मानसरोवर भाग 1

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कहानी -- संग्रह

- लेखक - मुंशी प्रेमचंद

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गरीब की हाय

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मुंशी रामसेवक भौंहे चढ़ाये हुए घर से निकले और बोले-इस जीने से तो मरना भला है । मृत्यु को प्रायः इस तरह के जितने निमंत्रण दिये जाते हैं, वह सबको स्वीकार करती तो आज सारा संसार उजाड़ दिखाई देता । मुंशी रामसेवक चाँदपुर गाँव के एक बड़े रईस थे ।रईसों के सभी गुण इनमें भरपूर थे । मानव चरित्र की दुर्बलतायें उनके जीवन का आधार थीं । वह नित्य मुंसिफी कचहरी के हाते में एक पेड़ के नीचे कागजों का वस्ता खोले एक टूटी-सी चौकी पर बैठे दिखायी देते थे । किसी ने कभी उन्हें किसी इजलास पर कानूनी बहस या मुकदमे की पैरवी करते नहीं देखा । परन्तु उन्हें सब लोग मुख्तार साहब कह कर पुकारते थे । चाहे तूफान आवे, पानी बरसे, ओले गिरें, पर मुख्तार साहब वहाँ से टस से मस न होते । जब वह कचहरी चलते तो देहातियों के झुंड के झुंड उनके साथ हो लेते । चारों ओर से उन पर विश्वास और आदर की दृष्टि पड़ती । सब में प्रसिद्ध था कि उनकी जीभ पर सरस्वती विराजती है । इसे वकालत कहो, या मुख्तारी, परंतु यह केवल कुल-मर्यादा की प्रतिष्ठा का पालन था । आमदनी अधिक न होती थी ।चाँदी के सिक्कों की तो चर्चा क्या कभी कभी ताँबे के सिक्के भी निर्भय उनके पास आने में हिचकते थे । मुंशीजी की कानूनदानी में कोई संदेह न था । परंतु पास के बखेड़े ने उन्हें विवश कर दिया था । खेर जो हो, उनका यह पेशा केवल प्रतिष्ठा-पालन के निमित्त था । नहीं तो उनके निर्वाह का मुख्य साधन आस-पास की अनाथ पर खाने-पीने में सुखी विधवाओं और भोले-भाले किंतु धनी वृद्धों कि श्रद्धा थी । विधवाएँ अपना रुपया उनके यहाँ अमानत रखतीं । बूढ़े अपने कपूतों के डर से अपना धन उन्हें सौंप देते । रुपया एक बार उनकी मुट्ठी में जाकर पिर निकलना भूल जाता था । वह जरुरत पड़ने पर कभी-कभी कर्ज ले लेते थे । भला बिना कर्ज लिये किसी का काम चल सकता है ? भोर को साँझ के करार पर रुपया लेते, पर साँझ कभी नहीं आती थी । साराँश, मुंशी जी कर्ज ले कर देना सीखे नहीं थे । यह उनकी कुल प्रथा थी । यही सब मामले बहुध मुंशी जी के सुख-चैन में विघ्न डालते थे । कानून और अदालत का तो उन्हें कोई डर न था । इस मैदान में उनका सामना करना पानी में मगर से लड़ना था । परन्तु जब कोई दुष्ट उनसे भिड़ जाता, उनकी ईमानदारी पर संदेह करता और उनके मुँह पर बुरा-भला कहने पर उतारू हो जाता, तब मुंशी जी के हृदय पर चोट लगती । इस प्रकार की दुर्घटनाएँ प्रायः होती रहती थीं । हर जगह ऐसे ओछे लोग रहते हैं; जिन्हें दूसरों को नीचा दिखाने में ही आनंद आता है । ऐसे ही लोगों का सहारा पाकर कभी-कभी छोटे आदमी मुंशी जी के मुँह लग जाते थे । नहीं तो, एक कुँजड़िन की इतनी मजाल थी कि उनके आँगन में जाकर उन्हें बुरा-भला कहे । मुंशी जी उसके पुराने गाहक थे, बरसों तक उससे साग- भाजी ली थी । यदि दाम न दिया तो कुंजड़िन को संतोष करना चाहिए था । दाम जल्दी या देर से मिल ही जाता । परंतु वह मुँहफट कुँजड़िन दो ही बरसों में घबरा गयी, और उसने कुछ आने-पैसों के लिए एक प्रतिष्ठित आदमी का पानी उतार लिया । झुँझला कर मुंशी जी अपने को मृत्यु का कलेवा बनाने पर उतारू हो गये तो इसमें उनका कुछ दोष न था ।

(2)

इसी गाँव में मूँगा नाम की एक विधवा ब्राह्मणी रहती थी ।उसका पति बर्मा की काली पल- टन में हवालदार था और लड़ाई में वहीं मारा गया ।सरकार की और से उसके अच्छे कामों के बदले मूँगा को पाँच सौ रुपये मिले थे । विधवा स्त्री, जमाना नाजुक था ,बेचारी ने ये सब रुपये मुंशी रामसेवक को सौंप दिये, और महीने-महीने थोड़ा-थोड़ा उसमें से माँग के अपना निर्वाह करती रही । मुंशी जी ने यह कर्तव्य कई वर्ष तक तो बड़ी ईमानदारी के साथ पूरा किया । पर जब बूढ़ी होने पर भी मूँगा नहीं मरी और मुंशी जी को यह चिंता हुई कि शायद उसमें से आधी रकम भी स्वर्ग-यात्रा के लिए नहीं छोड़ना चाहती, तो एक दिन उन्होंने कहा-मूँगा तुम्हें मरना है या नहीं ? साफ-साफ कह दो कि मैं ही अपने मरने की फिक्र करूँ । उस दिन मूँगा की आँखें खुली, उसकी नींद टूटी, बोली-मेरा हिसाब कर दो । हिसाब का चिट्ठा तैयार था । अमानत में अब एक कौड़ी बाकी न थी । मूँगा ने बड़ी कड़ाई से मुंशी जी का हाथ पकड़ लिया और कहा - अभी मेरे ढाई सौ रुपये तुमने दबा रखे हैं । एक कौड़ी भी न छोड़ूँगी । परंतु अनाथों का क्रोध पटाखे की आवाज है, जिससे बच्चे डर जाते हैं और असर कुछ नहीं होता । अदालत में उसका कुछ जोर न था । न लिखा-पढ़ी थी न हिसाब-किताब । हाँ, पंचायत से कुछ आसरा था । पंचायत बैठी । कई गाँव के लोग इकट्ठे हुए । मुंशी जी नीयत और मामले के साथ थे । सभा में खड़े होकर पंचों से कहा- भाइयों? आप सब लोग सत्यपरायण और कुलीन हैं । मैं आप सब साहबों का दास हूँ । आप सब साहबों की उदारता और कृपा से, दया और प्रेम से रोम-रोम कृतज्ञ है । क्या आप लोग सोचते हैं कि मैं इस अनाथिनी और विधवा स्त्री के रुपये हड़प कर गया हूँ ? पंचों ने एक स्वर में कहा - नहीं नहीं ! आपसे ऐसा नहीं हो सकता । रामसेवक - यदि आप सब सज्जनों का विचार हो कि मैंने रुपये दबा लिये, तो मेरे लिए डूब मरने के सिवा और कोई उपाय नहीं । मैं धनाढ्य नहीं हूँ, न मुझे उदार होने का घमंड है पर अपनी कलम की कृपा से, आप लोग की कृपा से किसी का मुहताज नहीं हूँ । क्या मैं ऐसा ओछा हो जाऊँगा कि एक अनाथिनी के रुपये पचा लूँ ? पंचों ने एक स्वर से फिर कहा- नहीं नहीं, आप से ऐसा नहीं हो सकता मुँह देख कर टीका काढ़ा जाता है । पंचों ने मुंशी जी को छोड़ दिया । पंचायत उठ गयी । मूँगा ने आह भर कर संतोष किया और मन में कहा-अच्छा यहाँ न मिला तो न सही, वहाँ कहाँ जायगा ।

(3)

अब मूँगा का दुःख सुननेवाला और सहायक न था । दरिद्रता से कुछ दुःख भोगने पड़ते हैं, वह सब उसे झेलने पड़े । वह शरीर से पुष्ट थी,चाहती तो परिश्रम कर सकती थी । पर जिस दिन पंचायत पूरी हुई, उसी दिन से उसने काम करने की कसम खा ली । अब उसे रात-दिन रुपये की रट लगी रहती । उठते बैठते, सोते -जागते उसे केवल एक काम था, और वह मुंशी रामसेवक को भला मनाना । झोंपड़े के दरवाजे पर बैठी हुई रात-दिन, उन्हें सच्चे मन से असीसा करती । बहुधा अपनी असीस के वाक्यों में ऐसे कविता के भाव और उपमाओं का व्यवहार करती कि लोग सुन कर अचम्भे में आ जाते । धीरे धीरे मूँगा पगली हो चली । नंगे सिर, नंगे शरीर, हाथ में एक कुल्हाड़ी लिये हुए सुनसान स्थानों में जा बैठती । झोंपड़े के बदले अब वह मरघट पर नदी के किनारे खंड हरों में घूमती दिखायी देती । बिखरी हुई लटें, लाल-लाल आँखें, पागलों-सा चेहरा, सूखे हुए हाथ-पाँव । उसका यह स्वरूप देख कर लोग डर जाते थे । अब कोई उसे हँसी में भी नहीं छेड़ता । यदि वह कभी गाँव में निकल आती तो स्त्रियाँ घरों के किवाड़ बंद कर लेती । पुरुष कतरा कर इधर-उधर से निकल जाते और बच्चे चीख मार कर भागते । यदि कोई लड़का भागता न था तो वह मुंशी रामसेवक का सुपुत्र रामगुलाम था । बाप में जो कुछ कोर कसर रह गयी थी, वह बेटे में पूरी हो गयी थी । लड़कों का उसके मारे नाक में दम था । गाँव के काने और लँगड़े आदमी उसकी सूरत से चिढ़ते थे । और गालियाँ खाने में तो शायद ससुराल में आनेवाले दामाद को भी इतना आनंद न आता हो । वह मूँगा के पीछे तालियाँ बजाता, कुत्तों को साथ लिये हुए उस समय तक रहता जब तक वह बेचारी तंग आकर गाँव से निकल न जाती । रुपया=पैसा, होश-हवास खो कर उसे पगली की पदवी मिली । और अब बस सचमुच पगली थी । अकेली बैठी अपने आप घंटों बातें किया करती जिसमें रामसेवक के माँस हड्डी, चमड़े, आँखे कलेजा आदि को खाने, मसलने, नोचने-खसोटने की बड़ी उत्कट इच्छा प्रकट की जाती थी और जब उसकी यह इच्छा सीमा तक पहुँच जाती तो वह रामसेवक के घर की ओर मुँह करके खूब चिल्ला कर डरावने शब्दों में हाँक लगाती तेरा लहू पीऊँगी प्रायः रात के सन्नाटे में यह गरजती हुई आवाज सुनकर स्त्रियाँ चौंक पड़ती थी । परंतु इस आवाज से भयानक उसका ठठा कर हँसना था । मुंशी जी के लहू पीने की कल्पित खुशी में वह जोर से हँसा करती थी । इस ठठाने से ऐसी आसुरिक उद्दंडता, ऐसी पाशविक उग्रता टपकती थी कि रात को सुन कर लोगों का खून ठंडा हो जाता था । मालूम होता, मानों सैकड़ों उल्लू एक साथ हँस रहे है । मुंशी रामसेवक बड़े हौसले और कलेजे के आदमी थे । न उन्हें दीवानी का डर था, न फौजदारी का, परन्तु मूँगा के इन डरावने शब्दों को सुन वह भी सहम जाते । हमें मनुष्य के न्याय का डर न हो, परन्तु ईश्वर के न्याय का डर प्रत्येक मनुष्य के मन में स्वभाव से रहता है । मूँगा का भयानक रात का घूमना रामसेवक के मन में कभी-कभी ऐसी ही भावना उत्पन्न कर देता । उनसे अधिक उनकी स्त्री के मन में । उनकी स्त्री बड़ी चतुर थी । वह इनको इन सब बातों में प्राय सलाह दिया करती थी । उन लोगो की भुल थी, जो लोग कहते थे कि मुंशी जी की जीभ पर सरस्वती विराजती है । वह गुण तो उनकी स्त्री को प्राप्त था । बोलने में वह इतनी ही तेज थी जितना मुंशीजी लिखने में थे । और यह दोनों स्त्री पुरुष प्रायः अपनी दशा में सलाह करते कि अब क्या करना चाहिए । आधी रात का समय था । मुंशी जी नित्य नियम के अनुसार अपनी चिंता दूर करने के लिए शराब के दो-चार घूँट पी कर सो गये थे । यकायक मूँगा ने उनके दरवाजे पर आ कर जोर से हाँक लगायी, `तेरा लहू पीऊँगी' और खूब खिल-खिला कर हँसी । मुंशीजी यह भयावना ठहाका सुन कर चौंक पड़े । डर के मारे पैर थर-थर काँपने लगे । कलेजा धक्- धक् करने लगा । दिल पर बहुत जोर डाल कर उन्होंने दरवाजा खोला, जा कर नागिन को जगाया । नागिन ने झुँझला कर कहा-क्या कहते हो ? मुंशी जी ने दबी आवाज से कहा- वह दरवाजे पर आ कर खड़ी है । नागिन उठ बैठी-क्या कहती है ? `तुम्हारा सिर ।' `क्या दरवाजे पर आ गयी ?' `हाँ आवाज नहीं सुनती हो ।' नागिन मूँगा से नहीं, परंतु उसके ध्यान से बहुत डरती थी, तो भी उसे विश्वासस था कि मैं बोलने में उसे जरूर नीचा दिखा सकती हूँ । सँभल कर बोली कहो तो मैं उससे दो-दो बातें कर लूँ । परंतु मुंशी जी ने मना किया । दोनों आदमी पैर दबाये हुए ड्यौढ़ी में गये और दरवाजे से झाँक कर देखा । मूँगा की धुँधली मूरत धरती पर पड़ी थी और उसकी साँस तेजी से चलती सुनायी देती थी । रामसेवक के लहू और माँस की भूख से वह अपना लहू और माँस सुखा चुकी थी । एक बच्चा भी उसे गिरा सकता था ;परंतु उससे सारा गाँव थर-थर काँपता । हम जीते मनुष्य से नहीं डरते, पर मुरदे से डरते हैं । रात गुजरी । दरवाजा बंद था; पर मुंशी जी और नागिन ने बैठ कर रात काटी । मूँगा घर में नहीं घुस सकती थी, पर उसकी आवाज को कौन रोक सकता था । मूँगा से अधिक उसकी डरावनी आवाज थी । भोर को मुंशी जी बाहर निकले और मूँगा से बोले-यहाँ क्यों पड़ी है ? मूँगा बोली-तेरा लहू पीऊँगी । नागिन ने बल खाकर कहा -तेरा मुँह झुलस दूँगी । पर नागिन के विष ने मूँगा पर कुछ असर न किया । उसने जोर से ठहाका लगाया, नागिन खीसियानी-सी हो गयी । हँसी के सामने मुँह बंद हो जाता है । मुंशी जी फिर बोले- यहाँ से उठ जा । `न उठूँगी ।' `कब तक पड़ी रहेगी ?' `तेरा लहू पीकर जाऊँगी ।' मुंशी जी की प्रखर लेखनी का यहँ जोर न चला और नागिन को आग भरी बातें यहाँ सर्द हो गयीं । दोनों घर में जा कर सलाह करने लगे, यह बला कैसे टलेगी । इस आपत्ति से कैसे छुटकारा होगा । देवी आती है तो बकरे का खून पीकर चली जाती है; पर यह डाइन मनुष्य का खून पीने आयी है । वह खून, जिसकी अगर एक बूँद भी कलम बनाने के समय निकल पड़ती थी, तो अठवारों और महीनों सारे कुनबे को अफसोस रहता,और यह घटना गाँव में घर-घर फैल जाती थी । क्या यही लही पी कर मूँगा का सूखा शरीर हरा हो जायगा ? गाँव में यह चर्चा फैल गयी, मूँगा मुंशीजी के दरवाजे पर धरना दिये बैठी है । मुंशी जी के अपमान में गाँववालों को बड़ा मजा आता था । देखते-देखते सैकड़ों आदमियों की भीड़ लग गयी । इस दरवाजे पर कभी-कभी भीड़ लगी रहती थी । यह भीड़ रामगुलाम को पसंद न थी । मुँगा पर उसे ऐसा क्रोध आ रहा था कि यदि उसका बस चलता तो वह उसे कुएँ में ढकेल देता । इस तरह का विचार उठते ही रामगुलाम के मन में गुदगुदी समा गयी, और वह बड़ी कठिनता से अपनी हँसी रोक सका ! अहा! वह कुएँ में गिरती तो क्या मजे की बात होती । परंतु यह चुड़ैल यहाँ से टलती ही नहीं, क्या करूँ ? मुंशीजी के घर में एक गाय थी, जिसे खली, दाना और भूसा तो खूब खिलाया जाता; पर वह सब उसकी हड्डियों में मिल जाता, उसका ढाँचा पुष्ट होता जाता था । राम गुलाम ने उसी गाय का गोबर एक हाँड़ी में घोला और सब का सब बेचारी मूँगा पर उँड़ेल दिया । उसके थोड़े बहुत छींटे दर्शकों पर भी डाल दिये । बेचारी मूँगा लदफद हो गयी और लोग भाग खड़े हुए । कहने लगे, यह मुंशी रामगुलाम का दरवाजा है । यहाँ इसी प्रकार का शिष्टाचार किया जाता है । जल्द भाग चलो । नहीं तो अबके इससे बढ़कर खातिर की जायगी इधर भीड़ कम हुई, उधर रामगुलाम घर में जा कर खूब हँसा और तालियाँ बजायीं । मुंशी जी ने इस व्यर्थ की भीड़ को ऐसे सहज में और ऐसे सुंदर रूप से हटा देने के उपाय पर अपने सुशील लड़के की पीठ ठोंकी । सब लोग तो चम्पत हो गये, पर बेचारी मूँगा ज्यों की त्यों बैठी रह गयी । दोपहर हुई । मूँगा ने कुछ नहीं खाया । साँझ हुई हजार कहने-सुनने से भी उसने खाना नहीं खाया । गाँव के चौधरी ने बड़ी खुशामद की । यहाँ तक कि मुंशी जी ने हाथ जोड़े, पर देवी प्रसन्न न हुई । निदान मुंशीजी उठ कर भीतर चले गये । वह कहते थे कि रूठने वाले को भूख आप ही मना लिया करती है । मूंगा ने यह रात भी बिना दाना-पानी के काट दी । लाला जी और ललाइन ने आज फिर जाग-जाग कर भौर किया । आज मूंगा की गरज और हँसी बहुत कम सुनायी पड़ती थी । घरवालों ने समझा, बला टली सबेरा होते ही जो दरवाजा खोल कर देखा, तो वह अचेत पड़ी थी , मुँह पर मक्खियाँ भिनभिना रही हैं और उसके प्राण पखेरू उड़ चुके हैं । वह इस दरवाजे पर मरने ही आयी थी । जिसने उसके जीवन की जमा- पूँजी हर ली थी, उसी को अपनी जान भी सौंप दी । अपने शरीर की मिट्टी तक उसकी भेंट करदी । धन से मनुष्य को कितना प्रेम होता है । धन अपनी जान से भी ज्यादा प्यारा होता है ।विशेष कर बुढ़ापे में । ऋण चुकाने के दिन ज्यों-ज्यों पास आते-जाते हैं , त्यों-त्यों उसका ब्याज बढ़ता जाता है । यह कहना यहाँ व्यर्थ है कि गाँव में इस घटना से कैसी हलचल मची और मुंशी रामसेवक कैसे अपमानित हुए! एक छोटे से गाँव में ऐसी असाधारण घटना होने पर भी जितनी हलचल हो सकती उससे अधिक ही हुई । मुंशीजी का अपमान जितना होना चाहिए था, उससे बाल बराबर भी कम न हुआ । उनका बचा खुचा पानी भी इस घटना से चला गया । अब गाँव का चमार भी उनके हाथ से पानी पीने या उन्हें छूने का रवादार न था । यदि किसी घर में कोई गाय खूँटै पर मर जाती है तो वह आदमी महीनों द्वार-द्वार भीख माँगता फिरता है । नाई उसकी हजामत बनावे , न कहार उसका पानी भरे, न कोई उसे छुए । यह गोहत्या का प्रायश्चित ! ब्रह्महत्या का दंड तो इससे भी कड़ा है और इसमें अपमान भी बहुत है । मूँगा यह जानती थी और इसीलिए इस दरवाजे पर आकर मरी थी । वह जानती थी कि मैं जीते जी जो कुछ नहीं कर सकती, मर कर उससे बहुत कुछ कर सकती हूँ । गोबर का उपला जब जल कर खाक हो जाता है, तब साधु -संत उसे माथे पर चढ़ाते हैं । पत्थर का ढेला आग में जलकर आग से अधिक तीखा और मारक हो जाता है । मुंशी रामसेवक कानूनदाँ थे । कानून ने उन पर कोई दोष नहीं लगाया था । मूँगा किसी कानूनी दफा के अनुसार नहीं मरी थी । ताजीरात हिंद में उसका कोई उदाहरण नहीं मिलता था । इसलिए जो लोग उनसे प्रायश्चित करवाना चाहते थे, उनकी भारी भूल थी । कुछ हर्ज नहीं, कहार पानी न भरे न सही, वह आप पानी भर लेंगे । अपना काम आप करने में भला लाज ही क्या ? बला से नाई बाल न बनावेगा । हजामत बनाने का काम ही क्या है ? दाढ़ी बहुत सुंदरवस्तु है । दाढ़ी मर्द की शोभा और सिंगार है । और जो फिर बालों से ऐसी घिन होगी तो एक एक आने में तो अस्तुरे मिलते हैं । धोबी कपड़े न धोवेगा, इसकी भी कुछ पर वाह नहीं । साबुन तो गली-गली कौड़ियों के मोल आता है । एक बट्टी साबुन में दर्जनों कपड़े ऐसे साफ हो जाते हैं जेसै बगुले के पर । धोबी क्या खा कर ऐसा साफ कपड़ा धोवेगा ? पत्थर पर पटक-पटक कर कपड़ों का लत्ता निकाल लेता है । आप पहने, दूसरों को भाड़े पर पहनाये, भट्ठी में चढ़ावे; रेह में भिगावे - कपड़ों की तो दुर्गत कर डालता है । जभी तो कुरते दो तीन साल से अधिक नहीं चलते । नहीं तो दादा हर पाँचवे बरस दो अचकन और दो कुरते बनवाया करते थे । मुंशी रामसेवक और उनकी स्त्री ने दिन भर तो यों ही कह कर अपने मन को समझाया । साँझ होते ही उनकी तर्कनाएँ शिथिल हो गयी । जब उनके मन पर भय ने चड़ाई की । जैसे जैसे रात बीतती थी, भय भी भाग जाता था । बाहर का दरवाजा भूल से खुला रह गया था, पर किसी की हिम्मत नहीं पड़ती थी कि जाकर बंद तो कर आये । निदान नागिन ने हाथ में ले लिया, मुंशीजी ने कुल्हाड़ा, रामगुलाम ने गँडासा, इस ढंग से तीनों चौंकते-चौंकते दरवाजे पर आये । यहाँ मुंशी जी ने बड़ी बहादुरी से काम लिया । उन्होंने निधड़क दरवाजे से बाहर निकलने की कोशिश की । काँपते हुए, पर दबी आवाज में नागिन से बोले - तुम व्यर्थ डरते हो, वह क्या यहाँ बैठी है ? उनकी प्यारी नागिन ने उन्हें अंदर खींच लिया और झुँझला कर बोली-तुम्हारा यही लड़कपन तो अच्छा नहीं । यह दंगल जीत कर तीनों आदमी रसोई के कमरे में आये और खाना पकने लगा । परंतु मूँगी उनकी आँखों में घुसी हुई थी । अपनी परछाई को देख कर मूँगा का भय होता था । अँधेरे कोनों में मूँगा बैठी मालूम होती थी । वही हड्डियों का ढाँचा, वही बिखरे हुए बाल, वही पागलपन, वही डरावनी आँखें, मूँगा का नख-शिख दिखायी देता था । इसी कोठरी में आटे-दाल के कई मटके रखे हुए थे, वहीं कुछ पुराने चिथड़े भी पड़े हुए थे । एक चूहे को भूख ने बैचैन किया था (मटकों ने कभी अनाज की सूरत नहीं देखी थी, पर सारे गाँव में मशहूर था कि इस घर के चूहे गजब के डाकू हैं ।) तो वह उन दोनों की खोज में जो मटकों से कभी नहीं गिरे थे, रेंगता हुआ इस चिथड़े के नीचे आ निकला । कपड़े में खड़खड़ाहट हुई फैले हुए चिथड़े मूँगा की पतली टाँगे बन गयी, नागिन देखकर झिझकी और चीख उठी । मुंशी जी बदहवास होकर दरवाजे की ओर लपके, रामगुलाम दौड़ कर इनकी टाँगों से लिपट गया । चूहा बाहर निकल आया । उसे देखकर इन लोगों के होश ठिकाने हुए । अब मुंशीजी साहस करके मटके की ओर चले । नागिन ने कहा-रहने भी दो, देख ली तुम्हारी मरदानगी । मुंशी जी अपनी प्रिया नागिन के इस अनादर पर बहुत बिगड़े - क्या तुम समझती हो मैं डर गया ? भला डर की क्या बात थी । मूँगा मर गयी । क्या वह बैठी है ? मैं कल नहीं दरवाजे के बाहर निकल गया था । तुम रोकती रहीं, मैं न माना । मुंशी जी की इस दलील ने नागिन को निरुत्तर कर दिया । कल दरवाजे के बाहर निकल जाना या निकलने की कोशिश करना साधारण काम न था । जिसके साहस का ऐसा प्रमाण मिल चुका है, उसे डरपोक कौन कह सकता है? यह नागिन की हठधर्मी थी । खाना खाकर तीनों आदमी सोने के कमरे में आये; परंतु मूँगा ने यहाँ भी पीछा न छोड़ा; बातें करते थे,दिल को बहलाते थे । नागिन ने राजा हरदौल और रानी सारंधा की कहानियाँ कहीं । मुंशी जी ने फौजदारी के कई मुकदमों का हाल कह सुनाया ।परंतु तो भी इन उपायों से भी मूँगा की मूर्त्ति इनकी आँखों के सामने से न हटती थी । जरा भी खटखटाहट होती कि तीनों चौंक पड़ते । इधर पत्तियों में सनसनाहट हुई कि उधर तीनों के रोंगटे खड़े हो गये ? रह रह कर एक धीमी आवाज धरती के भीतर से उनके कानों में आती थी - `तेरा लहू पीऊँगी ।' आधी रात को नागिन नींद से चौंक पड़ी । वह इन दिनों गर्भवती थी ।लाल-लाल आँखोंवाली, तेज और नोकीले दाँतोंवाली मूँगा उसकी छाती पर बैठी हुई जान पड़ती थी । नागिन चीख उठी । बावली की तरह आँगन में भाग आयी और यकायक धरती पर चित्त गिर पड़ी । सारा शरीर पसीने-पसीने हो गया । मुँशीजी भी उसकी चीख सुनकर चौंके, पर डर के मारे आँखें न खुली । अंधों की तरह दरवाजा टटोलते रहे । बहुत देर के बाद उन्हें दरवाजा मिला । आँगन में आये । नागिन जमीन पर पड़ी हाथ-पाँव पटक रही थी । उसे उठा कर भीतर लाये, पर रात भर उसने आँखें न खोली । भौर को अक-बक करने लगी । थोड़ी देर में ज्वर हो आया । बदन लाल तवा-सा हो गया । साँझ होते - होते उसे सन्निपात हो गया और आधी रात के समय जब संसार में सन्नाटा छाया हुआ था नागिन इस संसार से चल बसी । मूँगा के डर ने उसकी जान ली । जब तक मूँगा जीती रही, वह नागिन की फुफकार से सदा डरती रही । पगली होने पर भी उसने कभी नागिन का सामना नहीं किया पर अपनी जान देकर उसने आज नागिन की जान ली । भय में बड़ी शक्ति है । मनुष्य हवा में एक गिरह भी नहीं लगा सकता, पर इसने हवा में एक संसार रच डाला है । रात बीत गयी । दिन चढ़ता आता था, पर गाँव का कोई आदमी नागिन की लाश उठाने को आता न दिखायी दिया । मुंशी जी घर-घर घूमे, पर कोई न निकला । भला हत्यारे के दरवाजे पर कौन जाय ? हत्यारे की लाश कौन उठावे ? इस समय मुंशी जी का रोबदाब, उनकी प्रबल लेखनी का भय और उनकी कानूनी प्रतिभा एक भी काम न आयी । चारों ओर से हार कर मुंशीजी फिर अपने घर आये । यहाँ उन्हें अंधकार ही अंधकार दीखता था । दरवाजे तक तो आये, पर भीतर पैर नहीं रखा जाता था । न बाहर ही खड़े रह सकते थे । बाहर मूँगा थी भीतर नागिन । जी कड़ा करके हनुमान चालीसा का पाठ करते हुए घर में घुसे ।उस समय उनके मन पर जो बीतती थी, वही जानते थे । उसका अनुमान करना कठिन है । घर में लाश पड़ी हुई; न कोई आगे , न पीछे । दूसरा ब्याह तो हो सकता था । अभी इसी फागुन में तो पचासवाँ लगा है; पर ऐसे सुयोग्य और मीठी बोल वाली स्त्री कहाँ मिलेगी ? अफसोस ! अब तगादा करनेवालों से बहस कौन करेगा, कौन उन्हें निरुत्तर करेगा ? लेनदेन का हिसाब-किताब कौन इतनी खूबी से करेगा ? किसकी कड़ी आवाज तीर की तरह तगादेदारों की छाती में चुभेगी ? यह नुकसान अब पूरा नहीं हो सकता । दूसरे दिन मुंशीजी लाश को ठेलेगाड़ी पर लाद कर गंगा जी की तरफ चले ।

(6)

शव के साथ जानेवालों की संख्या कुछ भी न थी । एक स्वयं मुंशीजी, दूसरे उनके पुत्र रत्न रामगुलाम जी! इस बेइज्जती से मूँगा की लाश भी नहीं उठी थी । मुँगा ने नागिन की जान लेकर भी मुंशीजी का पिंड न छोड़ा । उनके मन में हर घड़ी मूँगा की मूर्ति विराजमान रहती थी । कहीं रहते, उनका ध्यान इसी ओर रहा करता था । यदि दिल बहलाव का कोई उपाय होता तो शायद वह इतने बेचैन न होते, पर गाँव का एक पुतला भी उनके दरवाजे की ओर न झाँकता था । बेचारे अपने हाथों पानी भरते, आप ही बरतन धोते । सोच और क्रोध, चिंता और भय, इतने शत्रुओं के सामने एक दिमाग कब तक ठहर सकता था । विशेषकर वह दिमाग जो रोज कानून की बहसों में खर्च हो जाता था । अकेले कैदी की तरह उनके दस-बारह दिन तो ज्यों-त्यों कर कटे चौदहवें दिन मुंशीजी ने कपड़े बदले और बोरिया-बस्ता लिये हुए कचहरी चले । आज उनका चेहरा कुछ खिला हुआ था । जाते ही मेरे मुवक्किल मुझे घेर लेंगे । मेरी मातमपूर्सी करेंगे । मैं आँसुओं की दो चार बूँदें गिरा दूँगा । फिर बेनामों, रेहन-नामों और सुलहनामों की भरमार हो जायगी । मुट्ठी गरम होगी । शाम को जरा नशे-पानी का रंग जम जायगा, जिसके छूट जाने से जी और भी उचाट रहा था । इन्हीं विचारों में मग्न मुंशी जी कचहरी पहुँचे । पर वहाँ रहननामों की भरमार और बेनामों की बाढ़ और मुवक्किलों की चहल-पहल के बदले निराशा की रेतीली भूमि नजर आयी । बस्ता खोले घंटों बैठे रहे, पर कोई नजदीक भी न आया । किसी ने इतना भी न पूछा कि आप कैसे हैं! नये मुवक्किल तौ खैर बड़े-बड़े पुराने मुवक्किल जिनका मुंशी जी से कई पीढ़ियों से सरोकार था, आज उनसे मुँह छिपाने लगे । वह नालायक और अनाड़ी रमजान, जिसकी मुंशी जी हँसी उड़ाते थे और जिसे शुद्ध लिखना भी न आता था, आज गोपयों में कन्हैया बना हुआ था । वाह रे भाग्य ? मुवक्किल यों मुँह फेरे चले जाते हैं मानो किसी की जान-पहचान ही नहीं । दिन भर कचहरी की खाक छानने के बाद मुंशीजी घर चले । निराशा और चिंता में डूबे हुए । ज्यों-ज्यों घर के निकट आते थे, मूँगा का चित्र सामने आता जाता था । यहाँ तक कि घर का द्वार खोला और दो कुत्ते, जिन्हें रामगुलाम ने बंद रखा था, झपटकर बाहर निकले तो मुंशी जी के होश उड़ गये, एक चीख मार कर जमीन पर गिर पड़े । मनुष्य के मन और मस्तिष्क पर भय का जितना प्रभाव होता है उतना और किसी शक्ति का नहीं । प्रेम, चिंता, निराशा, हानि, यह सब मन को अवश्य दुखित करते हैं, पर यह हवा के हलके झोंके हैं और भय प्रचंड आँधी है । मुंशी जी पर इसके बाद क्या बीती, मालूम नहीं कई दिनों तक लोगों ने उन्हें कचहरी जाते और यहाँ से मुरझाये हुए लौटते देखा । कचहरी जाना उनका कर्तव्य था, और यद्यपि वहाँ मुवक्किलों का अकाल था, तो भी तगादे वालों से गला छुड़ाने और उनको भरोसा दिलाने के लिए अब यही एक लटका रह गया था । उसके बाद कई महीने तक देख न पड़े । बद्रीनाथ चले गये । एक दिन गाँव में एक साधु आया । भभूत रमाये, लम्बी जटायें, हाथ में कमण्डल । उसका चेहरा मुंशी रामसेवक से बहुत मिलता-जुलता था । बोल-चाल में भी अधिक भेद न था । वह एक पेड़ के नीचे धूनी रमाये बैठा रहा । उसी रात को मुंशी राम सेवक के घर से धुआँ उठा, फिर आग की ज्वाला दीखने लगी और आग भड़क उठी । गाँव के सैकड़ों आदमी दौड़े । आग बुझाने के लिए नहीं, तमाशा देखने के लिए । एक गरीब की हाय में कितना प्रभाव है । रामगुलाम मुंशीजी के गायब हो जाने पर अपने मामा के यहाँ चला गया और वहाँ कुछ दिनों रहा । पर वहाँ उसकी चाल-ढाल किसी को पसन्द न आयी । एक दिन उसने किसी के खेत में मूली नोची । उसने दो-चार धौल लगाये । उस पर वह इस कदर बिगड़ा कि जब उसके चने खलिहान में आये तो उसने अग लगा दी । सारा का सारा खलिहान जल कर खाक हो गया । हजारों रुपयों का नुकसान हुआ । पुलिस ने तहकीकात की, राम गुलाम पकड़ा गया ।इसी अपराध में वह चुनार के रिफार्मेटरी स्कूल में मौजूद है ।

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2 - बेटी का धन

- लेखक - मुंशी प्रेमचंद

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बेतवा नदी दो ऊँचे कगारों के बीच इस तरह मुंह छिपाये हुए थी जैसे निर्मल हृदयों में साहस और उत्साह की मध्यम ज्योति छिपी रहती है । इसके एक कगार पर एक छोटा-सा गाँव बसा है जो अपने भग्न जातीय चिन्हों के लिए बहुत ही प्रसिद्ध है । जातीय गाथाओं और चिन्हों पर मर मिटनेवाले लोग इस भवन स्थान पर बड़े प्रेम और श्रद्धा के साथ आते और गाँव का बूढ़ा केवट सुक्खू चौधरी उन्हें उसकी परिक्रमा कराता और रानी के महल, राजा का दरबार और कुँवर के बैठक के मिटे हुए चिह्नों को दिखाता । वह एक उच्छवास लेकर रुँधे हुए गले से कहता, महाशय ! एक वह समय था कि केवटों को मछलियों के इनाम में अशर्फियाँ मिलती थीं । कहार महल में झाडूँ देते हुए अशर्फियाँ बटोर ले जाते थे । बेतवा नदी रोज चढ़ कर महाराज की चरण छूने आती थी । यह प्रताप और यह तेज था, परन्तु आज इसकी यह दशा है । इन सुन्दर उक्तियों पर किसी का विश्वास जमाना चौधरी के वश की बात न थी, पर सुननेवाले उसकी सहृदयता तथा अनुराग के जरूर कायल हो जाते थे । सुक्खू चौधरी उदार पुरुष थे, परंतु जितना बड़ा मुँह था, उतना बड़ा ग्रास न था । तीन लड़के, तीन बहुएँ और कई पौत्र=पोत्रियाँ थीं । लड़की केवल एक गंगाजली थी जिसका अभी तक गौना नहीं हुआ था । चौधरी की यह सबसे पिछली संतान थी । स्त्री के मर जाने पर उसने इसको बकरी का दूध पिला-पिला कर पाला था । परिवार में खानेवाले तो इतने थे, पर खेती सिर्फ एक हल की होती थी । ज्यों-ज्यों कर निर्वाह होता था, परंतु सुक्खू की वृद्धावस्था और पुरातत्त्व ज्ञान ने उसे गाँव में वह मान और प्रतिष्ठा प्रदान कर रखी थी,जिसे देखकर झगड़ू साहु भीतर ही भीतर जलते थे । सुक्खू जब गाँववालों के समक्ष हाकिमों से हाथ फेंक-फेंक कर बातें करने लगता और खँडहरों को घुमा-फिरा कर दिखाने लगता था तो झगड़ू साहु- जो चपरासियों के धक्के खाने के डर से करीब नहीं फटकते थे - तड़प-तड़प कर रह जाते थे । अतः वे सदा उस शुभ अवसर की प्रतीक्षा करते रहते थे, जब सुक्खु पर अपने धन द्वारा प्रभुत्व जमा सकें ।

(2)

इस गाँव के जमींदार ठाकुर जीतनसिंह थे, जिनकी बेगार के मारे गाँववालों का नाकों दम था ।उस साल जब जिला मजिस्ट्रेट का दौरा हुआ और वह यहाँ के पुरातन चिन्हों की सैर करने पधारे, तो सुक्खू चौधरी ने दबी जबान से अपने गाँववालों की दुःख-कहानी उन्हें सुनायी । हाकिमों से वार्तालाप करने में उसे तनिक भी भय न होता था । सुक्खू चौधरी को खूब मालूम था कि जीतनसिंह से रार मचाना सिंह के मुँह में सिर देना है । किंतु जब गाँववाले कहते थे कि चौधरी तुम्हारी ऐसे-ऐसे हाकिमों से मिताई है और हम लोगों को रात-दिन रोते कटता है तो फिर तुम्हारी यह मित्रता किस दिन काम आवेगी । परोपकाराय सताम् विभूतयः । तब सुक्खू का मिजाज आसमान पर चढ़ जाता था । घड़ी भर के लिए वह जीतनसिंह को भूल जाता था । मजिस्ट्रेट ने जीतनसिंह से इसका उत्तर माँगा । उधर झगड़ू साहु ने चौधरी के इस साहसपूर्ण स्वामीद्रोह की रिपोर्ट जीतनसिंह को दी ।ठाकुर साहब जल कर आग हो गये । अपने कारिंदे से बकाया लगान की बही माँगी । संयोगवश चौधरी के जिम्मे इस साल का कुछ लगान बाकी था । कुछ तो पैदावार कम हुई; उस पर गंगाजली का ब्याह करना पड़ा । छोटी बहू नथ की रट लगाये हुए थी; वह बनवानी पड़ी । इन सब खर्चों ने हाथ बिलकुल खाली कर दिया था । लगान के लिए कुछ अधिक चिंता नहीं थी । वह इस अभिमान में भूला हुआ था कि जिस जबान में हाकिमों को प्रसन्न करने की शक्ति है, क्या वह ठाकुर साहब को अपना लक्ष्य न बना सकेगी ? बूढ़े चौधरी ने इधर तो अपने गर्व में निश्चिंत थे और उधर उन पर बकाया लगान की नालिश ठुक गयी । सम्मन आ पहुँचा । दूसरे दिन पेशी की तारीख पड़ गयी ।चौधरी को अपना जादू चलाने का अवसर न मिला ।जिन लोगों के बढ़ावे में आ कर सुक्खू ने ठाकुर से छेड़-छाड़ की थी, उनका दर्शन मिलना दुर्लभ हो गया । ठाकुर साहब के सहने और प्यादे गाँव में चील की तरह मँडराने लगे । उनके भय से किसी को चौधरी की परछाई काटने का साहस न होता था । कचहरी वहाँ से तीन मील पर थी । बरसात के दिन, रास्ते में ठौर-ठौर पानी, उमड़ी हुई नदियाँ, रास्ता कच्चा, बैलगाड़ी का निबाह नहीं, अतः अदमपैरवी में मुकदमा एकतरफा फैसला हो गया ।

(3)

