का एक साधन थी, मन का संस्कार नहीं. ऐसे अवसरों पर गोविन्दी अपने एकान्त कमरे में जा बैठती और रात की रात रोया करती, और खन्ना दीवान खाने में मुजरे सुनता या क्लब में जाकर शराबें उड़ाता. लेकिन यह सब कुछ होने पर भी खन्ना उसका सर्वस्व था. वह दलित और अपमानित होकर भी खन्ना की लौंडी थी. उनसे लड़ेगी जलेगी,रोयेगी, पर रहेगी उन्हीं की. उनसे पृथक जीवन की वह कल्पना ही न कर सकती थी. आज मिस्टर खन्ना किसी बुरे आदमी का मुंह देखकर उठे थे. सवेरे ही पत्र खोला, तो उनके कई स्टाकों का दर गिर गया था, जिसमें उन्हें कई हजार की हानि होती थी.शक्कर मिल के मजदूरों ने हड़ताल कर दी थी और दंगा-फसाद करने पर आमादा थे.नफे की आशा से चांदी खरीदी थी,मगर उसका दर आज और भी ज्यादा गिर गया था. रायसाहब से जो सौदा हो रहा था और जिसमें उन्हें खासे नफे की आशा थी, वह कुछ दिनों के लिए टलता हुआ जान पड़ता था फिर रात को बहुत पी जाने के कारण इस वक्त सिर भारी था और देह टूट रही थी.इधर शोफर ने कार के इंजन में कुछ खराबी पैदा हो जाने की बात कही थी और लाहौर में उनके बैंक पर एक दीवानी मुकदमा दायर हो जाने का समाचार भी मिला था. बैठे मन में झुंझला रहे थे कि उसी वक्त गोविन्दी ने आकर कहा भीष्म का ज्वर आज भी नहीं उतरा, किसी डाक्टर को बुला दो. 148 भीष्म उनका सबसे छोटा पुत्र था, और जन्म से ही दुर्बल होने के कारण उसे रोज एक-न-एक शिकायत बनी रहती थी. आज खांसी है, तो कल बुखार, कभी पसली चल रही है, कभी हरे-पीले दस्त आ रहे हैं. दस महीने का हो गया था, पर लगता था, पांच-छः महीने का. खन्ना की धारणा हो गयी थी कि यह लड़का बचेगा नहीं, इसलिए उसकी ओर से उदासीन रहते थे, पर गोविन्दी इसी कारण उसे और बच्चों से ज्यादा चाहती थी. खन्ना ने पिता के स्नेह का भाव दिखाते हुए कहा-बच्चों को दवाओं कअ आदी बना देना ठीक नहीं है, और तुम्हें दवा पिलाने का मरज है. जरा कुछ हुआ और डाक्टर बुलाओ. एक रोज और देखो, आज तीसरा ही दिन तो है. शायद आज आप ही आप उतर जाये. गोविन्दी ने आग्रह किया-तीन दिन से नहीं उतरा. घरेलू दवाएं करके हार गयी. खन्ना ने पूछा- अच्छी बात है, बुला देता हूं, किसे बुलाऊं? `बुला लो डाक्टर नाग को.' `अच्छी बात है, उन्ही को बुलाता हूं, मगर यह समझ लो कि नाम हो जाने से ही कोई अच्छा डाक्टर नहीं हो जाता. नाग फीस चाहे जितनी ले ले, उनकी दवा से किसी को अच्छा होते नहीं देखा. वह तो मरीजों को स्वर्ग भेजने के लिए मशहूर हैं.' `तो जिसे चाहो बुला लो, मैंने तो नाग को इसलिए कहा था कि वह कई बार आ चुके हैं.' `मिस मालती को क्यों न बुला लूं? फीस भी कम और बच्चों का हाल लेडी डाक्टर जैसा समझेगी , कोई मर्द डाक्टर नहीं समझ सकता.' गोविन्दी ने जलकर कहा-मैं मिस मालती को डाक्टर नहीं समझती. खन्ना ने भी तेज आखों से देखकर कहा-तो वह इंगलेण्ड घास खोदने गयी थी, और हजारों आदमियों को आज जीवन दान दे रही है, यह सब कुछ नहीं है? `होगा, मुझे उन पर भरोसा नहीं है. वह मरदों के दिल का इलाज करलें. और किसी की दवा उनके पास नहीं है.' बस, ठन गयी. खन्ना गरजने लगे. गोविन्दी बरसने लगी. उनके बीच में मालती का नाम आ जाना, मानों लड़ाई का अल्टीमेटम था. खन्ना ने सारे कागजों को जमीन पर फेंककर कहा-तुम्हारे साथ जिन्दगी तल्ख हो गयी. गोविन्दी ने नुकीले स्वर में कहा- तो मालती से ब्याह कर लो न! अभी क्या बिगड़ा है, अगर वहां दाल गले. `तुम मुझे क्या समझती हो?' `यही कि मालती तुम जैसों को अपना गुलाम बनाकर रखना चाहती है, पति बनाकर नहीं.' `तुम्हारी निगाह में मैं इतना जलील हूं?' और उन्होंने इसके विरुद्ध प्रमाण देना शुरु किया. मालती जितना उनका आदर करती है, उतना शायद ही किसी का करती हो. रायसाहब और राजा साहब को मुंह तक नहीं लगाती, लेकिन उनसे एक दिन भी मुलाकात न हो, तो शिकायत करती है... गोविन्दी ने इन प्रमाणों को एक फूंक मैं उड़ा दिया- इसलिये कि वह तुम्हें सबसे बड़ा आंखों का अन्धा समझती है, दूसरों को इतनी आसानी से बेवकूफ नहीं बना सकती. खन्ना ने डींग मारी-वह चाहें, तो आज मालती से विवाह कर सकते हैं. आज, अभी... मगर गोविन्दी को बिलकुल विश्वास नहीं-तुम सात जन्म नाक रगड़ों, तो भी वह तुमसे विवाह न करेगी. तुम उसके टट्टू हो, तुम्हें घास खिलायेगी, कभी-कभी तुम्हारा मुंह सहलायेगी, तुम्हारे पुट्ठों पर हाथ फेरेगी, लेकिन इसलिए कि तुम्हारे ऊपर सवारी गाठें.तुम्हारे जैसे एक हजार बुद्धू उसकी जेब हैं. गोविन्दी आज बहुत बढ़ी जाती थी. मालूम होता है, आज वह उनसे लड़ने पर तैयार होकर आयी है.डाक्टर के बुलाने का तो केवल बहाना था. खन्ना अपनी योग्यता और दक्षता और पुरुषत्व पर इतना बड़ा आक्षेप कैसे सह सकते थे? `तुम्हारे खयाल से मैं बुद्धू और मूर्ख हूं, तो ये हजारों क्यों मेरे द्वार पर नाक रगड़ते हैं? कौन राजा या ताल्लुकेदार है, जो मुझे दण्डवत नहीं करता? सैंकड़ों को उल्लू बनाकर छोड़ दिया.' `यही तो मालती की विशेषता है कि जो औरों को सीधे उस्तरे से मूंड़ता है, उसे वह उलटे छुरे से मूंड़ती है.' `तुम मालती की चाहे जितनी बुराई करो, तुम उसकी पांव की धूल भी नहीं हो.' `मेरी दृष्टि में वह वेश्याओं से भी गयी बीती है, क्योंकि वह परदे की आड़ से शिकार खेलती है.' दोनों ने अपने अपने अग्निबाण छोड़ दिये. खन्ना ने गोविन्दी को चाहे दूसरी कठोर से कठोर बात कही होती, उसे इतनी बुरी न लगती, पर मालती से उसकी यह घृणित तुलना उसकी सहिष्णुता के लिए भी असह्य थी. गोविन्दी ने भी खन्ना को चाहे जो कुछ कहा होता वह इतने गरम न होते, लेकिन मालती का यह अपमान वह नहीं सह सकते. दोनों एक-दूसरे के कोमल स्थलों से परिचित थे. दोनों के निशाने ठीक बैठे और दोनों तिलमिला उठे. खन्ना की आंखें लाल हो गयीं. गोविन्दी का मुंह लाल हो गया. खन्ना आवेश में उठे और उसके दोनों कान पकड़कर जोर से ऐंठे और तीन तमाचे लगा दिये. गोवीन्दी रोती हुई अन्दर चली गयी. जरा देर में डाक्टर नाग आये और सिविल सर्जन मिस्टर टाड आये और भिषगाचार्य नीलकण्ठ शास्त्री आये, पर गोविन्दी बच्चे को लिये अपने कमरे में बैठी रही. किसने क्या कहा, क्या तशखीश की,उसे कुछ मालूम नहीं. जिस विपत्ति की कल्पना वह कर रही थी, वह आज उसके सिर पर आ गयी. खन्ना ने आज जैसे उससे नाता तोड़ लिया, जैसे उसे घर से खदेड़कर द्वार बन्द कर लिया. जो रूप का बाजार लगाकर बैठती है, जिसकी परछाई भी वह अपने ऊपर पड़ने नहीं देना चाहती है....वह उस पर परोक्ष रूप से शासन करे! यह न होगा. खन्ना उसके पति हैं, उन्हें उसको समझाने-बुझाने का अधिकार है, उनकी मार को भी वह शिरोधार्य कर सकती है, पर मालती का शासन? असंभव! मगर बच्चे का ज्वर जब तक शान्त न हो जाये, वह हिल नहीं सकती. आत्माभिमान को भी कर्तव्य के सामने सिर झुकाना पड़ेगा. दूसरे दिन बच्चे का ज्वर उतर गया था. गोविन्दी ने एक तांगा मंगवाया और घर से निकली. जहां उसका इतना अनादर है, वहां अब वह नहीं रह सकती. आघात इतना कठोर था कि बच्चों का मोह भी टूट गया था. उनके प्रति उसका जो धर्म था, उसे वह पूरा कर चुकी है. जो कुछ है वह खन्ना का धर्म है. हां, गोद के बालक को वह किसी तरह नहीं छोड़ सकती. वह उसकी जान के साथ है. और इस घर से वह केवल अपने प्राण लेकर निकलेगी. और कोई चीज उसकी नहीं है. इन्हें यह दावा है कि वह उसका पालन करते हैं. गोविन्दी दिखा देगी कि वह उनके आश्रय से निकलकर भी जिन्दा रह सकती है. तीनों बच्चे उस समय खेलने गये थे. गोविन्दी का मन हुआ, एक बार उन्हें प्यार कर ले, मगर वह कहीं भागी तो नहीं जाती. बच्चों का उससे प्रेम होगा, तो उसके पास आयेंगे, उसके घर में खेलेंगे. वह जब जरूरत समझेगी, खुद बच्चों को देख आया करेगी. केवल खन्ना का आश्रय नहीं लेना चाहती. सांझ हो गयी थी. पार्क में रौनक थी. लोग हरी घास पर लेटे हवा का आनन्द लूट रहे थे. गोविन्दी हजरतगंज होती हुई चिड़िया घर की तरफ मुड़ी ही थी कि कार पर मालती और खन्ना सामने से आते हुए दिखाई दिये. उसे मालूम हुआ,खन्ना ने उसकी तरफ इशारा करके कुछ कहा और मालती मुस्करायी. नहीं शायद यह उसका भ्रम हो. खन्ना मालती से उसकी निन्दा न करेंगे, मगर कितनी बेशर्म है. सुना है इसकी अच्छी प्रेक्टिस है, घर की भी सम्पन्न है, फिर भी यों अपने को बेचती फिरती है! न जाने क्यों ब्याह नहीं कर लेती, लेकिन उससे ब्याह करेगा ही कौन? नहीं, यह बात नहीं, पुरुषों में भी ऐसे बहुत हो गये हैं, जो उसे पाकर अपने को धन्य मानेंगे, लेकिन मालती खुद तो किसी को पसन्द करे? और ब्याह में कौन-सा सुख रखा हुआ है? बहुत अच्छा करती है, जो ब्याह नहीं करती. अभी सब उसके गुलाम हैं. तब वह एक की लौंडी होकर रह जायेगी. बहुत अच्छा कर रही है. अभी तो यह महाशय भी उसके तलवे चाटते हैं. कहीं इनसे ब्याह कर लें, तो उस पर शासन करने लगे, मगर इनसे वह क्यों ब्याह करेगी? और समाज में दो चार-ऐसी स्त्रियां बनी रहें, तो अच्छा, पुरुषों के कान तो गरम करती रहें. आज गोविन्दी के मन में मालती के प्रति बड़ी सहानुभूति उत्पन्न हुई. वह मालती पर आक्षेप करके उसके साथ अन्याय कर रही है.