कुर्की का नोटिस पहुँचा तो चौधरी के हाथ-पाँव फूल गये । सारी चतुराई भूल गयी । चुपचाप अपनी खाट पर पड़ा-पड़ा नदी की ओर ताकता और अपने मन में कहता, क्या मेरे जीते जी घर मिट्टी में मिल जायगा । मेरे इन बैलों की सुंदर जोड़ी के गले में आह! क्या दूसरों का जुआ पड़ेगा ? यह सोचते-सोचते उसकी आँखें भर आतीं । वह बैलों से लिपटकर रोने लगा, परंतु बैलों की आँखों से क्यों आँसू जारी था ? वे नाँद में मुँह क्यों नहीं डालते थे ? क्या उनके हृदय पर भी अपने स्वामी के दुःख की चोट पहुँच रही थी ! फिर वह अपने झोपड़े को विकल नयनों से निहार कर देखता । और मन में सोचता, क्या हमको इस घर से निकलना पड़ेगा ? यह पूर्वजों कि निशानी क्या हमारे जीते जी छिन जायगी ? कुछ लोग परीक्षा में दृढ़ रहते हैं और कुछ लोग इसकी हल्की आँच भी नहीं सह सकते । चौधरी अपनी खाट पर उदास पड़े घंटों अपने कुलदेव महावीर और महादेव को मनाया करता और उनका गुण गाया करता । उसकी चिंतादग्ध आत्मा को और कोई सहारा न था । इसमें कोई संदेह न था कि चौधरी की तीनों बहुओं के पास इतने गहने थे, पर स्त्री का गहना ऊख का रस है, जो पेरने ही से निकलता है । चौधरी जाति का ओछा, पर स्वभाव का ऊँचा था । उसे ऐसी नीच बात बहुओं से कहते संकोच होता था । कदाचित यह नीच विचार उसके हृदय में उत्पन्न ही नहीं हुआ था, किंतु तीनों बेटे यदि जरा भी बुद्धि से काम लेते तो बूढ़े को देवताओं की शरण लेने की आवश्यकता न होती । परंतु यहाँ तो बात निराली थी । बड़े लड़के को घाट के काम से फुरसत न थी । बाकी दो लड़के इस जटिल प्रश्न को विचित्र रूप से हल करने के मंसूबे बाँध रहे थे । मँझले झींगुर ने मुँह बना कर कहा- उँह! इस गाँव में क्या धरा है । जहाँ ही कमाऊँगा, वहीं खाऊँगा पर जीतनसिंह की मूँछे एक-एक करके चुन लूँगा । छोटे फक्कड़ ऐंठ कर बोले - मूंछें तुम चुन लेना ! नाक मैं उड़ा दूँगा । नकटा बना घूमेगा । इस पर दोनों खूब हँसे और मछली मारने चल दिये । इस गाँव में एक बुढ़े ब्राह्मण भी रहते थे । मंदिर में पूजा करते और नित्य अपने यजमानों को दर्शन देने नदी पार जाते, पर खैवे के पैसे न देते । तीन दिन वह जमींदार के गुप्तचरों की आँख बचाकर सुक्खू के पास आये और सहानुभूति के स्तर मैं बोले - चीधरी! कल ही तक मियाद है और तुम अभी तक पड़े पड़े सो रहे हो । क्यों नहीं घर की चीज ढूँढ़-ढाँढ़ कर किसी और जगह भेज देते? न हो समधियाने पठवा दो । जो कुछ बच रहे, वही सही । घर की मिट्टी खोद कर थोड़े ही कोई ले जायगा । चौधरी लेटा था, उठ बैठा और आकाश की ओर निहार कर बोला- जो कुछ उसकी इच्छा है, वह होगा । मुझसे यह जाल न होगा । इधर कई दिन की निरंतर भक्ति और उपासना के कारण चौधरी का मन शुद्ध और पवित्र हो गया था । उसे छल-प्रपंच से घृणा हो गयी थी । पंडित जी इस काम में सिद्धहस्त थे, लज्जित हो गये । परंतु चौधरी के घर के अन्य लोगों को ईश्वरेच्छा पर इतना भरोसा न था । धीरे धीरे घर के बर्तन भाँड़ खिसकाये जाते थे । अनाज का एक दाना भी घर में न रहने पाया । रात को नाव लदी हुई जाती और उधर से खाली लौटती थी । तीन दिन तक घर में चूल्हा न जला । बूढ़े चौधरी के मुँह में अन्न की कौन कहे पानी का बूंद भी न पड़ा । स्त्रियाँ भाड़ से चने भुना कर चबातीं, और लड़के मछलियाँ भून-भून कर उड़ाते । परंतु बूढ़े की इस एकादशी में यदि कोई शरीक था तो वह उसकी बेटी गंगाजली थी । यह बेचारे अपने बूढ़े बाप को चारपाई पर निर्जल छटपटाते देख बिलख-बिलख कर रोती । लड़कों को अपने माता पिता से वह प्रेम नहीं होता जो लड़कियों को होता है, गंगाजली इस सोच-विचार में मग्न रहती कि दादा की किस भाँति सहायता करूँ । यदि हम सब भाई- बहन मिल कर जीतनसिंह के पास जाकर दया -भिक्षा की प्रार्थना करें तो वे अवश्य मान जायँगे; परंतु दादा को कब यह स्वीकार होगा । वह यदि एक दिन बड़े साहब के पास चले जायँ तो सब कुछ बात की बात में बन जाय । किंतु इनकी तो जैसे बुद्धि ही मारी गयी है । इसी उधेड़बुन में उसे एक उपाय सूझ पड़ा, कुम्हलाया हुआ मुखारबिंद खिल उठा । पुजारी जी सुक्खू चौधरी के पास से उठ कर चले गये थे और चौधरी उच्च स्वर से अपने सोये हुए देवताओं को पुकार-पुकार कर बुला रहे थे । निदान गंगाजली उनके पास जा कर खड़ी हो गयी । चौधरी ने उसे देख कर विस्मित स्वर से पूछा-क्यों बेटी ? इतनी रात गये क्यों बाहर आयी ? गंगाजली ने कहा -बाहर रहना तो भाग्य में लिखा है, घर में कैसे रहूँ । सुक्खू ने जोर से हाँक लगायी, कहाँ गये तुम कृष्णमुरारी, मेरे दुख हरो । गंगाजली खड़ी थी, बैठ गयी और धीरे से बोली - भजन गाते तो आज तीन दिन हो गये । घर बचाने का भी कुछ उपाय सोचा कि इसे यों ही मिट्टी में मिला दोगे ? हम लोगों को क्या पेड़ तले रखोगे ? चौधरी ने व्यथित स्वर से कहा - बेटी, मुझे तो कोई उपाय नहीं सूझता । भगवान जो चाहेंगे, होगा । वेग चलो गिरधर गोपाल, काहे विलम्ब करो । गंगाजली ने कहा- मैंने एक उपाय सोचा है, कहो तो कहूँ । चौधरी उठ कर बैठ गये और पूछा - कौन उपाय है बेटी ? गंगाजली ने कहा-मेरे गहने झगडू साहू के यहाँ गिरों रख दो । मैंने जोड़ लिया है । देने भर के रुपये हो जायँगे चौधरी ने ठंडी साँस ले कर कहा- बेटी ! तुमको मुझसे यह बात कहते लाज नहीं आती वेदशास्त्र में मुझे तुम्हारे गाँव के कुएँ का पानी पीना भी मना है । तुम्हारी ड्योड़ी में भी पैर रखने का निषेध है । क्या तुम मुझे नरक में ढकेलना चाहती हो ? गंगाजली उत्तर के लिए पहले ही से तैयार थी । बोली-मैं अपने गहने तुम्हें दिये थोड़े ही देती हूँ । इस समय लेकर काम चलाओ , चेत में छुड़ा देना । चौधरी ने कड़क कर कहा - यह मुझसे न होगा । गंगाजली उत्तेजित हो कर बोली - तुमसे यह न होगा तो मैं आप ही जाऊँगी ,मुझसे घर की यह दुर्दशा नहीं देखी जाती । चौधरी ने झुँझला कर कहा बिरादरी- बिरादरी में कौन ढिंढोरा पीटने जाता है । चौधरी ने फैसला सुनाया - जग हँसाई के लिएमैं अपना धर्म न बिगाड़ूगा । गंगाजली बिगड़ कर बोली -मेरी बात नहीं मानोगे तो तुम्हारे ऊपर मेरी हत्या पड़ेगी । मैं आज ही इस बेतवा नदी में कूद पड़ूँगी । तुमसे चाहे घर में आग लगते देखा जाय, पर मुझसे तो न देखा जायगा । चौधरी ने ठँडी साँस लेकर कहा - बैटी, मेरा धर्म नाश मत करो ।यदि ऐसा ही है तो अपनी किसी भावजु के गहने माँग कर लाओ । गंगाजली ने गम्भीर स्वर में कहा-भावजों से कौन अपना मुँह नोचवाने जायगा । उनको फिकर होती तो क्या मुँह में दही जमा था, कहती नहीं । चौधरौ निरुत्तर हो गये । गंगाजली घर में जा कर गहनों की पिटारी लायी और एक-एक करके सब गहने चौधरी के अँगोछे में बाँध दिये । चौधरी ने आँखों में आँसू भर कर कहा-हाय राम, इस शरीर की क्या गति लिखी है ! यह कह कर उठे । बहुत सम्हालने पर भी आँखों में आँसू न छिपे ।

(4)

रात का समय था । बेतवा नदी के किनारे-किनारे मार्ग को छोड़कर सुक्खू चौधरी गहनों की गठरी काँख में दबाये इस तरह चुपके-चुपके चल रहे थे मानो पाप की गठरी लिये जाते हैं जब वह झगडू साहु के मकान के पास पहुँचे तो ठहर गये, आँखे खूब साफ कीं, जिसमें किसी को यह न बोध हो कि चौधरी रोता था । झगड़ू साहू धागे की कमानी की एक मोटी ऐनक लगाये बहीखाता फैलाये हुक्का पी रहे थे, और दीपक के धुँधले प्रकाश में उन अक्षरों को पढ़ने की व्यर्थ चेष्टा में लगे थे जिन में स्याही की किफायत की गयी थी । बार-बार ऐनक को साफ करते और आँख मलते, पर चिराग की बत्ती उसकाना या दोहरी बत्ती लगाना शायद इसलिए उचित नहीं समझते थे कि तेल का अपव्यय होगा । इसी समय चौधरी ने आ कर कहा - जै राम जी । झगडू साहू ने देखा । पहचान कर बोले - जयराम चौधरी ! कहो मुकदमे में क्या हुआ । यह लेनदेन बड़े झंझट का काम है । दिन भर सिर उठाने की छुट्टी नहीं मिलती । चौधरी ने पोटली को खूब सावधानी से छिपा कर लापरवाही के साथ कहा-अभी तक तो कुछ नहीं हुआ । कल इजरायडिगरी होनेवाली है । ठाकुर साहब ने न जाने कब का बैर निकाला है । हमको दो-तीन दिन की भी मोहलत होती तो डिगरी न जारी होने पाती । छोटे साहब और बड़े साहब दोनों हमको अच्छी तरह जानते हैं । अभी इसी साल मैंने उनसे नदी किनारे घंटों बातें कीं, किंतु एक तो बरसात के दिन, दूसरे एक दिन की भी मुहलत नहीं, क्या करता । इस समय मुझे रुपयों की चिंता है । झगडू साहू ने विस्मित हो कर पूछा-तुमको रुपयों की चिंता ! घर में भरा है, वह किस दिन काम आयेगा । झगडू साहू ने यह व्यंग्यबाण नहीं छोड़ा था । वास्तव में उन्हें और सारे गाँव को विश्वास था कि चौधरी के घर में लक्ष्मी महारानी का अखंड राज्य है । चौधरी का रंग बदलने लगा । बोले-साहू जी ! रुपया होता तो किस बात की चिंता थी ? तुमसे कौन छिपाव है । आज तीन दिन से घर में चूल्हा नहीं जला, रोना-पीटना पड़ा है । अब तो तुम्हारे बसाये बसूँगा । ठाकुर साहब ने तो उजाड़ने में कोई कसर न छोड़ी । झगडू साहू जीतनसिंह को खुश रखना जरूर चाहते थे, पर साथ ही चौधरी को भी नाखुश करना मंजूर न था । यदि सूद-दरसूद छोड़ कर मूल तथा ब्याज सहज वसूल हो जाय तो उन्हें चौधरी पर मुफ्त का एहसान लादने में कोई आपत्ति न थी । यदि चौधरी के अफसरों की जान- पहिचान के कारण साहू जी का टेक्स से गला छूट जाय, तो अनेकों उपाय करने-अहलकारों की मुट्ठी गरम करने-पर भी नित्य प्रति उनके तोंद की तरह बढ़ता ही जा रहा था तो क्या पूछना ! बोले- क्या कहें चौधरी जी, खर्च के मारे आजकल हम भी तबाह हैं । लहने वसूल नहीं होते । टेक्स का रुपया देना पड़ा । हाथ बिलकुल खाली हो गया । तुम्हें कितना रुपया चाहिए ? चौधरी ने कहा - सौ रुपये की डिगरी है । खर्च-बर्च मिला कर दो सौ के लगभग समझो । झगड़ू अब अपने दाँव खेलने लगे । पूछा-तुम्हारे लड़कों ने तुम्हारी कुछ भी मदद न की । वह सब भी तो कुछ न कुछ कमाते ही हैं । साहू जी का यह निशाना ठीक पड़ा -लड़कों ने लापरवाहीसे चौधरी के मन में जो कुत्सित भाव भरे थे, वह सजीव हो गये । बोले-भाई, लड़के किसी काम के होते तो यह दिन क्यों देखना पड़ता । उन्हें तो अपने भोग विलास से मतलब । घर गृहस्थी का बोझ तो मेरे सिर पर है । मैं इसे जैसे चाहूँ, सँभालूं। उनसे कुछ सरोकार नहीं, मरते दम भी गला नहीं छूटता । मरूँगा तो सब खाल में भूसा भरा कर रख छोड़ेंगे । `गृह कारज नाना जंजाल ।' झगड़ू ने तीसरा तीर मारा-क्या बहुओं से भी कुछ न बन पड़ा ।चौधरी ने उत्तर दिया - बहू-बेटे सब अपनी-अपनी मौज में मस्त हैं । मैं तीन दिन तक द्वार पर बिना अन्न-जल के पड़ा था, किसी ने बात भी नहीं पूछी । कहाँ की सलाह, कहाँ की बातचीत । बहुओं के पास रुपये न हों, पर गहने तो हैं और वे भी मेरे बनाये हुए । इस दुर्दिन के समय यदि दो-दो थान उतार देतीं तो क्या मैं छुड़ा न देता ? सदा यही दिन थोड़े ही रहेंगे झगडू समझ गये कि यह लहज जबान का सौदा है और वह जबान का सौदा भूल कर भी न करते थे । बोले तुम्हारे घर के लोग भी अनूठे हैं । क्या इतना भी नहीं जानते कि बूढ़ा रुपये कहाँ से लावेगा ? अब समय बदल गया । या तो कुछ जायदाद लिखो या गहने गिरों रक्खो तब जाकर रुपया मिले । इसके बिना रुपये कहाँ । इसमें भी जायदाद में सैकड़ों बखेड़े पड़े हैं । सुभीता गिरों रखने में ही है । हाँ, तो जब घर वालों को कोई इसकी फिक्र नहीं तो तुम क्यों व्यर्थ जान देते हो । यही न होगा कि लोग हँसेंगे सो यह लाज कहाँ तक निबाहोगे ? चौधरी ने अत्यंत विनीत होकर कहा- साहू जी, यह लाज तो मारे डालती है । तुमसे क्या छिपा है । एक वह दिन था कि हमारे बाप-दादा महाराज की सवारी के साथ चलते थे और और अब एक दिन यह कि घर-घर की दीवार तक बिकने की नौबत आ गयी है । कहीं मुँह दिखाने को भी जी नहीं चाहता । यह लो गहनों की पोटली । यदि लोकलाज न होती तो इसे ले कर कभी यहाँ न आता, परन्तु यह अधर्म इसी लाज निबाहने के कारण करना पड़ा है । झगडू साहू ने आश्चर्य में हो कर पुछा-यह गहने किसके हैं ? चौधरी ने सिर झुका कर बड़ी कठिनता से कहा - मेरी बेटी गंगाजली के । झगडू साहू स्तम्भित हो गये । बोले- अरे राम - राम । चौधरी ने कातर स्वर में कहा- डूब मरने को जी चाहता है । झगडू ने बड़ी धार्मिकता के साथ स्थिर होकर कहा- शास्त्र में बेटी के गाँव का पेड़ देखना मना है । चौधरी ने दीर्घ निःस्वास छोड़ कर करुण स्वर में कहा-न जाने नारायण कब मौत देंगे । भाई की तीन लड़कियाँ ब्याहीं । कभी भूल कर भी उनके द्वार का मुँह नहीं देखा । परमात्मा ने अब तक तो टेक निबाही है, पर अब न जाने मिट्टी की क्या दुर्दशा होने वाली है । झगडू साहू `लेखा जौ-जौ बखशीश सौ-सौ' के सिद्धान्त पर चलते थे । सूद की एक कौड़ी भी छोड़ना उनके लिए हराम था । यदि एक महीने का एक दिन भी लग जाता तो पूरे महीने का सूद वसूल कर लेते । परंतु नवरात्र में नित्य दुर्गापाठ करवाते थे । पितृपक्ष में रोज बाह्मणों को सीधा बाँटते थे । बनियोंकी धरम में बड़ी निष्ठा होती है । यदि कोई दीन ब्राह्मण लड़की ब्याहने के लिए उनके सामने हाथ पसारता तो वह खाली हाथ न लौटता, भीख माँगने वाले ब्राह्मणों को चाहे वह कितने ही संडे-मुसंडे हों, उनके दरवाजे पर फटकार नहीं सुननी पड़ती थी । उनके धर्म-शास्त्र में कन्या के गाँव के कुएँ का पानी पीने से प्यासों मर जाना अच्छा था । वह स्वयं इस सिद्धान्त के भक्त थे और इस सिद्धांत के अन्य पक्षपाती उनके लिए महामान्य देवता थे । वे पिघल गये । मन में सोचा मनुष्य तो कभी ओछे विचारों को मन में नहीं लाया । निर्दय काल की ठोकर से अधर्म मार्ग पर उतर आया है, तो उसके धर्म की रक्षा करना हमारा कर्तव्य-धर्म है । यह विचार मन में आते ही झगडू साहू गद्दी से मसनद के सहारे उठ बैठे और दृढ़ स्वर से बोले वही परमात्मा जिसने अब क तुम्हारी टेक निबाही है, अब भी निबाहेंगे । लड़की के गहने लड़कों को दे दो । लड़की जैसी तुम्हारी है वैसी मेरी भी है । यह लो रुपये । आज काम चलाओ । जब हाथ में रुपये आ जायँ, दे देना । चीधरी पर इस सहानुभूति का गहरा असर पड़ा । वह जोर-जोर से रोने लगा । उसे अपने भावों की धुन में कृष्ण भगवान की मोहिनी मूर्ति सामने विराजमान दिखायी दी । वही झगडू जो सारे गाँव में बदनाम था, जिसकी उसने खुद कई बार हाकिमों से शिकायत की थी, आज साक्षात् देवता जान पड़ता था । रुँधे हुए कंठ से गद्गद् हो बोला - झगडू, तुमने इस समय मेरी बात, मेरी लाज, मेरा धर्म कहाँ तक कहूँ मेरा सब कुछ रख लिया । मेरी डूबती नाव पार लगा दी । कृष्ण मुरारी तुम्हारे इस उपकार का फल देंगे और मैं तो तुम्हारा गुण जब तक जीऊँगा, गाता रहूँगा ।

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3 - धर्म - संकट

- लेखक - मुंशी प्रेमचंद

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`पुरुषों और स्त्रियों में बड़ा अंतर है । तुम लोगों का हृदय शीशे की तरह कठोर होता है और हमारा हृदय नरम । वह विरह की आँच नहीं सह सकता ।' शीशा ठेस लगते ही टूट जाता है । नरम वस्तुओं में लचक होती है ।' `चलो बातें न बनाओ । दिन भर तुम्हारी राह देखूँ, रात भर घड़ी की सुइयाँ । तब कहीं आपके दर्शन होते हैं ।' `मैं तो सदैव तुम्हें अपने हृदय-मंदिर में छिपाये रखता हूँ।' ठीक-बतलाओ, कब आओगे ?' `ग्यारह बजे, परंतु पिछला दरवाजा खुला रखना ।' `उसे मेरे नयन समझो ।' `अच्छा तो अब विदा ।'

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पंडित कैलाशनाथ लखनऊ के प्रतिष्ठित बैरिस्टरों में थे । कई सभाओं के मंत्री, कई समितियों के सभापति, पत्रों में अच्छे लेख लिखते, प्लेटफार्म पर सारगर्भित आख्यान देते । पहले-पहल जब वह यूरप से लौटे थे तो यह उत्साह अपनी पूरी उमंग पर था, परंतु ज्यों-ज्यों बैरिस्टरी चमकने लगी, इस उत्साह में कमी आने लगी । और वह ठीक भी था; क्योंकि अब बेकार न थे जो बेगार करते । हाँ,क्रिकेट का शौक अब तक ज्यों का त्यों बना था । वह कैसर क्लब के संस्थापक और क्रिकेट के प्रसिद्ध खिलाड़ी थे । यदि मि0 कैलाश को क्रिकेट की धुन थी तो उनकी बहन कामिनी को टेनिस का शौक था । इन्हें नित नवीन आमोद-प्रमोद की चाह रहती थी । शहर में कहीं नाटक हो, थियेटर आवे, कोई सरकस, कोई बायसकोप हो कामिनी उसमें न सम्मिलित हो, यह असम्भव बात थी । मनोविनोद की कोई भी सामग्री उसके लिए उतनी ही आवश्यक थी जितनी वायु और प्रकाश । मि0 कैलाश पश्चिमीय सभ्यता के प्रवाह में बहने वाले अपने अन्य सहयोगियों की भाँति हिंदू जाति, हिंदू सभ्यता, हिंदी भाषा और हिंदुस्तानी के कट्टर विरोधी थे । हिंदू सभ्यता उन्हें दोषपूर्ण दिखायी देती थी । अपने इन विचारों को वे अपने ही तक परिमित न रखते बल्कि ही ओजस्विनी भाषा में इन विचारों पर लिखते और बोलते थे । हिंदू सभ्यता विवेकी भगत उनके इन विवेक शून्य विचारों पर हँसते थे; परंतु उपहास और विरोध तो सुधारक के पुरस्कार हैं । मि0 कैलाश उनकी कुछ परवा न करते थे । वे कोरे वाक्यवीर ही न थे, कर्मवीर भी पूरे थे । कामिनी की स्वतंत्रता उनके विचारों का प्रत्यक्ष स्वरूप थी । सौभाग्यवश कामिनी के पति गोपालनारायण भी इन्हीं विचारों में रँगे हुए थे । वे साल भर से अमेरिका में विद्याध्ययन करते थे । कामिनी, भाई और पति के उपदेशों से पूरा-पूरा लाभ उठाने में कमी न न करती थी ।

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लखनऊ में अलफ्रेड थियेटर कम्पनी आयी हुई थी, शहर में जहाँ देखिए उसी के तमाशे की चर्चा थी । कामिनी की रातें बड़े आनंद से कटती थीं । रात भर थियेटर देखती । दिन को कुछ सोती और कुछ देर वहीं थियेटर के गीत अलापती । सौंदर्य और प्रीति के नव रमणीय संसार में रमण करती थी, जहाँ का दुःख और क्लेश भी इस संसार के मुख और आनन्द से बढ़कर मोददायी है । यहाँतक कि तीन महीने बीत गये । प्रणय की नित्य नयी मनोहर शिक्षा और प्रेम के आनन्दमय आलाप-विलाप का हृदय पर कुछ न कुछ असर होना चाहिए था। सो भी इस चढ़ती जवानी में । वह असर हुआ । इसका श्रीगणेश उसी तरह हुआ जैसा कि बहुधा हुआ करता है । थियेटर हाल में एक सुघर सजीले युवक की आँखें कामिनी की ओर उठने लगीं । वह रूपवती और चंचला थी, अतएव पहिले उसे इस चितवन में किसी रहस्य का ज्ञान न हुआ । नेत्रों का सुंदरता से बड़ा घना सम्बंध है । घूरना पुरुषों का और लजाना स्त्रियों का स्वभाव है । कुछ दिनों के बाद कामिनी को इस चितवन में कुछ गुप्त भाव झलकने लगे । मंत्र अपना काम करने लगा । फिर नयनों में परस्पर बातें होने लगीं । नयन मिल गये । प्रीति गाढ़ी हो गयी । कामिनी एक दिन के लिए भी यदि किसी दूसरे उत्सव में चली जाती तो वहाँ उसका मन न लगता । जी उचटने लगता । आँखें किसी को ढूँढ़ा करतीं । अंत में लज्जा का बाँध टूट गया । हृदय के विचार स्वरूपवान् हुए । मौन का ताला टूटा प्रेमालाप होने लगा । पद्य के बाद गद्य की बारी आयी । और फिर दोनों मिलन-मंदिर के द्वार पर आ पहुँचे । इसके पश्चात् जो कुछ हुआ उसकी झलक हम पहिले ही देख चुके हैं ।

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इस नवयुवक का नाम रूपचंद था । पंजाब का रहने वाला, संस्कृत का शास्त्री हिन्दी- साहित्य का पूर्ण पंडित, अंगरेजी का एम0 ए0, लखनऊ के एक बड़े लोहे के कारखाने का मैनेजर था । घर में रूपवती स्त्री, दो प्यारे बच्चे थे । अपने साथियों में सदाचरण के लिए प्रसिद्ध था । न जवानी की उमंग, न स्वभाव का छीछोरापन । घर गृहस्थी में जकड़ा हुआ था । मालूम नहीं वह कौन-सा आकर्षण था, जिसने उसे इस तिलिस्म में फँसा लिया, जहाँ की भूमि अग्नि, और आकाश ज्वाला है, जहाँ घृणा और पाप है । और अभागी कामिनी को क्या कहा जाय जिसकी प्रीति की बाढ़ ने वीरता और विवेक का बाँध तोड़ कर अपनी तरल तरंग में नीति और मर्यादा को टूटी-फूटी झोपड़ी को डुबो-दिया । यह पूर्व जन्म के संस्कार थे । रात को दस बज गये थे । कामिनी लेम्प के सामने बैठी हुई चिट्ठियाँ लिख रही थी । पहला पत्र रूपचंद के नाम था । कैलाश भवन लखनऊ प्राणाधार ! तुम्हारे पत्र को पढ़ कर प्राण निकल गये । उफ अभी एक महीना लगेगा । इतने दिनों में कदाचित् तुम्हें यहाँ मेरी राख भी न मिलेगी । तुमसे अपने दुःख क्या रोऊँ । बनावट के दोषारोपण से डरती हूँ । जो कुछ बीत रही है, वह मैं ही जानती हूँ । लेकिन बिना विरह-कथा सुनाये दिल की जलन कैसे जायगी ? यह आग कैसे ठंडी होगी ? अब मुझे मालूम हुआ कि यदि प्रेम दहकती हुई आग तो वियोग उसके लिए घृत है । थियेटर अब भी जाती हूँ, पर विनोद के लिए नहीं, रोने और विसूरने के लिए । रोने में ही चित्त को कुछ शान्ति मिलती है । आँसू उमड़े चले आते हैं । मेरा जीवन शुष्क और नीरस हो गया है । न किसी से मिलने को जी चाहता है, न आमोद-प्रमोद में मन लगता है । परसों डाक्टर केलकर का व्याख्यान था, भाई साहब ने बहुत आग्रह किया, पर मैं न जा सकी । प्यारे, मौत से पहले मत मारो । आनन्द के इन गिने-गिनाये क्षणों में वियोग का दुख मत दो । आओ, यथासाध्य शीघ्र आओ, और गले से लग कर मेरे हृदय की ताप बुझाओ । अन्यथा आश्चर्य नहीं कि विरह का यह अथाह सागर मुझे निगल जाय । तुम्हारी- कामिनी इसके बाद कामिनी ने दूसरा पत्र पति को लिखा । कैलाश भवन लखनऊ माय डियर गोपाल ! अब तक तुम्हारे दो पत्र आये, परंतु खेद है कि मैं उनका उत्तर न दे सकी। दो सप्ताह से सिर की पीड़ा से असह्य वेदना सह रही हूँ । किसी भाँति चित्त को शांति नहीं मिलती; पर अब कुछ स्वस्थ हूँ । कुछ चिंता मत करना । तुमने जो नाटक भेजे, उनके लिए में हार्दिक धन्यवाद देती हूँ । स्वस्थ हो जाने पर पढ़ना आरम्भ करूँगी । तुम वहाँ के मनोहर दृश्यों का वर्णन मत किया करो । मुझे तुम पर ईर्ष्या होती है । यदि में आग्रह करूँ तो भाई साहब वहाँ तक पहुँचा तो देंगे परंतु उनके खर्च इतने अधिक हैं कि इनसे नियमित रूप से साहाय्य मिलना कठिन है और इस समय तुम पर भार देना भी ठीक नहीं है । ईश्वर चाहेगा तो वह दिन शीघ्र देखने में आवेगा, जब मैं तुम्हारे साथ आनन्दपूर्वक वहाँ की सैर करूँगी । मैं इस समय तुम्हें कोई कष्ट तो नहीं देना चाहती; पर अपनी आवश्यकताएँ किससे कहूँ । मेरे पास अब कोई अच्छा गाऊन नहीं रहा । किसी उत्सव में जाते लजाती हूँ । यदि तुमसे हो सके तो मेरे लिए एक अपने पसंद का गाउन बनवा कर भेज दो । आवश्यकता तो और भी कई चीजों की है, परंतु इस समय तुम्हें अधिक कष्ट देना नहीं चाहती । आशा है, तुम सकुशल होंगे । तुम्हारी- 27 कामिनी लखनऊ के सेशन जज के इजलास में बड़ी भीड़ थी । अदालत के कमरे ठसाठस भर गये थे । तिल रखने की जगह न थी सबकी दृष्टि बड़ी उत्सुकता के साथ जज के सम्मुख खड़ी एक सुंदर लावण्यमयी मूर्ति पर लगी हुई थी । यह कामिनी थी । उसका मुँह धुमिल हो रहा था । ललाट पर स्वेद-बिन्दु झलक रहे थे ! कमरे में घोर निस्तब्धता थी । केवल वकीलों की काना फूसी और सैन कभी-कभी इस निःस्तब्धता को भंग कर देती थी । अदालत का हाता आदमियों से इस तरह भर गया था कि जान पड़ता था मानों सारा शहर सिमट कर यहीं आ गया है । था भी ऐसा ही । शहर की प्रायः दूकाने बंद थीं और जो एक-आध खुली भी थीं उन पर लड़के बैठे ताश खेल रहे थे । क्योंकि कोई गाहक न था । शहर से कचहरी तक आदमियों का ताँता लगा हुआ था । कामिनी को निमिष मात्र देखने के लिए, उसके मुँह से एक बात सुनने के लिए, इस समय प्रत्येक आदमी अपना सर्वस्व निछावर करने पर तैयार था । वे लोग जो कभी पं0 दातादयाल शर्मा जैसे प्रभावशाली वक्ता की वक्तृता सुनने के लिए घर से बाहर नहीं निकले, वे जिन्होंने नवजवान मनचले बेटों को अलफ्रेड थियेटर में जाने की आज्ञा नहीं दी, वे एकांत-प्रिय जिन्हें वाइसराय के शुभागमन तक की खबर न हुई थी, वे शांति के उपासक जो मुहर्रम की चहल-पहल देखने को अपनी कुटिया से बाहर न निकलते थे, वे सभी आज गिरते-पड़ते; उठते कचहरी की ओर दौड़े चले जा रहे थे । बेचारी स्त्रियाँ अपने भाग्य को कोसती हुई अपनी-अपनी अटारियों पर चढ़ कर विवशतापूर्ण उत्सुक दृष्टि से उस तरफ ताक रही थीं जिधर उनके विचार में कचहरी थी । पर उनकी गरीब आँखें निर्दय अट्टालिकओं की दीवारों में टकरा कर लौट आती थीं । यह सब कुछ इसलिए हो रहा था कि आज अदालत में एक बड़ा मनोहर, अद्भुत अभिनय होनेवाला था, जिस पर अलफ्रेड थियेटर के हजारों अभिनय बलिदान थे । आज एक गुप्त रहस्य खुलनेवाला था, जो अँधेरे में राई है पर प्रकाश में पर्वताकार हो जाता है । इस घटना के सम्बन्ध में लोग टीका-टिप्पणी कर रहे थे । कोई कहता था, यह असंभव है कि रूपचंद जैसा शिक्षित व्यक्ति ऐसा दूषित कर्म करे । पुलिस का यह बयान है तो हुआ करे । गवाह पुलिस के बयान का समर्थन करते हैं तो किया करें । यह पुलिस का अत्याचार है, अन्याय है; कोई कहता था, भाई सत्य तो यह है कि यह रूप -लावण्य, यह "खंजन गंजन नयन' और यह हृदय-हारिणी सुंदर सलोनी छवि जो कुछ न करे वह थोड़ा है । श्रोता इन बातों को बड़े चाव से इस तरह आश्चर्यान्वित हो मुँह बा कर सुनते थे मानों देववाणी हो रही है । सबकी जीभ पर यही चर्चा थी । खूब नमक-मिर्च लपेटा जाता था । परंतु इसमें सहानुभूति या समवेदना के लिए जरा भी स्थान न था ।

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पंडित कैलाशनाथ का बयान खत्म हो गया । और कामिनी इजलास पर पधारी । इसका बयान बहुत संक्षिप्त था, मैं अपने कमरे में रात को सो रही थी । कोई एक बजे के करीब चोर-चोर का हल्ला सुनकर मैं चौंक पड़ी अपनी चारपाई के पास चार आदमियों को हाथापाई करते देखा । मेरे भाई साहब अपने दो चौकीदारों के साथ अभियुक्त को पकड़ते थे और वह जान छुड़ा कर भागना चाहता था । मैं शीघ्रता से उठकर बरामदे में निकल आयी । इसके बाद मैंने चौकी- दारों को अपराधी के साथ पुलिस स्टेशन की ओर जाते देखा । रूपचंद ने कामिनी का बयान सुना और एक ठंडी साँस ली । नेत्रों के आगे से परदा हट गया । कामिनी, तू ऐसी कृतघ्न, ऐसी अन्यायी, ऐसी पिशाचिनी, ऐसी दुरात्मा है, क्या तेरी प्रीति, वह विरह-वेदना, वह प्रेमोद्गार, सब धोखे की टट्टी थी ? तूने कितनी बार कहा है कि दृढ़ता प्रेम मंदिर की पहिली सीढ़ी है । तूने कितनी बार नयनों में आँसू भर कर इस गोद में मुँह छिपा कर मुझसे कहा है कि मैं तुम्हारी हो गयी । मेरी लाज अब तुम्हारे हाथ है । परंतु हाय! आज प्रेम-परीक्षा के समय तेरी वह सब बातें खोटी उतरीं । आह! तूने दगा दिया और मेरा जीवन मिट्टी में मिला दिया । रूपचंद तो विचार-तरंगों में निमग्न था । उसके वकील ने कामिनी से जिरह करना प्रारम्भ किया । वकील - क्या तुम सत्यनिष्ठा के साथ कह सकती हो कि रूपचंद तुम्हारे मकान पर अक्सर नहीं जाया करता था ? कामिनी - मैंने कभी उसे अपने घर पर नहीं देखा । वकील -क्या तुम शपथ-पूर्वक कह सकती हो कि तुम उसके साथ कभी थियेटर देखने नहीं गयीं ? कामिनी - मैंने उसे कभी नहीं देखा । वकील-क्या तुम शपथ लेकर कह सकती हो कि तुमने उसे प्रेम-पत्र नहीं लिखे ? शिकारी के चंगुल में फँसे हुए पक्षी की तरह पत्र का नाम सुनते ही कामिनी के होश- हवास उड़ गये, हाथ-पैर फूल गये । मुँह न खुल सका । जज ने, वकील ने और दो सहस्त्र आँखों ने उसकी तरफ उत्सुकता से देखा । रूपचंद का मुँह खिल गया । उसके हृदय में आशा का उदय हुआ । जहाँ फूल था वहाँ काँटा पैदा हुआ । मन में कहने लगा, कुलटा कामिनी! अपने सुख और अपने कपट मान-प्रतिष्ठा पर मेरे और मेरे परिवार की हत्या करने वाली कामिनी!! तू अब भी मेरे हाथ में है । मैं अब भी तुझे इस कृतघ्नता और कपट का दंड दे सकता हूँ । तेरे पत्र जिन्हें तूने हृदय से लिखा है या नहीं, मालूम नहीं परंतु जो मेरे हृदय के ताप को शीतल करने के लिए मोहिनी मंत्र थे, वह सब मेरे पास हैं । और वह इसी समय तेरा सब भेद खोलेंगे । इस क्रोध से उन्मत्त हो कर रूपचंद ने अपने कोट के पाकेट में हाथ डाला ! जज ने, वकीलों ने, और दो सहस्त्र नेत्रों ने उसकी तरफ चातक की भाँति देखा । तब कामिनी की विकल आँखे चारों ओर से हताश होकर रूपचंद की ओर पहुँची । उनमें इस समय लज्जा थी, दया-भिक्षा की प्रार्थना थी और व्याकुल थी, मन ही मन कहती थी, मैं स्त्री हूँ, अबला हूँ, ओछी हूँ । तुम पुरुष हो बलवान हो, साहसी हो; यह तुम्हारे स्वभाव के विपरीत है । मैं कभी तुम्हारी थी और यद्यपि समझ मुझे तुमसे अलग किये देती देती है किंतु मेरी लाज तुम्हारे हाथ में है । तुम मेरी रक्षा करो । आँखें मिलते ही रूपचंद उसके मन की बात ताड़ गये । उनके नेत्रों ने उत्तर दिया- यदि तुम्हारी लाज मेंरे हाथों में है तो इस पर कोई आँच नहीं आने पावेगी । तुम्हारी लाज पर आज मेरा सर्वस्व निछावर है । अभियुक्त के वकील ने कामिनी से पुनः वही प्रश्न किया-क्या तुम शपथ पूर्वक कह सकती हो कि तुमने रूपचंद को प्रेम-पत्र नहीं लिखे ? कामिनी ने कातर स्वर में उत्तर दिया- मैं शपथपूर्वक कहती हूँ कि मैंने उसे कभी कोई पत्र नहीं लिखा और अदालत से अपील करती हूँ कि वह मुझे इन घृणास्पद अश्लील आक्रमणों से बचावे । अभियोग की कार्यवाही समाप्त हो गयी । अब अपराधी के बयान की बारी आयी । इसकी तरफ के कोई गवाह न थे । परंतु वकीलों को जज को, और अधीर जनता को पूरा पूरा विश्वास था कि अभियुक्त का बयान पुलिस के मायावी महल को क्षणमात्र में छिन्न-भिन्न कर देगा । रूपचंद इजलास के सम्मुख आया । इसके मुखारविंद पर आत्म-बल का तेज झलक रहा था और नेत्रों में साहस और शान्ति । दर्शक-मंडली उतावली हो कर अदालत के कमरे ,में घुस पड़ी रूपचंद इस समय का चाँद था या देवलोक का दूत; सहस्त्रों नयन उसकी ओर लगे थे । किंतु हृदय को कितना कौतूहल हुआ जब रूपचंद ने अत्यंत शान्त चित्त से अपना अपराध स्वीकार कर लिया ! लोग एक दूसरे का मुँह ताकने लगे । अभियुक्त का बयान समाप्त होते ही कोलाहल मच गया । सभी इसकी आलोचना-प्रत्यालोचना करने लगे । सबके मुँह पर आश्चर्य था,संदेह था, और निराशा थी । कामिनी की कृतघ्नता और निष्ठुरता पर धिक्कार हो रही थी । प्रत्येक मनुष्य शपथ खाने पर तैयार था कि रूपचंद सर्वथा निर्दोष है । प्रेम ने उसके मुँह पर ताला लगा दिया है । पर कुछ ऐसे भी दूसरे के दुःख में प्रसन्न होनेवाले स्वभाव के लोग थे जो उसके इस साहस पर हँसते और मजाक उड़ाते थे । दो घंटे बीत गये । अदालत में पुनः एक बार शान्ति का राज्य हुआ । जज साहब फैसला सुनाने के लिए खड़े हुए । फैसला बहुत संक्षिप्त था । अभियुक्त जवान है । शिक्षित है और सभ्य है । अतएव आँखों वाला अंधा है । इसे शिक्षाप्रद दण्ड देना आवश्यक है । अपराध स्वीकार करने से उसका दण्ड कम नहीं होता है । अतः मैं उसे पाँच वर्ष के सपरिश्रम कारावास की सजा देता हूँ । दो हजार मनुष्यों ने हृदय थाम कर फैसला सुना । मालूम होता था कि कलेजे में भाले चुभ गये हैं ! सभी का मुँह निराशा-जनक क्रोध से रक्त-वर्ण हो गया था । यह अन्याय है, कठोरता और बेरहमी है । परन्तु रूपचंद के मुँह पर शान्ति विराज रही थी ।

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4 - सेवा-मार्ग

- लेखक - मुंशी प्रेमचंद

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तारा ने बारह वर्ष तक दुर्गा की तपस्या की ।न पलंग पर सोयी, न केशों को सँवारा और न नेत्रों में सुरमा लगाया । पृथ्वी पर सोती, गेरुआ वस्त्र पहनती और रूखी रोटियाँ खाती, उसका मुख मुरझायी कली की भाँति था, नेत्र ज्योति-हीन, और हृदय एक शून्य बीहड़ मैदान । उसे केवल यही लौ लगी थी कि दुर्गा के दर्शन पाऊँ । शरीर मोमबत्ती की तरह घुलता था । पर, यह लौ दिल से न जाती थी । यही उसकी इच्छा थी, यही उसका जीवनो- द्देश्य । घर के लोग उसे पागल कहते । माता समझाती -बेटी, तुझे क्या हो गया है ? क्या तू सारा जीवन रो-रो कर काटेगी ? इस समय के देवता पत्थर के होते हैं । पत्थर को भी कभी पिघलते देखा है ? देख तेरी सखियाँ पुष्प की भाँति विकसित हो रही है, नदी की तरह बढ़ रही है; क्या तुझे मुझ पर दया नहीं आती ? तारा कहती-माता, अब तो जो लगन लगी वह लगी । या तो देवी के दर्शन पाऊँगी, या यही इच्छा लिये हुए संसार से पयान कर जाऊँगी । तुम समझ लो मैं मर गई । इस प्रकार पूरे बारह वर्ष व्यतीत हो गये और तब देवी प्रसन्न हुई रात्रि का समय था । तारा दुर्गा के पैरों पर माथा नवाये सच्ची भक्त का परिचय दे रही थी । यकायक उस पाषाणमूर्ति देवी के तन में स्फूर्ति प्रकट हुई । तारा के रोंगटे खड़े हो गये । वह धुँधला दीपक देदीप्यमान हो गया, मन्दिर में चित्ताकर्षक सुगंध फैल गयी और वायु में सजीवता प्रतीत होने लगी । देवी का उज्जवल रूप पूर्ण चंद्रमा की भाँति चमकने लगा । ज्योतिहीन नेत्र जगमगा उठे होंठ खुल गये । आवाज आयी-तारा, मैं तुमसे प्रसन्न हूँ माँग क्या माँगती है ? तारा खड़ी हो गयी । उसका शरीर इस भाँति काँप रहा था जैसे प्रातःकाल के समय कम्पित स्वर में किसी कृषक के गाने की ध्वनि । उसे मालूम हो रहा था मानों बह वायु में उड़ी जा रही है । उसे अपने हृदय में उच्च विचार पूर्ण प्रकाश का आभास हो रहा था । उसने भक्ति-भाव से कहा, भगवती, तुमने मेरी बारह वर्ष की तपस्या पूरा की ; किस मुख से तुम्हारा गुणानुवाद गाऊँ। मुझे संसार की वे अलभ्य बस्तुएँ प्रदान हों जो इच्छाओं की सीमा और अभिलाषाओं का अंत है । मैं वह ऐश्वर्य चाहती हूँ जो सूर्य को भी मात कर दे । देवी ने मुस्करा कर कहा-स्वीकृत है । तारा - वह धन तो कालचक्र को भी लज्जित करे । देवी ने मुस्करा कर कहा - स्वीकृत है । तारा - वह सौंदर्य जो अद्वितीय हो । देवी ने मुस्कराकर कहा - यह भी स्वीकृत है ।

(2)