क्या मेरी दशा देखकर उसकी आंखें न खुलती होंगी? विवाहित जीवन की दुर्दशा आंखों देखकर अगर वह इस जाल में नहीं फंसती, तो क्या बुरा करती है? चिड़िया घर में चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ था. गोविन्दी ने तांगा रोक दिया और बच्चे को लिये हरी दूब की तरफ चली,मगर दो ही तीन कदम चली थी कि चप्पल पानी में डूब गये. तभी थोड़ी देर पहले लान सींचा गया था और घास के नीचे पानी बह रहा था. उस उतावली में उसने पीछे न फिरकर एक कदम और आगे रखा तो पांव कीचड़ में सन गये. उसने पांव की ओर देखा. अब यहां पांव धोने के लिए पानी कहां मिलेगा? उसकी सारी मनोव्यथा लुप्त हो गई. पांव धोकर साफ करने की नयी चिन्ता हुई. उसकी विचारधारा रुक गई. जब तक पांव साफ न हो जाये, वह कुछ नहीं सोच सकती. सहसा उसे एक लम्बा पाइप घास में छिपा नजर आया, जिसमें पानी बह रहा था. उसने जाकर पांव धोये, चप्पल धोये, हाथ-मुंह, थोड़ा-सा पानी चुल्लू में लेकर पिया और पाइप के उस पार सूखी जमीन पर जा बैठी. उदासी से मौत की याद तुरन्त आ जाती है.कहीं वह बैठे- -बैठे मर जाये, तो क्या हो? तांगेवाला तुरन्त जाकरे खन्ना को खबर देगा. खन्ना सुनते ही खिल उठेंगे, लेकिन दुनिया को दिखाने के लिए आंखों पर रुमाल रख लेंगे. बच्चों के लिये खिलौने और तमाशे मां से प्यारे हैं. यह है उसका जीवन, जिसके लिए कोई चार बूंद आंसू बहाने वाला भी नहीं. तब उसे वह दिन याद आया,जब उसकी सास जीती थी ऊर खान्ना उड़न्छू न हुए थे, तब सास का बात-बात पर बिगड़ना बुरा लगता था. आज उसे सास के उस क्रोध में स्नेह का रस घुला जान पड़ रहा था. तब वह सास से रूठ जाती थी और सास उसे दुलारकर मनाती थी.आज वह महीनों रूठी पड़ी रहे, किसे परवा है? एकाएक उसका मन उड़कर माता के चरणों में जा पहुंचा. हाय! आज अम्मां होती, तो क्यों उसकी यह दुर्दशा होती? उसके पास और कुछ न था, स्नेह-भरी तो गोद थी, प्रेम-भरा अञ्चल तो था,जिसमें मुंह डालकर वह रो लेती, लेकिन नहीं,वह रोयेगी नहीं, उस देवी को स्वर्ग में दुखी न बनायेगी. मेरे लिए वह जो कुछ ज्यादा-से-ज्यादा कर सकती थी, वह कर गयी. मेरे कर्मों की साथिन होना उनके वश की बात न थी. और वह क्यों रोये? वह अब किसी के अधीन नहीं है. वह अपने गुजर-भर को कमा सकती है. वह कल ही गांधी आश्रम से चीजें लेकर बेचना शुरू कर देगी. शर्म किस बात की? यही तो होगा, लोग उंगली दिखाकर कहेंगे-वह जा रही है खन्ना कि बीवी, लेकिन इस शहर में रहूं क्यों? किसी दूसरे शहर में क्यों न चली जाऊं,जहां मुझे कोई जानता ही न हो. दस-बीस रुपये कमा लेना ऐसा क्या मुश्किल है. अपने पसीने की कमाई तो खाऊंगी, फिर तो कोई मुझ पर रोब न जमायेगा. यह महाशय इसलिए तो इतना मिजाज करते हैं कि वह मेरा पालन करते हैं. मैं अब खुद अपना पालन करूंगी. सहसा उसने मेहता को अपनी तरफ आते देखा. उसे उलझन हुई. इस वक्त वह सम्पूर्ण एकान्त चाहती थी. किसी से बोलने की इच्छा न थी, मगर यहां भी एक महाशय आ ही गये.उस पर 151 बच्चा भी रोने लगा था. मेहता ने समीप आकर विस्मय के साथ पूछा-आप इस वक्त यहां कैसे आ गयीं? गोविन्दी ने बालक को चुप कराते हुऐ कहा- उसी तरह, जैसे आप आ गये. मेहता ने मुस्कराकर कहा- मेरी बात न चलाइये. धोबी का कुत्ता, न घर का, न घाट का. लाइये, मैं बच्चे को चुप करा दूं. `आपने यह कला कब सीखी?' `अभ्यास करना चाहता हूं. इसकी परीक्षा जो होगी.' `अच्छा! परीक्षा के दिन करीब आ गये?' `यह तो मेरी तैयारी पर है. जब तैयार हो जाऊंगा, बैठ जाऊंगा. छोटी-छोटी उपाधियों के लिए हम पढ़-पढ़कर आंखें फोड़ लिया करते हैं. यह तो जीवन-व्यापार की परीक्षा है.' `अच्छी बात है, मैं भी देखूं, आप किस ग्रेड में पास होते हैं.' यह कहते हुए उसने बच्चे को उनकी गोद में दे दिया. उन्होंने बच्चे को कई बार उछाला, तो वह चुप हो गया. बालकों की तरह डींग मारकर बोले-देखा आपने, कैसा मन्तर के जोर से चुप कर दिया. अब मैं भी कहीं से बच्चा लाऊंगा. गोविन्दी ने विनोद किया-बच्चा ही लाइयेगा या उसकी मां भी? मेहता ने विनोद भरी निराशा से सिर हिलाकर कहा-ऐसी औरत तो कहीं मिलती ही नहीं. `क्यों मिस मालती नहीं है? सुन्दरी, शिक्षित, गुणवती, मनोहारिणी, और आप क्या चाहते है?' `मिस मालती मैं वह एक बात भी नहीं है, जो मैं अपनी स्त्री में देखना चाहता हूं.' गोविन्दी ने इस कुत्सा का आनन्द लेते