तारा कुँवरि ने शेष रात्रि जागकर व्यतीत की । प्रभातकाल के समय उसकी आँखें,क्षण भर के लिए, झपक गयीं । जागी तो देखा कि मैं सिर से पाँव तक हीरे व जवाहिरों से लदी हूँ उसके विशाल भवन के कलश आकाश से बातें कर रहे थे - सारा भवन संगमरमर से बना हुआ, अमूल्य पत्थरों से जड़ा हुआ । द्वार पर नौबत बज रही थी । उसके आनन्ददायक सुहावने शब्द आकाश में गूँज रहे थे । द्वार पर मीलों तक हरियाली छायी थी । दासियाँ स्वर्णा भूषणों से लदी हुई, सुनहरे कपड़े पहने हुए चारों ओर दौड़ती थीं । तारा को देखते ही वे स्वर्ण के लोटे और कटोरे लेकर दौड़ीं । तारा ने देखा कि मेरा पलँग हाथी-दाँत का है । भूमि पर बड़े कोमल बिछौने बिछे हुए हैं । सिरहाने की ओर एक बड़ा सुंदर शीशा रखा हुआ है । तारा ने उसमें अपना रूप देखा, चकित रह गयी । उसका सुंदर रूप देखा, चकित रह गयी । उसका सुन्दर रूप चंद्रमा को भी लज्जित करता था । दीवार पर अनेका नेक सुप्रसिद्ध चित्रकारों के मनमोहक चित्र टँगे थे । पर, ये सब के सब तारा की सुंदरता के आगे तुच्छ थे । तारा को अपनी सुंदरता का गर्व हुआ । वह कई दासियों को लेकर बाटिका में गयी । वहाँ की छटा देख कर वह मुग्ध हो गयी । वायु में गुलाब और केसर धुले हुए थे, रंग-बिरंगे के पुष्प, वायु के मंद-मंद झोंकों से, मतवालों की तरह झूम रहे थे । तारा ने एक गुलाब का फूल तोड़ लिया और उसके रंग और कोमलता को अपने अधर-पल्लव से समानता करने लगी । गुलाब में वह कोमलता न थी । वाटिका के मध्य में एक बिल्लोर जटित हौज था ।इसमें हंस और बतख किलोंले कर रहे थे । यकायक तारा को ध्यान आया, मेरे घर के लोग कहाँ हैं । दासियों से पूछा । उन्होंने कहा- श्रीमती, वे लोग पुराने घर में हैं । तारा ने अपनी अटारी पर जाकर देखा । उसे अपना पहला घर एक साधारण झोंपड़े की तरह दृष्टिगोचर हुआ । उसकी बहनें उसकी साधारण दासियों के समान भी न थी । माँ को देखा, वह आँगन में बैठी चरखा कात रही थी । तारा पहले सोचा करती थी कि जब मेरे दिन चमकेंगे तब मैं इन लोगों को भी अपने साथ रखूँगी और उनकी भली-भँति सेवा करूँगी । पर इस समय धन के गर्व ने उसकी पवित्र हार्दिक इच्छा को निर्बल बना दिया था । उसने घरवालों को स्नेह-रहित दृष्टि से देखा और तब वह उस मनोहर गान को सुनने चली गयी जिसकी प्रतिध्वनि उसके कानों में आ रही थी । एक बारगी जोर से धड़ाका हुआ; बिजली चमकी और बिजली की छटाओं में से एक ज्योति स्वरूप नवयुवक निकल कर तारा के सामने नम्रता से खड़ा हो गया । तारा ने पूछा -तुम कौन हो ? नवयुवक ने कहा - श्रीमती, मुझे विद्युतसिंह कहते हैं । मैं श्री मती का आज्ञाकारी सेवक हूँ । उसके विदा होते ही वायु के उष्ण झोंके चलने लगे । आकाश में एक प्रकाश दृष्टिगोचर हुआ । वह क्षणमात्र में उतर कर कुँवरि के समीप ठहर गया । उसमें से एक ज्वालामुखी मनुष्य ने निकल कर तारा के पदों को चूमा । ताराने पूछा-तुम कौन हो ? उत्तर दिया- श्रीमती, मेरा नाम अग्निसिंह हैं । मैं श्रीमती का आज्ञाकारी सेवक हूँ । वह अभी जाने भी न पाया था कि एक बारगी सारा महल ज्योति से प्रकाश मान हो गया । जान पड़ता था, सैकड़ों बिजलियाँ मिलकर चमक रही हैं । वायु सेवक हो गयी । एक जगमगाता हुआ आकाश पर दीख पड़ा । वह शीघ्रता से पृथ्वी की ओर चला और तारा कुँवरि के पास आकर ठहर गया । उससे एक प्रकाशमय रूप का बालक, जिनके रूप से गम्भीरता प्रगट होती थी, निकल कर तारा के सामने शिष्टभाव से खड़ा हो गया । तारा ने पूछा - तुम कौन हो ? बालक ने उत्तर दिया- श्रीमती, मुझे मिस्टर रेडियम कहते हैं । मैं श्रीमती का आज्ञापालक हूँ । धनी लोग तारा के भय से थर्राने लगे । उसके आश्चर्यजनक सौंदर्य ने संसार को चकित कर दिया । बड़े-बड़े महीपति उसकी चौखट पर माथा रगड़ने लगे । जिसकी ओर उसकी कृपा-दृष्टि हो जाती,वह अपना अहोभाग्य समझता-सदैव के लिए उसका बेदाम का गुलाम बन जाता । एक दिन तारा अपनी आनंदवाटिका में टहल रही थी । अचानक किसी के गाने का मनोहर शब्द सुनायी दिया । तारा विक्षिप्त हो गयी । उसके दरबार में संसार के अच्छे-अच्छे गवैये मौजूद थे, पर वह चित्ताकर्षकता, जो इन सुरों में थी, कभी अवगत न हुई थी । तारा ने गायक गायक को बुला भेजा । एक क्षण के अनंतर वाटिका में एक साधु आया, सिर पर जटाएँ शरीर में भस्म रमाये । उसके साथ एक टूटा हुआ बीन था । उसी से वह प्रभावशाली स्वर निकलता जो हृदयके अनुरक्त स्वरों से कहीं प्रिय था । साधु आकर हौज के किनारे बैठ गया । उसने तारा के सामने शिष्ट-भाव नहीं दिखाया । आश्चर्य से इधर-उधर दृष्टि नहीं डाली । उस रमणीय स्थान पर वह अपना सुर अलापने लगा । तारा का चित्त विचलित हो उठा । दिल में अपार अनुराग का संचार हुआ । मदमत्त हो कर टहलने लगी । साधु के सुमनोहर मधुर अलाप से पक्षी मग्न हो गये । पानी में लहरें उठने लगीं । वृक्ष झूमने लगे । तारा ने उन चित्ताकर्षक सुरों से एक चित्र खिंचते हुए देखा । धीरे-धीरे चित्र प्रगट होने लगा । उसमें स्फूर्ति आयी । और तब वह खड़ी हो कर नृत्य करने लगी । तारा चौंक पड़ी । उसने देखा कि यह मेरा ही चित्र है । नहीं, मैं ही हूँ । मैं ही बीन की तान पर नृत्य कर रही हूँ । उसे आश्चर्य हुआ कि मैं संसार की अलभ्य वस्तुओं की रानी हूँ अथवा एक स्वर-चित्र ! वह सिर धुनने लगी और मतवाली हो कर साधु के पैरों से जा लगी । उसकी दृष्टि में एक आश्चर्यजनक परिवर्तन हो गया । सामने के फले-फूले वृक्ष और तरंगे मारता हुआ हौज, और मनोहर कुंज सब लोप हो गये । केवल वही साधु बैठा बीन बजा रहा था, और वह स्वयं उसकी तालों पर धिरक रही थी । वह साधु अब प्रकाशमान तारा और अलौकिक सौंदर्य की मूर्ति बन गया था । जब मधुर अलाप बंद हुआ तब तारा होश में आयी । उसका चित्त हाथ से जा चुका था । वह विलक्षण साधु के हाथों बिक चुकी थी । तारा बोली-स्वामी जी! यह महल, यह धन, यह सुख और सौंदर्य सब आपके चरण पर निछावर है । इस अँधेरे महल को अपने कोमल चरणों से प्रकाशमान कीजिए । साधु- साधुओं को महल और धन का क्या काम ? मैं इस घर में नहीं ठहर सकता । तारा - संसार के सारे सुख आपके लिए उपस्थित हैं । साधु - मुझे सुखों की कामना नहीं । तारा - मैं आजीवन आपकी दासी रहूँगी । यह कहकर तारा ने आईने में अपने अलौकिक सौंदर्य की छटा देखी और उसके नेत्रों में चंचलता आ गयी । साधु - नहीं तारा कुँवरि, मैं इस योग्य नहीं हूँ । यह कह कर साधु ने बीन उठाया और द्वार की ओर चला । तारा का गर्व टूक-टूक हो गया । लज्जा से सिर झुक गया । वह मूर्छित हो कर भूमि पर गिर पड़ी । मन में सोचा, मैं धनमें, ऐश्वर्य में, सौंदर्य में, जो अपनी समता नहीं रखती, एक साधु की दृष्टि में इतनी तुच्छ !!

(4)

तारा को अब किसी प्रकार चैन नहीं था । उसे अपना भवन, ऐश्वर्य भयानक मालूम होने लगा । बस, साधु का एक चंद्रस्वरूप उसकी आँखों में नाच रहा था और उसका स्वर्गीय गान कानों में गूँज रहा था । उसने अपने गुप्तचरों को बुलाया और साधु का पता लगाने की आज्ञा दी । बहुत छानबीन के पश्चात् उसकी कुटी का पता लगा । तारा नित्यप्रति, वायुयान पर बैठ कर, साधु के पास जाती । कभी उस पर लाल, जवाहिर लुटाती, कभी रत्न और आभूषण की छटा दिखाती । पर साधु इससे तनिक भी विचलित न हुआ। तारा के मायाजाल का उस पर कुछ भी असर न हुआ । तब तारा कुँवरि फिर दुर्गा के मंदिर में गयी और देवी के चरणों पर सिर रख कर बोली - माता, तुमने मुझे संसार के सारे दुर्लभ पदार्थ प्रदान किये मैंने समझा था कि ऐश्वर्य, सौंदर्य और वैभव का कुछ भी अधिकार नहीं । अब एक बार मुझ पर फिर वही कृपादृष्टि हो । कुछ ऐसा कीजिए कि जिस निष्ठुर के प्रेम में मै मरी जा रही हूँ, उसे भी मुझे देखे बिना चैन न आवे- उसकी आँखों में भी नींद हराम हो जाय, वह भी मेरे प्रेम-मद में चूर हो जाय । देवी के होंठ खुले । वह मुस्करायी, उसके अधर विकसित हुए बोली सुनायी दी-तारा, मैं संसार के सारे पदार्थ प्रदान कर सकती हूं, पर स्वर्गसुख मेरी शक्ति से बाहर है । `प्रेम' स्वर्गसुख का मूल है । तारा - माता, संसार के सारे ऐश्वर्य मुझे जंजाल जान पड़ते हैं । बताइए, मैं अपने प्रीतम को कैसे पाऊँगी ? देवी - उसका एक ही मार्ग है । पर बहुत कठिन । भला, तुम उस पर चल सकोगी ? तारा - वह कितना ही कठिन हो, मैं उस मार्ग का अवलम्बन अवश्य करूँगी । देवी - अच्छा तो सुनो, वह सेवा-मार्ग है । सेवा करो, प्रेम सेवा ही से मिल सकता है।

(5)

तारा ने अपने बहुमूल्य आभूषणों और रंगीन वस्त्रों को उतार दिया । दासियों से विदा हुई । राजभवन को त्याग दिया, अकेले नंगे पैर साधु की कुटी में चली आयी और सेवा- मार्ग का अवलम्बन किया । वह कुछ रात रहे उठती । कुटी में झाडू देती । साधु के लिए गंगा से जल लाती । जंगली फूल तोड़ लाती और केले के पत्तल बना कर साधु के सम्मुख रखती । साधु नदी में स्नान करने जाया करते थे । तारा रास्ते के कंकर चुनती । उसने कुटी के चारों ओर पुष्प लगाये । गंगा से पानी लाकर सींचती । उन्हें हरा भरा देख कर प्रसन्न होती । उसने मदार की रूई बटौरी, साधु के लिए नर्म गद्दे तैयार किये । अब और कोई कामना न थी । सेवा स्वयं अपना पुरस्कार और फल थी । तारा को कई-कई दिन उपवास करना पड़ता था । हाथों में गट्ठे पड़ गये । पैर काँटों से चलनी हो गये । धूप से कोमल गात मुरझा गया; पर उसके हृदय में अब स्वार्थ और गर्व का शासन न था । अब प्रेम का राज था; वहाँ अब उस सेवा की लगन थी - जिससे कलुषता की जगह आनंद का स्त्रोत बहता है । और काँटे पुष्प बन जाते हैं; जहाँ अश्रु-धारा की जगह नेत्रों से अमृतराज की वर्षा होती और दुःख-विलाप की जगह आनंद के राग निकलते है जहाँ के पत्थर रूई से ज्यादा कोमल हैं और शीतल वायु से भी मनोहर । तारा भूल गयी कि मैं सौंदर्य में अद्वितीय हूँ । धन-विलासिनी तारा अब केवल प्रेम की दासी थी । साधु को वन के खगों से प्रेम था । वे कुटी के पास एकत्रित हो जाते । तारा उन्हें पानी पिलाती, दाने चुगाती, गोद लेकर उनका दुलार करती । विषधर साँप और भयानक जंतु उसके प्रेम के प्रभाव से उसके सेवक हो गये । बहुधा रोगी मनुष्य साधु के पास आशीर्वाद लेने आते थे । तारा रोगियों की सेवा- शुश्रूषा करती, जंगल से जड़ी -बूटियाँ ढूँढ़ लाती, उनके लिए औषधि बनाती, उनके घाव धोती, घावों पर मरहम रखती, रात भर बैठी उन्हें पंखा झलती । साधु के आशीर्वाद को उसकी सेवा प्रभावयुक्त बना देती थी । इस प्रकार कितने ही वर्ष बीत गये । गर्मी के दिन थे, पृथ्वी तवे की तरह जल रही थी । हरे-भरे वृक्ष सूखे जाते थे । गंगा गर्मी से सिमट गयी थी । तारा को पानी लेने के लिए बहुत दूर रेत में चलना पड़ता । उसका कोमल अंग चूर चूर हो जाता । जलती हुई रेत में तलवे भुन जाते । इसी दशा में एक दिन वह हताश हो कर एक वृक्ष के नीचे क्षण भर दम लेने के लिए बैठ गयी । उसके नेत्र बंद हो गये । उसने देखा, देवी मेरे सम्मुख खड़ी, कृपादृष्टि से मुझे देख रही है । तारा ने दौड़ कर उनके पदों को चूमा । देवी ने पूछा - तारा, तेरी अभिलाषा पूरी हुई ? तारा - हाँ माता, मेरी अभिलाषा पूरी हुई । देवी - तुझे प्रेम मिल गया ? तारा - नहीं माता, मुझे उससे भी उत्तम पदार्थ मिल गया । मुझे प्रेम के हीरे के बदले सेवा का पारस मिल गया । मुझे ज्ञान हुआ कि प्रेम सेवा का चाकर है । सेवा के सामने सिर झुका कर अब मैं प्रेम-भिक्षा नहीं चाहती । अब मुझे किसी दूसरे सुख की अभिलाषा नहीं । सेवा ने मुझे प्रेम, आदर, सुख सबसे निवृत्त कर दिया । देवी इस बार मुस्करायी नहीं । उसने तारा को हृदय से लगाया और दृष्टि से ओझल हो गयी ।

(6)

संध्या का समय था । आकाश में तारे ऐसे चमकते थे जैसे कमल पर पानी की बूँदें । वायु में चित्ताकर्षक शीतलता आ गयी थी । तारा एक वृक्ष के नीचे खड़ी चिड़ियों को दाना चुगाती थी कि यकायक साधु ने आकर उसके चरणों पर सिर झुकाया और बोला - तारा, तुमने मुझे जीत लिया । तुम्हारा ऐश्वर्य, धन और सौंदर्य जो कुछ न कर सका, वह तुम्हारी सेवा ने कर दिखाया । तुमने मुझे अपने प्रेम में आसक्त कर लिया । अब मैं तुम्हारा दास हूँ । बोलो, तुम मुझसे क्या चाहती हो ? तुम्हारे संकेत पर अब मैं अपना योग और वैराग्य सब कुछ न्यौछावर कर देने के लिए प्रस्तुत हूँ । तारा - स्वामी जी, मुझे अब कोई इच्छा नहीं । मैं केवल सेवा की आज्ञा चाहती हूँ । साधु- मैं दिखा दूँगा कि योग साध कर भी मनुष्य का हृदय निर्जीव नहीं होता । मैं भँवर के सदृश तुम्हारे सौंदर्य पर मँडराऊँगा । पपीहे की तरह तुम्हारे प्रेम की रट लगाऊँगा । हम दोनों प्रेम की नौका पर ऐश्वर्य और वैभव-नदी की सैर करेंगे, प्रेम- कुंजों में बैठ कर प्रेम-चर्चा करेंगे और आनन्द के मनोहर राग गावेंगे । तारा ने कहा - स्वामी जी, सेवा-मार्ग पर चल कर मैं अब अभिलाषाओं से पूरी हो गयी । अब हृदय में कोई इच्छा शेष नहीं । साधु ने इन शब्दों को सुना, तारा के चरणों पर माथा नवाया और गंगा की ओर चल दिया।

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5 - शिकारी-राजकुमार

- लेखक - मुंशी प्रेमचंद

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मई का महीना और मध्याह्न का समय था । सूर्य की आँखें सामने से हट कर सिर पर जा पहुँची थीं , इसलिए उनमें शील न था । ऐसा विदित होता था मानों पृथ्वी उसके भय से थर-थर काँप रही थी । ठीक ऐसे ही समय एक मनुष्य एक हिरन के पीछे उन्मुत्त भाव से घोड़ा फेंके चला आता था । उसका मुँह लाल हो रहा था और घोड़ा पसीने से लथ-पथ । किंतु मृग भी ऐसा भागता था मानो वायुवेग से जा रहा था । ऐसा प्रतीत होता था कि उसके पद स्पर्श नहीं करते । इसी दौड़ की जीत-हार पर उसका जीवन निर्भर था । पछुआ हवा बड़े जोर से चल रही थी । ऐसा जान पड़ता था मानो अग्नि और धूल की वर्षा हो रही हो । घोड़े के नेत्र रक्तवर्ण हो रहे थे और अश्वारोही के सारे शरीर का रुधिर उबल-सा रहा था । किंतु मृग का भागना उसे इस बात का अवसर न देता था कि वह अपनी बन्दूक को सम्हाले । कितने ही ऊख के खेत ठाक के वन और पहाड़ सामने पड़े और तुरन्त ही `सपनेकी सम्पत्ति' की भाँति अदृश्य हो गये । क्रमशः मृग पीछे की ओर मुड़ा । सामने एक नदी का बड़ा ही ऊँचा कगार दीवार की भाँति खड़ा था । आगे भागने की राह बंद थी, और उस पर से कूदना मानो मृत्यु के मुख में कूदना था । हिरन का शरीर शिथिल पड़ गया । उसने एक करुणा-भरी दृष्टि चारों ओर फेरी । किंतु उसे हर तरफ मृत्यु ही मृत्यु दृष्टि गोचर होती थी । अश्वारोही के लिए इतना समय बहुत था । उसकी बन्दूक से गोली क्या छूटी मानों मृत्यु ने एक महा भयंकर जयध्वनि के साथ अग्नि की एक प्रचंड ज्वाला उगल दी । हिरन भूमि पर लेट गया ।

(2)

मृग पृथ्वी पर पड़ा तड़प रहा था और अश्वारोही की भयंकर और हिंसा-प्रिय आँखों से प्रसन्नता की ज्योति निकल रही थी । ऐसा जान पड़ता था कि उसने असाध्य साधन कर लिया । उसने उस पशु के शव को नापने के बाद उसके सींगों को बड़े ध्यान से देखा । और मन ही मन प्रसन्न हो रहा था कि इससे कमरे की सजावट दूनी हो जायगी और नेत्र सर्वदा उस सजावट का आनंद सुख से भोगेंगे । जब तक वह इस ध्यान में मग्न था उसको सूर्य की प्रचंड किरनों का लेशमात्र भी ध्यान न था ; किंतु ज्यों ही उसका ध्यान उधर से फिरा, वह उष्णता से विह्वल हो उठा और करुणा पूर्ण आँखें नदी की ओर डाली; लेकिन वहाँ तक पहुँचने का कोई मार्ग न देख पड़ा और न कोई वृक्ष ही देख पड़ा, जिसकी छाँह में जरा विश्राम करता । इसी चिंता में एक अति दीर्घकाया पुरुष नीचे से उछल कर कगारे के ऊपर आया और अश्वा रोही के सम्मुख खड़ा हो गया । अश्वारोही उसको देख बहुत अचंभित हुआ । नवागंतुक एक बहुत ही सुंदर और हृष्ट-पुष्ट मनुष्य था । मुख के भाव उस हृदय की स्वच्छता और चरित्र की निर्मलता का पता देते थे । वह बहुत ही दृढ़प्रतिज्ञ, आशा-निराशा तथा भय से बिलकुल बेपरवाह सा जान पड़ता था । मृग को देखकर उस सन्यासी ने बड़े स्वाधीन भाव से कहा -राजकुमार, तुम्हे आज बहुत ही अच्छा शिकार हाथ लगा । इतना बड़ा मृग इस सीमा में कदाचित ही दिखायी पड़ता है। राजकुमार के अचम्भे की सीमा न रही । उसने देखा कि साधु उसे पहचानता है । राजकुमार बोला- जी हाँ, मैं भी यही खयाल करता हूँ । मैंने भी आज तक इतना बड़ा हिरन नहीं देखा । लेकिन इसके पीछे आज बहुत हैरान होना पड़ा । संन्यासी ने दयापूर्वक कहा- निःसंदेह तुम्हे दुख उठाना पड़ा होगा तुम्हारा मुख लाल हो रहा है और घोड़ा भी बेदम हो गया । क्या तुम्हारे संगी बहुत पीछे रह गये । इसका उत्तर राजकुमार ने बिलकुल बेपरवाही से दिया. मानो उसे इसकी कुछ भी चिंता न थी । संन्यासी ने कहा - यहाँ ऐसी कड़ी धूप और आँधी में खड़े तुम कब तक उनकी राह देखोगे ? मेरी कुटी में चल कर जरा विश्राम कर लो । तुम्हें परमात्मा ने ऐश्वर्य दिया है, लेकिन कुछ देर के लिए संन्यासाश्रम का रंग भी देखो और वनस्पतियों और नदी के शीतल जल का स्वाद लो । यह कह कर संन्यासी ने उस मृग के रक्तमय मृत शरीर को ऐसी सुगमता से उठा कर कंधे पर धर लिया मानो वह एक घास का गट्ठा था, और राजकुमार से कहा - मैं तो प्रायः कगार से ही नीचे उतर जाया करता हूँ, किंतु तुम्हारा घोड़ा सम्भव है, न उतर सके । अतएव दिन की राह छोड़ कर छह मास की राह चलेंगे । घाट वहाँ से थोड़ी ही दूर है और वहीं मेरी कुटी है । राजकुमार संन्यासी के पीछे चला । उसे सन्यासी के शरीर बल पर अचम्भा हो रहा था । आध घंटे तक दोनों चुपचाप चलते रहे । इसके बाद ढालू भूमि मिलनी शुरु हुई और थोड़ी देर में घाट आ पहुँचा । वहीं कदम्ब-कुंज की धनी छाया में जहाँ सर्वदा मृगों की सभा सुशोभित रहती, नदी की तरंगो का मधुर स्वर सर्वदा सुनायी दिया करता है, जहाँ हरियाली पर मयूर थिरकता, कपोतादि पक्षी मस्त हो कर झूमते, लता-द्रुमादि से सुशोभित सन्यासी की एक छोटी-सी कुटी थी ।

(2)

सन्यासी की कुटी हरे-भरे वृक्षों के नीचे सरलता और संतोष का चित्र बन रही थी । राजकुमार की अवस्था वहाँ पहुँचते ही बदल गयी थी । यहाँ की शीतल वायु का प्रभाव उस पर ऐसा पड़ा जैसा मुरझाते हुए वृक्ष पर वर्षा का। उसे आज विदित हुआ कि तृप्ति कुछ स्वादिष्ट व्यंजनों ही पर निर्भर नहीं है । और न निद्रा सुनहरे तकियों की ही आवश्यकता रखती है । शीतल, मंद, सुगंध वायु चल रही थी । सूर्य भगवान अस्ताचल को पयान करते हुए इस लोक को तृषित नेत्रों से देखते जाते थे और सन्यासी एक वृक्ष के नीचे बैठा हुआ गा रहा था । ~ऊधो कर्मन की गति न्यारी" राजकुमार के कानों में स्वर की भनक पड़ी, उठ बैठा और सुनने लगा । उसने बड़े-बड़े कलावंतों के गाने सुने थे, किंतु आज जैसा आनंद उसे कभी प्राप्त ही हुआ था । इस पद ने उसे उसके ऊपर मानो मोहिनी-मंत्र का जाल बिछा दिया । वह बिलकुल बेसुध हो गया । सन्यासी की धुन में कोयल की कूक सरीखी मधुरता थी । सम्मुख नदी का जल गुलाबी चादर की भाँति प्रतीत होता था । कूल द्वय की रेत चंदन की चौकी-सी दीखती थी । राजकुमार को यह दृश्य स्वर्गीय-सा जान पड़ने लगा । उस पर तैरने वाले जल-जंतु ज्योतिर्मय आत्मा के सदृश देख पड़ते थे, जो गाने का आनन्द उठा कर मत्त-से हो गये थे । जब गाना समाप्त हो गया, राजकुमार जा कर सन्यासी के सामने बैठ गया और भक्तिपूर्वक बोला- महात्मन् ! आपका प्रेम और वैराग्य सराहनीय है । मेरे हृदय पर इसका जो प्रभाव पड़ा है, वह चिरस्थायी रहेगा । यद्यपि सम्मुख प्रशंसा करना अनुचित है, किंतु इतना मैं अवश्य कहूँगा कि आपके प्रेम की गम्भीरता सराहनीय है । यदि मैं गृहस्थी के बंधन में न पड़ा होता तो आपके चरणों से पृथक होने का ध्यान स्वप्न में भी न करता । इसी अनुरागावस्था में राजकुमार कितनी ही ऐसी बातें कह गया जो कि स्पष्टरूप से उसके आंतरिक भावों का विरोध करती थीं । सन्यासी मुस्करा कर बोला-तुम्हारी बातों से मैं बहुत प्रसन्न हूँ । और मेरी उत्कट इच्छा है कि तुमको कुछ ठहराऊँ, किंतु यदि मैं जाने भी दूँ तो इस सूर्यास्त के समय तुम जा नहीं सकते । तुम्हारा रीवाँ पहुँचना दुष्कर हो जायगा । तुम जैसे आखेट-प्रिय हो वैसा मैं भी हूँ । हम दोनों को अपने- अपने गुण दिखाने का अच्छा अवसर प्राप्त हुआ है । कदाचित तुम भय से न रुकते, किंतु शिकार के लालच से अवश्य रहोगे । राजकुमार को तुरंत ही मालूम हो गया कि जो बातें उन्होंने अभी-अभी सन्यासी से कही थीं, वे बिलकुल ऊपरी और दिखावे की थीं और हार्दिक भाव उनसे प्रगट नहीं हुए थे । आजन्म सन्यासी के समीप रहना तो दूर, वहाँ एक रात बिताना उसको कठिन जान पड़ने लगा ।घरवाले उद्विग्न हो जायँगे और मालूम नहीं क्या सोचेंगे । साथियों की जान संकट में होगी । घोड़ा बेदम हो रहा है । उस पर चालीस मील जाना बहुत कठिन और बड़े साहस का काम है । लेकिन यह महात्मा शिकार खेलते हैं - यह बड़ी अजीब बात है । कदाचित् यह वेदान्ती है,ऐसे वेदांती जो जीवन और मृत्यु मनुष्य के हाथ नहीं मानते । इनके साथ शिकार में बड़ा आनन्द आवेगा । यह सब सोच-विचार कर उन्होंने संन्यासी का आतिथ्य स्वीकार किया, उन्हें धन्यवाद दिया और अपने भाग्य की प्रशंसा की, जिसने उन्हें कुछ काल तक और साधु संग से लाभ उठाने का अवसर दिया ।

(4)

रात दस बजे का समय था । घनी अँधियारी छाई हुई थी । संन्यासी ने कहा- अब हमारे चलने का समय हो गया है । राजकुमार पहले ही से प्रस्तुत था । बंदूक कंधे पर रखकर बोला - इस अंधकार में शूकर अधिकतर मिलेंगे किंतु ये पशु बड़े भयानक हैं । सन्यासी ने एक सोटा हाथ में लिया और कहा - कदाचित इससे भी अच्छे शिकार हाथ आवें । मैं जब अकेला जाता हूँ, कभी खाली हाथ नहीं लौटता । आज तो हम दो हैं । दोनों शिकारी नदी के तट पर नालों और रेतों के टीलों को पार करते और झाड़ियों से अटकते चुपचाप चले जा रहे थे । एक ओर श्यामवर्ण नदी थी ,जिसमें नक्षत्रों का प्रतिबिंब नाचता दिखायी देता था और लहरें गान कर रही थीं । दूसरी ओर घनघोर अंधकार, जिसमें कभी-कभी केवल खद्योतों के चमकने से एक क्षणस्थायी प्रकाश फैल जाता था । मालूम होता था कि वे भी अँधेरे में निकलने से डरते हैं । ऐसी अवस्था में कोई एक घंटा चलने के बाद वह एक ऐसे स्थान पर पहुँचे जहाँ एक ऊँचे टीले पर घने वृक्षों के नीचे आग जलती दिखायी पड़ी । उस समय इन लोगों को मालूम हुआ कि संसार में इनके अतिरिक्त और भी कई वस्तुएँ हैं। सन्यासी ने ठहरने का संकेत किया दोनों एक पेड़ की ओट में खड़े हो कर ध्यानपूर्वक देखने लगे । राजकुमार ने बंदूक भर ली । टीले पर एक बड़ा छाया दार वट-वृक्ष था । उसी के नीचे अंधकार में दस-बारह मनुष्य अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित मिर्जई पहने चरस का दम लगा रहे थे । इनमें से प्रायः सभी लम्बे थे सभी के सीने चौड़े और सभी हृष्ट=पुष्ट । मालूम होता था कि सैनिकों का एक दल विश्राम कर रहा है । राजकुमार ने पूछा- यह लोग शिकारी हैं ? संन्यासी ने धीरे से कहा बड़े शिकारी हैं । ये राह चलते यात्रियों का शिकार करते हैं । ये बड़े भयानक हिंस्त्र पशु हैं । इनके अत्याचार से गाँव के गाँव बर्बाद हो गये और जितनों को इन्हौंने मारा है, उनका हिसाब परमात्मा ही जानता है । यदि आपको शिकार करना हो तो इनका शिकार कीजिए । ऐसा शिकार आप बहुत प्रयत्न करने पर भी नहीं पा सकते । यही पशु हैं, जिन पर आपको शस्त्रों का प्रहार करना उचित है । राजाओं और अधिकारियों के शिकार यही हैं । इससे आपका नाम और यश फैलेगा । राजकुमार के जी में आया कि दो-एक को मार डालें, किंतु सन्यासी ने रोका और कहा - इन्हें छेड़ना ठीक नहीं । अगर यह कुछ उपद्रव न करें, तो भी बच कर निकल जायँगे । आगे चलो, सम्भव है कि इससे भी अच्छे शिकार हाथ आवें । तिथि सप्तमि थी । चंद्रमा भी उदय हो आया । इन लोगों ने नदी का किनारा छोड़ दिया था । जंगल भी पीछे रह गया था । सामने एक कच्ची सड़क दिखायी पड़ी और थोड़ी देर में कुछ बस्ती भी देख पड़ने लगी । सन्यासी एक विशाल प्रसाद के सामने आ कर रुक गये और राजकुमार से बोले - आओ, इस मौलसरी के वृक्ष पर बैठें । परंतु देखना बोलना मत । नहीं तो दोनों की जान के लाले पड़ जायेंगे । इसमें एक बड़ा भयानक हिस्र जीव रहता है, जिसने अन गिनत जीव धारियों का बध किया है । कदाचित हम लोग आज इसको संसार से मुक्त कर दें राजकुमार बहुत प्रसन्न हुआ । सोचने लगा, चलो, रात भर की दौड़े तो सुफल हुई । दोनों मौलसरी पर चढ़ कर बैठ गये । राजकुमार ने अपनी बंदूक सँभाल ली । और शिकार की, जिसे वह तेंदुआ समझे हुए था , बाट देखने लगा । रात आधी से अधिक व्यतीत हो चुकी थी । यकायक महल के समीप कुछ हलचल मालूम हुई और बैठक के द्वार खुल गये । मोमबत्तियों के जलाने से सारा हाता प्रकाशमान हो गया । कमरे के हर कोने में सुख की सामग्री दिखायी दे रही थी । बीच में एक हृष्ट-पुष्ट मनुष्य गले में एक रेशमी चादर डाले, माथे पर केसर का अर्ध लम्बाकार तिलक लगाये, मसनद के सहारे बैठा सुनहरी मुँहनाल से लच्छेदार धुँआ फेंक रहा था । इतने ही में उन्होंने देखा कि नर्तकियों के दल के दल चले आ रहे हैं । उनके हाव-भाव व कटाक्ष के शर चलने लगे । समाजियों ने सुर मिलाया । गाना आरम्भ हुआ और साथ ही साथ मद्यपान भी चलने लगा । राजकुमार ने अचंभित हो कर पूछा - यह तो कोई बहुत बड़ा रईस जान पड़ता है ? संन्यासी ने उत्तर दिया - नहीं, यह रईस नहीं हैं, एक बड़े मंदिर के महंत हैं, साधु हैं । संसार का त्याग कर चुके हैं । सांसारिक वस्तुओं की ओर आँख नहीं उठाते, पूर्ण ब्रह्मज्ञान की बातें करते हैं । यह सब सामान इनकी आत्मा की प्रसन्नता के लिए है । इंद्रियों को वश में किए हुए इन्हें बहुत दिन हुए । सहस्रों सीधे-सादे मनुष्य इन पर विश्वास करते हैं । उनको अपना देवता समझते हैं । यदि आप शिकार करना चाहते है तो इनका कीजिए । यही राजाओं और अधिकारियों के शिकार हैं । ऐसे रँगे हुए सियारों से संसार को मुक्त करना आपका परम धर्म है । इससे आपकी प्रजा का हित होगा तथा आपका नाम और यश पैलेगा ।

(6)

दोनों शिकारी नीचे उतरे । सन्यासी ने कहा - अब रात अधिक बीत चुकी है । तुम बहुत थक गये होगे । किंतु राजकुमारों के साथ आखेट करने का अवसर मुझे बहुत कम प्राप्त होता है । अतएव एक शिकार का पता और लगा कर तब लौटैंगे । राजकुमार को इन शिकारों में सच्चे उपदेश का सुख प्राप्त हो रहा था । बोला-स्वामी जी थकने का नाम न लीजिए । यदि मैं वर्षों आपकी सेवा में रहता तो और न जाने कितने ऐसे आखेट करना सीख जाता ! दोनों फिर आगे बढ़े । अब रास्ता स्वच्छ और चौड़ा था । हाँ, सड़क कदाचित कच्ची ही थी सड़क के दोनों ओर वृक्षों की पंक्तियाँ थी । किसी-किसी आम्र वृक्ष के नीचे रखवाले सो रहे थे । घंटे भर बाद दोनों शिकारियों ने एक ऐसी बस्ती में प्रवेश किया, जहाँ की सड़कों, लालटेनों और अट्टालिकाओं से मालूम होता था कि कोई बड़ा नगर है । संन्यासी जी एक विशाल भवन के सामने एक वृक्ष के नीचे ठहर गये और राजकुमार से बोले - यह सरकारी कचहरी है । यहाँ राज्य का एक बड़ा कर्मचारी रहता है । उसे सूबेदार कहते हैं इसकी कचहरी दिन को भी लगती है और रात को भी । यहाँ न्याय सुवर्ण और रत्नादिकों के मोल बिकता है । यहाँ की न्यायप्रियता द्रव्य पर निर्भर है । धनवान दरिद्रों को पैरों तले कुचलते हैं और उनकी कोई भी नहीं सुनता । यही बातें हो रही थी कि यकायक कोठे पर दो आदमी दिखलायी पड़े दोनों शिकारी वृक्ष की ओट में छिप गये । सन्यासी ने कहा - शायद सूबेदार साहब कोई मामला तय कर रहें है । ऊपर से आवाज आयी, तुमने एक विधवा स्त्री की जायदाद ले ली है, मैं इसे भलीभाँति जानता हूँ । यह कोई छोटा मामला नहीं है । इसमें एक सहस्त्र से कम पर मैं बातचीत करना नहीं चाहता । राजकुमार में इससे अधिक सुनने की शक्ति न रही । क्रोध के मारे नेत्र लाल हो गये । यही जी चाहता था कि इस निर्दयी का अभी बध कर दें; किंतु सन्यासी जी ने रोका । बोले -आज शिकार का समय नहीं है । यदि आप ढूँढ़ेंगे तो ऐसे शिकार बहुत मिलेंगे ! मैंने इनके कुछ ठिकाने बतला दिये हैं । अब प्रातः काल होने में अधिक विलम्ब नहीं है । कुटी अभी यहाँ से दस मील होगी आइए, शीघ्र चलें ।

(7)

दोनों शिकारी तीन बजते-बजते फिर कुटी में लौट आये । उस समय बड़ी सुहावनी रात थी । शीतल समीर ने हिला-हिला कर वृक्षों और पत्तों की निद्रा भंग करना आरम्भ कर दिया था आध घंटे में राजकुमार तैयार हो गये । संन्यासी को अपना विश्वास और कृतज्ञता प्रकट करते हुए उनके चरणों पर अपना मस्तक नवाया और घोड़े पर सवार हो गये । संन्यासी ने उनकी पीठ पर कृपा-पूर्वक हाथ फेरा । आशीर्वाद दे कर बोले-राजकुमार, तुमसे भेंट होने से मेरा चित्त बहुत प्रसन्न हुआ । परमात्मा ने तुम्हें अपनी सृष्टि पर राज करने के हेतु जन्म दिया है । तुम्हारा धर्म है कि सदा प्रजापालक बनो । तुम्हें पशुओं का बध करना उचित नहीं ।इन दीन पशुओं के बध करने में कोई बहादुरी नहीं कोई साहस नहीं । सच्चा साहस और सच्ची बहादुरी दीनों की रक्षा और उनकी सहायता करने में है । विश्वास मानो, जो मनुष्य केवल चित्त विनोदार्थ जीवहिंसा करता है, वह निर्दयी घातक से भी कठोर-हृदय है । वह घातक के लिए जीविका है, किंतु शिकारी के लिए केवल दिल बहलाने का एक सामान । तुम्हारे लिए ऐसे शिकारों की आवश्यकता है, जिससे तुम्हारी प्रजा को सुख पहुँचे । निःशब्द पशुओं का बध न करके तुमको उन हिंसको के पीछे दौड़ना चाहिए, जो धोखा-धड़ी से दूसरों का बध करते हैं । ऐसे आखेट करो जिससे तुम्हारी आत्मा को शांति मिले । तुम्हारी कीर्ति संसार में फैले । तुम्हारा काम बध करना नहीं, जीवित रखना है । यदि बध करो तो केवल जीवित रखने के लिए । यही तुम्हारा धर्म है । जाओ, परमात्मा तुम्हारा कल्याण करें ।

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6 - बलिदान

- लेखक - मुंशी प्रेमचंद

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मनुष्य की आर्थिक अवस्था का सबसे ज्यादा असर उनके नाम पर पड़ता है । मौजे बेला के मँगरू ठाकुर जब से कान्सटिबिल हो गये हैं, उनका नाम मंगलसिंह हो गया है । अब उन्हें कोई मँगरू कहने का साहस नहीं कर सकता कल्लू अहिर ने जब से हलके के थानेदार साहब मित्रता कर ली और गाँव का मुखिया हो गया है, उसका नाम कालिकादीन हो गया है । अब उसे कोई कल्लू कहे तो आँखें लाल-पीली करता है। इसी प्रकार हरखचन््द्र कुरमी अब हरखू हो गया है । आजसे बीस साल पहले उसके यहाँ शक्कर बनती थी , कई हल की खेती होती थी और कारोबार खूब फैला हुआ था । लेकिन शक्कर की आमद ने उसे मटियामेट कर दिया । धीरे-धीरे कारखाना टूट गया, जमीन छूट गयी, गाहक टूट गये और वह भी टूट गया । सत्तर वर्ष का बूढ़ा, जो एक तकियेदार माचे पर बैठा हुआ नारियल पिया करता था, अब सिर पर टोकरी लिए खाद फेंकने जाता है । परंतु उसके मुख पर भी एक प्रकार की गंभीरता, बातचीत में अब भी एक प्रकार की अकड़, चाल-ढाल में अब भी एक प्रकार का स्वाभिमान भरा हुआ है । इन पर काल की गति का प्रभाव नहीं पढ़ा । रस्सी जल गयी, पर बल नहीं टूटा । भले दिन मनुष्य के चरित्र पर, सदैव के लिए अपना चिन्ह छोड़ जाते हैं । हरखू के पास अब केवल पाँच बीघा जमीन है । केवल दो बैल हैं । एक ही हल की खेती होती है । लेकिन पंचायतों में, आपस की कलह में, उसकी सम्मति अब भी सम्मान की दृष्टि से देखी जाती है । वह जो बात कहता है, बेलाग कहता है और गाँव के अनपढ़े उसके सामने मुँह नहीं खोल सकते । हरखू ने अपने जीवन में कभी दवा नहीं खायी । वह बीमार जरूर पड़ता ,कुआर मास में मलेरिया से कभी न बचता था । लेकिन दस-पाँच दिन में वह बिना दवा खाये ही चंगा हो जाता था । इस वर्ष भी कार्तिक में बीमार पड़ा और यह समझ कर कि अच्छा तो हो ही जाऊँगा, उसने कुछ परवा न की । परंतु अब की ज्वर मौत का परवाना लेकर चला था । एक सप्ताह बीता दूसरा सप्ताह बीता, पूरा महीना बीत गया; पर हरखू चारपाई से न उठा । अब उसे दवा की जरूरत मालूम हुई। उसका लड़का, गिरधारी कभी नीम के सीखें पिलाता कभी गुर्च का सत, कभी गदापूरना की जड़ ; पर इन औषधियों से कोई फायदा न होता था । हरखू को विश्वास हो गया कि अब संसार से चलने के दिन आ गये । एक दिन मंगलसिंह उसको देखने गये, बेचारा टूटी खाट पर पढ़ा राम-राम जप रहा था । मंगलसिंह ने कहा-बाबा, बिना दवा खाये अच्छे न होंगे; कुनैन क्यों नहीं खाते ? हरखू ने उदासीन भाव से कहा - तो लेते आना । दूसरे दिन कालिकादीन ने आकर कहा -बाबा, दो चार दिन कोई दवा खा लो । अब तुम्हारी जवानी की देह थोड़े ही है कि बिना दवा-दर्पण के अच्छे हो जाओगे । हरखू ने उसी मंद भाव से कहा- तो लेते आना । लेकिन रोगी को देख आना एक बात है, दवा लाकर उसे देना दूसरी बात है । पहली बात शिष्टचार से होती है, दूसरी सच्ची समवेदना से । न मंगलसिंह ने खबर ली; न कालिकादीन ने, न किसी तीसरे ही ने । हरखू दालान में खाट पर पड़ा रहता । मंगलसिंह कभी नजर आ जाते तो कहता - भैया, वह दवा नहीं लाये ? मंगलसिंह कतरा कर निकल जाते । कालिकादीन दिखायी देते तो उनसे भी यही प्रश्न करता लेकिन वह भी नजर बचा लेता ।या तो उसे यह सूझता ही नहीं था कि दवा पैसें के बिना नहीं आती, या वह पैसों को जान से भी प्रिय समझता था, अथवा वह जीवन से निराश हो गया था । उसने कभी दवा के दाम की बात नहीं की । दवा न आयी । उसकी दशा दिनों-दिनों बिगड़ती गयी । यहाँ तक कि पाँच महीने कष्ट भोगने के बाद उसने ठीक होली के दिन शरीर त्याग दिया । गिरधारी ने उसका शव बड़ी धूमधाम से निकाला । क्रिया-कर्म बड़े हौसले से किया । गाँव के ब्राह्मणों को निमंत्रित किया । बेला में होली न मनायी गयी, न अबीर और गुलाल उड़ी, न डफली बजी न भंग की नालियाँ बही । कुछ लोग मन में हरखू को कोसते जरूर थे कि इस बुड्ढे को आज ही मरना था, दो चार दिन बाद मरता । लेकिन इतना निर्लज्ज कोई न था कि शोक में आनंद मनाता । वह शहर नहीं था, जहाँ कोई किसी के काम में शरीक नहीं होता, जहाँ पड़ोसी के रोने पीटने की आवाज हमारे कानों तक नहीं पहुँचती ।

(2)