हुए कहा- उसमें बुराई है, सुनूं. भौंरे तो हमेशा घेरे रहते हैं. मैंने सुना है, आजकल पुरुषों को ऐसी ही औरतें पसन्द आती हैं. मेहता ने बच्चे के हाथ से अपनी मूंछों की रक्षा करते हुए कहा- मेरी स्त्री कुछ और ही ढ़ंग की होगी. वह ऐसी होगी, जिसकी मैं पूजा कर सकूंगा. गोविन्दी अपनी हंसी न रोक सकी-तो आप स्त्री नहीं, कोई प्रतिमा चाहते हैं. स्त्री तो शायद ही कहीं मिले. `जी नहीं, ऐसी एक देवी इसी शहर में है.' `सच! मैं भी उसके दर्शन करती, और उसी तरह बनने की चेष्टा करती.' `आप उसे खूब जानती हैं. एक लखपती की पत्नी है, पर विलास को तुच्छ समझती है. जो उपेक्षा और अनादर सहकर भी अपने कर्तव्य से विचलित नहीं होती, जो मातृत्व की वेदी पर अपने को बलिदान करती है, जिसके लिए त्याग ही सबसे बड़ा अधिकार है, और जो इस योग्य है कि उसकी प्रतिमा बनाकर पूजी जाये.' गोविन्दी के हृदय मै आनन्द का कम्पन्न हुआ. समझकर भी न समझने का अभिनय करती हुई बोली-ऐसी स्त्री की आप तारीफ करते हैं! मगर मेरी समझ में तो वह दया की पात्र है. वह आदर्श नारी है और जो आदर्श नारी हो सकती है, वही आदर्श पत्नी भी हो सकती है. मेहता ने आश्चर्य से कहा-आप उसका अपमान करती हैं. `लेकिन वह आदर्श इस युग के लिए नहीं है.' `वह आदर्श सनातन है और अमर है. मनुष्य उसे विकृत करके अपना सर्वनाश कर रहा है.' गोविन्दी का अन्तःकरण खिला जा रहा था. ऐसी फुरेरियां, वहां कभी न उठी थीं. जितने आदमियों से उसका परिचय था, उनमें मेहता का स्थान सबसे ऊंचा था. उनके मुख से यह प्रोत्साहन पाकर वह मतवाली हुई जा रही थी. उसी नशे में बोली-तो चलिये, मुझे उनके दर्शन करा दीजिये. मेहता ने बालक के कपोलों में मुंह छिपाकर कहा-वह तो यहीं बैठी हुई है. `कहा,मैं तो नहीं देख रही हूं.' `उसी देवी से बोल रहा हूं.' गोविन्दी ने जोर से कहकहा भरा- आपने मुझे बनाने की ठान ली, क्यों? मेहता ने श्रद्धावनत होकर कहा-देवीजी, आप मेरे साथ अन्याय कर रही हैं, और मुझसे ज्यादा अपने साथ, संसार में ऐसे बहुत कम प्राणीं हैं, जिनके प्रति मेरे मन में श्रद्धा हो. उन्हीं में एक आप हैं.आपका धैर्य और त्याग और शील और प्रेम अनुपम हैं! मैं अपने जीवन में सबसे बड़े सुख की कल्पना कर सकता हूं, वह आप जैसी किसी देवी के चरणों की सेवा है. जिस नारीत्व को मैं आदर्श मानता हूं,आप उसकी सजीव प्रतिमा हैं. गोविन्दी की आंखों से आनन्द के आंसू निकल पड़े. इस श्रद्धा-कवच को धारण करके वह किस विपत्ति का सामाना न करेगी? उसके रोम रोम से जैसे मृदु संगीत की ध्वनि निकल पड़ी. उसने अपने रमणीत्व का उल्लास मन में दबाकर कहा- आप दार्शनिक क्यों हुए मेहता जी? आपको तो कवि होना चाहिए था. मेहता सरलता से हंसकर बोले-क्या आप समझती हैं बिना दार्शनिक हुए ही कोई कवि हो सकता है? दर्शन तो केवल बीच की मंजिल है. `तो अभी आप कवित्व के रास्ते में हैं, लेकिन आप यह भी जानते हैं कि कवि को संसार में कभी सुख नहीं मिलता.' `जिसे संसार दुःख कहता वही कवि के लिए सुख है. धन और ऐश्वर्य, रूप और बल, विद्या और बुद्धि,ये विभूतियां संसार को चाहे कितना ही मोहित कर लें, कवि के लिए यहां जरा भी आकर्षण नहीं है,उसके मोद और आकर्षण की वस्तु तो बुझी हुई आशाएं और मिटी हुई स्मृतियां और टूटे हुए हृदय के आंसू हैं. जिस दिन इन विभूतियों में उसका प्रेम न रहेगा , उस दिन वह कवि न रहेगा.दर्शन जीवन के इन रहस्यों से केवल विनोद करता है, कवि उनमें लय हो जाता है. मैंने आपकी दो-चार कविताएं पढ़ी हैं और उनमें जितनी पुलक, जितना कम्पन, जितनी मधुर व्यथा, जितना रुलाने वाला उन्माद पाया है, वह मैं ही जानता हूं. प्रकृति ने हमारे साथ कितना बड़ा अन्याय किया है कि आप जैसी कोई दूसरी देवी नहीं बनायी. गोविन्दी ने हसरत-भरे स्वर में कहा-नहीं मेहता जी, यह आपका भ्रम है. ऐसी नारियां यहां आपको गली-गली में मिलेंगी और मैं तो उन सबसे गयी -बीती हूं. जो स्त्री अपने पुरुष को प्रसन्न न रख सके, अपने को उसके मन की न बना सके, वह भी कोई स्त्री है? मैं तो कभी-कभी सोचती हूं कि मालती से यह कला सीखूं. जहां मैं असफल हूं, वहां वह सफल है. मैं अपने को भी अपना नहीं बना सकती, वह दूसरों को भी अपना बना लेती है. क्या यह उसके लिए श्रेय की बात नहीं? मेहता ने मुंह बनाकर कहा- शराब अगर लोगों को पागल कर देती है, तो इसलिए उसे क्या पानी से अच्छा समझा जाये, जो प्यास बुझाता है, जिलाता है, और शान्त करता है? गोविन्दी ने विनोद की शरण लेकर कहा- कुछ भी हो, मैं तो यह देखती हूं कि पानी मारा- मारा फिरता है और शराब के लिए घर-द्वार बिक जाते हैं, और शराब जितनी ही तेज और नशीली हो,उतनी ही अच्छी. मैं तो सुनती हूं, आप भी शराब के उपासक हैं? गोविन्दी निराशा की उस दशा को पहुंच गयी थी, जब आदमी को सत्य और धर्म में भी सन्देह होने लगता है, लेकिन मेहता का ध्यान उधर न गया. उनका ध्यान तो वाक्य के अन्तिम भाग पर ही चिमटकर रह गया. अपने मसलेहत पर उन्हें जितनी लज्जा और क्षोभ आज हुआ, उतना बड़े-बड़े उपदेश सुनकर भी न हुआ था. तर्कों को उनके पास जवाब था और मुंह-तोड़, लेकिन इस मीठी चुटकी का उन्हें कोई जवाब न सूझा. वह पछताये कि कहां उन्हें शराब की युक्ति सूझी. उन्होंने खुद मालती की शराब से उपमा दी थी. उनका वार अपने ही सिर पर पड़ा. लज्जित होकर बोले-देवी जी, मैं स्वीकार करता हूं कि मुझमें यह आसक्ति है. मैं अपने लिए उसकी जरूरत बतलाकर और उसके विचारोत्तेजक गुणों के प्रमाण देकर गुनाह का उज्र न करुंगा, जो गुनाह से भी बदतर है. आज आपके सामने प्रतिज्ञा करता हूं कि शराब की एक बूंद भी कण्ठ के नीचे न जाने दूंगा. गोविन्दी ने सन्नाटे में आकर कहा-यह आपने क्या किया मेहताजी? मैं ईश्वर से कहती हूं मेरा यह आशय न था. मुझे इसका दुःख है. `नहीं, आपको प्रसन्न होना चाहिए कि आपने एक व्यक्ति का उद्धार कर दिया.' `मैंने आपका उद्धार कर दिया? मैं तो खुद अपने उद्धार की याचना करने जा रही हूं.' `मुझसे? धन्य भाग.' गोविन्दी ने करुण स्वर में कहा-हां, आपके सिवा मुझे कोई ऐसा नहीं नजर आता, जिसे मैं अपनी कथा सुनाऊं. देखिये, यह बात अपने ही तक रखियेगा, हालांकि आपको यह याद दिलाने की जरूरत नहीं. मुझे अब अपना जीवन असह्य हो गया है. मुझसे अब तक जितनी तपस्या हो सकी, मैंने की, लेकिन अब नहीं सहा जाता. मालती मेरा सर्वनाश किये डालती है.मैं अपने किसी शस्त्र से उस पर विजय नहीं पा सकती. आपका उस पर प्रभाव है. वह जितना आपका आदर करती है, शायद और किसी मर्द का नहीं करती. अगर आप किसी तरह मुझे उसके पंजे से छुड़ा दें, तो मैं जन्म -भर आपकी ऋणी रहूंगी. उसके हाथों मेरा सौभाग्य लुटा जा रहा है. आप अगर मेरी रक्षा कर सकते हैं, तो कीजिये. मैं आज घर से यह इरादा करके चली थी कि फिर लौटकर न जाऊंगी. मैंने बड़ा जोर मारा कि मोह के सारे बन्धनों को तोड़कर फेंक दूं, लेकिन औरत का हृदय बड़ा दुर्बल है मेहताजी! मोह उसका प्राण है. जीवन रहते मोह तोड़ ना उसके लिए असम्भव है. मैने आज तक अपनी व्यथा अपने मन में रखी, लेकिन आज मैं आपसे आंचल फैलाकर भिक्षा मांगती हूं. मालती से मेरा उद्धार कीजिये. मैं इस मायाविनी के हाथों मिटी जा रही हूं. उसका स्वर आंसुओं में डूब गया. वह फूट-फूटकर रोने लगी. मेहता अपनी नजरों में कभी इतने ऊंचे न उठे थे, उस वक्त भी नहीं, जब उनकी रचना को फ्रांस की एकाडमी ने शताब्दी की सबसे उत्तम कृति कहकर उन्हें बधाई दी थी. जिस प्रतिमा की वह सच्चे दिल से पूजा करते थे,जिसे मन में वह अपनी इष्ट देवी समझते थे और जीवन के असूझ प्रसंगों में जिससे आदेश पाने की आशा रखते थे, वह आज उनसे भिक्षा मांग रही थी. उन्हें अपने अन्दर ऐसी शक्ति का अनुभव हुआ कि वह पर्वत को भी फाड़ सकते हैं, समुद्र को तैरकर पार कर सकते हैं. उन पर नशा-सा छा गया, जैसे बालक काठ के घोड़े पर सवार होकर समझ रहा हो, वह हवा में उड़ रहा हो, काम कितना असाध्य है, इसकी सुधि न रही. अपने सिद्धान्तों की कितनी हत्या करनी पड़ेगी, बिलकुल खयाल न रहा. आश्वासन के स्वर में बोले- मुझे न मालूम था कि आप उससे इतनी दुखी हैं. मेरी बुद्धि का दोष, आंखों का दोष, कल्पना का दोष, और क्या कहूं, वरना आपको इतनी वेदना क्यों सहनी पड़ती? गोविन्दी को शंका हुई. बोली-लेकिन सिंहनी से उसका शिकार छीनना आसान काम नहीं है, यह समझ लीजिये. मेहता ने दृढ़ता से कहा-नारी-हृदय धरती के समान है, जिससे मिठास भी मिल सकती है, कड़वापन. उसके अन्दर पड़नेवाले बीज में जैसी शक्ति हो. `आप पछता रहे होंगे, कहां से आज इससे मुलाकात हो गयी.' `मैं अगर कहूं कि मुझे आज ही जीवन का वास्तविक आनन्द मिला है, तो शायद आपको विश्वास न आये.' `मैंने आपके सिर पर इतना बड़ा भार रख दिया.' मेहता ने श्रद्धा-मधुर स्वर में कहा-आप मुझे लज्जित कर रही हैं देवीजी! मैं कह चुका, मैं आपका सेवक हूं. आपके हित में मेरे प्राण भी निकल जायें, तो मैं अपना सौभाग्य समझूंगा. इसे कवियों का भावावेश न समझिये, यह मेरे जीवन का सत्य है. मेरे जीवन का क्या आदर्श है, आपको यह बतला देने का मोह मुझसे नहीं रुक सकता. मैं प्रकृति का पुजारी हूं और मनुष्य को उसके प्राकृतिक रूप में देखना चाहता हूं, जो प्रसन्न हो कर हंसता है,दुखी होकर रोता है, और क्रोध में आकर मार डालता है. जो दुःख और सुख दोनों का दमन करते हैं, जो रोने को कमजोरी और हंसने को हलकापन समझते हैं, उनसे मेरा कोई मेल नहीं. जीवन मेरे लिए आनन्दमय क्रीड़ा है, सरल, स्वच्छन्द, जहां कुत्सा, ईर्ष्या और जलन के लिए कोई स्थान नहीं. मैं भूत की चिन्ता नहीं करता, भविष्य की परवा नहीं करता.