हरखू के खेत गाँववालों की नजर पर चढ़े हुए थे । पाँचों बीघा जमीन कुएँ के निकट, खाद -पाँस से लदी हुई मेड़ बाँध से ठीक थी । उनमें तीन-तीन फसलें पैदा होती थीं । हरखू के मरते ही उन पर चारों ओर से धावे होने लगे । गिरधारी तो क्रिया-कर्म में फँसा हुआ उधर गाँव के मन चले किसान लाला ओंकारनाथ को चैन न लेने देते थे,नजराने की बड़ी-बड़ी रकमें पेश हो रही थीं । कोई साल भर का लगान पेशगी देने पर तैयार था, कोई नजराने की दूनी रकम का दस्तावेज लिखने पर तुला हुआ था; लेकिन ओंकारनाथ सबको टालते रहते थे । उनका विचार था कि गिरधारी का हक सबसे ज्यादा है । वह अगर दूसरों से कम भी नजराना दे तो खेत उसी को देने चाहिए । अस्तु, अब गिरधारी क्रिया-कर्म से निवृत्त हो गया और चैत का महीना भी समाप्त होने आया, तब जमींदार साहिब ने गिरधारी को बुलाया और उससे पूछा-खेतों के बारे में क्या कहते हो ? गिरधारी ने रो-रोकर कहा-उन्हीं खेतों ही का आसरा जोतूँगा नहीं तो क्या करूँगा । ओंकारनाथ- नहीं, जरूर जोतो, खेत तुम्हारे हैं । मैं तुमसे छोड़ने कि नहीं कहता हूँ । हरखू ने उन्हें बीस साल तक जोता । उन पर तुम्हारा हक है । लेकिन तुम देखते हो अब जमीन की दर कितनी बढ़ गयी है । तुम आठ रुपये बीघे पर जोतते थे, मुझे 10) रु0 मिल रहे हैं । और नजराने के रुपये सौ अलग । तुम्हारे साथ रियायत करके लगान वही रखता हूँ ; पर नजराने के रुपये तुम्हें देने पड़ेंगे । गिरधारी सरकार, मेरे घर में तो इस समय रोटियों का भी ठिकाना नहीं है । इतने रुपये कहाँ से लाऊँगा ? जो कुछ जमा-जथा थी, दादा के काम में उठ गयी । अनाज खलिहान में है लेकिन दादा के बीमार हो जाने से उपज भी अच्छी नहीं हुई है । रुपये कहाँ से लाऊँ ? ओंकारनाथ - यह सच है, लेकिन मैं इससे ज्यादा रियायत नहीं कर सकता । गिरधारी - नहीं सरकार, ऐसा न कहिए । नहीं तो हम बिना मारे मर जायँगे । आप बड़े होकर कहते हैं तो मैं बैल-बधिया बेचकर पचास रुपया कर सकता हूँ । इससे बेशी की हिम्मत नहीं पड़ती । ओंकारनाथ चिढ़ कर बोले- तुम समझते होंगे कि हम ये रुपये लेकर अपने घर में रख लेते हैं और चैन की बंसी बजाते हैं । लेकिन हमारे ऊपर जो कुछ गुजरती है हमीं जानते हैं । कहीं यह चंदा कहीं वह इनाम । इनके मारे कचूमर निकल जाता है । बड़े दिन में सैकड़ों रुपये डालियों में उड़ जाते हैं । जिसे डाली न दों, वही मुँह फुलाता है । जिन चीजों के लिए लड़के तरस कर रह जाते हैं, उन्हें बाहर मँगा कर डालियों में सजाता हूँ । उस पर उस पर कभी कानूनगो आ गये कभी तहसीलदार, कभी डिप्टी साहब का लश्कर आ गया । सब मेरे मेहमान होते हैं । अगर न करूँ तो नक्कू बनूँ और सब की आँखों में काँटा बन जाऊँ । साल में हजार-बारह सौ मोदी को रसद खुराक के मद में देने पड़ते हैं । यह सब कहाँ से आवे ? बस, यही जी चाहता है कि छोड़ कर निकल जाऊँ । लेकिन हमें तो परमात्मा ने इसलिए बनाया है कि एक से रुपया सता कर ले और दूसरे को रो-रो कर दें, यही हमारा काम है । तुम्हारे साथ इतनी रियायत कर रहा हूँ । लेकिन तुम इतनी रियायत पर भी खुश नहीं होते तो हरि इच्छा । नजराने में एक पैसे की भी रियायत न होगी । अगर एक हफ्ते के अंदर रुपये दाखिल करोगे तो खेत जोतने पाओगे, नहीं; मैं कोई दूसरा प्रबन्ध कर दूँगा ।

(3)

गिरधारी उदास और निराश हो कर घर आया । 100 रु0 का प्रबंध करना उसके काबू के बाहर था । सोचने लगा- अगर दोनों बैल बेच दूँ तो खेत ही ले कर क्या करूँगा ? घर बेचूँ तो यहाँ लेनेवाला ही कौन है ? और फिर बाप-दादों का नाम डूबता है । चार-पाँच पेड़ हैं, लेकिन उन्हें बेच कर 25 रु0 या 30 रु0 से अधिक न मिलेंगे । उधार लूँ तो देता कौन है अभी बनिये के 50 रु0 सिर पर चढ़े हैं । वह एक पैसा भी न देगा । घर में गहने भी तो नहीं हैं । नहीं उन्हीं को बेचता । ले-दे कर एक हँसली बनवायी थी, वह भी बनिये के घर पड़ी हुई है । साल भर हो गया, छुड़ाने की नौबत न आयी । गिरधारी और उसकी स्त्री सुभागी दोनों ही इसी चिंता मे पड़े रहते, लेकिन कोई उपाय न सूझता था । गिरधारी को खाना-पीना अच्छा न लगता, रात को नींद न आती । खेतों के निकलने का ध्यान आते ही उसके हृदय में हूक-सी उठने लगती । हाय! वह भूमि जिसे हमने वर्षों जोता, जिसे खाद से पाटा, जिसमें मेड़ें रक्खी, जिसकी मेड़ें बनायी उसका मजा अब दूसरा उठायेगा । ये खेत गिरधारी के जीवन के अंश हो गये थे । उनकी एक-एक अंगुल भूमि उसके रक्त से रँगी हुई थी ! उनका एक-एक परमाणु उसके पसीने से तर हो गया था । उनके नाम उसकी जिह्वा पर उसी तरह आते थे जिस तरह अपने तीनों बच्चों के । कोई चौबीसों था, कोई बाइसों था, कोई नालेवाला, कोई तलैयावाला । उन नामों के स्मरण होते ही खेतों का चित्र उसकी आँखों के सामने खिंच जाता था । वह इन खेतों की चर्चा इस तरह करता मानों वे सजीव हैं । मानों उसके भले-बुरे के साथी हैं । उसके जीवन की सारी आशाएँ, सारी इच्छाएँ, सारे मनसूबे, सारी मन की मिठाइयाँ, सारे हवाई किले इन्हीं खेतों पर अवलम्बित थे । इनके बिना वह जीवन की कल्पना ही नहीं कर सकता था । और वे ही अब हाथ से निकल जाते हैं वह घबड़ा कर घर से निकल जाता और घंटों उन्हीं खेतों के मेड़ों पर बैठा हुआ रोता, मानों उनसे विदा हो रहा हो । इस तरह एक सप्ताह बीत गया और गिरधारी रुपये का कोई बन्दोबस्त न कर सका । आठवें दिन उसे मालूम हुआ कि कालिकादीन ने 100 रु0 नजराने देकर 10 रु0 बीघे पर खेत ले लिये । गिरधारी ने एक ठंडी साँस ली । एक क्षण बाद वह अपने दादा का नाम ले कर बिलख-बिलख रोने लगा । उस दिन घर में चूल्हा नहीं जला । ऐसा मालूम होता था मानो हरखू आज ही मरा ।

(4)

लेकिन सुभागी यों चुपचाप बैठनेवाली स्त्री न थी । वह क्रोध से भरी हुई कालिकादीन के घर गयी और उसकी स्त्री को खूब लथेड़ा - कल का बानी आज का सेठ, खेत जोतने चले हैं । देखें, कौन मेरे खेत में हल ले जाता है ? अपना और उसका लोहू एक कर दूँ । पड़ोसियों ने उसका पक्ष किया, सब तो हैं, आपस में यह चढ़ा-ऊपरी नहीं करना चाहिए । नारायण ने धन दिया है, तो क्या गरीबों को कुचलते फिरेंगे । सुभागी ने समझा, मैंने मैदान मार लिया । उसका चित्त शांत हो गया । किंतु वही वायु जो पानी में लहरें पैदा करती है, वृक्षों को जड़ से उखाड़ डालती हैं सुभागी तो पड़ोसियों की पंचायत में अपने दुखड़े रोती और कालिकादीन की स्त्री से छेड़-छेड़ लड़ती । इधर गिरधारी अपने द्वार पर बैठा हुआ सोचता, अब मेरा क्या हाल होगा ? अब यह जीवन कैसे कटेगा ? ये लड़के किसके द्वार पर जायँगे ? मजदूरी का विचार करते ही उसका हृदय व्याकुल हो जाता । इतने दिनों तक स्वाधीनता और सम्मान का सुख भोगने के बाद अधम चाकरी की शरण लेने के बदले वह मर जाना अच्छा समझता था । वह अब तक गृहस्थ था, उसकी गणना गाँव के भले आदमियों में थी, उसे गाँव के मामले में बोलने का अधिकार था । उसके घर में धन न था, पर मान था । नाई, बढ़ई, कुम्हार, पुरोहित, भाट चौकीदार, ये सब उसका मुँह ताकते थे । अब यह मर्यादा कहाँ ! अब कौन उसकी बात पूछेगा उसके द्वार पर जावेगा ? अब उसे किसी के बराबर बैठने का, किसी के बीच में बोलने का हक नहीं रहा । अब उसे पेट के लिए दूसरों की गुलामी करनी पड़ेगी । अब पहर रात रहे कौन बैलों को नाँद में लगावेगा । वह दिन अब कहाँ, जब गीत गा-गाकर हल चलाता था । चोटी का पसीना एड़ी तक आता था, पर जरा भी थकावट न आती थी । अपने लहलहाते हुए खेतों को देखकर फूला न समाता था । खलिहान में अनाज का ढेर सामने रक्खे अपने को राजा समझता था । अब अनाज के टोकरे भर-भर कर कौन लावेगा ? अब खत्ते कहाँ ? बखार कहाँ ? यही सोचते-सोचते गिरधारी की आँखों से आँसू की झड़ी लग जाती थी । गाँव के दो-चार सज्जन, जो कालिकादीन से जलते थे, कभी-कभी गिरधारी को तसल्ली देने आया करते थे, पर वह उनसे भी खुल कर न बोलता । उसे मालूम होता था कि मैं सबकी नजर में गिर गया हूँ । अगर कोई समझाता कि तुमने क्रिया-कर्म में व्यर्थ इतने रुपये उड़ा दिये,तो उसे बहुत दुख होता । वह अपने उस काम पर जरा भी न पछताता । मेरे भाग्य में जो लिखा है वह होगा; पर दादा के ऋण से तो उऋण हो गया । उन्होंने अपनी जिंदगी में चार बार खिला कर खाया । क्या मरने के पीछे उन्हें पिंडे-पानी को तरसाता । इस प्रकार तीन मास बीत गये और असाढ़ आ पहुँचा । आकाश में घटाएँ आयी पानी गिरा, किसान हल-जुए ठीक करने लगे । बढ़ई हलों की ,मरम्मत करने लगा । गिरधारी पागल की तरह कभी घर के भीतर जाता, कभी बाहर आता, अपने हलों को निकाल निकाल देखता; इसकी मुठिया टूट गयी इसकी फाल ढीली हो गई है, जुए में सैला नहीं है । यह देखते-देखते वह एक क्षण अपने को भूल गया । दौड़ा हुआ बढ़ई के यहाँ गया और बोला-रज्जू मेरे हल भी बिगड़े हुए हैं, चलो बना दो । रज्जू ने उसकी ओर करुणाभाव से देखा और अपना काम करने लगा । गिरधारी को होश आ गया , नींद से चौंक पड़ा, ग्लानि से उसका सिर झुक गया, आँखें भर आयीं । चुपचाप घर चला आया । गाँव के चारों ओर हलचल मची हुई थी । कोई सन के बीज खोजता फिरता था, कोई जमींदार के चौपाल से धान के बीज लिए आता था, कहीं सलाह होती थी, किस खेत में क्या बोना चाहिए, कहीं चर्चा होती थी कि पानी बहुत बरस गया, दो-चार दिन ठहर कर बोना चाहिए । गिरधारी ये बातें सुनता और जलहीन मछली की तरह तड़पता था ।

(5)

एक दिन सन्ध्या समय गिरधारी खड़ा अपने बैलों को खुजला रहा था कि मंगलसिंह आये और इधर-उधर की बातें करके बोले- गोई को बाँध कर कब तक खिलाओगे ? निकाल क्यों नहीं देते ? गिरधारी ने मलिन-भाव से कहा - हाँ, कोई गाहक आवे तो निकाल दूँ । मंगलसिंह - एक गाहक तो हमीं हैं, हमीं को दे दो । गिरधारी अभी कुछ उत्तर न देने पाया था कि तुलसी बनिया आया और गरज कर बोला - गिरधर, तुम्हें रुपये देने हैं कि नहीं वैसा कहो । तीन महीने से हीला-हवाला करते चले आते हो । अब कौन खेती करते हो कि तुम्हारी फसल को अगोरे बैठे रहें । गिरधारी ने दीनता से कहा - साह, जैसे इतने दिनों माने हो आज और मान जाओ । कल तुम्हारी एक-एक कौड़ी चुका दूँगा । मंगल और तुलसी ने इशारे से बातें कीं और तुलसी भुनभुनाता हुआ चला गया । तब गिरधारी मंगलसिंह से बोला - तुम इन्हें ले लो तो घर के घर ही में रह जाय । कभी-कभी आँख से देख तो लिया करूँगा । मंगल - मुझे अभी तो ऐसा कोई काम नहीं, लेकिन घर पर सलाह करूँगा । गिरधारी - मुझे तुलसी के रुपये देने हैं ,नहीं तो खिलाने को तो भूसा है । मंगल यह बढ़ा बदमाश है, कहीं नालिश न कर दें । सरल हृदय गिरधारी धमकी में आ गया । कार्य -कुशल मंगलसिंह को सस्ता सौदा करने का यह अच्छा सुअवसर मिला । 80 रु0 की जोड़ी 60 रु0 में ठीक कर ली । गिरधारी ने अब बैलों को किस आशा से बाँध कर खिलाया था । आज आशा का वह कल्पित सूत्र भी टूट गया । मंगलसिंह गिरधारी की खाट पर बैठे रुपये गिन रहे थे और गिरधारी बैलों के पास विषादमय नेत्रों से उनके मुँह की ओर ताक रहा था । आह ! यह मेरे खेतों के कमाने वाले, मेरे जीवन के आधार, मेरे अन्नदाता, मेरी मान-मर्यादा की रक्षा करने वाले,जिनके लिए पहर रात से उठ कर छाँटी काटता था, जिनके खली-दाने की चिंता अपने खाने से ज्यादा रहती थी, जिनके लिए सारा घर दिन भर हरियाली उखाड़ा करता था । मेरे दो हाथ, अब मुझसे विदा हो रहे हैं । अब मंगलसिंह ने रुपये गिन कर रख दिये और बैलों को ले चले तब गिरधारी उनके कंधों पर सिर रख कर खूब फूट-फूट कर रोया । जैसे कन्या मायके से विदा होते समय माँ-बाप के पैरों को नहीं छोड़ती, उसी तरह गिरधारी इन बैलों को न छोड़ता था । सुभागी भी दालान में खड़ी रो रही थी और छोटा लड़का मंगलसिंह को एक बाँस की छड़ी से मार रहा था । रात को गिरधारी ने कुछ नहीं खाया । चारपाई पर पड़ा रहा । प्रातःकाल सुभागी चिलम भर कर ले गयी तो वह चारपाई पर न था । उसने समझा कहीं गये होंगे । लेकिन जब दो -तीन घड़ी दिन चढ़ आया और वह न लौटा तो उसने रोना-धोना शुरू किया । गाँव के लोग जमा हो गये, चारों ओर खोज होने लगी पर गिरधारी का पता न चला ।

(6)

संध्या हो गयी । अँधेरा छा रहा था । सुभागी ने दिया जला कर गिरधारी के सिरहाने रख दिया था और बैठी द्वार की ओर ताक रही थी कि सहसा उसे पैरों की आहट मालूम हुई । सुभागी का हृदय धड़क उठा । वह दौड़ कर बाहर आयी, और इधर-उधर ताकने लगी । उसने देखा कि गिरधारी बैलों की नाद के पास सिर झुकाये खड़ा है । सुभागी बोल उठी - घर आओ, वहाँ खड़े क्या कर रहे हो, आज सारे दिन कहाँ रहे ? यह कहते हुए वह गिरधारी की ओर चली । गिरधारी ने कुछ उत्तर नहीं दिया । वह पीछे हटने लगा और थोड़ी दूर जाकर गायब हो गया । सुभागी चिल्लायी और मूर्छित हो कर गिर पड़ी । दूसरे दिन कालिकादीन हल लेकर अपने खेत पर पहुँचे, अभी कुछ अँधेरा था । बैलों को हल में लगा रहे थे कि यकायक उन्होंने देखा कि गिरधारी खेत की मेड़ पर खड़ा है वही मिर्जई, वही पगड़ी, वही सोंटा । कालिकादीन ने कहा - अरे गिरधारी ! मरदे आदमी, तुम यहाँ खड़े हो, और बेचारी सुभागी हैरान हो रही है । कहाँ से आ रहे हो ? यह कहते हुए बैलों को छोड़ कर गिरधारी की ओर चले, गिरधारी पीछे हटने लगा और पीछे वाले कुएँ में कूद पड़ा । कालिकादीन ने चीख मारी और हल-बैल छोड़ कर भागा । सारे गाँव में शोर मच गया, और लोग नाना प्रकार की कल्पनाएँ करने लगे । कालिकादीन को गिरधारी वाले खेतों में जाने की हिम्मत न पड़ी । गिरधारी को गायब हुए छः महीने बीत चुके हैं । उसका बड़ा लड़का अब एक ईंट के भट्ठे पर काम करता है और 20 रु महीना घर आता है । अब वह कमीज और अँग्रेजी जूता पहनता है, घर में दोनों जून तरकारी पकती है और जौ के बदले गेहूँ खाया जाता है; लेकिन गाँव में उसका कुछ भी आदर नहीं । यह अब मजूरा है । सुभागी अब पराये गाँव में आये हुए कुत्ते की भाँति दबकती फिरती हैं । वह अब पंचायत में नहीं बैठती । वह अब मजूर की माँ है । कालिकादीन ने गिरधारी के खेतों से इस्तीफा दे दिया है, क्योंकि गिरधारी अभी तक अपने खेतों के चारों तरफ मँडराया करता है । अँधेरा होते ही वह मेड़ पर जा कर बैठ जाता है और कभी कभी रात को उधर से उसके रोने की आवाज सुनायी देती है । वह किसी से बोलता नहीं, किसी को छेड़ता नहीं । उसे केवल अपने खेतों को देख कर संतोष होता है । दिया जलने के बाद उधर का रास्ता बंद हो जाता है । लाला ओंकारनाथ बहुत चाहते हैं कि ये खेत उठ जायँ, लेकिन गाँव के लोग अब उन खेतों का नाम लेते डरते हैं ।

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7 - बोध

- लेखक - मुंशी प्रेमचंद

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पंडित चंद्रधर ने एक अपर प्रायमरी में मुदर्रिसी तो कर ली थी, किंतु सदा पछताया करते कि कहाँ से इस जंजाल में आ फँसे । यदि किसी अन्य विभाग में नौकर होते तो अब तक हाथ में चार पैसे होते, आराम से जीवन व्यतीत होता । यहाँ तो महीने भर प्रतीक्षा करने के पीछे कहीं पंद्रह रुपये देखने को मिलते हैं । वह भी इधर आये, उधर गायब । न खाने का सुख, न पहनने का आराम हमसे तो मजूर ही भले । पंडित जी के पड़ोस में दो महाशय और रहते थे । एक ठाकुर अतिबलसिंह वह थाने में हेडकान्सटेबुल थे दूसरे मुंशी बैजनाथ, वह तहसील में सियाहेनवीस थे । इन दोनों आदमियों का वेतन पंडित से कुछ अधिक न था, तब भी उनकी चैन से गुजरती थी । संध्या को वह कचहरी से आते, बच्चों को पैसे और मिठाइयाँ देते । दोनों आदमियों के पास टहलते थे । घर में कुरसियाँ, मेंजें, फर्श आदि सामग्रियाँ मौजूद थीं । ठाकुर साहब को शाम को आराम कुरसी पर लेट जाते और खुशबुदार खमीरा पीते । मुंशी जी को शराब-कबाब का व्यसन था । अपने सुसज्जित कमरे में बैठे हुए बोतल की बोतल साफ कर देते । जब कुछ नशा होता तो हारमोनियम बजाते । सारे मुहल्ले में उनका रोबदाब था । उन दोनों महाशयों को आते- जाते देखकर बनिये उठकर सलाम करते । उनके लिए बाजार में अलग भाव था । चार पैसे की चीज टके में लाते । लकड़ी-ईंधन मुफ्त में मिलता । पंडित जो उनके ठाट-बाट को देखकर कुढ़ते और अपने भाग्य को कोसते । वह लोग इतना भी न जानते थे कि पृथ्वी सूर्य का चक्कर लगाती है अथवा सूर्य पृथ्वी का । साधारण पहाड़ों का भी ज्ञान न था, जिस पर भी ईश्वर ने उन्हें इतनी प्रभुता दे रखी थी । यह लोग पंडित जी पर बड़ी कृपा रखते थे । कभी सेर आध सेर दूध भेज देते और कभी थोड़ी-सी तरकारियाँ । किंतु इनके बदले में पंडित जी को ठाकुर साहब के दो और मुंशीजी के तीन लड़कों की निगरानी करनी पड़ती । ठाकुर साहब कहते, पंडित जी! यह लड़के हर घड़ी खेला करते हैं, जरा इनकी खबर लेते रहिए । मुंशी जी कहते, यह लड़के आवारा हुए जाते हैं, जरा इनका ध्यान रखिए । यह बातें बड़ी अनुग्रहपूर्ण रीति से कही जाती थीं मानो पंडितजी उनके गुलाम हैं । पंडित जी को यह व्यवहार असह्य था, किंतु उन लोगों को नाराज करने का साहस न कर सकते थे, उनकी बदौलत कभी-कभी दूध-दही के दर्शन हो जाते, कभी अचार-चटनी चख लेते । केवल इतना ही नहीं, बाजार से चीजें भी सस्ती लाते । इसलिए बेचारे इस अनीति को विष की घूँट के समान पीते । इस दुरवस्था से निकलने के लिए उन्होंने बड़े-बड़े यत्न किये थे । प्रार्थना पत्र लिखे अफसरों की खुशामदें कीं, पर आशा पूरी न हुई । अंत में हार कर बैठ रहे । हाँ, इतना था कि अपने काम में त्रुटि न होने देते । ठीक समय पर जाते, देर करके आते. मन लगा कर पढ़ाते इससे उनके अफसर लोग खुश थे । साल में कुछ इनाम देते और वेतन वृद्धि का जब कभी अवसर आता, उनका विशेष ध्यान रखते । परंतु इस विभाग की वेतन-वृद्धि ऊसर की खेती है । बड़े भाग से हाथ लगती है । बस्ती के लोग उनसे संतुष्ट थे । लड़कों की संख्या बढ़ गयी थी और पाठशाला के लड़के भी उन पर जान देते थे । कोई उनके घर आकर पानी भर देता, कोई उनकी बकरी के लिए पत्तियाँ तोड़ लाता । पंडित जी इसी को बहुत समझते थे ।

(2)

एक बार सावन के महीने में मुंशी बैजनाथ और ठाकुर अतिबलसिंह ने श्री अयोध्या जी की यात्रा की सलाह की । दूर की यात्रा थी । हफ्तों पहले से तैयारियाँ होने लगीं । बरसात के दिन, सपरिवार जाने में अड़चन थी ; किंतु स्त्रियाँ किसी भाँति भी न मानती थीं । अंत में विवश हो कर दोनों महाशयों ने एक-एक सप्ताह की छुट्टी ली और अयोध्या जी चले । पंडित जी को भी साथ चलने के लिए बाध्य किया । मेले-ठेले में एक फालतू आदमी से बड़े काम निकलते हैं । पंडित जी असमंजस में पड़े, परंतु जब उन लोगों ने उनका व्यय देना स्वीकार किया तो इन्कार न कर सके और अयोध्या जी की यात्रा का ऐसा सुअवसर पा कर न रुक सके । बिल्हौर से एक बजे रात को गाड़ी छूटती थी । यह लोग खा-पीकर स्टेशन पर आ बैठे । जिस समय गाड़ी आयी, चारों ओर भगदड़-सी पड़ गयी - हजारों यात्री जा रहे थे । उस उतावली में मुंशीजी पहले निकल गये । पंडित जी और ठाकुर साहब साथ थे । एक कमरे में बैठे । इस आफत में कौन किसका रास्ता देखता है। गाड़ियों में जगह की बड़ी कमी थी, परन्तु जिस कमरे में ठाकुर साहब थे उसमें केवल चार मनुष्य थे । वह सब लेटे हुए थे । ठाकुर साहब चाहते थे कि वह उठ जायें तो जगह निकल आये । उन्होंने एक मनुष्य से डाँट कर कहा-उठ बैठो जी, देखते नहीं हम लोग खड़े हैं । मुसाफिर लेटे-लेटे बोला - क्यों उठ बैठे जी ? कुछ तुम्हारे बैठने का ठेका लिया है ? ठाकुर -क्या हमने किराया नहीं दिया है ? मुसाफिर - जिसे किराया दिया हो, उससे जा कर जगह माँगो । ठाकुर - जरा होश की बात करो । इस डब्बे में दस यात्रियों के बैठने की आज्ञा है । मुसाफिर - यह थाना नहीं है, जरा जबान सँभाल कर बातें कीजिए । ठाकुर - तुम कौन हो जी । मुसाफिर - हम वही हैं, जिस पर आपने खुफिया फरोसी का अपराध लगाया था और जिसके द्वार से आप नकद 25 रु0 ले कर टले थे । ठाकुर- अहा ! अब पहचाना । परंतु मैंने तो तुम्हारे साथ रियायत की थी । चालान कर देता तो तुम सजा पा जाते । मुसाफिर - और मैंने भी तो तुम्हारे साथ रियायत की कि गाड़ी में खड़ा रहने दिया । ढकेल देता तो तुम नीचे जाते और तुम्हारी हड्डी-पसली का पता न लगता । इतने में दूसरा लेटा हुआ यात्री जोर से ठट्ठा मार कर हँसा और बोला-क्यों दारोगा साहब, मुझे क्यों नहीं उठाते ? ठाकुर साहब क्रोध से लाल हो रहे थे । सोचते थे अगर थाने में होता तो इसकी जबान खींच लेता, पर इस समय बुरे फँसे थे । यह बलवान मनुष्य पर थे पर यह दोनों मनुष्य भी हट्टे -कट्टे देख पड़ते थे । ठाकुर - संदूक नीचे रख दो, बस जगह हो जाय । दूसरा मुसाफिर बोला - और आप ही क्यों न नीचे बैठ जायँ । इसमें कौन-हेठी हुई जाती है । यह थाना थोड़े ही है कि आपके रोब में फर्क पड़ जायगा । ठाकुर साहब ने उनकी ओर भी ध्यान से देख कर पूछा-क्या तुम्हें भी मुझसे कोई बैर है ? `जी हाँ, मैं तो आपके खून का प्यासा हूँ ।' `मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है, तुम्हारी तो सूरत भी नहीं देखी ।' दूसरा मुसाफिर-आपने मेरी सूरत न देखी होगी पर आपके डंडे ने देखी है । इसी कल के मेले में आपने मुझे कई डंडे लगाये । मैं चुपचाप तमाशा देखता था और आपने आकर मेरा कचूमर निकाल लिया । मैं चुप रह गया, पर घाव दिल पर लगा हुआ है। आज उसकी दवा मिलेगी । यह कह कर उसने और भी पाँव फैला दिया और क्रोध-पूर्ण नेत्रों से देखने लगा । पंडित जी अब तक चुपचाप खड़े थे । डरते थे कि कहीं-मार-पीट न हो जाय । अवसर पाकर ठाकुर साहब को समझाया । ज्योंही तीसरा स्टेशन आया, ठाकुर साहब ने बाल-बच्चों को वहाँ से निकाल कर दूसरे कमरे में बैठाया । इन दोनों दुष्टों ने उनका असबाब उठा-उठा कर जमीन पर फेंक दिया । जब ठाकुर साहब गाड़ी से उतरने लगे तो उन्होंने उनको ऐसा धक्का दिया कि बेचारे प्लेटफार्म पर गिर पड़े । गार्ड से कहने दौड़े थे कि इंजिन ने सीटी दी, जाकर गाड़ी में बैठ गये । उधर मुंशी बैजनाथ की और भी बुरी दशा थी । सारी रात जागते गुजारी । जरा पैर फैलाने की जगह न थी । आज उन्होंने जेब में बोतल भर कर रख ली थी । प्रत्येक स्टेशन पर कोयला पानी ले लेते थे । फल यह हुआ कि पाचन क्रिया में विघ्न पड़ गया एक बार उलटी हुई और पेट में मरोड़ होने लगी । बेचारे बड़ी मुश्किल में पड़े । चाहते थे कि किसी भाँति लेट जायँ, पर वहाँ पैर हिलाने की भी जगह न थी । लखनऊ तक तो उन्होंने जब्त किया । आगे चल कर विवश हो गये । एक स्टेशन पर उतर पड़े । प्लेटफार्म पर लेट गये । पत्नी भी घबरायी । बच्चों को लेकर उतर पड़ी । असबाब उतारा परंतु जल्दी में ट्रंक उतारना भूल गयी । गाड़ी चल दी । दरोगा जी ने अपने मित्र को इस दशा में देखा तो वह भी उतर पड़े । समझ गये कि हजरत आज ज्यादा चढ़ा गये । देखा तो मुंशीजी की दशा बिगड़ गयी थी । ज्वर, पेट में दर्द, नसों में तनाव, कै और दस्त । बड़ा खटका हुआ स्टेशन मास्टर ने यह हाल देखा तो समझे हैजा हो गया है । हुक्म दिया, रोगी को अभी बाहर ले जाओ । विवश होकर लोग मुंशी जी को एक पेड़ के नीचे उठा लाये । उनकी पत्नी रोने लगी । हकीम -डाक्टर की तलाश हुई । पता लगा कि डिस्ट्रिक्ट बोर्ड की तरफ से वहाँ एक छोटा सा अस्पताल है । लोगों की जान में जान आयी । किसी से यह भी मालूम हुआ कि डाक्टर साहब बिल्हौर के रहनेवाले हैं । ढाढ़स बँधा । दरोगाजी अस्पताल दौड़े । डाक्टर साहब से समाचार कह सुनाया और कहा-आप चलकर जरा उन्हें देख तो लीजिए । डाक्टर का नाम था चोखेलाल । कम्पौंडर थे, लोग आदर से डाक्टर कहा करते थे । सब वृत्तान्त सुन कर रुखाई से बोले - सबेरे के समय मुझे बाहर जाने की आज्ञा नहीं है । दारोगा -तो क्या मुँशी जी को यहीं लावें ? चोखेलाल -हाँ, आपका जी चाहे लाइए । दारोगा जी ने दौड़-धूप कर एक डोली का प्रबन्ध किया । मुंशीजी को लाद कर अस्ताल लाये । ज्योंही बरामदे में पैर रखा चोखेलाल ने डाँट कर कहा हैजे (विसुचिका) के रोगी को ऊपर लाने की आज्ञा नहीं है । बैजनाथ अचेत तो थे नहीं, आवाज सुनी, पहचाना, धीरे से बोले- अरे यह तो बिल्लोर ही के हैं - भला-सा नाम है । तहसील में आया-जाया करते हैं । क्यों महाशय ! मुझे पहचानते है ? चोखेलाल जी हाँ, खूब पहचानता हूँ । बैजनाथ - पहचान कर भी इतनी निठुरता । मेरी जान निकल रही है जरा देखिए, मुझे क्या हो गया ? चोखे - हाँ, यह सब कर दूँगा और मेरा काम ही क्या ? फीस ? दारोगा जी - अस्पताल में कैसी फीस जनाबेमन ? चोखे - वैसे ही जैसी इन मुंशीजी ने मुझसे वसूल की थी जनाबेमन । दारोगा जी - आप क्या कहते हैं, मेरी समझ में नहीं आता । चोखे - मेरा घर बिल्हौर में है । वहाँ मेरी थोड़ी-सी जमीन है । साल में दो बार उसकी देख-भाल को जाना पड़ता है । जब तहसील में लगान करने जाता हूँ मुंशी जी डाँटकर अपना हक वसूल कर लेते हैं । न दूँ तो शाम तक खड़ा रहना पड़े । स्याहा न हो । फिर जनाब कभी गाड़ी नाव पर, कभी नाव गाड़ी पर । मेरी फीस दस रुपये निकालिए । देखूँ, दवा दूँ तो अपनी राह लीजिए । दारोगा - दस रुपये !! चोखे-जी हाँ, और यहाँ ठहरना चाहें तो दस रुपये रोज । दारोगा जी विवश हो गये । बैजनाथ की स्त्री से रुपये माँगे । तब उसे अपने बक्स की याद आयी । छाती पीट ली । दारोगा जी के पास भी अधिक रुपये नहीं थे, किसी तरह दस रुपये निकालकर चोखेलाल को दिये - उन्होंने दवा दी दिन भर कुछ फायदा न हुआ । रात को दशा सँभली । दूसरे दिन फिर दवा की आवश्यकता हुई । मुंशियाइन का एक गहना जो 20 रु0 से कम का न था बाजार में बेचा गया ।तब काम चला ।शाम तक मुंशी जी चंगे हुए । रात को गाड़ी पर बैठ कर खूब गालियाँ दीं । श्री अयोध्याजी में पहुँच कर स्थान की खोज हुई । पंडों के घर जगह न थी । घर-घर में आदमी भरे हुए थे । सारी बस्ती छान मारी पर कहीं ठिकाना न मिला । अंत में यह निश्चय हुआ कि किसी पेड़ के नीचे डेरा जमाना चाहिए । किन्तु जिस पेड़ के नीचे जाते थे वहीं यात्री पड़े मिलते । खुले मैदान में, रेत पर पड़े रहने के सिवा और कोई उपाय न था । एक स्वच्छ स्थान देख कर बिस्तरे बिछाये और लेटे । इतने में बादल घिर आये । बूँदें गिरने लगीं । बिजली चमकने लगी । गरज से कान के परदे फटे जाते थे । लड़के रोते थे । स्त्रियों के कलेजे काँप रहे थे । अब यहाँ ठहरना दुस्सह था, पर जायें कहाँ । अकस्मात एक मनुष्य नदी की तरफ से लालटेन लिये आता हुआ दिखायी दिया - वह निकट पहुँच गया तो पंडित जी ने उसे देखा । आकृति कुछ पहिचानी हुई मालूम हुई किंतु यह विचार न आया कि कहाँ देखा है । पास जाकर बोले - क्यों भाई साहब, यहाँ यात्रियों के ठहरने के लिए जगह न मिलेगी ? वह मनुष्य रुक गया । पंडित जी की ओर ध्यान से देख कर बोला- आप पंडित चंद्रधर तो नहीं है ? पंडित जी प्रसन्न हो कर बोले - जी हाँ । आप मुझे कैसे जानते हैं ? उस मनुष्य ने सादर पंडित जी के चरण छुए और बोला - मैं आपका पुराना शिष्य हूँ । मेरा नाम कृपाशंकर है । मेरे पिता कुछ दिनों बिल्हौर डाक-मुंशी रहे थे । उन्हीं दिनों मैं आपकी सेवा में पढ़ता था । पंडित जी की स्मृति जागी , बोले -ओहो !कृपाशंकर ! तब तो तुम दुबले-पतले लड़के थे । कोई आठ नौ साल हुए होंगे । कृपा - जी हाँ, नवाँ साल था । मैंने वहाँ से आकर इन्ट्रेंस पास किया अब यहाँ म्युनिसिपिल्टी में नौकर हूँ । कहिए आप तो अच्छी तरह रहे । सौभाग्य था कि आपके दर्शन हो गये । पंडित - मुझे भी तुमसे मिलकर बड़ा आनन्द हुआ । तुम्हारे पिता अब कहाँ हैं ? कृपा0 - उनका तो देहान्त हो गया । माता साथ हैं । आप यहाँ कब आये ? पंडित - आज ही आया हूँ । पंडों के घर जगह न मिली। विवश हो कर यहीं रात काटने की ठहरी । कृपा0 - बाल-बच्चे भी साथ हैं । पंडित - नहीं, मैं तो अकेले ही आया हूँ । पर मेरे साथ दरोगा जी और सियाहेनवीस साहब हैं - उनके बाल बच्चे भी साथ हैं । कृपा - कुल कितने मनुष्य होंगे ? पंडित जी हैं तो दस किन्तु थोड़ी-सी जगह में निर्वाह कर लेंगे । कृपा0 - नहीं साहब , बहुत सी जगह लीजिए । मेरा बड़ा मकान खाली पड़ा है । चलिए आराम से एक, दो, तीन दिन रहिए । मेरा परम सौभाग्य है कि आपकी कुछ सेवा करने का अवसर मिला । कृपाशंकर ने कई कुली बुलाये । असबाब उठवाया और सबको अपने मकान पर ले गया । साफ सुथरा घर था । नौकर ने चटपट चारपाइयाँ बिछा दी घर में पूरियाँ पकने लगीं । कृपाशंकर हाथ बाँधे सेवक की तरह दौड़ता था ।हृदयोल्लास से उसका मुख-कमल चमक रहा था । उसकी विनय और नम्रता ने सबको मुग्ध कर लिया । और सब लोग तो खा-पीकर सोये । किंतु पंडित चंद्रधर को नींद नहीं आयी । उनकी विचार शक्ति इस यात्रा की घटनाओं का उल्लेख कर रही थी । रेलगाड़ी की रगड़-झगड़ और चिकित्सालय की नोच-खसोट के सम्मुख कृपाशंकर की सहृदयता और शालीनता प्रकाशमय दिखायी देती थी । पंडित जी ने आज शिक्षक का गौरव समझा । उन्हें आज इस पद की महानता ज्ञात हुई । यह लोग तीन दिन अयोध्या रहे । किसी बात का कष्ट न हुआ । कृपाशंकर ने उनके साथ जाकर प्रत्येक धाम का दर्शन कराया । तीसरे दिन जब लोग चलने लगे तो वह स्टेशन तक पहुँचाने आया । जब गाड़ी ने सीटी दी तो उसने सजल नेत्रों से पंडित जी के चरण छुए और बोला, कभी-कभी इस सेवक को याद करते रहिएगा । पंडित जी घर पहुँचे तो उनके स्वभाव में बड़ा परिवर्तन हो गया था । उन्होंने फिर किसी दूसरे विभाग में जाने की चेष्टा नहीं की ।

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8 - सच्चाई का उपहार

- लेखक - मुंशी प्रेमचंद

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तहसील मदरसा बराँव के प्रथमाध्यापक मुंशी भवानीसहाय को बागवानी का कुछ व्यसन था । क्यारियों में भाँति-भाँति के फूल और पत्तियाँ लगा रखी थीं । दरवाजे पर लताएँ चढ़ा दी थीं । इससे मदरसे की शोभा अधिक हो गयी थी । वह मिडिल कक्षा के लड़कों से भी अपने बगीचे के सींचने और साफ करने में मदद लिया करते थे । अधिकांश लड़के इस काम को रुचि पूर्वक करते । इससे उनका मनोरंजन होता था । किंतु दरजे में चार-पाँच लड़के जमींदारों के थे उनमें कुछ ऐसी दुर्जनता थी कि यह मनोरंजन कार्य भी उन्हें बेगार प्रतीत होता उन्होंने बाल्यकाल से आलस्य में जीवन व्यतीत किया था । अमीरी का झूठ अभिमान दिल में भरा हुआ था । वह हाथ से कोई काम करना निंदा की बात समझते थे । उन्हें इस बगीचे से घृणा थी । जब उनके काम करने की बारी आई तो कोई-न-कोई बहाना करके उड़ जाते । इतना ही नहीं, दूसरे लड़कों को भी बहकाते और कहते वाह ! पढ़ें फारसी, बेचें तेल ! यदि खुरपी, कुदाल ही करना है तो मदरसे में किताबों से सिर मारने की क्या जरूरत ? यहाँ पढ़ने आते हैं । कुछ मजदूरी करने नहीं आते । मुंशी जी इस अवज्ञा के लिए उन्हें कभी-कभी दंड दे देते थे । इससे उनका द्वेष और भी बढ़ता था । अंत में यहाँ तक नौबत पहुँची कि एक दिन उन लड़कों ने सलाह करके उस पुष्प-वाटिका को विध्वंस करने का निश्चय किया । दस बजे मदरसा लगता था, किंतु उस दिन वह आठ ही बजे आ गये , और बगीचे में घुस कर उसे उजाड़ने लगे । कहीं पौधे उखाड़ फेंके, कई क्यारियों को रौंद डाला, पानी की नालियाँ तोड़ डालीं, क्यारियों की मेंड़े खोद डालीं । मारे भय के छाती धड़क रही थी कि कहीं कोई देखता न हो । लेकिन एक छोटी सी फुलवारी को उजाड़ते कितने देर लगती है । दस मिनिट में हरा-भरा बाग नष्ट हो गया । तब यह लड़के शीघ्रता से निकले, लेकिन दरवाजे तक आये थे कि उन्हें अपने एक सहपाठी की सूरत दिखायी दी । यह एक दुबला पतला दरिद्र और चतुर लड़का था । उसका नाम बाजबहादुर था । बड़ा गम्भीर शांत लड़का था । ऊधम पार्टी के लड़के उससे जलते थे । उसे देखते ही उनका रक्त सूख गया । विश्वास हो गया कि इसने जरूर देख लिया । यह मुँशी जी से कहे बिना न रहेगा । बुरे फँसे, आज कुशल नहीं है । यह राक्षस इस समय यहाँ क्या करने आया था । आपस में इशारे हुए । यह सलाह हुई कि इसे मिला लेना चाहिए । जगतसिंह उनका मुखिया था । आगे बढ़कर बोला, बाजबहादुर ! सवेरे कैसे आ गये ? हमने तो आज तुम लोगों के गले की फाँसी छुड़ा दी । लाला बहुत दिक किया करते थे, यह करो, वह करो । मगर यार देखो कहीं मुंशी जी से जड़ मत देना, नहीं तो लेने के देने पड़ जायँगे । जयराम ने कहा - यह क्या देंगे, अपने ही तो हैं, हमने जो कुछ किया है वह सब के लिए किया है, केवल अपनी भलाई के लिए नहीं । चलो यार तुम्हें बाजार की सैर करा दें, मुँह मीठा करा दें । बाजबहादुर ने कहा- नहीं, मुझे आज घर पर याद करने का अवकाश नहीं मिला । यहीं बैठ कर पढूँगा ! जगतसिंह - अच्छा मुंशी जी से कहोगे तो न ? बाजबहादुर - मैं स्वयं कुछ न कहूँगा, लेकिन उन्होंने मुझसे पूछा तो ? जगतसिंह - कह देना मुझे नहीं मालूम । बाजबहादुर - यह झूठ मुझसे न बोला जायगा । जयराम- अगर तुमने चुगली खायी और हमारे ऊपर मार पढ़ी तो हम तुम्हें पीटे बिना न छोड़ेंगे । बाजबहादुर - हमने कह दिया कि चुगली न खायेंगे लेकिन मुंशीजी ने पूछा तो झूठ भी न बोलेंगे । जयराम - तो हम तुम्हारी हड्डियाँ भी तोड़ देंगे । बाजबहादुर - इसका तुम्हें अधिकार है ।

(2)

दस बजे जब मदरसा लगा और मुंशी भवानीसहाय ने बाग की यह दुर्दशा देखी तो क्रोध से आग हो गये । बाग के उजड़ने का इतना खेद न था जितना लड़कों की शरारत का । यदि किसी साँड ने यह दुष्कृत्य किया होता तो वह केवल हाथ मल कर रह जाते । किंतु लड़कों के इस अत्याचार को सहन न कर सके । ज्यों ही लड़के दरजे में बैठ गये , वह तेवर बदले हुए आये और पूछा यह बाग किसने उजाड़ा है ? कमरे में सन्नाटा छा गया । अपराधियों के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगी मिडिल कक्षा के पच्चीस विद्यार्थियों मे कोई ऐसा न था जो इस घटना को जानता हो किंतु किसी में यह साहस नहीं था कि उठकर साफ-साफ कह दे । सब सिर झुकाये मौन धारण किये बैठे थे । मुंशीजी का क्रोध और भी प्रचंड हुआ । चिल्लाकर बोले -मुझे विश्वास है कि यह तुम्हीं लोगों में किसी की शरारत है । जिसे मालूम हो स्पष्ट कह दे नहीं तो मै एक सिरे से पीटना शुरू करूँगा । फिर कोई यह न कहे कि हम निरपराध मारे गये । एक लड़का भी न बोला । वही सन्नाटा ! मुंशी - देवीप्रसाद तुम जानते हो ? देवी - जी नहीं, मुझे कुछ नहीं मालूम । `शिवदास तुम जानते हो ?' `जी नहीं, मुझे कुछ नहीं मालूम ।' `बाजबहादुर तुम कभी झूठ नहीं बोलते, तुम्हें मालूम है ?' बाजबहादुर खड़ा हो गया, उसके मुख-मंडल पर वीरत्व का प्रकाश था । नेत्रों में साहस झलक रहा था । बोला - जी हाँ ! मुंशी जी ने कहा -शाबाश अपराधियों ने बाजबहादुर की ओर रक्त-वर्ण आँखों से देखा और मन में कहा-अच्छा !

(3)

भवानीसहाय बड़े धैर्यवान मनुष्य थे । यथाशक्ति लड़कों को यातना नहीं देते थे । किंतु ऐसी दुष्टता का दंड देने में वह लेशमात्र भी दया न दिखाते थे । छड़ी मँगा कर पाँचों अपराधियों को दस-दस छड़ियाँ लगायी, सारे दिन बेंच पर खड़ा रखा और चालचलन के रजिस्टर में उनके नाम के सामने काले चिह्न बना दिये । बाजबहादुर से शरारत पार्टीवाले लड़के यों ही जला करते थे, आज उसकी सचाई के कारण उसके खून के प्यासे हो गये । यंत्रणा में सहानुभुति पैदा करने की शक्ति होती है । इस समय दरजे के अधिकांश लड़के अपराधियों के मित्र हो रहे थे । उनमें षड़यंत्र रचा जाने लगा कि आज बाजबहादुर की खबर ली जाय । ऐसा मारो कि फिर मद- -रसे में मुँह न दिखावे । यह हमारे घर का भेदी है । दगाबाज ! बढ़ा सच्चे की दुम बना है ! आज इस सचाई का हाल मालूम हो जायगा ! बेचारे बाजबहादुर को इस गुप्त-लीला की जरा भी खबर न थी । विद्रोहियों ने उसे अंधकार में रखने का पूरा यत्न किया था । छुट्टी होने के बाद बाजबहादुर घर की तरफ चला । रास्ते में एक अमरूद का बाग था । वहाँ जगतसिंह और जयराम कई लड़कों के साथ खड़े थे । बाजबहादुर चौंका, समझ गया कि यह लोग मुझे छेड़ने पर उतारू है । किंतु बचने का कोई उपाय न था । कुछ हिचकता हुआ आगे बढ़ा । जगतसिंह बोला आओ लाला ! बहुत राह दिखायी । आओ सचाई का इनाम लेते जाओ । बाजबहादुर - रास्ते से हट जाओ, मुझे जाने दो । जयराम - जरा सचाई का मजा तो चखते जाइए । बाजबहादुर - मैंने तुमसे कह दिया था कि जब मेरा नाम ले कर पूछेंगे तो मैं बता दूँगा जयराम - हमने भी तो कह दिया था कि तुम्हें इस काम का इनाम दिये बिना न छोड़ेंगे । यह कहते ही वह बाजबहादुर की तरफ घूँसा तान कर बढ़ा । जगतसिंह ने उसके दोनों हाथ पकड़ने चाहे । जयराम का छोटा भाई शिवराम अमरूद की एक टहनी लेकर झपटा । शेष लड़के चारों तरफ खड़े होकर तमाशा देखने लगे । यह `रिजर्व' सेना थी जो आवश्यकता पड़ने पर मित्रदल की सहायता के लिए तैयार थी । बाजबहादुर दुर्बल लड़का था । उसकी मरम्मत करने को वह तीन मजबूत लड़के काफी थे । सब लोग यही समझ रहे थे कि क्षण भर में यह तीनों उसे गिरा लेंगे । बाजबहादुर ने जब देखा कि शत्रुओं ने शस्त्र-प्रहार करना शुरू कर दिया तो उसने कनखियों से इधर उधर देखा, तब तेजी से झपट कर शिव राम के हाथ से अमरूद की टहनी छीन ली, और दो कदम पीछे हटकर टहनी ताने हुए बोला - तुम मुझे सचाई का इनाम या सजा देने वाले कौन होते हो ? दोनों ओर से दाँव-पेंच होने लगे । बाजबहादुर था तो कमजोर, पर अत्यंत चपल और सतर्क, उस पर सत्य का विश्वास हृदय को और भी बलवान बनाये हुए था । सत्य चाहे सिर कटा दे, लेकिन कदम पीछे नहीं हटाता । कई मिनट तक बाजबहादुर उछल- उछल कर वार करता और हटाता रहा । लेकिन अमरूद की टहनी कहाँ तक थाम सकती ।जरा देर में उसकी धज्जियाँ उड़ गयी । जब तक वह उसके हाथ में रही तलवार रही कोई उसके निकट आने की हिम्मत न करता था । निहत्था होने पर वह ठोकरों और घूसों से जवाब देता रहा । मगर अंत में अधिक संख्या ने विजय पायी । बाजबहादुर की पसली में शिवराम का एक घूँसा ऐसा पड़ा कि वह बेदम होकर गिर पड़ा । आँखें पथरा गयीं । और मूर्छा सी आ गयी । शत्रुओं ने यह दशा देखी तो उनके हाथों के तोते उड़ गये । समझे इसकी जान निकल गई । बेहताशा भागे । कोई दस मिनट के पीछे बाजबहादुर सचेत हुआ । कलेजे पर चोट लग गयी । घाव ओछा पड़ा था, तिसपर भी खड़े होने की शक्ति न थी । साहस करके उठा और लँगड़ाता हुआ घर की ओर चला । उधर यह विजय दल भागते भागते जयराम के मकान पर पहुँचा ।रास्ते ही में सारा दल तितर- बितर हो गया । कोई इधर से निकल भागा, कोई उधर से, कठिन समस्या आ पड़ी थी । जयराम के घर तक केवल तीन सुदृढ़ लड़के पहुँचे । वहाँ पहुँच कर उनकी जान में जान आयी ।' जयराम - कहीं मर न गया हो । मेरा घूँसा बैठ गया था । जगतसिंह - तुम्हें पसली में नहीं मारना था । अगर तिल्ली फट गयी होगी तो न बचेगा ! जयराम - यार मैंने जान के थोड़े ही मारा था । संयोग ही था । अब बताओ क्या किया जाय जगत - करना क्या है, चुपचाप बैठे रहो । जयराम - कहीं मैं अकेला तो न फँसूँगा ? जगत - अकेले कौन फँसेगा, सबके साथ चलेंगे । जयराम - अगर बाजबहादुर मरा नहीं है तो उठकर सीधे मुंशी जी के पास जायगा । जगत - और मुँशीजी कल हम लोगों की खाल अवश्य उधेड़ेगे । जयराम - इसलिए मेरी सलाह है कि कल मदरसे जाओ ही नहीं । नाम कटा कर दूसरी जगह चले चलें । नहीं तो बीमारी का बहाना करके बैठे रहें । महीने दो महीने के बाद जब मामला ठंडा पड़ जायगा तो देखा जायगा । शिवराम - और जो परीक्षा होने वाली है ? जयराम ओ हो ! इसका तो ख्याल ही न था । एक ही महीना तो और रह गया है । जगत - तुम्हें अबकी जरूर वजीफ मिलता । जयराम - हाँ, मैंने बहुत परिश्रम किया था । तो फिर ? जगत - कुछ नहीं तरक्की तो हो ही जायगी । वजीफे से हाथ धोना पड़ेगा ? जयराम - बाजबहादुर के हाथ लग जायगा । जगत - बहुत अच्छा होगा ! बेचारे ने मार भी तो खायी है । दूसरे दिन मदरसा लगा । जगतसिंह, जयराम और शिवराम तीनों गायब थे । वली मुहम्मद पैर में पट्टी बाँधे आये थे, लेकिन भय के मारे बुरा हाल था । कल के दर्शकगण भी थरथरा रहे थे कि कहीं हम लोग भी गेहूँ के साथ घून की तरह न पिस जायँ । बाजबहादुर नियमा नुसार अपने काम में लगा हुआ था । ऐसा मालूम होता था मानो उसे कल की बातें याद ही नहीं हैं । किसी ने उनकी चर्चा न की । हाँ, आज वह अपने स्वभाव के प्रतिकूल कुछ प्रसन्नचित्त देख पड़ता था । विशेषतः कल के योद्धाओं से वह अधिक हिला-मिला हुआ था । वह चाहता था कि यह लोग मेरी ओर से निःशंक हो जायँ । रात भर की विवेचना के पश्चात उसने यही निश्चय किया था । और आज जब संध्या समय वह घर चला तो उसे अपनी उदारता का फल मिल चुका था । उसके शत्रु लज्जित थे ओर उसकी प्रशंसा करते थे । मगर वह तीनों अपराधी दूसरे दिन भी न आये । तीसरे दिन भी उनका कहीं पता न था । वह घर से मदरसे को चलते लेकिन देहात की तरफ निकल जाते । वहाँ दिन भर किसी वृक्ष के नीचे बैठे रहते, अथवा गुल्ली डंडे खेलते । शाम को घर चले आते । उन्होंने यह पता तो लगा लिया था कि इस समर के अन्य सभी योद्धागण मदरसे जाते हैं और मुंशीजी उससे कुछ नहीं बोलते, किंतु चित्त से शंका दूर न होती थी । बाजबहादुर ने जरूर कहा होगा । हम लोगों के जाने की देर है । गये और बेभाव की पड़ी । यही सोच कर मदरसे आने का साहस न कर सकते ।

(5)

चौथे दिन प्रातःकाल तीनों अपराधी बैठे सोच रहे थे कि आज किधर चलना चाहिए । इतने में बाजबहादुर आता हुआ दिखाई दिया । इन लोगों को आश्चर्य तो हुआ परंतु उसे अपने द्वार पर आते देखकर कुछ आशा बँध गयी । यह लोग अभी बोले भी न पाये थे कि बाज बहादुर ने कहा - क्यों मित्रों, तुम लोग मदरसे क्यों नहीं आते ? तीन दिन से गैरहाजिरी हो रही है । जगत - मदरसे क्या जायँ, जान भारी पड़ी है ? मुंशीजी एक हड्डी भी न छोड़ेंगे । बाजबहादुर - क्यों, वलीमुहम्मद, दुर्गा, सभी तो जाते हैं, मुंशी जी ने किसी से भी कुछ कहा ? जयराम - तुमने उनको छोड़ दिया होगा, लेकिन हमें भला तुम क्यों छोड़ने लगे । तुमने एक-एक की तीन-तीन जड़ी होगी । बाज0 - आज मदरसे चल कर इसकी परीक्षा ही कर लो । जगत यह झाँसे रहने दीजिए । हमें पिटवाने की चाल है । बाज0 - तो मैं कहीं भागा तो नहीं जाता ? उस दिन सच्चाई की सजा दी थी, आज झूठ का इनाम दे देना । जयराम - सच कहते हो तुमने शिकायत नहीं की । बाज0 - शिकायत की कौन बात थी । तुमने मुझे पीटा, मैंने तुम्हें मारा । अगर तुम्हारा घूँसा न पड़ता तो में तुम लोगों को रणक्षेत्र से भगा कर दम लेता । आपस में झगड़ों की शिकायत करने की मेरी आदत नहीं है । जगत - चलूँ तो यार लेकिन विश्वास नहीं आता ! तुम हमें झाँसे दे रहे हो, वहाँ कचूमर निकलवा लोगे । बाज0 - तुम जानते हो झूठ बोलने की मेरी बान नहीं है ! यह शब्द बाजबहादुर ने ऐसी विश्वासोत्पादक रीति से कहे कि उन लोगों का भ्रम दूर हो गया । बाज बहादुर के चले आने के पश्चात् तीनों देर तक उसकी बातों की विवेचना करते रहे ! अंत में यही निश्चय हुआ कि आज चलना चाहिए ! ठीक दस बजे तीनों मित्र मदरसे पहुँच गये, किंतु चित्त में आशंकित थे । चेहरे का रंग उड़ा हुआ था । मुंशीजी कमरे में आये । लड़कों ने खड़े हो कर उनका स्वागत किया, उन्होंने तीनों मित्रों की ओर तीव्र दृष्टि से देखकर केवल इतना कहा - तुम लोग तीन दिन से गैरहाजिर हो । देखो दरजे में जो इम्तहानी सवाल हुए हैं उन्हें नकल कर लो । फिर पढ़ाने में मग्न हो गये !

(6)

जब पानी पीने के लिए लड़कों को आध घंटे का अवकाश मिला तो तीनों मित्र और उनके सह योगी जमा होकर बातें करने लगे । जयराम - हम तो जान पर खेल कर मदरसे आते थे, मगर बाजबहादुर है बात का धनी । वली मुम्मद - मुझे तो ऐसा मालूम होता है वह आदमी नहीं देवता है । यह आँखों देखी बात न होती तो मुझे कभी इस पर विश्वास न आता । जगत - भलमनसी इसी को कहते हैं । हमसे बड़ी भूल हुई कि उसके साथ ऐसा अन्याय किया । दुर्गा - चलो उससे क्षमा माँगें । जयराम - हाँ, यह तुम्हें खूब सूझी । आज ही । जब मदरसा बंद हुआ तो दरजे के सब लड़के मिलकर बाजबहादुर के पास गये । जगतसिंह उनका नेता बन कर बोला, भाई साहेब ! हम सब -के-सब तुम्हारे अपराधी हैं । तुम्हारे साथ हम लोगों ने जो अत्याचार किया है उस पर हम हृदय से लज्जित हैं । हमारा अपराध क्षमा करो । तुम सज्जनता की मूर्ति हो, हम लोग उजड्ड, गँवार और मूर्ख हैं; हमें अब क्षमा प्रदान करो । बाजबहादुर की आँखों में आँसू भर आये - बोला, मैं पहले भी तुम लोगों को अपना भाई समझता था और अब भी वही समझता हूँ । भाइयों के झगड़े में क्षमा कैसी ? सब-के-सब उससे गले मिले । इसकी चर्चा सारे मदरसे में फैल गयी । सारा मदरसा बाजबहादुर की पूजा करने लगा । वह अपने मदरसे का मुखिया, नेता और शिरमौर बन गया । पहले उसे सचाई का दंड मिला, अबकी सचाई का उपहार मिला ।

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9 - ज्वालामुखी

- लेखक - मुंशी प्रेमचंद

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डिग्री लेने के बाद मैं नित्य लाइब्रेरी जाया करता । पत्रों या किताबों का अवलोकन करने के लिए नहीं । किताबों को तो मैंने छूने की कसम खा ली थी जिस दिन गजट में अपना नाम देखा उसी दिन मिल और कैंट को उठा कर ताक पर रख दिया । मैं केवल अंग्रेजी पत्रों के "वांटेड" कालमों को देखा करता ।जीवन यात्रा की फिक्र सवार थी । मेरे दादा या पर दादा ने किसी अँगरेज को गदर के दिन बचाया होता, अथवा किसी इलाके का जमींदार होता तो कहीं "नामिनेशन" के लिए उद्योग करता । पर मेरे पास कोई सिफारिश न थी । शोक! कुत्ते बिल्लियों और मोटरों की माँग सबको थी । पर बी0 ए0 पास का कोई पुरसाँहाल न था । महीनों इसी तरह दौड़ते गुजर गये, पर अपनी रुचि के अनुसार कोई जगह न नजर आयी । मुझे अक्सर अपने बी0 ए0 होने पर क्रोध आता था । ड्राइवर, फायरमेन, मिस्त्री, खान सामा या बावर्ची होता तो मुझे इतने दिनों तक बेकार न बैठना पड़ता । एक दिन मैं चारपाई पर लेटा हुआ एक पत्र पढ़ रहा था कि मुझे एक माँग अपनी इच्छा के अनुसार दिखायी दी । किसी रईस को एक ऐसे प्राईवेट सेक्रेटरी की जरूरत थी जो विद्वान, रसिक, सहृदय और रूपवान हो । वेतन एक हजार मासिक! मैं उछल पड़ा । कहीं मेरा भाग्य उदय हो जाता और यह पद मुझे मिल जाता तो जिंदगी चैन से कट जाती । उसी दिन मैंने अपना विनय-पत्र अपने फोटो के साथ रवाना कर दिया । पर अपने आत्मीयगणों में किसी से इसका जिक्र न किया कि कहीं लोग मेरी हँसी न उड़ायें । मेरे लिए 30 रु0 मासिक भी बहुत थे एक हजार कौन देगा ? पर दिल से यह ख्याल दूर न होता । बैठे बैठे शैखचिल्ली के मन्सूबे बाँधा करता । फिर होश में आकर अपने को समझाता कि मुझमें ऐसे ऊँचे पद के लिए कौन सी योग्यता है । मैं अभी कालेज से निकला हुआ पुस्तकों का पुतला हूँ । दुनिया से बेखबर । इस पद के लिए एक से एक विद्वान, अनुभवी मुँह फैलाये बैठे होंगे । मेरे लिए कोई आशा नहीं । मैं रूपवान सही , सजीला सही मगर ऐसे पदों के लिए केवल रूपवान होना काफी नहीं होता । विज्ञापन में इसकी चर्चा करने से केवल इतना अभिप्राय होगा कि कुरूप आदमी की जरूरत नहीं, और यही उचित भी है । बल्कि बहुत सजीलापनतो ऊँचे पदों के लिए कुछ शोभा नहीं देता । मध्यम श्रेणी का तोंद, भरा हुआ शरीर फूलेहुए गाल, और गौरवयुक्त वाक्य-शैली, यह उच्च पदाधीकारियों के लक्षण हैं और मुझे इनमें से एक भी मयस्सर नहीं इसी आशा और भय में एक सप्ताह गुजर गया । और अब मैं निराश हो गया - मैं भी कैसा ओछा हूँ कि एक बेसिर पैर की बात के पीछे ऐसा फूल उठा; इसी को बड़प्पन कहते हैं । जहाँ तक मेरा खयाल है किसी दिल्लगीबाज ने आज के शिक्षित समाज की मूर्खता की परीक्षा करने के लिए यह स्वाँग रचा है । मुझे इतना भी न सूझा । मगर आठवें दिन प्रातःकाल तार के चपरासी ने मुझे आवाज दी । मेरे हृदय में गुदगुदी-सी होने लगी । लपका हुआ आया । तार खोल कर देखा. लिखा था- स्वीकार है, शीघ्र आओ ऐशगढ़ । मगर यह सुख सम्वाद पा कर मुझे वह आनन्द न हुआ जिसकी आशा थी । मैं कुछ देर तक खड़ा सोचता रहा । किसी तरह विश्वास न आता था । जरूर किसी दिल्लगीबाज की शरारत है । मगर कोई मुजायका नहीं, मुझे भी इसका मुँह-तोड़ जवाब देना चाहिए । तार दे दूँ कि एक महीने की तनख्वाह भेज दो । आप ही सारी कलई खुल जायगी ! मगर फिर विचार किया कहीं वास्तव में नसीब जागा हो तो उद्दंडता से बना बनाया खेल बिगड़ जायगा । चलो दिल्लगी ही सही ! जीवन में यह घटना भी स्मरणीय रहेगी । इस तिलिस्म को खोल ही डालूँ यह निश्चय करके तार-द्वारा आने कि सूचना दे दी और सीधे रेलवे स्टेशन पर पहुँचा । पूछने पर मालूम हुआ कि यह स्थान दक्खिन की ओर है । टाइमटेबिल में उसका वृत्तांत विस्तार के साथ लिखा हुआ था । स्थान अति रमणीय है, और जलवायु स्वास्थ्यकर नहीं । हाँ हृष्ट-पुष्ट नवयुवकों पर उनका असर शीघ्र नहीं होता । दृश्य बहुत मनोहर है पर जहरीले जानवर बहुत मिलते हैं । यथा साध्य अँधेरे घाटियों में न जाना चाहिए । यह वृत्तांत पढ़ कर उत्सुकता और भी बढ़ी । जहरीले जानवर हैं तो हुआ करें, कहाँ नहीं है । मैं अँधेरी घाटियों के पास भूल कर भी न जाऊँगा । आ कर सफर का सामान ठीक किया और ईश्वर का नाम लेकर नियत समय पर स्टेशन की तरफ चला । पर अपने अलापी मित्रों से इसका जिक्र न किया, क्योंकि मुझे पूरा विश्वास था कि दो ही चार दिन में अपना-सा मुँह लेकर लौटना पड़ेगा ।

(2)

गाड़ी पर बैठा तो शाम हो गई थी । कुछ देर तो सिगार और पत्रों से दिल बहलाता रहा । फिर मालूम नहीं कब नींद आ गयी । आँखें खुली और खिड़की से बाहर की तरफ झाँका तो उषा काल का मनोहर दृश्य दिखायी दिया । दोनों ओर हरे वृक्षों से ढँकी हुई पर्वत श्रेणियाँ उन पर चरती हुई उजली-उजली गायें और भेड़ें सूर्य की सुनहरी किरणों में रँगी हुई बहुत सुन्दर मालूम होती थी । जी चाहता था कि कहीं मेरी कुटिया भी इन्हीं सुखद पहाड़ियों में होती जंगल के फल खाता झरनों का ताजा पानी पीता और आनन्द के गीत गाता यकायक दृश्य बदला एक विस्तृत झील दिखायी दी जिसमें कँवल खिले हुये थे । कहीं उजले-उजले पक्षी तैरते थे और कहीं छोटी-छोटी डोंगियाँ निर्बल आत्माओं के सदृश डगमगाती चली जाती थीं यह दृश्य भी बदला । पहाड़ियों के दामन में एक गाँव नजर आया, झाड़ियों और वृक्षों से ढका हुआ मानो शाँति और संतोष ने यहाँ अपना निवास -स्थान बनाया हो । कहीं बच्चे खेलते थे, कहीं गाय के बछड़े किलोल करते थे । फिर एक घना जंगल मिला । झुंड के झुंड हिरन दिखायी दिये जो गाड़ी की हहकार सुनते ही चौकड़ियाँ भरते दूर भाग जाते थे । यह सब दृश्य स्वप्न के चित्रों के समान आँखों के सामने आते थे और एक क्षण में गायब हो जाते थे । उनमें एक अवर्णनीय शांतिदायिनी शोभा थी जिससे दृश्य में आकाँक्षाओं के आवेग उठने लगते थे । आखिर ऐशगढ़ निकट आया । मैंने बिस्तर सँभाला । जरा देर में सिग्नल दिखायी दिया । मेरी छाती धड़कने लगी । गाड़ी रुकी । मैंने उतर कर इधर-उधर देखा, कुलियों को पुकारने लगा कि इतने में दो वरदी पहने हुए आदमियों ने आकर मुझे सलाम किया और पूछा - आप... से आ रहे हैं न, चलिए मोटर तैयार है । मेरी बाँछें खिल गयी । अब तक कभी मोटर पर बैठने का सौभाग्य न हुआ था । शान के साथ जा बैठा । मन में बहुत लज्जित था कि ऐसे फटे हाल क्यों आया, अगर जानता कि सचमुच सौभाग्य-सूर्य चमका है तो ठाट-बाट से आता । खैर मोटर चली । दोनों तरफ मौलसरी के सघन वृक्ष थे । सड़क पर लाल बजरी बिछी हुई थी । सड़क हरे-भरे मैदान में किसी सुरम्य जल धारा के सदृश बल खाती चली गयी थी । दस मिनट भी न गुजरे होंगे कि सामने एक शांतिमय सागर दिखायी दिया । सागर के उस पार पहाड़ी पर एक विशाल भवन बना हुआ था । भवन अभिमान से सिर उठाये हुए था, सागर संतोष से नीचे लेटा हुआ, सारा दृश्य काव्य, श्रृंगार और आमोद से भरा हुआ था । हम सदर दरवाजे पर पहुँचे, कई आदमियों ने दौड़ कर मेरा स्वागत किया । इनमें एक शौकीन मुंशी जी थे, जो बाल सँवारे आँखों में सुर्मा लगाये हुए थे । मेरे लिए जो कमरा सजाया गया था उसके द्वार पर मुझे पहुँचा कर बोले-सरकार ने फरमाया है, इस समय आप आराम करें । संन्ध्या समय मुलाकात कीजिएगा । मुझे अब तक इसकी कुछ खबर न थी कि यह `सरकार' कौन हैं, न मुझे किसी से पूछने का साहस हुआ, क्योंकि अपने स्वामी के नाम तक से अनभिज्ञ होने का परिचय नहीं देना चाहता था । मगर इसमें कोई सन्देह नहीं कि मेरा स्वामी बड़ा सज्जन मनुष्य था । मुझे इतने आदर सत्कार की कदापि आशा न थी । अपने सुसज्जित कमरे में जाकर जब मैं एक आराम कुरसी पर बैठा तो हर्ष से विह्वल हो गया । पहाड़ियों की तरफ से शीतल वायु के मंद-मंद झोंके आ रहे थे । सामने छज्जा था । नीचे झील थी, साँप के केंचुले के सदृश, छाया और प्रकाश से पूर्ण, और मैं, जिसे भाग्यदेवी ने सदैव अपना सौतेला लड़का समझा था इस समय जीवन में पहली बार निर्विघ्न आनन्द का सुख उठा रहा था । तीसरे पहर उन्हीं शौकीन मुंशी जी ने आ कर इत्तला दी कि सरकार ने याद किया है । मैंने इस बीच में बाल बना लिये थे । तुरंत अपना सर्वोत्तम सूट पहना और मुन्शी जी के साथ सरकार की सेवा में चला । इस समय मेरे मन में यह शंका उठ रही थी कि कहीं मेरी बातचीत से स्वामी असंतुष्ट न हो जायँ । और उन्होंने मेरे विषय में जो विचार स्थिर किये हों उनमें कोई अन्तर न पढ़ जाय । तथापि मै अपनी योग्यता का परिचय देने के लिए खूब तैयार था । हम कई बरामदों से होते हुए अंत में सरकार के कमरे के दरवाजे पर पहुँचे । रेशमी परदा पड़ा हुआ था । मुंशी जी ने परदा उठा कर मुझे इशारे से बुलाया । मैंने काँपते हुए हृदय से कमरे में कदम रक्खा और आश्चर्य से चकित हो गया ! मेरे सामने सौन्दर्य की ज्वाला दीप्तिमान थी ।

(3)

फूल भी सुन्दर है और दीपक भी सुन्दर है । फूल में ठंडक और सुगन्धि है, दीपक में प्रकाश और उद्दीपन । फूल पर भ्रमर उड़-उड़ कर उसका रस लेता है । दीपक पर पतंग जलकर राख हो जाता है । मेरे सामने कारचोबी मसनद पर जो सुन्दरी विराजमान थी , वह सौन्दर्य की प्रकाशमय ज्वाला थी । फूल की पंखड़ियाँ हो सकती हैं, ज्वाला को विभक्त करना असम्भव है । उसके एक-एक अंग की प्रशंसा करना ज्वाला को काटना है । वह नख-शिख तक एक ज्वाला थी । वही दीपक, वही चमक, वही लालिमा, वही प्रभा । कोई चित्रकार प्रतिमा सौन्दर्य का इससे अच्छा चित्र नहीं खींच सकता था । रमणी ने मेरी तरफ वात्सल्य दृष्टि से देखकर कहा-आपको सफर में कोई विशेष कष्ट तो नहीं हुआ ? मैंने सँभल कर उत्तर दिया, जी नहीं, कोई कष्ट नहीं हुआ ! रमणी - यह स्थान पसन्द आया ? मैंने साहसपूर्ण उत्साह के साथ जवाब दिया, ऐसा सुन्दर स्थान पृथ्वी पर न होगा । हाँ गाइड बुक देखने से विदित हुआ कि यहाँ का जलवायु जैसा सुखद प्रकट होता है, यथार्थ में वैसा नहीं, विषैले पशुओं की भी शिकायत थी । यह सुनते ही रमणी का मुखसूर्य कांतिहीन हो गया । मैंने तो यह चर्चा इसलिए करदी थी जिससे प्रकट हो जाय कि यहाँ आने में मुझे भी कुछ त्याग करना पड़ा है । पर मुझे ऐसा मालूम हुआ कि इस चर्चा से उसे कोई विशेष दुःख हुआ ।पर क्षण भर में सूर्य मेघमंडल से बाहर निकल आया, बोली - यह स्थान अपनी रमणीयता के कारण बहुधा लोगों की आँखों में खटकता है । गुण का निरादर करनेवाले सभी होते हैं । और यदि जलवायु कुछ हानिकर हो भी तो आप जैसे बलवान मनुष्य को इसकी क्या चिन्ता हो सकती है । रहे विषैले जीव जंतु, वह आपके नेत्रों के सामने विचर रहे हैं । अगर मोर, हिरन और हंस विषैले जीव है तो निस्संदेह यहाँ विषैले जीव बहुत है । मुझे संशय हुआ कि कहीं मेरे कथन से उसका चित्त खिन्न हो गया हो, गर्व से बोला - गाइड बुकों पर विश्वास करना सर्वथा भूल है । इस वाक्य से सुन्दरी का हृदय खिल गया, बोली- आप स्पष्टवादी मालूम होते हैं और यह मनुष्य का एक उच्चगुण है । मैं आपका चित्र देखते ही इतना समझ गयी थी । आपको यह सुनकर आश्चर्य होगा कि इस पद के लिए मेरे पास लाख से अधिक प्रार्थना-पत्र आये थे । कितने हौ एम0 ए0 थे, कोई डी0 एस0 सी0 था, कोई जर्मनी से पी0 एच0 डी0 की उपाधि प्राप्त किये हुए था, मानो यहाँ मुझे किसी दार्शनिक विषय की जाँच करानी थी । मुझे अबकी यह अनुभव हुआ कि देश मैं उच्चशिक्षित मनुष्यों की इतनी भरमार है । कई महाशयों ने स्वरचित ग्रंथों की नामावली लिखी थी मानो देश में लेखकों और पंडितों ही की आवश्यकता है । कालगति का लेशमात्र भी परिचय नहीं है । प्राचीन कर्मकथाएँ अब केवल अंधभक्तों के रसास्वादन के लिए ही है, उनसे और कोई लाभ नहीं है । यह भौतिक उन्नति का समय है । आज-कल लोग भौतिक सुख पर अपने प्राण अर्पण कर देते हैं । कितने ही लोगों ने अपने चित्र भी भेजे थे । कैसी-कैसी विचित्र मूर्तियाँ थीं जिन्हें देख कर घंटों हँसिए । मैंने उन सभी को एक अलबम में लगा लिया है और अवकाश मिलने पर जब हँसने की इच्छा होती हे तो उन्हें देखा करती हूँ । मैं उस विद्या को रोग समझती हूँ जो मनुष्य को वनमानुष बना दे ! आपका चित्र देखते ही आँखें मुग्ध हो गयीं, तद्क्षण आपको बुलाने को तार दे दिया । मालूम नहीं क्यों, अपने गुणस्वभाव की प्रशंसा की अपेक्षा हम अपने बाह्य गुणों की प्रशंसा से अधिक संतुष्ट होते हैं और एक सुन्दरी के मुखकंठ से तो वह चलते हुए जादू के समान है । बोला - यथासाध्य आपको मुझसे असंतुष्ट होने का अवसर न मिलेगा । सुन्दरी ने मेरी ओर प्रशंसापूर्ण नेत्रों से देखकर कहा - इसका मुझे पहले ही से विश्वास है । आइए अब कुछ काम की बातें हो जायँ । इस घर को आप अपना ही समझिए और संकोच छोड़कर आनंद से रहिए । मेरे भक्तों की संख्या बहुत है । वह संसार के प्रत्येक भाग में उपस्थित हैं और बहुधा मुझसे अनेक प्रकार की जिज्ञासा किया करते है उन सबको मैं आपके सुपुर्द करती हूँ । आपको उनमें भिन्न-भिन्न स्वभाव के मनुष्य मिलेंगे ! कोई मुझसे सहायता माँगता है, कोई मेरी निंदा करता है, कोई सराहता है, कोई गालियाँ देता है । इन सब प्राणियों को संतुष्ट करना आपका काम है । देखिए यह आज के पत्रों का ढेर है । एक महाशय कहते हैं बहुत दिन हुए आपकी प्रेरणा से मैं अपने बड़े भाई की मृत्यु के बाद उनकी सम्पत्ति का अधिकारी बन बैठा था । अब उनका पुत्र वयस प्राप्त कर चुका है और मुझसे अपने पिता की जायदाद लौटाना चाहता है । इतने दिनों तक उस सम्पत्ति का उप भोग करने के पश्चात अब उसका हाथ से निकलना अखर रहा है, आपकी इस विषय में क्या सम्मत्ति है ? इनको उत्तर दीजिए कि इस कूटनीति से काम लो, अपने भतीजे को कपट-प्रेम से मिला लो और जब वह निःशंक हो जाय तो उससे एक सादे स्टाम्प पर हस्ताक्षर करा लो । इसके पीछे पटवारी और अन्य कर्मचारियों की मदद से इसी स्टाम्प पर जायदाद का बै नामा लिखा लो । यदि एक लगा कर दो मिलते हो तो आगा-पीछा मत करो । यह उत्तर सुन कर मुझे बड़ा कौतूहल हुआ । नीति-ज्ञान को धक्का-सा लगा । सोचने लगा, यह रमणी कौन है और क्यों ऐसे अनर्थ का परामर्श देती है । ऐसे खुल्लम-खुल्ला तो कोई वकील भी किसी को यह राय न देगा । उसकी और संदेहात्मक भाव से देखकर बोला - यह तो सर्वथा न्याय-विरुद्ध प्रतीति होता है । कामिनी खिलखिलाकर कर हँस पड़ी और बोली- न्याय की आपने भली कही । यह केवल धर्मान्ध मनुष्यों का मन का समझौता है , संसार में इसका अस्तित्व नहीं । बाप ऋण लेकर मर जाय, लड़का कौड़ी कौड़ी भरे विद्वान लोग इसे न्याय कहते हैं, मैं घोर अत्याचार समझती हूँ इस न्याय के परदे में गाँठ के पूरे महाजन की हेकड़ी साफ झलक रही है । एक डाकू किसी भद्र पुरुष के घर में डाका मारता है, लोग उसे पकड़ कर कैद कर देते हैं । धर्मात्मा लोग इसे भी न्याय कहते हैं , किंतु यहाँ भी वही धन और अधिकार की प्रचंडता है । भद्र पुरुष ने कितने ही घरों को लूटा, कितनों ही का गला दबाया और इस प्रकार धन संचय किया, किसी को भी उन्हें आँख दिखाने का साहस न हुआ । डाकू ने जब उनका गला दबाया तो वह अपने धन और प्रभुत्व के बल से उस पर वज्रप्रहार कर बैठे ।मैं इसे न्याय नहीं कहती । संसार में धन, छल, कपट, धूर्तता का राज्य है, यही जीवन-संग्राम है, यहाँ प्रत्येक साधन जिससे हमारा काम निकले, जिससे हम अपने शत्रुओं पर विजय पा सकें, न्यायानुकूल और उचित है । धर्म युद्ध के दिन अब नहीं रहे । यह देखिए एक दूसरे सज्जन का पत्र है । वह कहता है मैंने प्रथम श्रेणी में एम0 ए0 पास किया, प्रथम श्रेणी में कानून की परीक्षा पास की पर अब कोई मेरी बात भी नहीं पूछता । अब तक यह आशा थी कि योग्यता और परिश्रम का अवश्य ही कुछ फल मिलेगा, पर तीन साल के अनुभव से ज्ञात हुआ कि यह केवल धार्मिक नियम है । तीन साल में घर की पूँजी भी खा चुका । अब विवश हो कर आपकी शरण लेता हूँ । मुझ हतभाग्य पर दया कीजिए और मेरा बेड़ा पार लगाइए । इनको उत्तर दीजिए कि जाली दस्तावेजें बनवाइए और झूठे दावे चलाकर उनकी डिगरी करा लीजिए । थोड़े ही दिनों मे आप का क्लेश निवारण हो जायगा । यह देखिए, एक सज्जन और कहते हैं, लड़की सयानी हो गई है, जहाँ जाता हूँ लोग दायज की गठरी माँगते हैं । यहाँ पेट की रोटियों का भी ठिकाना नहीं, किसी तरह भलमनसी निभा रहा हूँ, चारों ओर निंदा हो रही है, जो आज्ञा हो उसका पालन करूँ । इन्हें लिखिए कन्या का विवाह किसी बुड्ढे खुर्राट सेठ से कर दीजिए । वह दायज लेने की जगह कुछ उल्टे और दे जायगा । अब आप समझ गये होंगे कि ऐसे जिज्ञासुओं को किस ढंग से उत्तर देने की आवश्यकता है । उत्तर संक्षिप्त होना चाहिए, बहुत टीका टिप्पणी व्यर्थ होती है । अभी कुछ दिनों तक आपको यह काम कठिन जान पड़ेगा, पर आप चतुर मनुष्य हैं, शीध्र ही आपको इस काम का अभ्यास हो जायगा । तब आपको मालूम होगा कि इससे सहज और कोई काम नहीं है । आपके द्वारा सैकड़ों दारुण दुख भोगनेवालों का कल्याण होगा और वह आजन्म आपका यश गायेंगे ।

(4)

मुझे यहाँ रहते एक महीने से अधिक हो गया पर अब तक मुझ पर यह रहस्य न खुला कि यह सुंदरी कौन है ? मैं किसका सेवक हूँ ? इसके पास इतना अतुल धन, ऐसी-ऐसी विलास की सामग्रियाँ कहाँ से आती हैं ? जिधर देखता था ऐश्वर्य ही का आडम्बर दिखायी देता था । मेरे आश्चर्य की सीमा न थी मानो किसी तिलिस्म में आ फँसा हूँ । इन जिज्ञासुओं का इस रमणी से क्या सम्बन्ध है, यह भेद भी न खुलता था । मुझे नित्य उससे साक्षात होता था, उसके सम्मुख आते ही मैं अचेत-सा हो जाता था । उसकी चितवनों में एक प्रबल आकर्षण था जो मेरे प्राणों को खींच लिया करता था । मैं वाक्य-शून्य हो जाता, केवल छुपी हुई आँखों से उसे देखा करता था । पर मुझे उसके मृदुल मुस्कान और रसमयी आलोचनाओं तथा मधुर, काव्यमय भावों में प्रेमानन्द की जगह एक प्रबल मानसिक अशांति का अनुभव होता था । उसकी चितवने केवल हृदय को बाणों के समान छेदती थीं, उनके कटाक्ष चित्त को व्यस्त करते थे शिकारी अपने शिकार को खेलाने में जो आनंद पाता है वही उस परम सुंदरी को मेरी प्रेमातुरता में प्राप्त होता था । वह एक सौंदर्य-ज्वाला जलाने के सिवाय और क्या कर सकता है । तिस पर भी मैं पतंग की भाँति उस ज्वाला पर अपने को समर्पण करना चाहता था । यही आकांक्षा होती थी कि उन पद-कमलों पर सिर रख कर प्राण दे दूँ । यह केवल एक उपासक की भक्ति थी, काम और वासना से शून्य । कभी-कभी जब वह संध्या समय अपने मोटर बोट पर बैठ कर सागर की सैर करती तो ऐसा जान पड़ता था मानो चंद्रमा आकाश लालिमा में तैर रहा है । मुझे इस दृश्य में अनुपम सुख प्राप्त होता था । मुझे अब अपने नियत कार्यों में खूब अभ्यास हो गया था ।मेरे पास प्रति दिन पत्रों का एक पोथा पहुँच जाता था । मालूम नहीं किस डाक से आता था । लिफाफों पर कोई मुहर न होती थी ।मुझे इन जिज्ञासुओं में बहुधा वह लोग मिलते थे जिनका मेरी दृष्टि में बड़ा आदर था , कितने ही ऐसे महात्मा थे जिनमें मुझे श्रद्धा थी । बड़े-बड़े विद्वान और अध्यापक, बड़े-बड़े ऐश्वर्यवान रईस यहाँ तक कि कितने ही धर्म के आचार्य, नित्य अपनी राम कहानी सुनाते थे । उनकी दशा अत्यंत करुणाजनक थी । वह सब के सब मुझे रँगे हुए सियार दिखाई देते थे । जिन लेखकों को मैं अपनी भाषा का स्तम्भ समझता था, उनसे घृणा होने लगी । वह केवल उचक्के थे, जिनकी सारी कीर्ति चोरी, अनुवाद और कतर-ब्योंत पर निर्भर थी । जिन धर्मों के आचार्यों को मैं पूज्य समझता था, वह स्वार्थ, तृष्णा और घोर नीचता के दलदल में फँसे हुए दिखायी देते थे । मुझे धीरे-धीरे यह अनुभव हो रहा था कि संसार की उत्पत्ति से अब तक, लाखों शताब्दियाँ बीत जाने पर भी, मनुष्य वैसा ही वासनाओं का गुलाम बना हुआ है । बल्कि उस समय के लोग सरल प्रकृति के कारण इतने कुटिल दुराग्रहों में इतने चालाक न होते थे । एक दिन संध्या समय उस रमणी ने मुझे बुलाया । मैं अपने घमंड में यह समझता था कि मेरे बाँकेपन का कुछ न कुछ असर उस पर भी होता है । अपना सर्वोत्तम सूट पहना, बाल सँवारे और विरक्त भाव से जा कर बैठ गया । यदि वह मुझे अपना शिकार बना कर खेलती थी तो मैं भी शिकार बन कर उसे खिलाना चाहता था । ज्यों ही मैं पहुँचा, उस लावण्यमयी ने मुस्करा कर मेरा स्वागत किया, पर मुखचंद्र कुछ मलिन था । मैंने अधीर होकर पूछा-सरकार का जी तो अच्छा है । उसने निराश भाव से उत्तर दिया - जी हाँ, एक महीने से एक कठिन रोग में फँस गयी हूँ । अब तक किसी भाँति अपने को सँभाल सकी हूँ, पर अब रोग असाध्य होता जाता है । उसकी औषधि एक निर्दय मनुष्य के पास है । वह मुझे प्रतिदिन तड़पते देखता है, पर उसका पाषाण हृदय जरा भी नहीं पसीजता । मैं इशारा समझ गया । सारे शरीर में एक बिजली सी दौड़ गयी । साँस बड़े वेग से चलने लगी । एक उन्मत्तता का अनुभव होने लगा । निर्भय हो कर बोला-सम्भव है, जिसे आपने निर्दय समझ रखा हो, वह भी आपको ऐसा ही समझा हो और भय से मुँह खोलने का साहस न कर सकता हो । सुंदरी ने कहा - तो कोई ऐसा उपाय बताइये जिससे दोनों ओर की आग बुझे । प्रियतम ! अब मैं अपने हृदय की दहकती हुई विरहाग्नि को नहीं छिपा सकती । मेरा सर्वस्व आपकी भेंट है । मेरे पास वह खजाने हैं, जो कभी खाली होंगे । मेरे पास वह साधन हैं, जो आपको कीर्ति के शिखर पर पहुँचा देंगे । समस्त संसार को आपके पैरों पर झुका सकती हूँ । बड़े-बड़े सम्राट भी मेरी आज्ञा को नहीं टाल सकते । मेरे पास वह मंत्र है, जिससे मैं मनुष्य के मनोवेगों को क्षणमात्र में पलट सकती हूँ । आइए मेरे हृदय से लिपट कर इस दाह-क्रांति को शांत कीजिए। रमणी के चेहरे पर जलती हुई आग की-सी कांति थी । वह दोनों हाथ फैलाये कामोन्मत्त हो कर मेरी ओर बढ़ी । उसकी आँखों से आग की चिनगारियाँ निकल रही थीं । परंतु जिस प्रकार अग्नि से पारा दूर भागता है उसी प्रकार मैं भी उसके सामने से एक कदम पीछे हट गया । उसकी इस प्रेमातुरता से मैं भयभीत हो गया जैसे कोई निर्धन मनुष्य किसी के हाथों सोने की ईंट लेते हुए भयभीत हो जाय । मेरा चित्त एक अज्ञात शंका से काँप उठा । रमणी ने मेरी ओर अग्निमय नेत्रों से देखा मानो किसी सिंहनी के मुँह से उसका आहार छिन जाय और सरोष होकर बोली - यह भीरुता क्यों ? मैं - मैं आपका एक तुच्छ सेवक हूँ, इस महान आदर का पात्र नहीं । रमणी - आप मुझसे घृणा करते हैं । मैं - यह आपका मेरे साथ अन्याय है । मैं इस योग्य भी तो नहीं कि आपके तलुओं को आँखों से लगाऊँ । आप दीपक हैं; मैं पतंग हूँ ; मेरे लिए इतना ही बहुत है । रमणी नैराश्यपूर्ण क्रोध के साथ बैठ गयी और बोली - वास्तव में आप निर्दयी हैं, मैं ऐसा न समझती थी । आप में अभी तक अपनी शिक्षा के कुसंस्कार लिपटे हुए हैं, पुस्तकों और सदाचार की बेड़ी आपके पैरों से नहीं निकली । मैं शीघ्र ही अपने कमरे में चला आया और चित्त के स्थिर होने पर जब मैं इस घटना पर विचार करने लगा तो मुझे ऐसा मालूम हुआ कि मैं अग्निकुण्ड में गिरते गिरते बचा । कोई गुप्त शक्ति मेरी सहायक हो गयी । यह गुप्त शक्ति क्या थी ?