मेरे लिए वर्तमान ही सब कुछ है. भविष्य की चिन्ता हमें कायर बना देती है, भूत का भार हमारी कमर तोड़ देता है. हममें जीवन की शक्ति इतनी कम है कि भूत और भविष्य में फैला देने से वह और भी क्षीण हो जाती है.हम व्यर्थ का भारे लादकर रूढ़ियों और विश्वासों और इतिहासों के मलवे के नीचे दबे पड़े हैं, उठने का नाम नहीं लेते, वह सामर्थ्य ही नहीं रही. जो शक्ति, जो स्फूर्ति मानव-धर्म को पूरा करने में लगनी चाहिए थी, सहयोग में, भाई-चारे में, वह पुरानी अदावतों का बदला लेने और बाप- दादों का ऋण चुकाने की भेंट हो जाती है. और जो यह ईश्वर और मोक्ष का चक्कर है, इस पर तो मुझे हंसी आती है.यह मोक्ष और उपासना अहंकार की पराकाष्ठा है, जो हमारी मानवता को नष्ट किये डालती है. जहां जीवन है, क्रीड़ा है, चहक है, प्रेम है, वहीं ईश्वर है, और जीवन को सुखी बनाना ही उपासना है, और मोक्ष है.ज्ञानी कहता है ओठों पर मुसकराहट न आये, आंखों में आसूं न आयें. मैं कहता हूं, अगर तुम हंस नहीं सकते और रो नहीं सकते, तो तुम मनुष्य नहीं हो, पत्थर हो.वह ज्ञान, जो मानवता को पीस डाले, ज्ञान नहीं है, कोल्हू है. मगर क्षमा कीजिये, मैं तो एक पूरी स्पीच ही दे गया. अब देर हो रही है, चलिये, मैं आपको पहुंचा दूं. बच्चा भी मेरी गोद में सो गया. गोविन्दी ने कहा-मैं तो तांगा लायी हूं. `तांगे को यहीं से विदा कर देता हूं.' मेहता तांगे के पैसे चुकाकर लौटे, तो गोविन्दी ने कहा-लेकिन आप मुझे कहां ले जायेंगे? मेहता ने चौंककर पूछा-क्यों, आपके घर पहुंचा दूंगा. `वह मेरा घर नहीं है मेहता जी!' `और क्या मिस्टर खन्ना का गर है?' `यह भी क्या पूछने की बात है? अब वह घर मेरा नहीं रहा. जहां अपमान और धिक्कार मिले, उसे मैं अपना घर नहीं कह सकती, न समझ सकती हूं.' मेहता ने दर्द भरे स्वर में, जिसका एक-एक अक्षर उनके अन्थःकरण से निकल रहा था, कहा- -नहीं देवीजी, वह घर आपका है, और सदैव रहेगा. उस घर की आपने सृष्टि की है, उसके प्राणियों की सृष्टि की है. और प्राण जैसे देह का सञ्चालन करता है, प्राण निकल जाये तो देह की क्या गति होगी?मातृत्व महान गौरव का पद है देवीजी! और गौरव के पद में कहां अपमान और धिक्कार और तिरस्कार नहीं मिला? माता का काम जीवन दान देना है. जिसके हाथों में इतनी अतुल शक्ति है, उसे इसकी क्या परवाह कि कौन उससे रूठता है, कौन बिगड़ता है.प्राण के बिना जैसे देह नहीं रह सकता, उसी तरह प्राण का भी देह ही सबसे उपयुक्त स्थान है. मैं आपको धर्म और त्याग का क्या उपदेश दूं? आप तो उसकी सजीव प्रतिमा हैं. मैं तो यही कहूंगा कि... गोविन्दी ने अधीर होकर कहा-लेकिन मैं केवल माता ही तो नहीं हूं, नारी भी तो हूं? मेहता ने एक मिनट मौन रहने के बाद कहा-हां, हैं, लेकिन मैं समझता हूं कि नारी केवल माता है, और इसके उपरान्त वह जो कुछ है, वह सब मातृत्व का उपकृम मात्र.मातृत्व संसार की सबसे बड़ी साधना, सबसे बड़ी तपस्या, सबसे बड़ा त्याग और सबसे महान् विजय है. एक शब्द में उसे लय कहूंगा-जीवन का, व्यक्तित्व का और नारीत्व का भी.आप मिस्टर खन्ना के विषय में यही समझ लें कि वह अपने होश में नहीं हैं. वह जो कुछ कहते हैं या करते हैं, वह उन्माद की दशा में करते हैं, मगर यह उन्माद शान्त होने में बहुत दिन न लगेंगे, और वह समय बहुत जल्द आयेगा, जब वह आपको अपनी इष्टदेवी समझेंगे. गोविन्दी ने इसका कुछ जवाब नहीं दिया. धीरे-धीरे कार की ओर चली. मेहता ने बढ़कर कार का द्वार खोल दिया. गोविन्दी अन्दर जा बैठी. कार चली, मगर दोनों मौन थे. गोविन्दी जब अपने द्वार पर पहुंचकर कार से उतरी, तो बिजली के प्रकाश में मेहता ने देखा,उसकी आंखे सजल हैं. बच्चे घर से निकल आये ओर अम्मां-अम्मां कहते हुए माता से लिपट गये. गोविन्दी के मुख पर मातृत्व की उज्ज्वल गौरवमयी ज्योति चमक उठी. उसने मेहता से कहा-इस कष्ट के लिए आपको बहुत धन्यवाद. और सिर नीचा कर लिया. आंसू की एक बूंद उसके कपोल पर आ गिरी थी. मेहता की आंखे भी सजल हो गईं- इस ऐश्वर्य और विलास के बीच में भी यह नारी-हृदय कितना दुखी है.