(5)

मैं जिस कमरे में ठहरा हुआ था, उसके सामने झील के दूसरी तरफ एक छोटा-सा झोपड़ा था । उसमें एक वृद्ध पुरुष रहा करते थे । उनकी कमर तो झुक गयी थी , पर चेहरा तेजमय था । वह कभी-कभी इस महल में आया करते थे । रमणी न जाने क्यों उनसे घृणा करती थी, मन में उनसे कुछ डरती थी उन्हें देखते ही घबरा जाती, मानो किसी असमंजस में पड़ी हुई है उसका मुख फीका पड़ जाता, जा कर अपने किसी गुप्त स्थान में मुँह छिपा लेती, मुझे उसकी यह दशा देखकर कौतूहल होता था । कई बार उसने मुझसे उनकी चर्चा की थी । पर अत्यंत अपमान के भाव से वह मुझे उनसे दूर-दूर रहने का उपदेश दिया करती, और यदि कभी मुझे उनसे बातें करते देख लेती तो उसके माथे पर बल पड़ जाते थे, कई कई दिनों तक मुझसे खुल कर न बोलती थी । उस रात को मुझे देर तक नींद नहीं आयी । उधेड़बुन में पड़ा हुआ था । कभी जी चाहता आओ आँख बंद करके प्रेम-रस पान करें । संसार के पदार्थों का सुख भोगें, जो कुछ होगा देखा जायगा । जीवन में ऐसे दिव्य अवसर कहाँ मिलते हैं फिर आप ही आप मन खिंच जाता था, घृणा उत्पन्न हो जाती थी । रात के दस बजे होंगे कि हठात् मेरे कमरे का द्वार आप ही आप खुल गया और वही तेजस्वी पुरुष अंदर आये । यद्यपि मैं अपनी स्वामिनी के भय से उनसे बहुत कम मिलता था, पर उनके मुख पर ऐसी शांति थी और उनके मुख पर ऐसी शांति थी और उनके भाव ऐसे पवित्र तथा कोमल थे कि हृदय में उनके सत्संग की उत्कंठा होती थी । मैंने उनका स्वागत किया और ला कर एक कुरसी पर बैठा दिया । उन्होंने मेरी ओर दयापूर्ण भाव से देखकर कहा - मेरे आने से तुम्हे कष्ट तो नहीं हुआ ! मैंने सिर झुका कर उत्तर दिया, आप जैसे महात्माओं का दर्शन मेरे सौभाग्य की बात है । महात्मा जी निश्चित हो कर बोले -- अच्छा तो सुनो और सचेत हो जाओ, मैं तुम्हें यही चेतावनी देने के लिए आया हूँ । तुम्हारे ऊपर एक घोर विपत्ति आने वाली है । तुम्हारे लिए इस समय इसके सिवाय और कोई उपाय नहीं है कि यहाँ से चले जाओ । मेरी बात न मानोगे तो जीवन पर्यंत कष्ट झेलोगे और इस माया-जाल से कभी मुक्त न हो सकोगे । मेरा झोपड़ा तुम्हारे सामने था । मैं कभी कभी यहाँ आया करता था, पर तुमने मुझसे मिलने की आवश्यकता न समझी । यदि पहले ही दिन तुम मुझसे मिलते तो सहस्त्रो मनुष्यों का सर्वनाश करने के अपराध से बच जाते। निःसंदेह यह तुम्हारे पूर्व कर्मों का फल था, जिसने आज तुम्हारी रक्षा की । अगर यह पिशाचिनी एक बार तुमसे प्रेमालिंगन कर लेती तो फिर तुम उसी दम उसके अजायबखाने में भेज दिये जाते । वह जिस पर रीझती है, उसकी वही गत बनाती है । यही उसका प्रेम है । चलो जरा इस अजायबखाने की सैर करो तब तुम समझोगे कि आज तुम किस आफत से बचे । यह कह कर महात्मा जी ने दीवार में बटन दबाया । परंतु एक दर वाजा निकल आया । यह नीचे उतरने की सीढ़ी थी । महात्मा उसमें घुसे और मुझे भी बुलाया । घोर अंधकार में कई कदम उतरने के बाद एक बड़ा कमरा नजर आया । उसमें एक दीपक टिमटिमा रहा था । वहाँ मैंने जो घोर, वीभस्स और हृदय-विदारक दृश्य देखे, उनका स्मरण करके आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं । इटली के अमर कवि "डैन्टी" ने नर्क का जो दृश्य दिखाया है, उससे कहीं भयावह , रोमांचकारी तथा नारकीय दृश्य मेरी आँखों के सामने उपस्थित था । सैकड़ों विचित्र देह धारी नाना प्ररकार की अशुद्धताओं में लिपटे हुए, भूमि पर पड़े कराह रहे थे । उनके शरीर मनुष्य के से थे । लेकिन चेहरों का रूपांतर हो गया था । कोई कुत्ते से मिलता था, कोई गीदड़ से, कोई बनबिलाव से, कोई साँप से एक स्थान पर एक मोटा स्थूल मनुष्य एक दुर्बल, शक्तिहीन मनुष्य के गले में मुँह लगाये उसका रक्त चूस रहा था । एक ओर दो गिद्ध की सूरत वाले मनुष्य एक सड़ी हुई लाश पर बैठ उसका माँस नोच रहे थे । एक जगह एक अजगर की सूरत का मनुष्य एक बालक को निगलना चाहता था, पर बालक उसके गले में अटका हुआ था । दोनों ही जमीन पर पड़े छटपटा रहे थे । एक जगह मैंने एक अत्यंत पैशाचिक घटना देखी । दो नागिन की सूरत वाली स्त्रियाँ एक भेड़िये की सूरत वाले मनुष्य के गले में लिपटी हुई उसे काट रही थीं । वह मनुष्य घोर वेदना से चिल्ला रहा था । मुझसे अब और न देखा गया । तुरन्त वहाँ से भागा और गिरता-पड़ता अपने कमरे में आकर दम लिया । महात्माजी मेरे साथ चले आये । जब मेरा चित्त शांत हुआ तो उन्होंने कहा-इतनी जल्द घबरा गये, अभी तो इस रहस्य का एक भाग भी नहीं देखा । यह तुम्हारी स्वामिनी के विहार का स्थान है और यही उनके पालतु जीव हैं । इन जीवों के पिशाचाभिनय देखने में उनका विशेष मनोरंजन होता है । यह सभी मनुष्य किसी समय तुम्हारे ही समान प्रेम और प्रमोद के पात्र थे, पर उनकी यह दुर्गति हो रही है । अब तुम्हें मैं यही सलाह देता हूँ कि इसी दम यहाँ से भागो नहीं तो रमणी के दूसरे वार से कदापि न बचोगे । यह कहकर वह महात्मा अदृश्य हो गये । मैंने भी अपनी गठरी बाँधी और अर्धरात्रि के सन्नाटे में चोरों की भाँति कमरे से बाहर निकला । शीतल, आनन्दमय समीर चल रही थी, सामने के सागर में तारे छिटक रहे थे, मेंहदी की सुगंध उड़ रही थी । मैं चलने को तो चला, पर संसार-सुख भोग का ऐसा सुअवसर छोड़ते हुए दुःख होता था । इतना देखने और महात्मा के उपदेश सुनने पर भी चित्त उस रमणी की ओर खिंचता था । मैं कई बार चला, कई बार लौटा; पर अंत में आत्मा ने इंद्रियों पर विजय पायी । मैंने सीधा मार्ग छोड़ दिया और झील के किनारे किनारे गिरता-पड़ता, कीचड़ में फँसता सड़क तक आ पहुँचा । यहाँ आकर मुझे एक विचित्र उल्लास हुआ, मानो कोई चिड़िया बाज के चंगुल से छूट गयी हौ । यद्यपि मैं एक मास के बाद लौटा था, पर जो देखा तो अपनी चारपाई पर पड़ा हुआ था । कमरे में जरा भी गर्द या धूल न थी । मैंने लोगों से इस घटना की चर्चा की तो लोग खुद हँसे और मित्रगण तो अभी तक मुझे "प्राइवेट सेक्रेटरी कह कर बनाया करते हैं । सभी कहते हैं कि मैं एक मिनट के लिए भी कमरे से बाहर नहीं निकला, महीना भर की गायब रहने की बात ही क्या । इसलिए अब मुझे भी विवश हो कर यही कहना पड़ता है कि शायद मैंने कोई स्वप्न देखा हो । कुछ भी हो परमात्मा को कोटि-कोटि धन्यवाद देता हूँ कि मैं उस पापकुंड से बच कर निकल आया । वह चाहे स्वप्न ही हो, पर मैं उसे अपने जीवन का एक वास्तविक अनुभव समझता हूँ, क्योंकि उसने सदैव के लिए मेरी आँखें खोल दीं ।

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10 - पशु से मनुष्य

- लेखक - मुंशी प्रेमचंद

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दुर्गा माली डाक्टर मेहरा बार ऐटला के यहाँ नौकर था । पाँच रुपये मासिक वेतन पाता था । उसके घर में स्त्री और दो-तीन छोटे बच्चे थे । स्त्री पड़ोसियों के लिए गेहूँ पीसा करती थी । दो बच्चे , जो समझदार थे, इधर-उधर से लकड़ियाँ, उपले चुन लाते थे, किंतु इतना यत्न करने पर भी वे बहुत तकलीफ में रहते थे । दुर्गा, डाक्टर साहब की नजर बचा कर बगीचे से फूल चुन लेता और बाजार में पुजारियों के हाथ बेच दिया करता था । कभी कभी फलों पर भी हाथ साफ किया करता । यही उसकी ऊपरी आमदनी थी । इससे नोन-तेल आदि का काम चल जाता था । उसने कई बार डॊक्टर महोदय से वेतन बढ़ाने के लिए प्रार्थना की, परंतु डॊक्टर साहब नौकर की वेतन-वृद्धि को छूत की बीमारी समझते थे,जो एक से अनेकों को ग्रस लेती है । वे साफ कह दिया करते कि "भाई मैं बाँधे तो नहीं । तुम्हारा निर्वाह यहाँ नहीं होता; तो और कहीं चले जाओ, मेरे लिए मालियों का अकाल नहीं है ।"दुर्गा में इतना साहस न था कि वह लगी हुई रोजी छोड़ कर नौकरी ढूँढ़ने निकलता । इससे अधिक वेतन पाने की भी नहीं थी । इसलिए वह इसी निराशा में पड़ा हुआ जीवन के दिन काटता और अपने भाग्य को रोता था । डाक्टर महोदय को बागवानी से विशेष प्रेम था । नाना प्रकार के फूल-पत्ते लगा रखे थे । अच्छे-अच्छे फलों के पौधे दरभंगा, मलीहाबाद, सहारनपुर आदि स्थानों से मँगवा कर लगाये थे । वृक्षों को फलों से लदे हुए देख कर उन्हें हार्दिक आनन्द होता था । अपने मित्रों के यहाँ गुलदस्ते और शाक-भाजी की डालियाँ तोहफे के तौर पर भिजवाये रहते थे उन्हें फलों को आप खाने का शौक न था पर मित्रों को खिलाने में उन्हें असीम आनंद प्राप्त होता था । प्रत्येक फल के मौसिम में मित्रों की दावत करते, और 'पिकनिक- पार्टियों ' उनके मनोरंजन का प्रधान अंग थीं । एक बार गर्मियों में उन्होंने अपने कई मित्रों को आम खाने की दावत दी । मलीहाबादी में सुफेदे के फल खूब लगे हुए थे । डाक्टर साहब इन फलों को प्रतिदिन देखा करते थे । ये पहले ही फले थे, इसलिए वे मित्रों से उनके मिठास और स्वाद का बखान सुनना चाहते थे । इस विचार से उन्हें वही आमोद था , जो किसी पहलवान को अपने पट्ठों के करतब दिखाने से होता है । इतने बड़े सुंदर और सुकोमल सुफेदे स्वयं उनकी निगाह से न गुजरे थे । इन फलों के स्वाद का उन्हें इतना विश्वास था कि वे एक फल चख कर उनकी परीक्षा करना आवश्यक न समझते थे, प्रधानतः इसलिये कि एक फल की कमी एक मित्र को रसास्वादन से वंचित कर देगी । संध्या का समय था, चैत का महीना । मित्रगण आ कर बगीचे में हौज के किनारे कुरसियों पर बैठे थे । बर्फ और दूध का प्रबन्ध पहले ही से कर लिया गया था, पर अभी तक फल न तोड़े गये थे । डॊक्टर साहब पहले फलों को पेड़ में लगे हुए दिखला कर तब उन्हें तोड़ना चाहते थे, जिसमें किसी को यह संदेह न हो कि फल इनके बाग के नहीं हैं । जब सब सज्जन जमा हो गये तब उन्होंने कहा- आप लोगों को कष्ट होगा, पर जरा चल कर फलों को पेड़ में लटकते हुए देखिए । बड़ा ही मनोहर दृश्य है । गुलाब में भी ऐसी लोचन- प्रिय लाली न होगी । रंग से स्वाद टपक पड़ता है । मैंने इसकी कलम खास मलीहाबाद से मँगवायी थी और उसका विशेष रीति से पालन किया है । मित्रगण उठे । डाक्टर साहब आगे-आगे चले - रविशों के दोनों और गुलाब की क्यारियाँ थीं । उनकी छटा दिखाते हुए वे अंत में सुफेदे के पेड़ के सामने आ गये । मगर, आश्चर्य ! वहाँ एक भी फल न था । डॊक्टर साहब ने समझा, शायद वह यह पेड़ नहीं है । दो पग और आगे चलें, दूसरा पेड़ मिल गया । और आगे बढ़े तीसरा पेड़ मिला । फिर पीछे लौटे और एक विस्मित दशा में सुफेदे के वृक्ष के नीचे आ कर रुक गये । इसमें सन्देह नहीं कि वृक्ष यही है, पर फल क्या हुए ? बीस-पचीस आम थे, एक का भी पता नहीं ! मित्रों की ओर अपराध-पूर्ण नेत्रों से देखकर बोले - आश्चर्य है कि इस पेड़ में एक भी फल नहीं है । आज सुबह मैंने देखा था, पेड़ फलों से लदा हुआ था । यह देखिए, फलों का डंठल है । यह अवश्य माली की शरारत है । मैं आज उसकी हड्डियाँ तोड़ दूँगा । उस पाजी ने मुझे कितना धोखा दिया । मैं बहुत लज्जित हूँ कि आप लोगों को व्यर्थ कष्ट हुआ । मैं सत्य कहता हूँ, इस समय कितना दुःख है, उसे प्रकट नहीं कर सकता । ऐसे रँगीले, कोमल, कमनीय फल मैंने अपने जीवन में कभी न देखे थे, उनके यों लुप्त हो जाने से मेरे हृदय के टुकड़े हुए जाते हैं । यह कहकर वे नैराश्य-वेदना से कुरसी पर बैठ गये । मित्रों ने सांत्वना देते हुए कहा - नौकरों का सब जगह यही हाल है । यह जाति ही पाजी होती है । आप हम लोगों के कष्ट का खेद न करें यह सुफेदे न सही दूसरे फल सही । एक सज्जन ने कहा - साहब, मुझे सब आम एक ही से मालूम होते हैं । सुफेदे, मोहनभोग, लँगड़े, बम्बई, फजली, दशहरी इनमें कोई भेद ही नहीं मालूम होता, न जाने आप लोगों को कैसे उनके स्वाद में फर्क मालूम होता है । दूसरे सज्जन बोले - यहाँ भौ वही हाल है । इस समय जो फल मिले, वही मँगवाइए । जो गये उनका अफसोस क्या ? डॊक्टर साहब ने व्यथित भाव से कहा-आमों की क्या कमी है, सारा बाग भरा पड़ा है, खूब शौक से खाइए और बाँध कर घर ले जाइए । वे हैं और किसलिए ? पर वह रस और स्वाद कहाँ ? आपको विश्वास न होगा, उन सुफेदों पर ऐसा निखार था कि सेव मालूम होते थे । सेव भी देखने में ही सुंदर होता है, उसमें वह रुचि-वर्द्धक लालित्य, वह सुधामय मृदुता कहाँ ! इस माली ने आज वह अनर्थ किया है कि जी चाहता है, नमकहराम को गोली मार दूँ । इस वक्त सामने आ जाय तो अधमुआ कर दूँ । माली बाजार गया हुआ था । डॊक्टर साहब ने साईस से कुछ आम तुड़वाये, मित्रों ने आम खाये, दूध पिया और डॊक्टर साहब को धन्यवाद दे कर अपने अपने घर की राह ली । लेकिन मिस्टर मेहरा वहाँ हौज के किनारे हाथ में हंटर लिए माली की बाट जोहते रहे । आकृति से जान पड़ता था मानों साक्षात क्रोध मूर्तिमान हो गया था ।

(2)

कुछ रात गये दुर्गा बाजार से लौटा । वह चौकन्नी आँखों से इधर-उधर कुछ देख रहा था । ज्यों ही उसने डॊक्टर साहब को हौज के किनारे हाथ में हंटर लिए बैठे देखा, उसके होश उड़ गये । समझ गया कि चोरी पकड़ ली गयी । इसी भय से उसने बाजार में खूब देर की थी । उसने समझा था, डॊक्टर साहब कहीं सैर करने गये होंगे, मैं चुपके कटहल के नीचे अपनी झोपड़ी में जा बैठूँगा, सबेरे कुछ पूछताछ भी हुई तो मुझे सफाई देने का अवसर मिल जायगा । कह दूँगा सरकार, मेरे झोंपड़े की तलाशी ले लें, इस प्रकार मामला दब जायगा । समय सफल चोर का सबसे बड़ा मित्र है । एक एक क्षण उसे निर्दोष सिद्ध करता जाता है । किंतु जब वह रँगे हाथों पकड़ा जाता है तब उसे बच निकलने की कोई राह नहीं रहती । रुधिर के सूखे हुए धब्बे रंग के दाग बन सकते हैं, पर ताजा लहू आप ही आप पुकारता है दुर्गा के पैर थम गये, छाती धड़कने लगी । डॊक्टर साहब की निगाह उस पर पड़ गयी थी । अब उल्टे पाँव लौटना व्यर्थ था । डॊक्टर साहब उसे दूर से देखते ही उठे कि चल कर उसकी खूब मरम्मत करूँ । लेकिन वकील थे, विचार किया कि इसका बयान लेना आवश्यक है । इशारे से निकट बुलाया और पूछा - सुफेदे के पेड़ में कई आम लगे हुए थे । एक भी दिखाई नहीं देता । क्या हो गये । दुर्गा ने निर्दोष भाव से उत्तर दिया - हुजूर, अभी मैं बाजार गया हूँ तब तक तो सब आम लगे हुए थे । इतनी देर में कोई तोड़ ले गया हो तो मैं नहीं कह सकता । डॊक्टर - तुम्हारा किस पर संदेह है ? दुर्गा - सरकार, अब मैं किसे बताऊँ ! इतने नौकर-चाकर हैं, न जाने उसकी नीयत बिगड़ी हो । डॊक्टर - मेरा संदेह तुम्हारे ऊपर है, अगर तोड़ कर रखे हो तो ला कर दो या साफ-साफ कह दो कि मैंने तोड़े हैं, नहीं तो बुरी तरह पेश आऊँगा । चोर केवल दंड से ही नहीं बचना चाहता, वह अपमान से भी बचना चाहता है । वह दंड से उतना नहीं डरता जितना अपमान से । जब उसे सजा से बचने की कोई आशा नहीं रहती, उस समय भी वह अपने अपराध को स्वीकार नहीं करता । वह अपराधी बन कर छूट जाने से निर्दोष बन कर दंड भोगना बेहतर समझता है । दुर्गा इस समय अपराध स्वीकार करके सजा से बच सकता था, पर उसने कहा - हुजूर मालिक हैं, जो चाहें करें, पर मैंने आम नहीं तोड़े । सरकार बतायें; इतने दिन मुझे आपकी ताबेदारी करते हो गये, मैंने एक पत्ती भी छुई है । डॊक्टर - तुम कसम खा सकते हो ? दुर्गा - गंगा की कसम जो मैंने आमों को हाथ से छुआ भी हो । डॊक्टर - मुझे इस कसम पर विश्वास नहीं है । तुम पहले लौटे में पानी लाओ, उसमें तुलसी की पत्तियाँ डालो, तब कसम खा कर कहो कि अगर मैंने तोड़े हों तो मेरा लड़का मेरे काम न आये । तब मुझे विश्वास आवेगा । दुर्गा - हुजूर, साँच को आँच क्या, जो कसम कहिए खाऊँगा । जब मैंने काम ही नहीं किया तो मुझ पर कसम क्या पड़ेगी । डॊक्टर - अच्छा; बातें न बनाओ, जाकर पानी लाओ । डॊक्टर महोदय मानव चरित्र के ज्ञाता थे । सदैव-अपराधियों से व्यवहार रहता था । यद्यपि दुर्गा जबान से हेकड़ी की बातें कर रहा था, पर उसके हृदय में भय समाया हुआ था । वह अपने झोपड़े में आया, लेकिन लोटे में पानी लेकर जाने की हिम्मत न हुई । उसके हाथ थरथराने लगे । ऐसी घटनाएँ याद आ गयीं जिनमे गंगा उठानेवाले पर देवी कोप का प्रहार हुआ था । ईश्वर सर्वज्ञ होने का ऐसा मर्मस्पर्शी विश्वास उसे कभी नहीं हुआ था । उसने निश्चय किया 'मैं झूठी गंगा न उठाऊँगा, यही न होगा, निकाल दिया जाऊँगा । नौकरी फिर कहीं न कहीं मिल जायगी और नौकरी भी न मिले तो मजूरी तो कहीं नहीं गई । कुदाल भी चलाऊँगा तो साँझ तक आध सेर आटे का ठिकाना हो जायगा ।' वह धीरे धीरे खाली हाथ डॊक्टर साहब के सामने आकर खड़ा हो गया डॊक्टर साहब ने कड़े स्वर से पूछा पानी लाया ? दुर्गा - हुजूर मैं गंगा न उठाऊँगा । डॊक्टर - तो तुम्हारा आम तोड़ना साबित है ! दुर्गा - अब सरकार जो चाहें समझें । मान लीजिए, मैंने ही आम तोड़े तो आप का गुलाम ही तो हूँ । रात-दिन ताबेदारी करता हूँ, बाल-बच्चे आमों के लिए रोवें तो कहाँ जाऊँ अबकी जान बकसी जाय, फिर ऐसा कसूर न होगा । डॊ क्टर इतने उदार न थे । उन्होंने यही बड़ा उपकार किया दुर्गा को पुलिस के हवाले न किया और हंटर ही लगाये । उसकी इस धार्मिक श्रद्धा ने उन्हें कुछ नर्म कर दिया था । मगर ऐसे दुर्बल हृदय को अपने यहाँ एक पल भी रखना असम्भव था । उन्होंने उसी क्षण दुर्गा को जवाब दे दिया और उसकी आधे महीने की बाकी मजूरी जप्त कर ली ।

(3)

कई मास के पश्चात् एक दिन डॊक्टर मेहरा बाबू प्रेमशंकर के बाग की सैर करने गये । वहाँ से कुछ अच्छी-अच्छी कलमें लाना चाहते थे । प्रेम शंकर को भी बागवानी से प्रेम था और दोनों मनुष्यों में यही समानता थी, अन्य सभी विषयों में एक दूसरे से भिन्न थे । प्रेमशंकर बड़े संतोषी, सरल, सहृदय मनुष्य थे । वे कई साल अमेरिका रह चुके थे वहाँ उन्होंने कृषि-विज्ञान का खूब अध्ययन किया था और यहाँ आ कर इस वृत्ति को अपनी जीविका का आधार बना लिया था । मानव-चरित्र और वर्त्तमान सामाजिक संगठन के विषय में उनके विचार विचित्र थे । इसीलिए शहर के सभ्य समाज में लोग उनकी उपेक्षा करते थे और उन्हें झक्की समझते थे । इसमे संदेह नहीं कि उनके क्रियात्मक होने के विषय में उन्हें बड़ी शंका थी । संसार कर्मक्षेत्र है, मीमांसा क्षेत्र नहीं । यहाँ सिद्धांत सिद्धांत ही रहेंगे, उनका प्रत्यक्ष घटनाओं से सम्बन्ध नहीं । डॊक्टर साहब बगीचे में पहुँचे तो उन्होंने प्रेमशंकर को क्यारियों में पानी देते हुए पाया । कुएँ पर एक मनुष्य खड़ा पम्प से पानी निकाल रहा था । मेहरा ने उसे तुरंत पहचान लिया । वह दुर्गा माली था । डॊक्टर साहब के मन में उस समय दुर्गा के प्रति एक विचित्र ईर्ष्या का भाव उत्पन्न हुआ । जिस नराधम को उन्होंने दंड देकर अपने यहाँ से अलग कर दिया था, उसे नौकरी क्यों मिल गई ? यदि दुर्गा इस वक्त फटेहाल रोनी सूरत बनाये दिखायी देता तो डॊक्टर साहब को उस पर दया आ जाती । वे सम्भवतः उसे कुछ इनाम देते और प्रेम-शंकर से उसकी प्रशंसा भी कर देते । उनकी प्रकृति में दया थी और अपने नौकरों पर उनकी कृपादृष्टि रहती थी । परंतु उनकी इस कृपा और दया में लेशमात्र भी भेद न था, जो अपने कुत्तों और घोड़ों से थी । ईश कृपा का आधार न्याय नहीं, दीन-पालन है । दुर्गा ने उन्हें देखा, कुएँ पर खड़े-खड़े सलाम किया और फिर अपने काम में लग गया । उसका यह अभिमान डॊक्टर साहब के हृदय में भाले कि भाँति चुभ गया । उसका उन्हें यह विचार कर अत्यंत क्रोध आया कि मेरे यहाँ से निकलना इसके लिए हितकर हो गया उन्हें अपनी सहृदयता पर जो घमंड था, उसे बड़ा आघात लगा । प्रेमशंकर ज्यों ही उनसे हाथ मिला उन्हें क्यारियों की सैर कराने लगे, त्योंही डॊक्टर साहब ने उनसे पूछा यह आदमी आपके यहाँ कितने दिनों से है ? प्रेम शंकर - यही 6 या 7 महीने होंगे । डाक्टर कुछ नोच-खसोट तो नहीं करता ? यह मेरे यहाँ माली था । इसके हथलपकेपन से तंग आकर मैंने इसे निकाल दिया था । कभी फूल तोड़ कर बेच लाता, कभी पौधे उखाड़ ले जाता, और फलों का कहना ही क्या ? वे इसके मारे बचते ही न थे । एक बार मैंने मित्रों को दावत की थी । मलीहाबादी सुफेदे में खूब फल लगे हुए थे । जब सब आकर बैठ गये और मैं उन्हें फल ,दिखाने के लिए ले गया तो सारे फल गायब ! कुछ न पूछिये, उस घड़ी कितनी भद्द हुई ! मैंने उसी क्षण इन महाशय को दुतकार बतायी । बड़ा ही दगाबाज आदमी है, और ऐसा चतुर है कि इसको पकड़ना मुश्किल है । कोई वकीलों ही जैसा काइयाँ आदमी हो तो इसे पकड़ सकता है । ऐसी सफाई और ढिठाई से ढुलकता है कि इसका मुँह देखते रह जाइए । आपको भी तो कभी चरका नहीं दिया ? प्रेमशंकर - जी नहीं । मुझे इसने शिकायत का कोई अवसर नहीं दिया । यहाँ तो खूब मेहनत करता है, यहाँ तक कि दोपहर की छुट्टी में भी आराम नहीं करता । मुझे तो इस पर इतना भरोसा हो गया कि सारा बगीचा इस पर छोड़ रखा है । दिन भर में जो आमदनी होती है, वह शाम को मुझे दे देता है और कभी एक पाई का भी अंतर नहीं पड़ता । डॊक्टर यही तो इसका कौशल है कि आपको उलटे छुरे मूँडे और आपको खबर भी नहीं ! आप इसे वेतन क्या देते हैं ? प्रेमशंकर - यहाँ किसी को वेतन नहीं दिया जाता । सब लोग लाभ में बराबर के साझेदार हैं । महीने भर में आवश्यक व्यय के पश्चात् जो कुछ बचत है, उनमें से 10 रु0 प्रति सैकड़ा धर्मखाते में डाल दिया जाता है, शेष रुपये समान भागों में बाँट दिये जाते हैं । पिछले महीने में 140 रु0 की आमदनी हुई थी । मुझे मिला कर यहाँ सात आदमी हैं । 20 रु0 हिस्से पड़े । अबकी नारंगियाँ खूब हुई हैं, मटर की फलियों, गन्ने, गोभी आदि से अच्छी आमदनी हो रही है 40 रु0 से कम न पड़ेगे । डॊक्टर मेहरा ने आश्चर्य से पूछा - इतने में आपका काम चल जाता है ? प्रेमशंकर - जी हाँ,बड़ी सुगमता से । मैं इन्हीं आदमियों के-से कपड़े पहनता हूँ, इन्हीं का-सा खाना खाता हूँ और मुझे कोई दूसरा व्यसन नहीं है । यहाँ 20 रु0 मासिक उन औषधियों का खर्च है, जो गरीबों को दी जाती है । ये रुपये संयुक्त आय से अलग कर लिये जाते हैं, किसी को कोई आपत्ति नहीं होती यह सायकिल जो आप देखते हैं संयुक्त आय से ही ली गयी है । जिसे जरूरत होती है । इस पर सवार होता है । मुझे ये सब अधिक कार्य कुशल समझते हैं और मुझ पर पूरा विश्वास रखते हैं । बस मैं इनका मुखिया हूँ । जो कुछ सलाह देता हूँ,उसे सब मानते हैं । कोई भी यह नहीं समझता कि मैं किसी का नौकर हूँ । सब के सब अपने को साझेदार समझते हैं और जी तोड़ कर मेहनत करते हैं । जहाँ कोई मालिक होता है और दूसरा उनका नौकर तो उन दोनों में तुरंत द्वेष पैदा हो जाता है । मालिक चाहता है कि इससे जितना काम लेते बने, लेना चाहिये । नौकर चाहता है कि मैं कम से कम काम करूँ उसमें स्नेह या सहानुभूति का नाम तक नहीं होता । दोनों यथार्थ में एक दूसरे के शत्रु होते हैं । इस प्रतिद्वंद्विता का दुष्परिणाम हम और आप देख ही रहे हैं । मोटे और पतले आदमियों के पृथक-पृथक दल बन गए हैं और उनमें घोर संग्राम हो रहा है । काल-चिह्नों से ज्ञात होता है कि यह प्रतिद्वंद्विता अब कुछ ही दिनों की मेहमान है । इसकी जगह अब सहकारिता का आगमन होने वाला है । मैंने अन्य देशों में इस घातक संग्राम के दृश्य देखे हैं और मुझे घृणा हो गयी है । सहकारिता ही हमें इस संकट से मुक्त कर सकती है । डॊक्टर - तो यह कहिए कि आप `सोशलिस्ट' हैं ' प्रेमशंकर - जी नहीं, में 'सोशलिस्ट' या `डिमाक्रेट' कुछ नहीं हूँ । मैं केवल न्याय और धर्म का दीन सेवक हूँ । मैं निःस्वार्थ सेवा को विद्या से श्रेष्ठ समझता हूँ । मैं अपनी आत्मिक और मानसिक-शक्तियों की, बुद्धि सामर्थ्य को, धन और वैभव का गुलाम नहीं बनाना चाहता । मुझे वर्तमान शिक्षा और सभ्यता पर विश्वास नहीं । विद्या का धर्म है - आत्मिक उन्नति का फल, उदारता, त्याग, सदिच्छा, सहानुभुति, न्यायपरता और दयाशीलता । जो शिक्षा हमें निर्बलों को सताने के लिए तैयार करे, जो हमें धरती और धन का गुलाम बनाये, जो हमें दूसरों का रक्त पीकर मोटा होने का इच्छुक बनाये, वह शिक्षा नहीं है, अगर मूर्ख, लोभ और मोह के पँजे में फँस जायँ तो वे क्षम्य हैं, परंतु विद्या और सभ्यता के उपासकों की स्वार्थान्धता अत्यंत लज्जाजनक हैं ।हमने विद्या और बुद्धि-बल की विभूति शिखर पर चढ़ने का मार्ग बना लिया । वास्तव में वह सेवा और प्रेम का साधन था । कितनी विचित्र दशा है कि जो जितना ही बड़ा विद्वान है, वह उतना ही बड़ा स्वार्थ सेवी है । बस हमारी सारी विद्या और बुद्धि, हमारा सारा उत्साह और अनुराग, धन-लिप्सा में ग्रसित है । हमारे प्रोफेसर साहब एक हजार से कम वेतन पायें तो उसका मुँह ही नहीं सीधा होता । हमारे दीवान और माल के अधिकारी लोग दो हजार मासिक पाने पर भी अपने भाग्य को रोया करते हैं । हमारे डॊक्टर साहब चाहते हैं कि मरीज मरे या जिये, मेरी फीस में बाधा न पड़े और हमारे वकील साहब (क्षमा कीजियेगा) ईश्वर से मनाया करते हैं कि ईर्ष्या और द्वेष का प्रकोप हो और सोने की दीवार खड़ी कर लूँ। `समय धन है' इसी वाक्य में हम ईश्वर-वाक्य समझ रहे हैं । इन महान् पुरुषों में से प्रत्येक सैकड़ों नहीं हजारों-लाखों की जीविका हड़प जाते हैं और फिर भी उन्हें जाति का भक्त बनने का दावा है । वह अपने स्वजाति-प्रेम का डंका बजाता फिरता है । पैदा दूसरे करें, पसीना दूसरे बहायें, खाना और मोछों पर ताव देना इनका काम है । मैं समस्त शिक्षित समुदाय को केवल निकम्मा ही नहीं, वरन् अनर्थकारी भी समझता हूँ । डॊक्टर साहब ने बहुत धैर्य से काम ले कर पूछा - तो क्या आप चाहते हैं कि हम सब के सब मजूरी करें ? प्रेमशंकर - जी नहीं, हालाँकि ऐसा हो तो मनुष्य -जाति का बहुत उपकार हों, मुझे जो आपत्ति है, यह केवल दशाओं में इस अन्याय-पूर्ण समता से है । यदि एक मजूर 5 रु0 में अपना निर्वाह कर सकता है तो एक मानसिक काम करने वाले प्राणी के लिए इससे दुगुनी -तिगुनी आय काफी होनी चाहिये । और वह अधिकता इसलिए कि उसे कुछ उत्तम भोजन वस्त्र तथा सुख की आवश्यकता होती है । मगर पाँच और पाँच हजार, पचास और पचास हजार का अस्वाभाविक अंतर क्यों हो ? इतना ही नहीं, हमारा समाज पाँच और पाँच लाख के अंतर का भी तिरस्कार नहीं करता; वरन् और भी प्रशंसा करता है । शासन प्रबंध, वकालत, चिकित्सा, चित्र-रचना, शिक्षा, दलाली, व्यापार, संगीत और इसी प्रकार की सैकड़ों अन्य कलाएँ शिक्षित समुदाय की जीवन-वृत्ति भी हुई हैं । पर इनमें से एक भी धनोपार्जन नहीं करतीं । इनका आधार दूसरों की कमाई पर है । मेरी समझ में नहीं आता कि वह उद्योग-धंधे जो जीवन की सामग्रियाँ पैदा करते हैं, जिन पर जीवन का अवलम्बन है, क्यों उन पेशों से नीचे समझें जायँ, जिनका काम केवल मनोरंजन या अधिक से अधिक धनोपार्जन में सहायता करना है । आज सारे वकीलों को देश निकाला हो जाय, सारे अधिकारी वर्ग लुप्त हो जायँ और सारे दलाल स्वर्ग को सिधारे तब भी संसार का काम चलता रहेगा, बल्कि और भी सरलता से । किसान भूमि जोतेंगे, जुलाहे कपड़े बुनेंगे, बढ़ई लोहार, राज, चर्मकार सब के सब पूर्ववत् अपना-अपना काम करते रहेंगे । उनकी पंचायतें उनके झगड़ों का निबटारा करेंगी ।लेकिन यदि किसान न हों तो सारा संसार क्षुधा पीड़ा से व्याकुल हो जाय । परन्तु किसान के लिए 5 रु0 बहुत समझा जाता है और वकील साहब या डॊक्टर साहब को पाँच हजार भी काफी नहीं । डॊक्टर - आप अर्थ-शास्त्र के उस महत्वपूर्ण सिद्धान्त को भूले जाते हैं जिसे श्रम- विभाजन कहते हैं । प्रकृति ने प्राणियों को भिन्न-भिन्न शक्तियाँ प्रदान की हैं और उनके विकास के लिए भिन्न-भिन्न दशाओं की आवश्यकता है । प्रेमशंकर - मैं यह कब कहता हूँ कि प्रत्येक मनुष्य मजूरी करने पर मजबूर किया जाय ! नहीं जिसे परमात्मा ने विचार की शक्ति दी है, वह शास्त्रों की विवेचना करे । जो भावुक हो वह काव्य की रचना करे । जो अन्याय से घृणा करता हो, वह वकालत करे । मेरा कथन केवल यह है कि विभिन्न कार्यों की हैसियत में इतना अंतर न रहना चाहिए । मानसिक और औद्योगिक कामों मेंइतना फर्क न्याय के विरुद्ध है । यह प्रकृति के नियमों के प्रतिकूल ज्ञात होता है कि आवश्यक और अनिवार्य कार्यों की प्रधानता हो । कतिपय सज्जनों का मत है कि इस साम्य से गुणी लोगों का अनादर होगा और संसार को उनके सद्विचारों और सद्कार्यों से लाभ न पहुँच सकेगा । किंतु वे भूल जाते हैं कि संसार के बड़े से बड़े पंडित, बड़े से बड़े कवि, बड़े से बड़े आविष्कारक, बड़े से बड़े शिक्षक धन और प्रभुता के लोभ से मुक्त थे । हमारे अस्वाभाविक जीवन का एक कुपरिणाम यह भी है कि हम बलात् कवि और शिक्षक बन जाते हैं । संसार में आज अगणित लेखक और कवि, वकील और शिक्षक उपस्थित हैं । वे सब के सब पृथ्वी पर भार-रूप हो रहे हैं । जब उन्हें मालूम होगा कि इन `दिव्य कलाओं में कुछ लाभ नहीं है तो वही लोग कवि होंगे, जिन्हें संक्षेप में कहना यही है कि धन की प्रधानता ने हमारे समस्त समाज को उलट -पलट दिया है । डॊक्टर मेहरा अधीर हो गये; बोले -महाशय, समाज-संगठन का यह रूप देव-लोक के लिए चाहे उपयुक्त हो, पर भौतिक संसार के लिए और इस भौतिक काल में वह कदापि उपयोगी नहीं हो सकता । प्रेमशंकर - केवल इसी कारण से अभी तक धनवानों का, जमींदारों का और शिक्षित समुदाय का प्रभुत्व जमा हुआ है । पर इसके पहले भी, कई बार इस प्रभुत्व को धक्का लग चुका है । और चिन्हों से ज्ञात होता है कि निकट भविष्य में फिर इसकी पराजय होने वाली है । कदाचित यह हार निर्णयात्मक होगी । समाज का चक्र साम्य से आरम्भ होकर फिर साम्य पर ही समाप्त होता है । एकाधिपत्य, रईसों का प्रभुत्व और वाणिज्य-प्राबल्य, उसकी मध्यवर्ती दशाएँ हैं । वर्तमान चक्र ने मध्यवर्ती दशाओं को भोग लिया है और वह अपने अंतिम स्थान के निकट आता-जाता है । किंतु हमारी आँखें अधिकार और प्रभुता के मद में ऐसी भरी हुई हैं कि हमें आगे-पीछे कुछ नहीं सूझता । चारों ओर से जनतावाद का घोर नाद हमारे कानों में आ रहा है, पर हम ऐसे निश्चिंत है मानों वह साधारण मेघ की गरज है । हम अभी तक उन्ही विद्याओं और कलाओं में लीन हैं जिनका आश्रय दूसरों की मेहनत है । हमारे विद्यालयों की संख्या बढ़ती जाती है, हमारे वकील खाने में पाँव रखने की जगह बाकी नहीं, गली-गली फोटो स्टुडियो खुल रहे हैं, डाक्टरों की संख्या मरीजों से भी अधिक हो गयी है पर अब भी हमारी आँखे नहीं खुलती । हम इस अस्वाभाविक जीवन, इस सभ्यता के तिलिस्म से बाहर निकलने की चेष्टा नहीं करते । हम शहरों में कारखाने खोलते फिरते हैं, इसलिए कि मजदूरों की मेहनत से मोटे हो जायँ । 30 रु0 और 40 रु0 सैकड़े लाभ की कल्पना करके फूले नहीं समाते , पर ऐसा कहीं देखने में नहीं आता कि किसी शिक्षित सज्जन ने कपड़ा बुनना या जमीन जोतना शुरु किया हो । यदि कोई दुर्भाग्य वश ऐसा करे भी तो उसकी हँसी उड़ायी जाती । हम उसी को मान-प्रतिष्ठा के योग्य समझते हैं जो तकिया-गद्दी लगाये बैठा रहे, हाथ-पैर न हिलाये और लेनदेन पर सूद बट्टे पर लाखों के वारे-न्यारे करता हो..... यही बातें हो रही थीं कि दुर्गा माली एक डाली में नारंगियाँ, गोभी के फूल, अमरूद, मटर की फलियाँ आदि सजा कर लाया और उसे डॊक्टर साहब के सामने रख दिया । उसके चेहरे पर एक प्रकार का गर्व था । मानो उसकी आत्मा जागरित हो गई है । वह डॊक्टर साहब के सामने एक मोटे मोढ़े पर बैठ गया और बोला-हुजूर को कैसी कलमें चाहिए? आप बाबू जी को एक चिट पर उनके नाम लिखकर दे दीजिए । मैं कल आपके मकान पहुँचा दूँगा । आपके बाल बच्चे तो अच्छी तरह हैं ? डॊक्टर साहब ने कुछ सकुचा कर कहा - हाँ, लड़के अच्छी तरह हैं, तुम यहाँ अच्छी तरह हो ? दुर्गा - जी हाँ, आपकी दया से बहुत आराम से हूँ । डॊक्टर साहब मोटर पर बैठे तो मुस्करा कर प्रेमशंकर से बोले - मैं आपके सिद्धान्तो का कायल नहीं हुआ, पर इसमें संदेह नहीं कि आपने एक पशु को मनुष्य बना दिया । यह आपके सत्संग का फल है । लेकिन क्षमा कीजिएगा, मैं फिर भी कहूँगा कि आप इससे होशियार रहियेगा । `यूजेनिक्स' (सुप्रजनन-शास्त्र) अभी तक किसी ऐसे प्रयोग का आविष्कार नहीं कर सका है, जो जन्म के संस्कारों को मिटा दे !