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मिर्जा खुर्शेद का हाता क्लब भी है, कचहरी भी, अखाड़ा भी. दिन-भर जमघट लगा रहता है. मुहल्ले में अखाड़े के लिए कहीं जगह नहीं मिलती थी. मिर्जा ने एक छप्पर डलवाकर अखाड़ा बनवा दिया है. वहां नित्य सौ-पचास लड़न्तिए आ जुटते हैं. मिर्जाजी भी उनके साथ जोर करते हैं. मुहल्ले की पंचायतें भी यहीं होती हैं. मियां-बीबी और सास-बहू और भाई-भाई के झगड़े-टण्टे यहीं चुकाये जाते हैं. मुहल्ले के सामाजिक जीवन का यही केन्द्र है और राजनीतिक आन्दोलन का भी. आये दिन सभाएं होती रहती हैं.यहीं स्वयंसेवक टिकते हैं, यहीं उनके प्रोग्राम बनते हैं, यहीं से नगर का राजनीतिक सञ्चालन होता है पिछले जलसे में मालती नगर कांग्रेस कमेटी की सभानेत्री चुन ली गई है. तब से इस स्थान की रौनक और भी बढ़ गयी है. गोबर को यहां रहते साल भर हो गया. अब वह सीधा-सादा ग्रामीण युवक नहीं है.उसने बहुत कुछ दुनिया देख ली, और संसार का रंग-ढंग भी कुछ-कुछ समझने लगा है. मूल में वह अब भी देहाती है, पैसे को दांत से पकड़ता है, स्वार्थ को कभी नहीं छोड़ता, और परिश्रम से जी नहीं चुराता, न कभी हिम्मत हारता है, लेकिन शहर की हवा उसे भी लग गयी है. उसने पहले महीने तो केवल मजूरी की और आधा पेट खाकर थोड़े रुपये बचा लिये. फिर वह कचालू और मटर और दही-बड़े के खोंचे लगाने लगा. इधर ज्यादा लाभ देखा, तो नौकरी छोड़ दी. गरमियों में शर्बत और बरफ की दुकान उठा दी ओर गरम चाय पिलाने लगा. अब उसकी रोजाना आमदनी ढाई-तीन रुपये से कम नहीं.उसने अंग्रेजी फैशन के बाल कटवा लिये हैं, महीन धोती और पम्प शू पहनता है. एक लाल उनी चादर खरीद ली और पान-सिगरेट का शौकीन हो गया है.सभाओं में आने-जाने से उसे कुछ-कुछ राजनीतिक ज्ञान भी हो चला है, राष्ट्र और वर्ग का अर्थ समझने लगा है. सामाजिक रूढ़ियों की प्रतिष्ठा और लोक-निन्दा का भय अब उसमें बहुत कम रह गया है. आये दिन पंचायतों ने उसे निस्संकोच बना दिया है. जिस बात के पीछे वह यहां घर से दूर, मुंह छिपाये पड़ा हुआ है, उसी तरह की, बल्कि उस से भी कहीं निन्दास्पद बातें यहां नित्य हुआ करती हैं, और कोई भागता नहीं. फिर वही क्यों इतना डरे और मुंह चुराये? इतने दिनों में उसने एक पैसा भी घर नहीं भेजा.वह माता-पिता को रुपये-पैसे के मामले में इतना चतुर नहीं समझता. वे लोग तो रुपये पाते ही आकाश में उड़ने लगेंगे. दादा को तुरन्त गया करने की और अम्मां को गहने बनवाने की धुन सवार हो जायेगी. ऐसे व्यर्थ के कामों के लिए उसके पास रुपये नहीं हैं. अब वह छोटा मोटा महाजन है. पड़ोस के एक्के वालों और धोबियों को सूद पर रुपये उधार देता है. इस दस-ग्यारह महीने में ही उसने अपनी मेहनत और किफायत और पुरुषार्थ से अपना स्थान बना लिया है और अब झुनिया को यहीं लाकर रखने की बात सोच रहा है. तीसरे पहर का समय है. वह सड़क के नल पर नहाकर आया है और शाम के लिए आलू उबाल रहा है कि मिर्जा खुर्शेद आकर द्वार पर खड़े हो गये. गोबर अब उनका नौकर नहीं है, पर अदब इसी तरह करता है और उनके लिए जान देने को तैयार रहता है. द्वार पर जाकर पूछा- क्या हुक्म है सरकार? मिर्जा ने खड़े खड़े कहा-तुम्हारे पास कुछ रुपये हो तो दे दो. आज तीन दिन से बोतल खाली पड़ी हुई है, जी बहुत बेचैन हो रहा है. गोबर ने इसके पहले भी दो तीन बार मिर्जाजी को रुपये दिये थे,पर अब तक वसूल न कर सका था.तकाजा करते डरता था और मिर्जाजी रुपये लेकर देना न जानते थे. उनके हाथ में रुपये टिकते ही न थे. इधर आये, उधर गायब. यह तो न कह सका, मैं रुपये न दूंगा या मेरे पास रुपये नहीं है, शराब की निन्दा करने लगा-आप इसे छोड़ क्यों नहीं देते सरकार? क्या इसके पीने से कुछ फायदा होता है? मिर्जा ने कोठरी के अन्दर खाट पर बैठते हुए कहा-तुम समझते हो,मैं छोड़ना नहीं चाहता और शौक से पीता हूं मैं इसके बगैर जिन्दा नहीं रह सकता. तुम अपने रुपये के लिए न डरो, मैं एक-एक कौड़ी अदा कर दूंगा. गोबर अविचलित रहा-मैं सच कहता हूं मालिक, मेरे पास इस समय रुपये होते, तो आपसे इनकार करता? `दो रुपये भी नहीं दे सकते?' `इस समय तो नहीं है.' `मेरी अंगूठी गिरो रख लो.' गोबर का मन ललचा उठा, मगर बात कैसे बदले? बोला-यह आप क्या कहते हैं मालिक, रुपये होते, तो आपको दे देता,अंगूठी की कौन बात थी मिर्जा ने अपने स्वर में बड़ा दीन आग्रह भरकर कहा-मैं फिर तुमसे कभी न मांगूगा गोबर मुझसे खड़ा नहीं हुआ जा रहा है. इस शराब की बदौलत मैंने लाखों की हैसियत बिगाड़ दी और भिखारी हो गया. अब मुझे भी जिद पड़ गयी है कि चाहे भीख मांगनी पड़े, इसे छोड़ूंगा नहीं. जब गोबर ने अबकी बार इनकार किया, तो मिर्जा साहब निराश होकर चले गये. शहर में उनके हजारों मिलनेवाले थे. कितने ही उनकी बदौलत बन गये थे. कितनों ही की गाढ़े समय पर मदद की थी,पर ऐसे से वह मिलना भी न पसन्द करते थे. उन्हें ऐसे हजारों लटके मालूम थे, जिससे वह समय-समय पर रुपयों का ढेर लगा देते थे,पर पैसे की उनकी निगाह में कोई कद्र न थी. उनके हाथ में रुपये जैसे काटते थे. किसी-न किसी बहाने उड़ाकर ही उनका चित्त शान्त होता था. गोबर आलू छीलने लगा. साल-भर के अन्दर ही वह इतना काइयां हो गया था और पैसा जोड़ने में इतना कुशल कि अचरज होता था. जिस कोठरी में वह रहता है, वह मिर्जा साहब ने दी है इस कोठरी और बरामदे का किराया बड़ी आसानी से पांच रुपया मिल सकता है. गोबर लगभग साल-भर से रहता है, लेकिन मिर्जा ने न कभी किराया मांगा, न उसने दिया. उन्हे शायद खयाल भी न था कि इस कोठरी का कुछ किराया भी मिल सकता है. थोड़ी देर में एक एक्केवाला रुपये मांगने आया. अलादीन नाम था, सिर घुटा हुआ, खिचड़ी दाढ़ी और काना. उसकी लड़की विदा हो रही थी. पांच रुपये की उसे जरूरत थी. गोबर ने एक आना रुपया सूद पर दे दिये. अलादीन ने धन्यवाद देते हुए कहा- भैया, अब बाल-बच्चों को बुला लो.कब तक हाथ से ठोंकते रहोगे? गोबर ने शहर के खर्च का रोना रोया-थोड़ी आमदनी में गृहस्थी कैसे चलेगी? अलादीन बीड़ी जलाता हुआ बोला-खरच अल्लाह देगा भैया1 सोचो, कितना आराम मिलेगा. मैं कहता हूं, जितना तुम अकेले खरच करते हो, उसी में गृहस्थी चल जायेगी. औरत के हाथों में बड़ी बरक्कत होती है. खुदा कसम जब मैं अकेला यहां रहता था, तो चाहे कितना ही कमाऊं, खा-पी सब बराबर. बीड़ी तमाखू को भी पैसा न रहता था. उस पर हैरानी. थके-मांदे आओ, तो घोड़े को खिलाओ और टहलाओ. फिर नानबाई की दुकान पर दौड़ो. नाक में दम आ गया. जब से घरवाली आ गयी, इसी कमाई में उसकी रोटियां भी निकल आती हैं और आराम भी मिलता है. आखिर आदमी आराम के लिए ही तो कमाता है. जब जान खपाकर भी आराम न मिला, तो जिन्दगी ही गारत हो गयी. मैं तो कहता हूं, तुम्हारी कमाई बढ़ जायेगी भैया! जितनी देर में आलू और मटर उबालते हो, उतनी देर में दो-चार प्याले चाय बेच लोगे. अब चाय बारहों मास चलती है. रात को लेटोगे, तो घरवाली पांव दबायेगी. सारा थकान मिट जायेगी. यह बात गोबर के मन में बैठ गयी. जी उचाट हो गया. अब तो वह झुनिया को लाकर ही रहेगा. आलू चूल्हे पर चढ़े रह गये, और उसने घर जाने की तैयारी कर दी, मगर याद आया कि होली आ रही है, इसलिए होली का सामान भी लेता चले. कृपण लोगों में उत्सवों पर दिल खोलकर खर्च करने की जो प्रवृति होती है, वह उसमें भी सजग हो गयी. आखिर इसी दिन के लिए तो कौड़ी-कौड़ी जोड़ रहा था. वह मां, बहिनों और झुनिया के लिए एक-एक जोड़ी साड़ी ले जायगा.होरी के लिए एक धोती और एक चादर. सोना के लिए तेल की शीशी ले जायेगा, और एक जोड़ा चप्पल. रूपा के लिए जापानी चूड़ियां और झुनिया के लिए एक पिटारी, जिसमें तेल, सिन्दूर और आईना होगा. बच्चे के लिए टोप और फ्राक, जो बाजार में बना-बनाया मिलता है. उसने रुपये निकाले और बाजार चला. दोपहर तक सारी चीजें आ गयीं. बिस्तर भी बंध गया, मुहल्लेवालों को खबर हो गयी, गोबर घर जा रहा हे.कई मर्द औरत उसे विदा करने आये. गोबर ने उन्हे अपना घर सौंपते हुए कहा-तुम्ही लोगों पर छोड़े जाता हूं भगवान ने चाहा तो होली के दूसरे दिन लौटूंगा. एक युवती ने मुसकराकर कहा-मेहरिया को बिना लिये न आना, नहीं घर में न घुसने पाओगे. दूसरी प्रोढ़ा ने शिक्षा दी- हां, और क्या, बहुत दिनों तक चूल्हा फूंक चुके. ठिकाने से रोटी तो मिलेगी. गोबर ने सब को राम-राम किया-हिन्दू भी थे, मुसलमान भी थे, सभी से मित्र भाव था, सब एक-दूसरे के दुःख-दर्द के साथी. रोजा रखनेवाले रोजा रखते थे, एकादशी रखनेवाले एकादशी.कभी-कभी विनोद भाव से एक-दूसरे पर छींटे भी उड़ा लेते थे. गोबर अलादीन की नमाज को उठा-बैठी कहता,अलादीन पीपल के नीचे स्थापित सैंकड़ों छोटे बड़े शिवलिंगों को बटखरे बताता, लेकिन साम्प्रदायिक द्वेष का नाम