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11 - मूठ

- लेखक - मुंशी प्रेमचंद

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डॊक्टर जयपाल ने प्रथम श्रेणी की सनद पायी थी, पर इसे भाग्य कहिए या व्यावसायिक सिद्धांतों का अज्ञान कि उन्हें अपने व्यवसाय में कभी उन्नत अवस्था न मिली । उनका घर सँकरी गली में था; पर उनके जी में खुली जगह में घर लेने का कभी विचार तक न उठा औषधालय की आलमारियाँ,शीशियाँ और डॊक्टरी यंत्र आदि भी साफ-सुथरे न थे । मितव्ययिता के सिद्धांत का वह अपनी घरेलू बातों में भी बहुत ध्यान रखते थे । लड़का जवान हो गया था, पर अभी उसकी शिक्षा का प्रश्न सामने न आया था । सोचते थे कि इतने दिनों तक पुस्तकों से सर मार कर मैंने ऐसी कौन सी बड़ी सम्पत्ति पा ली, जो उसके पढ़ाने-लिखाने में हजारों रुपये बर्बाद करूँ उनकी पत्नी अहिल्या धैर्यवान महिला थी, पर डॊक्टर साहब ने उसके इन गुणों पर इतना बोझ रख दिया था कि उसकी कमर भी झुक गई थी । माँ भी जीवित थी, पर गंगास्नान के लिए तरस-तरस कर रह जाती थी ; दूसरे पवित्र स्थानों की चर्चा ही क्या ! इस क्रूर मितव्ययिता का परिणाम यह था कि इस घर में सुख और शांति का नाम न था । अगर कोई मद फुटकल थी तो यह बुढ़िया महरी जगिया थी । उसने डॊक्टर साहब को गोद में खिलाया था और उसे इस घर से ऐसा प्रेम हो गया था कि सब प्रकार की कठिनाइयाँ झेलती थी, पर टलने का नाम न लेती थी ।

(2)

डॊक्टर साहब डॊक्टरी आय की कमी की कपड़े और शक्कर के कारखानों में हिस्से ले कर पूरा करते थे । आज संयोगवश बम्बई के कारखाने ने इनके पास वार्षिक लाभ के साढ़े सात सौ रूपये भेजे । डॊक्टर साहब ने बीमा खोला, नोट गिने, डाकिये को बिदा किया, पर डाकिये के पास रुपये अधिक थे, बोझ से दबा जाता था । बोला - हुजूर रुपये ले लें और मुझे नोट दे दें तो बड़ा एहसान हो, बोझ हलका हो जाय । डाक्टर साहब डाकियों को प्रसन्न रखा करते थे, उन्हें मुफ्त दवाइयाँ दिया करते थे । सोचा कि हाँ, मुझे बैंक जाने के लिए ताँगा मँगाना ही पड़ेगा, क्यों न बिन कौड़ी के उपकार वाले सिद्धान्त से काम लूं । रुपये गिन कर एक थैली में रख दिये और सोच ही रहे थे कि चलूँ इन्हें बैंक में रखता आऊँ कि एक रोगी ने बुला भेजा । ऐसे अवसर यहाँ कदा चित ही आते थे । यद्यपि डॊक्टर साहब को बक्स पर भरोसा न था, पर विवश हो कर थैली बक्स में रखी और रोगी को देखने चले गये । वहाँ से लौटे तो तीन बज चुके थे, बैंक बंद हो चुका था । आज रूपये किसी तरह जमा न हो सकते थे । प्रतिदिन की भाँति औषधालय में बैठ गये । आठ बजे रात को जब घर के भीतर जाने लगे, तो थैली को घर ले जाने के लिए बक्स से निकाला, थैली कुछ हलकी जान पड़ी, तत्काल उसे दवाइयों के तराजू पर तौला, होश उड़ गये । पूरे पाँच सौ रुपये कम थे । विश्वास न हुआ । थैली खोल कर रुपये गिने । पाँच सौ रुपये कम निकले । विक्षिप्त अधीरता के साथ बक्स के दूसरे खानों को टटोला परंतु व्यर्थ ! निराश होकर एक कुरसी पर बैठ गये और स्मरण-शक्ति को एकत्र करने के लिए आँखें बन्द कर दी और सोचने लगे, मैंने रुपये कहीं अलग तो नहीं रखे, डाकिये ने रुपये कम तो नहीं दिये, मैंने गिनने में भूल तो नहीं की, मैंने पचीस पचीस रुपये कि गड्डियाँ लगायी थीं, पूरी तीस गड्डियाँ थीं, खूब याद है । मैंने एक-एक गड्डी गिन कर थैली में रखी, स्मरण-शक्ति मुझे धोखा नहीं दे रही है । सब मुझे ठीक-ठीक याद है । बक्स का ताला भी बंद कर दिया था, किंतु ओह, अब समझ में आ गया, कुँजी मेज पर ही छोड़ दी, जल्दी के मारे उसे जेब में रखना भूल गया, वह अभी तक मेज पर पड़ी है । बस यही बात है, कुंजी जेब में डालने की याद नहीं रही, परंतु ले कौन गया, बाहर दरवाजे बंद थे । घर में धरे रुपये-पैसे कोई छूता नहीं, आज तक कभी ऐसा अवसर नहीं आया । अवश्य यह किसी बाहरी आदमी का काम है । हो सकता है कोई दरवाजा खुला रह गया हो, कोई दवा लेने आया हो ,कुंजी मेज पर पड़ी देखी हो और बक्स खोल कर रुपये निकाल लिये हो । इसी से मैं रुपये नहीं लिया करता, कौन ठिकाना डाकिये की ही करतूत हो, बहुत सम्भव है, उसने मुझे बक्स में थैली रखते देखा था । ये रुपये जमा हो जाते तो मेरे पास पूरे हजार रुपये हो जाते, ब्याज जोड़ने में सरलता होती । क्या करूँ । पुलिस को खबर दूँ ? व्यर्थ बैठे -बिठाये उलझन मोल लेनी है । टोले भर के आदमियों की दरवाजे पर भीड़ होगी । दस-पाँच आदमियों को गालियाँ खानी पड़ेंगी और फल कुछ नहीं ! तो क्या धीरज धर कर बैठ रहूँ ? कैसे धीरज धरूँ ! यह कोई सेंतमेंत मिला धन तो था नहीं, हराम की कौड़ी होती तो समझता कि जैसे आयी, वैसे गयी। यहाँ एक एक पैसा पसीने का है । मैं जो इतनी मितव्ययिता से रहता हूँ, इतने कष्ट से रहता हूँ, कंजूस प्रसिद्ध हूँ, घर के आवश्यक व्यय में काट-छाँट करता हूँ, क्या इसीलिए कि किसी उचक्के के लिए मनोरंजन का सामान जुटाऊँ ? मुझे रेशम से घृणा नहीं, न मेवे ही अरुचि कर हैं , न अजीर्ण का रोग है कि मलाई खाऊँ और अनपच हो जाय, न आँखों में दृष्टि कम है कि थियेटर और सिनेमा का आनन्द न उठा सकूँ । मैं सब ओर से अपने मन को मारे रहता हूँ, इसीलिए तो कि मेरे पास चार पैसे हो जायँ, काम पड़ने पर किसी के आगे हाथ फैलाना न पड़े । कुछ जायदाद ले सकूँ, और नहीं तो अच्छा घर ही बनवा लूँ । पर इस मन मारने का यह फल ! गाढ़े परिश्रम के रुपये लुट जायँ । अन्याय है कि मैं यों दिन दहाड़े लुट जाऊँ और उस दुष्ट का बाल भी टेढ़ा न हो । उसके घर दीवाली हो रही होगी , आनन्द मनाया जा रहा होगा, सब के सब बगलें बजा रहे होंगे । डॊक्टर साहब बदला लेने के लिए व्याकुल हो गये । मैंने कभी किसी फकीर को, किसी साधु को, दरवाजे पर खड़ा होने नहीं दिया । अनेक बार चाहने पर भी मैंने कभी मित्रों को अपने यहाँ निमंत्रित नहीं किया, कुटुम्बियों और संबंधियों से सदा बचता रहा, क्या इसीलिए । उसका पता लग जाता तो मैं एक विषैली सूई से उसके जीवन का अंत कर देता । किंतु कोई उपाय नहीं है । जुलाहे का गुस्सा दाढ़ी पर । गुप्त पुलिसवाले भी बस नाम ही के हैं पता लगाने की योग्यता नहीं । इनकी सारी अक्ल राजनीतिक व्याख्यानों और झूठी रिपोर्टों के लिखने में समाप्त हो जाती है । किसी मेस्मेरिजम जानने वाले के पास चलूँ, वह इस उलझन को सुलझा सकता है । सुनता हूँ यूरोप और अमेरिका में बहुधा चोरियों का पता इसी उपाय से लग जाता है । पर यहाँ ऐसा मेस्मेरिजम का पंडित कौन है और फिर मेस्मेरिजम के उत्तर सदा विश्वनीय नहीं होते । ज्योतिषियों के समान के भी अनुमान और अटकल के अनंत-सागर में डुबकियाँ लगाने लगते हैं । कुछ लोग नाम भी तो निकालते हैं । मैंने कभी उन कहानियों पर विश्वास नहीं किया, परन्तु कुछ न कुछ इसमें तत्व हैं अवश्य, नहीं तो इस प्रकृति-उपासना के युग में इनका अस्तित्व ही न रहता । आजकल के विद्वान भी तो आत्मिक-बल का लोहा मानते हैं, पर मान लो किसी ने नाम बतला ही दिया तो मेरे हाथ में बदला चुकाने का कौन-सा उपाय है, अंतर्ज्ञान साक्षी का नाम नहीं दे सकता । एक क्षण के लिए मेरे जी को शांति मिल जाने के सिवाय और इनसे क्या लाभ है ? हाँ खूब याद आया । नदी की ओर जाते हुए वह जो एक ओझा बैठता है, उसके करतब की कहानियाँ प्रायः सुनने में आती हैं । सुनता हूँ, गये हुए धन का पता बतला देता है रोगियों को बात की बात में चंगा कर देता है, चोरी के माल का पता लगा देता है, मूठ चलाता है । मूठ की बड़ी बढ़ाई सुनी है, मूठ चली और चोर के मुँह से रक्त जारी हुआ, जब तक वह माल न लौटा दे रक्त बन्द नहीं होता । यह निशाना बैठ जाय तो मेरी हार्दिक इच्छा पूरी हो जाय! मुँह माँगा फल पाऊँगा । रूपये भी मिल जायँ, चोर को शिक्षा भी मिल जाय ! उसके यहाँ सदा लोगों की भीड़ लगी रहती है । उसमें कुछ करतब न होता तो इतने लोग क्यों जमा होते ? उसकी मुखाकृति से एक प्रतिभा बरसती है । आजकल के शिक्षित लोगों को तो इन बातों पर विश्वास नहीं है । पर नीच और मूर्ख मंडली में उसकी बहुत चर्चा है । भूति-प्रेत आदि की कहानियाँ प्रतिदिन ही सुना करता हूँ । क्यों न उसी ओझे के पास चलूँ ? मान लो कोई लाभ न हुआ तो हानि ही क्या हो जायगी । जहाँ पाँच सौ गये है; दो-चार रुपये का खून और सही । यह समय भी अच्छा है । भीड़ कम होगी, चलना चाहिए ।

(3)

जी में यह निश्चय करके डाक्टर साहब उस ओझे के घर की ओर चले; जाड़े की रात थी । नौ बज गये थे । रास्ता लगभग बन्द हो गया था । कभी कभी घरों से रामायण की ध्वनि कानों में आ जाती थी । कुछ देर के बाद बिलकुल सन्नाटा हो गया रास्ते के दोनों ओर हरे-भरे खेत थे । सियारों का हुँआना सुन पड़ने लगा । जान पड़ता है, इनका दल कहीं पास ही है । डाक्टर साहब को प्रायः दूर से इनका सुरीला स्वर सुनने का सौभाग्य हुआ था । पास से सुनने का नहीं । इस समय इस सन्नाटे में और इतने पास से उनका चीखना सुन कर उन्हें डर लगा । कई बार अपनी छड़ी धरती पर पटकी, फैर धमधमाये । सियार बड़े डरपोक होते हैं । आदमी के पास नहीं आते; पर फिर संदेह हुआ, कहीं इनमें कोई पागल हों तो उसका काटा तो बचता ही नहीं । यह संदेह होते ही कीटाणु बेक्टिरिया, पास्टयार इन्स्टिट्यूट और कसौली की याद उनके मस्तिष्क में चक्कर काटने लगी । वह जल्दी-जल्दी पैर बढ़ाये चले जाते थे । एकाएक जी में विचार उठा- कहीं मेरे ही घर में किसी ने रुपये उड़ा लिये हों तो । वे तत्काल ठिठक गये, पर एक ही क्षण में उन्होंने इसका भी निर्णय कर लिया, क्या हर्ज है, घर वालों को तो और भी कड़ा दंड मिलना चाहिए ।चोर की मेरे साथ सहानुभूति नहीं हो सकती पर घरवालों की सहानुभूति का मैं अधिकारी हूँ।उन्हें जानना चाहिए कि में जो कुछ करता हूँ, उन्हीं के लिए करता हूँ । रात-दिन मरता हूँ तो उन्हीं के लिए मरता हूँ । यदि इस पर भी वे मुझे यों धोखा देने के लिए तैयार हों तो उनसे अधिक कृतघ्न, उनसे अधिक अकृतज्ञ, उनसे अधिक निर्दय और कोई होगा ? उन्हें और भी कड़ा दंड मिलना चाहिए । इतना कड़ा, इतना शिक्षाप्रद कि फिर कभी किसी को ऐसा करने का साहस न हो । अंत में वे ओझे के घर के पास जा पहुँचे । लोगों की भीड़ न थी । उन्हें बड़ा संतोष हुआ । हाँ, उनकी चाल कुछ धीमी पड़ गयी । फिर जी में कहीं यह सब ठकोसला हो तो व्यर्थ लज्जित होना पड़े । जो सुने मूर्ख बनाये । कदाचित् ओझा ही मुझे तुच्छ बुद्धि समझे । पर अब तो आ गया, यह तजरबा भी हो जाय । और कुछ न होगा तो सही जाँच ही सही । ओझा का नाम बुद्धू था । लोग चौधरी कहते थे । जाति का चमार था । छोटा सा घर और वह भी गन्दा । छप्पर इतनी नीची थी कि झुकने पर भी टक्कर लगने का डर लगता था । दरवाजे पर एक नीम का पेड़ था, उसके नीचे एक चौरा । नीम के पेड़ पर एक झंडी लहराती थी । चौरा पर सैकड़ों हाथी सिंदूर से रँगे हुए खड़े थे । कई लोहे के नोकदार त्रिशूल भी गड़े थे, जो मानो इन मंद गति हाथियों के लिये अंकुश का काम दे रहे थे । दस बजे थे । बुद्धू चौधरी जो एक काले रंग का तोंदीला और रोबदार आदमी था, एक फटे हुए टाट पर बैठा नारियल पी रहा था । बोतल और गिलास भी सामने रखे हुए थे । बुद्धू ने डाक्टर साहब को देखकर तुरंत बोतल छिपा दी और नीचे उतर कर सलाम किया । घर से एक बुढ़िया ने मोढ़ा लाकर उनके लिए रख दिया । डाक्टर साहब ने कुछ झेंपते हुए सारी घटना कह सुनायी । बुद्धू ने कहा, हुजूर, यह कौन बड़ा काम है । अभी इतवार को दारोगाजी की घड़ी चोरी गयी थी, बहुत कुछ तहकीकात की, पता न चला । मुझे बुलाया । मैंने बात की बात में पता लगा दिया । पाँच रुपये इनाम दिये । कल की बात है, जमादार साहब की घोड़ी खो गई थी । चारों तरफ दौड़ते फिरते थे । मैंने ऐसा पता बता दिया कि घोड़ी चरती हुई मिल गयी । इसी विद्या की बदौलत हजूर हुक्काम सभी जानते हैं । डाक्टर को दारोगा और जमादार की चर्चा न रुचि । इन सब गँवारों की आँखों में जो कुछ है , वह दारोगा और जमादार ही हैं । बोले -मैं केवल चोरी का पता लगाना नहीं चाहता, मैं चोर को सजा देना चाहता हूँ । बुद्धू ने एक क्षण के लिए आँखे बंद कीं, जमुहाइयाँ लीं, चुटकियाँ बजायीं और फिर कहा यह घर ही के किसी आदमी का काम है । डाक्टर - कुछ परवाह नहीं, कोई हो । बुढ़िया - पीछे से कोई बात बने या बिगड़ेगी तो हुजूर हमीं को बुरा कहेंगे । डाक्टर - इसकी तुम चिंता न करो, मैंने खूब सोच-विचार लिया है । बल्कि घर के किसी आदमी की शरारत है तो मैं उसके साथ और भी कड़ाई करना चाहता हूँ । बाहर का आदमी मेरे साथ छल करे तो क्षमा के योग्य है, पर घर के आदमी को मैं किसी प्रकार क्षमा नहीं कर सकता । बुद्धु - तो हुजूर क्या चाहते है ? डाक्टर - बस यही कि मेरे रुपये मिल जायँ और चोर किसी बड़े कष्ट में पड़ जाय । बुद्धू - मूठ चला दूँ ? बुढ़िया - ना बेटा, मूठ के पास न जाना । न जाने कैसी पड़े, कैसी न पड़े । डाक्टर - तुम मूठ चला दो, इसका जो कुछ मेहनताना और इनाम हो, मैं देने के लिए तैया हूँ । बुढ़िया - बेटा, मैं फिर कहती हूँ, मूठ के फेर में मत पड़ । कोई जोखम की बात आ पड़ेगी तो वह बाबू जी फिर तेरे सिर होंगे और तेरे बनाये कुछ न बनेगी । क्या जानता नहीं, मूठ का उतार कितना कठिन है ? बुद्धू - हाँ बाबूजी ! फिर एक बार सोच लीजिए । मूठ तो मैं चला दूँगा , लेकिन उसको उतारने का जिम्मा मैं नहीं ले सकता । डाक्टर - अजी कह तो दिया, मैं तुमसे उतारने को न कहूँगा, चलाओ भी तो । बुद्धू ने आवश्यक सामान की एक लम्बी तालिका बनायी । डाक्टर साहब ने सामान की अपेक्षा रुपया देना अधिक उचित समझा । बुद्धू राजी हो गया । डॊक्टर साहब चलते चलते बोले - ऐसा मंतर चलाओ कि सबेरा होते-होते चोर मेरे सामने माल लिये आ जाय । बुद्धू ने कहा आप निसा खातिर रहें ।

(4)

डाक्टर साहब वहाँ से चले तो ग्यारह बजे थे । जाड़े की रात, कड़ाके की ठंड थी । उनकी माँ और स्त्री दोनों बैठी हुई उनकी राह देख रही थीं । जी को बहलाने के लिए बीच में एक अँगीठी रख ली थी, जिसका प्रभाव शरीर की अपेक्षा विचार पर अधिक पड़ता था । यहाँ कोयला विलास्य पदार्थ समझा जाता था । बुढ़िया महरी जगिया वहीं फटाफट टाट का टुकड़ा ओढ़े पड़ी थी । वह बार-बार उठ कर अपनी अँधेरी कोठरी में जाती, आले पर कुछ टटोल कर देखती और फिर अपनी जगह पर आ कर पड़ रहती । बार-बार पूछती, कितनी रात गयी होगी । जरा भी खटका होता तो चौंक पड़ती और चिंतित दृष्टि से इधर- उधर देखने लगती । आज डाक्टर साहब ने नियम के प्रतिकूल क्यों इतनी देर लगायी, इसका सबको आश्चर्य था । ऐसे अवसर बहुत कम आते थे । कि उन्हें रोगियों को देखने के लिए रात को जाना पड़ता हो । यदि कुछ लोग उनकी डाक्टरी के कायल भी थे, तो वे रात को उस गली में आने का साहस न करते थे । सभा-सोसाइटियों में जाने को उन्हें रुचि न थी । मित्रों से भी उनका मेलजोल न था । माँ ने कहा - जाने कहाँ चला गया, खाना बिलकुल पानी हो गया । अहिल्या - आदमी जाता है तो कह कर जाता है, आधी रात से ऊपर हो गयी । माँ - कोई ऐसी ही अटक हो गयी, नहीं तो वह कब घर से बाहर निकलता है ? अहिल्या - मैं तो अब सोने जाती हूँ, उनका जब जी चाहे आयें । कोई सारी रात बैठा पहरा देगा । यही बातें हो रही थी कि डॊक्टर साहब घर आ पहुँचे । अहिल्या सँभल बैठी; जगिया उठकर खड़ी हो गयी और उनकी ओर सहमी हुई आँखों से ताकने लगी । माँ ने पूछा - आज कहाँ इतनी देर लगा दी ? डॊक्टर - तुम लोग तो सुख से बैठी हो न ! हमें देर हो गयी, इसकी तुम्हें क्या चिंता ! जाओ, सुख से सोओ,इन ऊपरी दिखावटी बातों से मैं धोखे में नहीं आता । अवसर पाओ तो गला काट लो, इस पर चली हो बात बनाने ! माँ ने दुःखी हो कर कहा - बेटा ! ऐसी जी दुखाने वाली बातें क्यों करते हो । घर में तुम्हारा कौन बैरी है जो तुम्हारा बुरा चेतेगा ? डाक्टर - मैं किसी को अपना मित्र नहीं समझता, सभी मेरे बैरी हैं , मेरे प्राणों के ग्राहक हैं । नहीं तो क्या आँख ओझल होते ही मेरी मेज से पाँच सौ रुपये उड़ जायँ, दरवाजे बाहर से बंद थे, कोई गैर आया नहीं, रुपये रखते ही उड़ गये । जो लोग इस तरह मेरा गला काटने पर उतारू हों, क्योंकर अपना समझूँ । मैंने खूब पता लगा लिया है, अभी एक ओझे के पास से चला आ रहा हूँ । उसने साफ कह दिया कि घर के ही किसी आदमी का काम है । अच्छी बात है, जैसी करनी वैसी भरनी । मैं भी बता दूँगा कि मैं अपने बेरियों का शुभ चिंतक नहीं हूँ । यदि बाहर का आदमी होता तो कदाचित मैं जाने भी देता । पर घर के आदमी जिनके लिए रात-दिन चक्की पीसता हूँ, मेरे साथ ऐसा छल करे तो वे इसी योग्य हैं कि उनके साथ जरा भी रियायत न की जाय । देखना सबेरे तक चोर की क्या दशा होती है । मैंने ओझे से मूठ चलाने को कह दिया है । मूठ चली और उधर चोर के प्राण संकट में पड़े । जगिया घबड़ा कर बोली - भइया, मूठ में जान जोखम है । डॊक्टर - चोर की यही सजा है । जगिया - किस ओझे ने चलाया है ? डॊक्टर - बुद्धू चौधरी ने । जगिया - अरे राम, उसकी मूठ का तो कोई उतार ही नहीं । डॊक्टर अपने कमरे में चले गये, तो माँ ने कहा सूम का धन शैतान खाता है । पाँच सौ रुपया कोई मुँह मार कर ले गया । इतने में तो मेरे सातों धाम हो जाते । अहिल्या बोली - कंगन के लिए बरसों से झींक रही हूँ, अच्छा हुआ, मेरी आह पड़ी है । माँ - भला घर में उसके रुपये कौन लेगा ? अहिल्या - किवाड़ खुले होंगे, कोई बाहरी आदमी उड़ा ले गया होगा । माँ - उसको विश्वास कैसे आ गया कि घर ही के किसी आदमी ने रुपया चुराये हैं । अहिल्या - रुपये का लोभ आदमी को शक्की बना देता है ।

(5)

रात को एक बजा था । डॊक्टर जयपाल भयानक स्वप्न देख रहे थे । एकाएक अहिल्या ने आकर कहा - जरा चल कर देखिए, जगिया का क्या हाल हो रहा है । जान पड़ता है, जीभ ऐंठ गयी । कुछ बोलती ही नहीं, आँखें पथरा गयी हैं । डाक्टर चौंक कर उठ बैठे । एक क्षण तक इधर-उधर ताकते रहे; मानो सोच रहे थे, यह भी स्वप्न तो नहीं है । तब बोले क्या कहा जगिया को क्या हो गया ? अहिल्या ने फिर जगिया का हाल कहा । डॊक्टर के मुख पर हल्की-सी मुस्कराहट दौड़ गयी । बोले -चोर पकड़ गया । मूठ अपना काम किया । अहिल्या - और जो घर ही के किसी आदमी ने ले लिये होते ? डाक्टर - तो उसकी भी यही दशा होती, सदा के लिए सीख जाता । अहिल्या - पाँच सौ रुपये के पीछे प्राण ले लेते ? डाक्टर - पाँच सौ रुपये के लिए नहीं, आवश्यकता पड़े तो पाँच हजार खर्च कर सकता हूँ, केवल छल-कपट का दंड देने के लिए । अहिल्या - बड़े निर्दयी हो । डॊक्टर - तुम्हें सिर से पैर तक सोने से लाद दूँ तो मुझे भलाई का पुतला समझने लगो, क्यों ? खेद है कि मैं तुमसे यह सनद नहीं ले सकता । यह कहते हुए जगिया की कोठरी में गये । उसकी हालत उससे कहीं अदिक खराब थी जो अहिल्या ने बतायी थी । मुख पर मुर्दानी छायी हुई थी, हाथ पैर अकड़ गये थे, नाड़ी का कहीं पता न था । उसकी माँ उसे होश में लाने के लिए बार-बार उसके मुँह पर पानी के छींटे दे रही थी । डाक्टर ने यह हालत देखी तो होश उड़ गये । उन्हें अपने उपाय की सफलता पर प्रसन्न होना चाहिए था । जगिया ने रुपये चुराये, इसके लिए अब अधिक प्रमाण की आवश्यकता न थी ; परंतु मूठ इतनी प्रभाव डालने वाली और घातक वस्तु है, इसका उन्हें अनुमान भी न था । वे चोर की एड़ियाँ रगड़ते, पीड़ा से कराहते और तड़पते देखना चाहते थे । बदला लेने की इच्छा आशातीत सफल हो रही थी; परंतु वह नमक की अधिकता थी,जो कौर को मुँह के भीतर धँसने नहीं देती । यह दुःखमय दृश्य देखकर प्रसन्न होने के बदले उनके हृदय पर चोट लगी । रोब में हम अपनी निर्दयता और कठोरता का भ्रममूलक अनुमान कर लिया करते हैं । प्रत्यक्ष घटना विचार से कहीं अधिक प्रभावशालिनी होती है । रणस्थल का विचार कितना कवित्वमय है । युद्धावेश का काव्य कितनी गर्मी उत्पन्न करने वाला है । परन्तु कुचले हुए शव के कटे हुए अंग-प्रत्यंग देखकर कौन मनुष्य है, जिसे रोमांच न होने आवे । दया मनुष्य का स्वाभाविक गुण है । इसके अतिरिक्त इसका उन्हें अनुमान न था कि जगिया जैसी दुर्बल आत्मा मेरे रोष पर बलिदान होगी । वह समझते थे, मेरे बदले का वार किसी सजीव मनुष्य पर होगा; यहाँ तक कि वे अपनी स्त्री और लड़के को भी इस वार के योग्य समझते थे । पर मरे को मारना, कुचले को कुचलना, उन्हें अपना प्रतिघात मर्यादा के विपरीत जान पड़ा । जगिया का यह काम क्षमा के योग्य था । जिसे रोटियों के लाले हों, कपड़ों को तरसे, जिसकी आकांक्षा का भवन सदा अंधकार मय रहा हो । जिसकी इच्छायें कभी पूरी न हुई हों, उसकी नीयत बिगड़ जाय तो आश्चर्य की बात नहीं । वे तत्काल औषधालय में गये, होश में लाने की जो अच्छी- अच्छी औषधियाँ थीं, उनको मिला कर एक मिश्रित नयी औषधि बना लाये , जगिया के गले में उतार दी । कुछ लाभ न हुआ । तब विद्युत यंत्र ले आये और उसकी सहायता से जगिया को होश में लाने का यत्न करने लगे । थोड़ी ही देर में जगिया की आँखें खुल गयीं । उसने सहमी हुई दृष्टि डॊक्टर साहब को देखा, जैसे लड़का अपने अध्यापक की छड़ी की ओर देखता है, और उखड़े हुए स्वर से बोली - हाय राम, कलेजा फूँका जाता है, अपने रुपये ले ले, आले पर एक हाँडी है, उसी में रखे हुए हैं, मुझे अंगारों से मत जला । मैंने तो यह रुपये तीरथ करने के लिए चुराये थे । क्या तुझे तरस नहीं आता, मुट्ठी भर रुपयों के लिए मुझे आग में जला रहा है, मैं तुझे काला न समझती थी । हाय राम ! यह कहते कहते वह फिर मूर्छित हो गई, नाड़ी बंद हो गयी, ओठ नीले पड़ गये, शरीर के अंगों में खिंचाव होने लगा । डॊक्टर ने दीन भाव से अहिल्या की ओर देखा और बोले - मैं तो अपने सारे उपाय कर चुका, अब इसे होश लाना मेरी सामर्थ्य के बाहर है । मैं क्या जानता था कि यह अभागी मूठ इतनी घातक होती है । कहीं इसकी जान पर बन गयी तो जीवन भर पछताना पड़ेगा । आत्मा की ठोकरों से कभी छुटकारा न मिलेगा । क्या करूँ बुद्धि कुछ काम नहीं करती । अहिल्या - सिविल सर्जन को बुलाओ, कदाचित वह कोई अच्छी दवा दे दे किसी को जान-बूझ कर आग में ढकेलना न चाहिए । डाक्टर - सिविल सर्जन इससे अधिक और कुछ नहीं कर सकता, जो मैं कर चुका । हर घड़ी इसकी दशा और गिरती जाती है, न जाने हत्यारे ने कौन सा मंत्र चला दिया ।उसकी माँ मुझे बहुत समझाती रही, पर मैंने क्रोध में उसकी बातों की जरा भी परवाह न की । माँ - बेटा, तुम उसी को बुलाओ जिसने मंत्र चलाया; पर क्या किया जायगा । कहीं मर गयी तो हत्या सिर पर पड़ेगी । कुटुम्ब को सदा सतायेगी ।

(6)

दो बज रहे थे, ठंडी हवा हड्डियों में चुभी जाती थी । डॊक्टर लम्बे पाँवों बुद्धू चौधरी के घर की ओर चले जाते थे । इधर-उधर व्यर्थ आँखे दौड़ाते थे कि कोई एक्का या ताँगा मिल जाय । उन्हें मालूम होता था कि बुद्धू का घर बहुत दूर हो गया है । कई बार धोखा हुआ, कहीं रास्ता तो नहीं भूल गया । कई बार इधर आया हूँ , यह बाग तो कभी नहीं मिला, यह लेटर-बक्स भी सड़क पर कभी नहीं देखा, यह पुल तो कदापि न था, अवश्य राह भुल गया । किससे पूछूँ । वे अपनी स्मरण-शक्ति पर झुँझलाये और उसी ओर थोड़ी दूर तक दौड़े । पता नहीं, दुष्ट इस समय मिलेगा भी या नहीं, शराब में मस्त पड़ा होगा । कहीं इधर बेचारी चल न बसी हो । कई बार इधर-उधर घूम जाने का विचार हुआ पर अंतःप्रेरणा ने सीधी राह से हटने न दिया । कई बार इधर-उधर घूम जाने का विचार हुआ पर अंतःप्रेरणा ने सीधी राह से हटने न दिया । यहाँ तक कि बुद्धू का घर दिखाई पड़ा । डाक्टर जयपाल की जान में जान आयी। बुद्धू के दरवाजे पर जा कर जोर से कुंडी खटखटायी । भीतर से कुत्ते ने असभ्यतापूर्ण उत्तर दिया, पर किसी आदमी का शब्द न सुनायी दिया । फिर जोर-जोर से किवाड़ खट खटाये कुत्ता और भी तेज पड़ा, बुढ़िया की नींद टूटी । बोली - यह कौन इतनी रात गये किवाड़ तोड़े डालता है ? डाक्टर - मैं हूँ, जो कुछ देर हुई तुम्हारे पास आया था । बुढ़िया ने बोली पहचानी, समझ गयी इनके घर के किसी आदमी पर विपद पड़ी, नहीं तो इतनी रात गये क्यों आते; पर अभी तो बुद्धू ने मूठ चलाई नहीं । उसका असर क्यों कर हुआ, समझाती थी तब न माने । खूब फँसे । उठकर कुप्पी जलायी और उसे लिये बाहर निकली । डॊक्टर साहब ने पूछा - बुद्धू चौधरी सो रहें हैं । जरा उन्हें जगा दो । बुढ़िया - न बाबू जी, इस बखत मैं न जगाऊँगी , मुझे कच्चा ही खा जायगा, रात को लाट साहब भी आवें तो नहीं उठता । डॊक्टर साहब ने थोड़े शब्दों में पूरी घटना कह सुनायी और बड़ी नम्रता के साथ कहा कि बुद्धू को जगा दे । इतने में बुद्धू अपने ही आप बाहर निकल आया और आँखे मलता हुआ बोला - कहिए बाबूजी, क्या हुकुम है । बुढ़िया ने चिढ़ कर कहा - तेरी नींद आज कैसे खुल गयी, मैं जगाने गयी होती तो मारने उठता । डॊक्टर - मैंने बस माजरा बुढ़िया से कह दिया है, इसी से पूछो । बुढ़िया - कुछ नहीं, तूने मूठ चलायी थी, रुपये इनके घर की महरी ने लिये हैं, अब उसका अब तब हो रहा है । डॊक्टर - बेचारी मर रही है, कुछ ऐसा उपाय करो कि उसके प्राण बच जायँ । बुद्धू -यह तो आपने बुरी सुनायी , मूठ को फेरना सहज नहीं है । बुढ़िया - बेटा, जान जोखम है, क्या तू जानता नहीं । कहीं उल्टे फेरने वाले पर ही पड़े तो जान बचना कठिन हो जाय । डॊक्टर - अब उसकी जान तुम्हारे ही बचाये बचेगी , इतना धर्म करो । बुढ़िया - दूसरे की जान की खातिर कोई अपनी जान गढ़े में डालेगा ? डाक्टर - तुम रात-दिन यही काम करते हो, तुम उसके दाँव-घात सब जानते हो । मार भी सकते हो, जिला भी सकते हो । मेरा तो इन बातों पर बिलकुल विश्वास ही न था ,लेकिन तुम्हारा कमाल देखकर दंग रह गया । तुम्हारे हाथों कितने ही आदमियों का भला होता है, उस गरीब बुढ़िया पर दया करो । बुद्धू कुछ पसीजा, पर उसकी माँ मामलेदारी में उससे कहीं अधिक चतुर थी । डरी, कहीं यह नरम हो कर मामला बिगाड़ न दे । उसने बुद्धु को कुछ कहने का अवसर न दिया । बोली - यह तो सब ठीक है , पर हमारे भी बाल बच्चे हैं । न जाने कैसी पड़े कैसी न पड़े । वह हमारे सिर आवेगी न ? आप तो अपना काम निकाल कर अलग हो जायेंगे । मूठ फेरना हँसी नहीं है । बुद्धू -हाँ बाबूजी, काम बड़े जोखिम का है । डॊक्टर - काम जोखम का है तो मुफ्त तो नहीं करवाना चाहता । बुड़िया - आप बहुत देंगे, सौ-पचास रुपये देंगे । इतने में हम कै दिन तक खायेंगे । मूठ फेरना साँप के बिल में हाथ डालना है, आग में कूदना है । भगवान की ऐसी ही निगाह हो तो जान बचती है । डॊक्टर - तो माताजी , मैं तुमसे बाहर तो नहीं होता हूँ । जो कुछ तुम्हारी मरजी हो, वह कहो । मुझे तो उस गरीब की जान बचानी है । यहाँ बातों मे देर हो रही है वहाँ मालूम नहीं उसका क्या हाल होगा । बुढ़िया - देर तो आप ही कर रहे हैं, आप पक्की कर दें तो यह आपके साथ चला जाय। आपकी खातिर यह जोखिम अपने सिर ले रही हूँ दूसरा होता तो झट इनकार कर जाती । आपके मुलाहजे में पड़ कर जानबूझ कर जहर पी रही हूँ । डॊक्टर साहब को एक क्षण एक वर्ष जान पड़ रहा था । वह बुद्धू को उसी समय उनकी आँखों में रुपये का कोई मूल्य न था । बस यही चिंता थी कि जगिया मौत के मुँह से निकल आये । जिस रुपये पर वह अपनी आवश्यकताएँ और घरवाली की आकांक्षाएँ निछावर करते उसे दया के आवेश ने बिलकुल तुच्छ बना दिया था । बोले - तुम्हीं बतलाओ, अब मैं क्या कहूँ , पर जो कुछ कहना हो झटपट कह दो । बुढ़िया - अच्छा तो पाँच सौ रुपये दीजिए इससे कम में कम न होगा । बुद्धू ने माँ ने की ओर आश्चर्यसे देखा, और डक्टर साहब तो मूर्छित-से हो गये ; निराशा से बोले - इतना मेरे बूते के बाहर है, जान पड़ता है उसके भाग्य में मरना ही बदा है । बुढ़िया - तो जाने दीजिए, हमें अपनी जान भार थोड़े ही है । हमने तो आपके मुलाहिजे से इस काम का बीड़ा उठाया था । जाओ बुद्धू सोओ । डॊक्टर - बूढ़ी माता इतनी निर्दयता न करो, आदमी का काम आदमी से निकलता है । बुद्धू - नहीं बाबू जी, मैं हर तरह से आपका काम करने को तैयार हूँ इसने पाँच सौ कहे, आप कुछ कम कर दीजिए । हाँ, जोखम का ध्यान रखिएगा । बुढ़िया - तू जा के सोता क्यों नहीं ? इन्हें रुपये प्यारे हैं तो क्या मुझे अपनी जान प्यारी नहीं है । कल को लहू थूकने लगेगा तो कुछ बनाये न बनेगी , बाल- बच्चों को किस पर छोड़ेगा ? है घर में कुछ ? डाक्टर साहब ने संकोच करते हुए ढाई सौ रुपये कहे । बुद्धू राजी हो गया, मामला तय हुआ, डाक्टर साहब उसे साथ ले कर घर की ओर चले । उन्हें ऐसी आत्मिक प्रसन्नता कभी न मिली थी । हारा हुआ मुकदमा जीत कर अदालत से लौटने वाला मुकदमे बाज भी इतना प्रसन्न न होगा । लपके चले जाते थे । बुद्धू से बार-बार तेज चलने को कहते । घर पहुँचे तो जगिया को बिलकुल मरने के निकट पाया । जान पड़ता था यही साँस अंतिम साँस है । उनकी माँ और स्त्री दोनों आँसू भरे निराश बैठी थीं । बुद्धू को दोनों ने विनम्र दृष्टि से देखा । दोनों ने विनम्र दृष्टि से देखा । डॊक्टर साहब के आँसू भी न रुक सके । जगिया की ओर झुके तो आँसू की बूँदें उसके मुरझाये हुए पीले मुँह पर टपक पड़ी । स्थिति ने बुद्धू को सजग कर दिया बुढ़िया की देह पर हाथ रखते हुए बोला - बाबू जी, अब मेरा किया कुछ नहीं हो सकता, यह तो दम तोड़ रही है । डॊक्टर साहब ने गिड़गिड़ा कर कहा - नहीं चौधरी, ईश्वर के नाम पर अपना मंत्र चलाओ, इसकी जान बच गई तो सदा के लिए मैं तुम्हारा गुलाम बना रहूँगा । बुद्धू - आप मुझे जान बूझ कर जहर खाने को कहते हैं । मुझे मालूम था कि मूठ के देवता इस बखत इतने गरम हैं । वह मेरे मन में बैठे कह रहे है । तुमने हमारा शिकार छीना तो हम तुम्हें निगल जायेंगे । डाक्टर - देवता को किसी तरह राजी कर लो । बुद्धू - राजी करना बड़ा कठिन है , पाँच सौ रुपये दीजिए तो इसकी जान बचे । उतारे के लिए बड़े-बड़े जतन करने पड़ेंगे । डाक्टर - पाँच सौ रुपये दे दूँ तो इसकी जान बचा दोगे । बुद्धू - हाँ, शर्त बद कर । डाक्टर साहब बिजली की तरह लपक कर अपने कमरे में आ गये और पाँच सौ रुपये की थैली लाकर बुद्धू के सामने रख दी । बुद्धू ने विजय की दृष्टि से थैली को देखा । फिर जगिया का सर अपनी गोद में रख कर उस पर हाथ फेरने लगा । कुछ बुदबुदा कर छू-छू करता जाता था । एक क्षण में उसकी सूरत डरावनी हो गयी, लपटें-सी निकलने लगीं । बार- बार अँगड़ाइयाँ लेने लगा । इसी दशा में उसने एक बेसुरा गीत गाना आरम्भ किया, पर हाथ जगिया के सर पर ही था । अंत में कोई आध घंटा बीतने पर जगिया ने आँखे खोल दीं, जैसे बुझते हुए दिये में तेल पड़ जाय । धीरे धीरे उसकी अवस्था सुधरने लगी । उधर कौवे की बोली सुनाई दी, जगिया एक अँगड़ाई ले कर उठ बैठी ।

(7)

सात बजे थे । जगिया मीठी नींद सो रही थी; उसकी आकृति निरोग थी, बुद्धू रुपयों की थैली ले कर अभी गया था । डॊक्टर साहब की माँ ने कहा । बात की बात में पाँच सौ रुपये मार ले गया । डॊक्टर - यह क्यों नहीं कहती कि एक मुरदे को जिला गया । क्या उसके प्राण का मूल्य इतना भी नहीं है । माँ देखो, आले पर पाँच सौ रुपये हैं या नहीं ? डॊक्टर - नहीं, उन रुपयों में हाथ मत लगाना, उन्हें वहीं पड़े रहने दो । उसने तीरथ करने के वास्ते लिये थे, वह उसी काम में लगेंगे । माँ - यह सब रुपये उसी के भाग के थे । डॊक्टर - उसके भाग के तो पाँच सौ ही थे , बाकी मेरे भाग के थे । उनकी बदौलत मुझे ऐसी शिक्षा मिली, जो उम्र भर न भूलेगी । तुम मुझे अब आवश्यक कामों में मुट्ठी बंद करते हुए न पाओगी ।

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12 - ब्रह्म का स्वाँग

- लेखक - मुंशी प्रेमचंद

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स्त्री मैं वास्तव में अभागिन हूँ, नहीं तो क्या मुझे नित्य ऐसे-ऐसे घृणित दृश्य देखने पड़ते ! शोक की बात यह है कि वे मुझे केवल देखने ही नहीं पड़ते वरन् दुर्भाग्य ने उन्हें मेरे जीवन का मुख्य भाग बना दिया है । मैं उस सुपात्र ब्राह्मण की कन्या हूँ जिसकी व्यवस्था बड़े-बड़े गहन धार्मिक विषयों पर सर्वमान्य समझी जाती है । मुझे याद नहीं, घर पर कभी बिना स्नान और देवोपासना किये पानी की एक बूँद भी मुँह में डाली हो मुझे एक बार कठिन ज्वर में स्नानादि के बिना दवा पीनी पड़ी थी; उसका मुझे महीनों खेद रहा । हमारे घर में धोबी कदम नहीं रखने पाता ! चमारिन दालान में भी नहीं बैठ सकती थी । किंतु यहाँ आकर मैं मानो भ्रष्टलोक में पहुँच गयी हूँ । मेरे स्वामी बड़े दयालु, बड़े चरित्र-वान और बड़े सुयोग्य पुरुष हैं ! उनके यह सद्गुण देख कर मेरे पिता जी उन पर मुग्ध हो गये थे । लेकिन ! वे क्या जानते थे कि यहाँ लोग अघोर-पंथ के अनुयायी हैं । संध्या और उपासना तो दूर रही, कोई नियमित रूप से स्नान भी नहीं करता । बैठक में नित्य मुसलमान, क्रिस्तान सब आया-जाया करते हैं और स्वामी जी वहीं बैठ-बैठे पानी , दूध चाय पी लेते हैं । इतना ही नहीं, वह वहीं बैठे -बैठे मिठाइयाँ भी खा लेते हैं । अभी कल की बात है, मैंने उन्हें लेमोनेड पीते देखा था । साईस जो चमार है, बेरोक टोक घर में चला आता है । सुनती हूँ वे अपने मुसलमान मित्रों के घर दावतें खाने भी जाते हैं । यह भ्रष्टाचार मुझसे नहीं देखा जाता । मेरा चित्त घृणा से व्यस्त हो जाता है । जब वे मुस्कराते हुए मेरे समीप आ जाते हैं और हाथ पकड़ कर अपने समीप बैठा लेते हैं तो मेरा जी चाहता है कि धरती फट जाय और मैं उसमें समा जाऊँ । हा हिंदू जाति ! तूने हम स्त्रियों को पुरुषों की दासी बनाना ही क्या हमारे जीवन का परम कर्तव्य बना दिया ! हमारे विचारों का, हमारे सिद्धांतों का, यहाँ तक कि हमारे धर्म का भी कुछ मूल्य नहीं रहा । * * * अब मुझे धैर्य नहीं । आज मैं इस अवस्था का अंत कर देना चाहती हूँ । मैं इस आसुरिक भ्रष्टजाल से निकल जाऊँगी । मैंने अपने पिता की शरण में जाने का निश्चय कर लिया है आज यहाँ सहभोजन हो रहा है, मेरे पति उसमें सम्मिलित ही नहीं, वरन् उसके मुख्य प्रेषकों में हैं । इन्हीं के उद्योग तथा प्रेरणा से यह विधर्माय अत्याचार हो रहा है । समस्त जातियों के लोग एक साथ बैठ कर भोजन कर रहे हैं । सुनती हूँ, मुसलमान भी एक पंक्ति में बैठे हुए है । प्रकाश क्यों नहीं गिर पड़ता ! क्या भगवान धर्म की रक्षा करने के लिए अवतार न लेंगे ? ब्राह्मण जाति अपने निजी बंधुओं के सिवाय अन्य ब्राह्मणों का भी पकाया भोजन नहीं करती, वही महान् जाति इस अधोगति को पहुँच गयी कि कायस्थों, बनियों, मुसलमानों के साथ बैठ कर खाने में लेशमात्र भी संकोच नहीं करती, बल्कि इसे जातीय गौरव, जातीय एकता का हेतु समझती है । पुरुष -- वह कौन शुभ घड़ी होगी कि इस देश की स्त्रियों में ज्ञान का उदय होगा और वे राष्ट्रीय संगठन में पुरुषों की सहायता करेंगी ? हम कब तक ब्राह्मणों के गोरख धंधे में फँसे रहेंगे ? हमारे विवाह-प्रवेश कब तक जानेंगे कि स्त्री और पुरुष के विचारों की अनूकूलता और समानता गोत्र और वर्ण से कहीं अधिक महत्व रखती है । यदि ऐसा ज्ञात होता तो मैं वृन्दा का पति न होता और न वृन्दा मेरी पत्नि । हम दिनों के विचार में जमीन और आसमान का अन्तर है । यद्यपि वह प्रत्यक्ष नहीं कहती , किंतु मुझे विश्वास है कि वह मेरे विचारों को घृणा की दृष्टि से देखती है । मुझे ऐसा ज्ञात होता है कि वह मुझे स्पर्श भी नहीं करना चाहती । यह उसका दोष नहीं, यह हमारे माता-पिता का दोष है, जिन्होंने हम दोनों पर ऐसा घोर अत्याचार किया । * * * कल वृन्दा खुल पड़ी । मेरे कई मित्रों ने सहभोज का प्रस्ताव किया था मैंने उसका सहर्ष समर्थन किया । कई दिन के वाद-विवाद के पश्चात अंत को कल कुछ गिने-गिनाये सज्जनों ने सहभोज का सामान कर ही डाला । मेरे अतिरिक्त केवल चार और सज्जन ब्राह्मण थे, शेष अन्य जातियों के लोग थे । यह उदारता वृन्दा के लिए असह्य हो गयी । जब मैं भोजन करके लौटा तो वह ऐसी विकल थी मानों उसके मर्मस्थल पर आघात हुआ हो । मेरी ओर विषाद-पूर्ण नेत्रों से देख कर बोली - अब तो स्वर्ग का द्वार अवश्य खुल गया होगा ! यह कठोर शब्द मेरे हृदय पर तीर के समान लगे ! ऐंठ कर बोला - स्वर्ग और नर्क की चिंता में वे रहते हैं - जो अपाहिज हैं, कर्तव्य-हीन हैं निर्जीव हैं । हमारा स्वर्ग और नर्क सब इसी पृथ्वी पर है । हम इस कर्मक्षेत्र में कुछ कर जाना चाहते हैं वृन्दा - धन्य है आपके पुरुषार्थ को, आपके सामर्थ्य को । आज संसार में सुख और शांति का साम्राज्य हो जायगा । आपने संसार का उद्धार कर दिया । इससे बढ़ कर उसका कल्याण क्या हो सकता है ! मैंने झुँझला कर कहा - जब तुम्हें इन विषयों के समझने की ईश्वर ने बुद्धि ही नहीं दी, तो क्या समझाऊँ । इस पारस्परिक भेद भाव से हमारे राष्ट्र को जो हानि हो रही है उसे मोटी से मोटी बुद्धि का मनुष्य भी समझ सकता है । इस भेद को मिटाने से देश का कितना कल्याण होता है, इसमें किसी को संदेह नहीं । हाँ, जो जानकार भी अनजान बने उसकी बात दूसरी है । वृन्दा - बिना एक साथ भोजन किये परस्पर प्रेम उत्पन्न नहीं हो सकता है । मैंने इस विवाद में पड़ना अनुपयुक्त समझा । किसी ऐसी नीति की शरण लेनी आवश्यक जान पड़ी, जिसमें विवाद का स्थान ही न हो । वृन्दा की धर्म पर बड़ी श्रद्धा है, मैंने उसी के शास्त्र से उसे पराजित करना निश्चय किया । बड़े गम्भीर भाव से बोला- यदि असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है । किंतु सोचो तो यह कितना घोर अन्याय है कि हम सब एक पिता की संतान होते हुए भी एक दूसरे से घृणा करें, ऊँच नीच की व्यवस्था में मग्न रहें । यह सारा जगत उसी परमपिता का विराट रूप है । प्रत्येक जीव में उसी परमात्मा की ज्योति आलोकित हो रही है । केवल इसी भौतिक परदे ने हमें एक दूसरे से पृथक कर दिया है । यथार्थ में हम सब एक हैं । जिस प्रकार सूर्य का प्रकाश अलग-अलग घरों में जाकर भिन्न नहीं हो जाता, उसी प्रकार ईश्वर की महान् आत्मा पृथक -पृथक जीवों में प्रविष्ट हो कर विभिन्न नहीं होती ... मेरी इस ज्ञान-वर्षा ने वृन्दा के शुष्क हृदय को तृप्त कर दिया । वह तन्मय हो कर मेरी बात सुनती रही । जब में चुप हुआ तो उसने मुझे भक्ति-भाव से देखा और रोने लगी ।

स्त्री --

- लेखक - मुंशी प्रेमचंद

स्वामी के ज्ञानोपदेश ने मुझे सजग कर दिया, मैं अँधेरे कुएँ में पड़ी थी । इस उपदेश ने मुझे उठाकर एक पर्वत के ज्योतिर्मय शिखर पर बैठा दिया । मैंने अपनी कुलीनता से , झूठे अभिमान से , अपने वर्ण की पवित्रता के गर्व में, कितनी आत्माओं का निरादर किया ! परमपिता, तुम मुझे क्षमा करो, मैंने अपने पूज्य पाद पति से इस अज्ञानके कारण, जो अश्रद्धा प्रकट की है, जो कठोर शब्द कहे है, उन्हें क्षमा करना ! जब से मैंने यह अमृत वाणी सुनी है, मेरा हृदय अत्यंत कोमल हो गया है, नाना प्रकार की सद्कल्पनाएँ चित्त में उठती रहती हैं । कल धोबिन कपड़े लेकर आयी थी । उसके सिर में बड़ा दर्द था । पहले मैं उसे इस दशा में देखकर कदाचित मौखिक सहवेदना प्रकट करती , अथवा महरी से उसे थोड़ा तेल दिलवा देती, पर कल मेरा चित्त विकल हो गया । मुझे प्रतीत हुआ, मानो यह मेरी बहिन है । मैंने उसे अपने पास बैठा लिया और घंटे भर तक उसके सिर में तेल मलती रही । उस समय मुझे जो स्वर्गीय आनंद हो रहा था, वह अकथनीय है ।मेरा अंतःकरण किसी प्रबल शक्ति के वशीभूत हो कर उसकी ओर खिंचा चला जाता था । मेरी ननद ने आकर मेरे इस व्यवहार पर कुछ नाक-भौं चढ़ायी, पर मैंने लेशमात्र भी परवाह न की । आज प्रातःकाल कड़ाके की सर्दी थी । हाथ-पाँव गले जाते थे । महरी काम करने आयी तो खड़ी काँप रही थी । मैं लिहाफ ओढ़े अँगीठी के सामने बैठी हुई थी । तिस पर भी मुँह बाहर निकालते न बनता था । महरी की सूरत देखकर मुझे अत्यंत दुःख हुआ । मुझे अपनी स्वार्थवृत्ति पर लज्जा आयी । इसके और मेरे बीच में क्या भेद है ! इसकी आत्मा में उसी प्रकार की ज्योति है । यह अन्याय क्यों ? क्यों इसीलिए कि माया ने हम में भेद कर दिया है ? मुझे कुछ और सोचने का साहस नहीं हुआ । मैं उठी, अपनी ऊनी चादर ला कर महरी को ओढ़ा दी और उसे हाथ पकड़ कर अँगीठी के पास बैठा लिया । इसके उपरांत मैंने अपना लिहाफ रख दिया और उसके साथ बैठ कर बर्तन धोने लगी । वह सरल हृदय मुझे वहाँ से बार-बार हटाना चाहती थी । मेरी ननद ने आकर मुझे कौतूहल से देखा और इस प्रकार मुँह बना कर चली गई, मानो मैं क्रीड़ा कर रही हूँ । सारे घर में हलचल पड़ गई और इस जरा-सी बात पर! हमारी आँखों पर कितने मोटे परदे पड़ गये हैं । हम परमात्मा का कितना अपमान कर रहे हैं । पुरुष-- कदाचित् मध्य पथ पर रहना नारी-प्रकृति ही में नहीं है- वह केवल सीमाओं पर ही रह सकती है । वृन्दा कहाँ तो अपनी कुलीनता और अपने कुल मर्यादा पर जान देती थी, कहाँ अब साम्य और सहृदयता की मूर्ति बनी हुई है । मेरे उस सामान्य उपदेश का यह चमत्कार है । अब मैं भी अपनी प्रेरक शक्ति पर गर्व कर सकता हूँ । मुझे उसमें कोई आपत्ति नहीं है कि वह नीच जाति की स्त्रियों के साथ बैठे ,हँसे और बोले । उन्हें कुछ पढ़ कर सुनाये, लेकिन उनके पीछे अपने को बिलकुल भूल जाना मैं कदापि पसंद नहीं कर सकता । तीन दिन हुए , मेरे पास एक चमार अपने जमींदार पर नालिश करने आया था । निस्संदेह जमींदारों ने उसके साथ ज्यादती की थी, लेकिन वकीलों का काम मुफ्त में मुकदमे दायर करना नहीं । फिर एक चमार के पीछे एक बड़े जमींदार से वैर करूँ ऐसे तो वकालत कर चुका ! उसके रोने की भनक वृन्दा के कान में भी पड़ गयी बस, वह मेरे पीछे पड़ गयी कि उस मुकदमे को जरूर ले लो । मुझसे तर्क-वितर्क करने पर उद्यत हो गयी । मैंने बहाना करके उसे किसी प्रकार टालना चाहा लेकिन उसने मुझसे वकालतनामे पर हस्ताक्षर करा कर तब पिंड छोड़ा । उसका परिणाम यह हुआ कि, पिछले तीन दिन मेरे यहाँ मुफ्तखोर मुवक्किलों का ताँता लगा रहा और मुझे कई बार वृन्दा से कठोर शब्दों मे बातें करनी पड़ीं । इसी से प्राचीन काल के व्यवस्थाकारों ने स्त्रियों को धार्मिक उपदेशों का पात्र नहीं समझा था । इनकी समझ में यह नहीं आता कि प्रत्येक सिद्धांत का व्यावहारिक रूप कुछ और ही होता है । हम सभी जानते हैं कि ईश्वर न्यायशील है, किंतु न्याय के पीछे अपनी परिस्थिति को कौन भूलता है । आत्मा की व्यापकता को यदि व्यवहार में लाया जाय तो आज संसार में साम्य का राज्य हो जाय, किंतु उसी भाँति साम्य जैसे दर्शन का एक सिद्धान्त ही रहा और रहेगा, वैसे ही राजनीति भी एक अलभ्य वस्तु है और रहेगी । हम इन दोनों सिद्धांतों की मुक्तकंठ से प्रशंसा करेंगे, उन पर तर्क करेंगे । अपने पक्ष को सिद्ध करने में उनसे सहायता लेंगे, किंतु उनका उपयोग करना असम्भव है । मुझे नहीं मालूम था कि वृन्दा इतनी मोटी-सी बात भी न समझेगी ! * * * वृन्दा की बुद्धि दिनों-दिन उलटी ही होती जाती है । आज रसोई में सबके लिए एक ही प्रकार के भोजन बने । अब तक घरवालों के लिए महीन चावल पकते थे, तरकारियाँ घी में बनती थीं, दूध-मक्खन आदि दिया जाता था । नौकरों के लिए मोटा चावल, मटर की दाल और तेल की भाजियाँ बनती थीं । बड़े-बड़े रईसों के यहाँ भी यही प्रथा चली आती है । हमारे नौकरों ने कभी इस विषय में शिकायत नहीं की । किंतु आज देखता हूँ, वृन्दा ने सबके लिए एक ही भोजन बनाया है । मैं कुछ बोल न सका, भौंचक्का-सा हो गया । वृन्दा सोचती होगी कि भोजन ,में भेद करना नौकरों पर अन्याय है । कैसा बच्चों का-सा विचार है ! नासमझ ! यह भेद सदा रहा है और रहेगा । मैं राष्ट्रीय ऐक्य का अनुरागी हूँ । समस्त शिक्षित-समुदाय राष्ट्रीयता पर जान देता है । किंतु कोई स्वप्न में भी कल्पना नहीं करता कि हम मजदूरों या सेवावृत्ति धारियों की समता का स्थान देंगे । हम उनमें शिक्षा का प्रचार करना चाहते हैं । उनको दीनावस्था से उठाना चाहते हैं । यह हवा संसार भर में फैली हुई है पर इसका मर्म क्या है, यह दिल में भी समझते हैं, चाहे कोई खोल कर न कहे । इसका अभिप्राय यही है कि हमारा राजनैतिक महत्व बढ़े, हमारा प्रभुत्व उदय हो, हमारे राष्ट्रीय आंदोलन का प्रभाव अधिक हो, हमें यह कहने का अधिकार हो जाय कि हमारी ध्वनि केवल मुट्ठी भर शिक्षितवर्ग ही को नहीं, वरन् समस्त जाति की संयुक्त ध्वनि है , पर वृन्दा को यह रहस्य कौन समझावे ! स्त्री-- कल मेरे पति महाशय खुल पड़े । इसीलिए मेरा चित्त खिन्न है । प्रभो! संसार में इतना दिखावा, इतनी स्वार्थांधता है, हम इतने दीन घातक है ! उनका उपदेश सुन कर मैं उन्हें देवतुल्य समझने लगी थी । आज मुझे ज्ञान हो गया कि जो लोग एक साथ दो नाव पर बैठना जानते हैं, वे ही जाति के हितैषी कहलाते हैं । कल मेरी ननद की विदाई थी । वह ससुराल जा रही थी । विरादरी की कितनी ही महिलाएँ निमंत्रित थीं । वे उत्तम उत्तम वस्त्राभूषण पहने कालीनों पर बैठी हुई थीं । मैं उनका स्वागत कर रही थी । निदान मुझे द्वार के निकट कई स्त्रियाँ भूमि पर बैठी हुई दिखायी दीं, जहाँ इन महिलाओं की जूतियाँ और स्लीपरें रक्खी हुई थीं । वे विचारी भी विदाई देखने आयी थीं मुझे उनका वहाँ बैठना अनुचित जान पड़ा । मैंने उन्हें भी ला कर कालीन पर बैठा दिया इस पर महिलाओं में मटकियाँ होने लगी और थोड़ी देर में वे किसी न किसी बहाने से एक एक करके चली गयीं । मेरे पति महाशय से किसी ने यह समाचार कह दिया । वे बाहर से क्रोध में भरे हुए आये और आँखें लाल करके बोले -यह तुम्हें क्या सूझी है, क्या हमारे मुँह में कालिख लगवाना चाहती हो ? तुम्हें ईश्वर ने इतनी भी बुद्धि नहीं दी कि किसके साथ बैठना चाहिए ? भले घर की महिलाओं के साथ नीच स्त्रियों को बैठा दिया ! वे अपने मन में क्या कहती होंगी ! तुमने मुझे मुँह दिखाने लायक नहीं रखा । छिः ! छिः !! मैंने सरल भाव से कहा- इससे महिलाओं का तो क्या अपमान हुआ ? आत्मा तो सबकी एक ही है । आभूषणों से आत्मा तो ऊँची नहीं हो जाती ! पति महाशय ने होंठ चबा कर कहा-चुप भी रहो, बेसुरा राग अलाप रही हो । बस वही मुर्गी की एक टाँग । आत्मा एक है, परमात्मा एक है ? न कुछ जानो, न बूझो, सारे शहर में नक्कू बना दिया, उस पर और बोलने को मरती हो । उन महिलाओं की आत्मा को कितना दुःख हुआ, कुछ इस पर भी ध्यान दिया ? मैं विस्मित हो कर उनका मुँह ताकने लगी । * * * आज प्रातःकाल उठी तो मैंने एक विचित्र दृश्य देखा । रात को मेहमानों की झूठी पत्तल, सकोरे, दोने आदि मैदान में फेंक दिये गये थे । पचासों मनुष्य उन पत्तलों पर गिरे हुए उन्हें चाट रहे थे ! हाँ ! मनुष्य थे, वही मनुष्य जो परमात्मा के निज स्वरूप हैं । कितने ही कुत्ते भी उन पत्तलों पर झपट रहे थे, पर वे कंगले कुत्तों को मार- मार कर भगा देते थे । उनकी दशा कुत्तों से भी गयी-बीती थी । यह कौतुक देखकर मुझे रोमांच होने लगा, मेरी आँखों से अश्रुधारा बहने लगी । भगवान ! ये भी हमारे भाई-बहन हैं, हमारी आत्माएँ हैं । उनकी ऐसी शोचनीय, दीनदशा ! मैंने तत्क्षण महरी को भेज कर उन मनुर्यों को बुलाया और जितनी पूरी-मिठाइयाँ मेहमानों के लिए रक्खी हुई थीं,सब पत्तलों में रखकर उन्हें दे दीं । महरी थर-थर काँप रही थी, सरकार सुनेंगे तो मेरे सिर का एक बाल भी न छोड़ेंगे । लेकिन मैंने उसे ढाढ़स दिया, तब उसकी जान में जान आयी । अभी ये बेचारे कंगले मिठाइयाँ खा ही रहे थे कि पति महाशय मुँह लाल किये हुए आये और अत्यंत कठोर स्वर में बोले - तुमने भंग तो नहीं खा ली ? जब देखो, एक न एक उपद्रव खड़ा कर देती हो । मेरी समझ में नहीं आता कि तुम्हें क्या हो गया है । ये मिठाइयाँ डोमड़ों के लिए नहीं बनायी गयी थीं । इनमें घी शक्कर मैदा लगा था, जो आजकल मोतियों के मोल बिक रहा है । हलवाइयों के दूध के धोये रुपये मजदूरी के दिये गये थे। तुमने उठा कर सब डोमड़ों को खिला दीं । अब मेहमानों को क्या खिलाया जायगा ? तुमने मेरी इज्जत बिगाड़ने का प्रण कर लिया है क्या ? मैंने गम्भीर भाव से कहा - आप व्यर्थ इतने क्रुद्ध होते हैं । आपकी जितनी मिठाईयाँ मैंने खिला दी हैं, वह मैं मँगवा दूँगी । मुझसे यह नहीं देखा जाता कि कोई आदमी तो मिठाइयाँ खाय और कोई पत्तलें चाटे । डोमड़े भी तो मनुष्य ही हैं । उनके जीव में भी तो उसी..... स्वामी ने बात काट कर कहा - रहने भी दो, मरी तुम्हारी आत्मा ! बस तुम्हारी ही रक्षा से आत्मा की रक्षा होगी । यदि ईश्वर की इच्छा होती कि प्राणिमात्र को समान सुख प्राप्त हो तो उसे सबको एक दशा में रखने से किसने रोका था ? वह ऊँच-नीच का भेद होने ही क्यों देता है ? जब उसकी आज्ञा के बिना एक पत्ता भी नहीं हिल सकता, तो इतनी महान् सामाजिक व्यवस्था उसकी आज्ञा के बिना क्यों कर भंग हो सकती है ? जब वह स्वयं सर्वव्यापी है तो वह अपने ही को ऐसे ऐसे घृणोंत्पादक अवस्थाओं में क्यों रखता है ? जब तुम इन प्रश्नों का उत्तर नहीं दे सकती तो उचित है कि संसार की वर्तमान रीतियों के अनुसार चलो । इन बेसिर-पैर की बातों से हँसी और निंदा के सिवाय और कुछ लाभ नहीं । मेरे चित्त की क्या दशा हुई, वर्णन नहीं कर सकती । मैं अवाक् रह गयी । हा स्वार्थ! हा मायांधकार । हम ब्रह्म का भी स्वाँग बनाते हैं । उसी क्षण से पतिश्रद्धा और पतिभक्ति का भाव मेरे हृदय से लुप्त हो गया । यह घर मुझे अब कारागार लगता है : किंतु मैं निराश नहीं हूँ । मुझे विश्वास है कि जल्दी या देर ब्रह्म-ज्योति यहाँ अवश्य चमकेगी और वह अंधकार को नष्ट कर देगी ।

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13 - विमाता

- लेखक - मुंशी प्रेमचंद

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स्त्री की मृत्यु के तीन ही मास बाद पुनर्विवाह करना मृतात्मा के साथ ऐसा अन्याय और उसकी आत्मा पर ऐसा आघात है जो कदापि क्षम्य नहीं हो सकता । मैं यह न कहूँगा कि उस स्वर्गवासिनी की मुझसे अंतिम प्रेरणा थी और न मेरा शायद यह कथन ही मान्य समझा जाय कि हमारे छोटे बालक के लिए `माँ' की उपस्थिति परमावश्यक थी । परंतु इस विषय में मेरी आत्मा निर्मल है और मैं आशा करता हूँ कि स्वर्ग लोक में मेरे इस कार्य की निर्दय आलोचना न की जायगी । सारांश यह कि मैंने विवाह किया और यद्यपि एक नव- विवाहिता वधू को मातृत्व उपदेश बेसुरा राग था, मैंने पहले ही दिन अम्बा से कह दिया कि मैंने तुमसे केवल इस अभिप्राय से विवाह किया है कि तुम मेरे भोले बालक की माँ और उसके हृदय से उसकी माँ की मृत्यु का शोक भुला दो ।

(2)

दो मास व्यतीत हो गये । मैं संध्या समय मुन्नू को साथ ले कर वायु सेवन को जाया करता था । लौटते समय कतिपय मित्रों से भेंट भी कर लिया करता था । उन संगतों में मुन्नू श्यामा की भाँति चहकता । वास्तव में इन संगतों से मेरा अभिप्राय मनोविनोद नहीं, केवल मुन्नू के असाधारण बुद्धि चमत्कार को प्रदर्शित करना था । मेरे मित्रगण जब मुन्नू को प्यार करते और उसकी विलक्षण बुद्धि की सराहना करते तो मेरा हृदय बाँसों उछलने लगता था । एक दिन मैं मुन्नू के साथ बाबू ज्वालासिंह के घर बैठा हुआ था । ये मेरे परम मित्र थे । मुझमें और उनमें कुछ भेद-भाव न था । इसका अर्थ यह नहीं है कि हम अपनी क्षुद्रताएँ, अपने पारिवारिक कलहादि और अपनी आर्थिक कठिनाइयाँ बयान किया करते थे । नहीं हम इन मुलाकातों में भी अपनी प्रतिष्ठा कि रक्षा करते थे और अपनी दुरवस्था का जिक्र कभी हमारी जबान पर न आता था । अपनी कालिमाओं को सदैव छिपाते थे । एकता में भी भेद था और घनिष्ठता में भी अंतर । अचानक बाबू ज्वालासिंह ने मुन्नू की ओर देखा । उसके उत्तर के विषय में मुझे कोई संदेह न था । मैं भलीभाँति जानता था कि अम्मा उसे बहुत प्यार करती है । परंतु मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब मुन्नू ने इस प्रश्न का उत्तर मुख से न देकर नेत्रों से दिया । उसके नेत्रों से आँसू की बूँदे टपकने लगी मैं लज्जा से गड़ गया । इस अश्रु-जल ने अम्बा के उस सुंदर चित्र को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया जो गत दो मास से मैंने हृदय में अंकित कर रखा था । ज्वालासिंह ने कुछ संशय की दृष्टि से देखा और पुनः मुन्नू से पूछा - "क्यों रोते हो बेटा ?" मुन्नू बोला - "रोता नहीं हूँ आँखों में धुआँ लग गया था ।" ज्वालासिंह का विमाता की ममता पर संदेह करना स्वाभाविक बात थी; परन्तु वास्तव में मुझे भी संदेह हो गया ! अम्बा सहृदयता और स्नेह की वह देवी नहीं है, जिसकी सराहना करते मेरी जिह्वा न थकती थी । वहाँ से उठा तो मेरा हृदय भरा हुआ था और लज्जा से माथा न उठता था ।

(3)

मैं घर की ओर चला तो मन में विचार करने लगा कि किस प्रकार अपने क्रोध को प्रकट करूँ क्यों न मुँह ढ़ँक कर सो रहूँ ।अम्बा जब पूछे तो कठोरता से कह दूँ कि सिर में पीड़ा है,मुझे तंग मत करो । भोजन के लिए उठाये तो झिड़क कर उत्तर दूँ । अम्बा अवश्य समझ जायगी कि कोई बात मेरी इच्छा के प्रतिकूल हुई है । मेरे पाँव पकड़ने लगेगी । उस समय अपनी व्यंग-पूर्ण बातों से उसका हृदय बेध डालूँगा । ऐसा रुलाऊँगा कि वह भी याद करे पुनः विचार आया कि उसका हँसमुख चेहरा देखकर मैं अपने हृदय को वश में रख सकूँगा या नहीं । उसकी एक प्रेम-पूर्ण दृष्टि, एक मीठी बात, एक रसीली चुटकी मेरी शिलातुल्य रुष्टता के टुकड़े-टुकड़े कर सकती है । परन्तु हृदय की इस निर्बलता पर मेरा मन झुँझला उठा । यह मेरी क्या दशा है ,क्यों इतनी जल्दी मेरे चित्त की काया पलट गयी ? मुझे पूर्ण विश्वास था कि मैं इन मृदुल वाक्यों की आँधी और ललित कटाक्षों के बहाव में भी अचल रह सकता हूँ और कहाँ अब यह दशा हो गयी कि मुझमें साधारण झोंके को भी सहन करने की सामर्थ्य नहीं ! इन विचारों से हृदय में कुछ दृढ़ता आयी, तिस पर भी क्रोध की लगाम पग-पग पर ढीली होती जाती थी । अंत में मैंने हृदय को बहुत दबाया और बनावटी क्रोध का भाव धारण किया । ठान लिया कि चलते ही चलते एक दम से बरस पड़ूँगा । ऐसा न हो कि विलम्बरूपी वायु इस क्रोधरूपी मेघ को उड़ा ले जाय; परन्तु ज्यों ही घर पहुँचा, अम्बा ने दौड़ कर मुन्नू को गोदी में ले लिया और प्यार से सने हुए कोमल स्वर से बोली- "आज तुम इतनी देर तक कहाँ घूमते रहे ?चलो ,देखो, मैंने तुम्हारे लिए कैसी अच्छी-अच्छी फुलौड़ियाँ बनायी हैं ।" मेराकृत्रिम क्रोध एक क्षण में उड़ गया । मैंने विचार किया, इस देवी पर क्रोध करना भारी अत्याचार है । मुन्नू अबोध बालक है । सम्भव है कि वह अपनी माँ का स्मरण कर रो पड़ा हो । अम्बा इसके लिए दोषी नहीं ठहरायी जा सकती । हमारे मनोभाव पूर्व विचारों के अधीन नहीं होते, हम उनको प्रकट करने के निमित्त कैसे-कैसे शब्द गढ़ते हैं, परंतु समय पर शब्द हमें धोखा दे जाते हैं और वे ही भावनाएँ स्वाभाविक रूप से प्रकट होती हैं । मैंने अम्बा को न तो कोई व्यंग्य- पूर्ण बातें कहीं और न क्रोधित हो मुख ढाँक कर सोया ही, बल्कि अत्यंत कोमल स्वर में बोला - मुन्नू ने आज मुझे अत्यंत लज्जित किया । खजानची साहब ने पूछा कि तुम्हारी नयी अम्मा तुम्हें प्यार करती हैं या नहीं, तो ये रोने लगा । मैं लज्जा से गड़ गया मुझे तो स्वप्न में भी यह विचार नहीं हो सकता था कि तुमने इसे कुछ कहा होगा । परंतु अनाथ बच्चों का हृदय उस चित्र की भाँति होता है जिस पर एक बहुत ही साधारण परदा पड़ा हुआ हो । ये बातें कितनी कोमल थीं, तिस पर भी अम्बा का विकसित मुखमंडल कुछ मुरझा गया । वह सजल नेत्र होकर बोली - इस बात का विचार तो मैंने यथा साध्य पहले ही दिन से रखा है । परंतु यह असंभव है कि मैं मुन्नू के हृदय से माँ का शोक मिटा दूँ । मैं चाहे अपना सर्वस्व अर्पण कर दूँ, परंतु मेरे नाम पर जो सौतेलेपन की कालिमा लगी हुई है, वह मिट नहीं सकती ।

(4)

मुझे भय था कि इस वार्तालाप का परिणाम कहीं विपरीत न हो, परन्तु दूसरे ही दिन मुझे अम्बा के व्यवहार में बहुत अंतर दिखाई देने लगा मैं उसे प्रातः सायंकाल मुन्नू कि ही सेवा में लगी हुई देखता, यहाँ तक कि उस धुन में उसे मेरी भी चिंता न रहती । परंतु मैं ऐसा त्यागी न था कि अपने आराम को मुन्नू पर अर्पण कर देता । कभी कभी मुझे अम्बा की यह अश्रद्धा न भाती, परंतु मैं भूलकर भी इसकी चर्चा न करता । एक दिन मैं अनियमित रूप से दफ्तर से कुछ पहले ही आ गया । क्या देखता हूँ कि मुन्नू द्वार पर भीतर की ओर मुँह किये खड़ा है । मुझे इस समय आँख मिचौनी खेलने की सूझी । मैंने दबे पाँव पीछे से जाकर उसके नेत्र मूँद लिए । पर शोक! उसके दोनों गाल अश्रुपूरित थे । मैंने तुरंत दोनों हाथ हटा लिये । ऐसा प्रतीत हुआ मानो सर्प ने डस लिया हो । हृदय पर एक चोट लगी । मुन्नू को गोद में लेकर बोला- मुन्नू क्यों रोते हो यह कहते कहते मेरे नेत्र भी सजल हो आये । मुन्नू आँसू पी कर बोला- जी नहीं रोता नहीं हूँ । मैंने उसे हृदय से लगा लिया और कहा - अम्माँ ने कुछ कहा तो नहीं ? मुन्नू ने सिसकते हुए कहा जी नहीं, वह तो मुझे बहुत प्यार करती है । मुझे विश्वास न हुआ, पूछा - वह प्यार करती तो तुम रोते क्यों ? उस दिन खजानची के घर भी तुम रोये थे । तुम मुझसे छिपाते हो । कदाचित् तुम्हारी अम्माँ अवश्य तुमसे कुछ क्रुद्ध हुई हैं । मुन्नु ने मेरी ओर कातर दृष्टि से देखकर कहा - जी नहीं वह मुझे प्यार करती हैं इसी कारण मुझे बारम्बार रोना आता है । मेरी अम्माँ मुझे अत्यंत प्यार करती थीं । वह मुझे छोड़ कर चली गयीं । नयी अम्माँ उससे भी अधिक प्यार करती हैं । इसीलिए मुझे भय लगता है कि उसकी तरह यह भी मुझे छोड़ कर न चली जाय । यह कह कर मुन्नू फूट-फूट कर रोने लगा । मैं भी रो पड़ा । अम्बा के इस स्नेहमय व्यवहार ने मुन्नू के सुकोमल हृदय पर कैसा आघात किया था ! थोड़ी देर तक मैं स्तम्भित रह गया । किसी कवि की यह वाणी स्मरण आ गयी कि पवित्र आत्माएँ इस संसार में चिरकाल तक नहीं ठहरतीं । कहीं भावी ही इस बालक की जिह्वा से तो यह शब्द नहीं कहला रही है । ईश्वर न करे कि वह अशुभ दिन देखना पड़े । परंतु मैंने तर्क द्वारा इस शंका को दिल से निकाल दिया । समझा कि माता को हृदय मृत्यु ने प्रेम और वियोग में एक मानसिक सम्बन्ध उत्पन्न कर दिया है और कोई बात नहीं है । मुन्नु को गोद में लिए हुए अम्बा के पास गया और मुस्करा कर बोला - `इनसे पूछो क्यों रो रहे हैं ?" अम्बा चौंक पड़ी । उसके मुख की कांति मलिन हो गई । बोली- तुम्हीं पूछो । मैंने कहा यह इसलिए रोते हैं कि तुम इन्हें अत्यंत प्यार करती हो और इनको भय है कि तुम भी इनकी माता की भाँति इन्हें छोड़कर न चली जाओ । जिस प्रकार गर्द साफ हो जाने से दर्पण चमक उठता है, उसी भाँति अम्बा का मुख मंडल प्रकाशित हो गया । उसने मुन्नू को मेरी गोद से छीन लिया और कदाचित् यह प्रथम अवसर था कि उसने ममतापूर्ण स्नेह से मुन्नू के पाँव का चुम्बन किया ।

(5)

शोक ! महा शोक !! मैं क्या जानता था कि मुन्नू की अशुभ कल्पना इतनी शीघ्र पूर्ण हो जायगी । कदाचित् उसकी बाल-दृष्टि ने होनहार को देख लिया था, कदाचित् उसके बाल श्रवण मृत्यु दूतों के विकराल शब्दों से परिचित थे । छ मास भी व्यतीत न होने पाये थे कि अम्बा बीमार पड़ी और एन्फ्लुएंजा देखते देखते उसे हमारे हाथों से छीन लिया । पुनः वह उपवन मरुतुल्य हो गया, पुनः वह बसा हुआ घर उजड़ गया । अम्बा ने अपने को मुन्नू पर अर्पण कर दिया था - हाँ, उसने पुत्र स्नेह का आदर्श रूप दिखा दिया । शीतकाल था और वह घड़ी रात्रि शेष रहते ही मुन्नू के लिए प्रातःकाल का भोजन बनाने उठती थी । उसके इस स्नेह-बाहुल्य ने मुन्नू पर स्वाभाविक प्रभाव डाल दिया था । वह हठीला और नटखट हो गया था । जब तक अम्बा भोजन कराने न बैठे, मुँह में कौर न डालता, जब तक अम्बा पंखा न झले, वह चारपाई पर पाँव न रखता । उसे छेड़ता, चिढ़ाता और हैरान कर डालता । परंतु अम्बा को इन बातों से आत्मिक सुख प्राप्त होता था । एनफ्लुएंजा से कराह रही थी, करवट लेने तक कि शक्ति न थी, शरीर तवा हो रहा था, परंतु मुन्नू के प्रातःकाल के भोजन की चिंता लगी रहती थी । हाय ! वह निःस्वार्थ मातृ-स्नेह अब स्वप्न हो गया । उस स्वप्न के स्मरण से अब भी हृदय गद्गद् हो जाता है । अम्बा के साथ मुन्नू का चुलबुलापन तथा बालक्रीड़ा विदा हो गयी । अब वह शोक और नैरास्य की जीवित मूर्ति है, वह अब भी नहीं रोता । ऐसा पदार्थ खो कर अब उसे कोई खटका, कोई भय नहीं रह गया ।

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14 - बूढ़ी -काकी

- लेखक - मुंशी प्रेमचंद

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बुढ़ापा बहुधा बचपन का पुनरागमन हुआ करता है । बूढ़ी काकी में जिह्वा स्वाद के सिवा और कोई चेष्टा शेष न थी और न अपने कष्टों की ओर आकर्षित करने का, रोने के अतिरिक्त कोई दूसरा सहारा ही । समस्त इन्द्रियाँ, नेत्र,हाथ और पैर जवाब दे चुके थे ! पृथ्वी पर पड़ी रहती और घर वाले कोई बात उनकी इच्छा के प्रतिकूल करते, भोजन का समय टल जाता या उसका परिणाम पूर्ण न होता , अथवा बाजार से कोई वस्तु आती और न मिलती तो ये रोने लगती थीं । उनका रोना-सिसकना साधारण रोना न था, वे गला फाड़-फाड़ कर रोती थीं। उनके पतिदेव को स्वर्ग सिधारे कालांतर हो चुका था । बेटे तरुण हो-हो कर चल बसे थे । अब एक भतीजे के सिवाय और कोई न था । उसी भतीजे के नाम उन्होंने अपनी सारी सम्पत्ति लिख दी । भतीजे ने सारी सम्पत्ति लिखाते समय खूब लम्बे-चौड़े वादे किये, किंतु वे सब वादे केवल कुली डिपो के दलालों के दिखाये हुए सब्जबाग थे यद्यपि उस सम्पत्ति कि वार्षिक आय डेढ़ दो सौ रुपये से कम न थी तथापि बूढ़ी काकी को पेट भर भोजन भी कठिनाई से मिलता था । इसमें उनके भतीजे पंडित बुद्धिराम का अपराध था अथवा उनकी अर्द्धांगिनी श्रीमती रूपा का, इसका निर्णय करना सहज नहीं । बुद्धिराम स्वभाव के सज्जन थे , किंतु उसी समय तक जब तक कि उनके कोष पर कोई आँच न आये । रूपा स्वभाव से तीव्र थी सही, पर ईश्वर से डरती थी । अतएव बूढ़ी काकी को उसकी तीव्रता उतनी न खलती थी जितनी बुद्धिराम की भलमन साहत । बुद्धिराम को कभी-कभी अपने अत्याचार का खेद होता था । विचारते कि इसी सम्पत्ति के कारण मैं इस समय भलामानुष बना बैठा हूँ । यदि मौखिक आश्वासन और सूखी सहानुभूति से स्थिति में सुधार हो सकता हो उन्हें कदाचित् कोई आपत्ति न होती, परंतु विशेष व्यय का भय उनकी सचेष्टा को दबाये रखता था । यहाँ तक कि यदि द्वार पर कोई भला आदमी बैठा होता और बूढ़ी काकी उस समय अपना राग अलापने लगती तो वह आग हो जाते और घर में आ कर उन्हें जोर से डाँटते । लड़कों को बुड्ढों से स्वाभाविक विद्वेष होता ही है और फिर जब माता-पिता का यह रंग देखते तो वे बूढ़ी काकी को और सताया करते । कोई चुटकी काट कर भागता, कोई उन पर पानी की कुल्ली कर देता काकी चीख मार कर रोती, परंतु यह बात प्रसिद्ध थी कि वह केवल खाने के लिए रोती हैं, अतएव उनके संताप और आर्तनाद पर कोई ध्यान नहीं देता था । हाँ, काकी क्रोधातुर हो कर बच्चों को गालियाँ देने लगतीं तो रूपा घटनास्थल पर आ पहुँचती । इस भय से काकी अपनी जिह्वा कृपाण का कदाचित ही प्रयोग करती थीं , यद्यपि उपद्रव -शांति का यह उपाय रोने से कहीं अधिक उपयुक्त था । सम्पूर्ण परिवार में यदि काकी से किसी को अनुराग था, तो वह बुद्धिराम की छोटी लड़की लाड़ली थी । लाड़ली अपने दोनों भाइयों के भय से अपने हिस्से की मिठाई-चबैना बूढ़ी काकी के पास बैठ कर खाया करती थी । यही उसका रक्षागार था और यद्यपि काकी की शरण उनकी लोलुपता के कारण बहुत महँगी पड़ती थी, तथापि भाइयों के अन्याय से कहीं सुलभ थी । इसी स्वार्थानुकूलता ने उन दोनों में सहानुभूति का आरोपण कर दिया था ।

(2)

रात का समय था । बुद्धिराम के द्वार पर शहनाई बज रही थी और गाँव के बच्चों का झुंड विस्मयपूर्ण नेत्रों से गाने का रसास्वादन कर रहा था । चारपाइयों पर मेहमान विश्राम करते हुए नाइयों से मुक्कियाँ लगवा रहे थे । समीप ही खड़ा हुआ भाट विरदावली सुना रहा था । और कुछ भावज्ञ मेहमानों की `वाह, वाह" पर ऐसा खुश हो रहा था मानो इस वाह-वाह का यथार्थ में वही अधिकारी है । दो-एक अँग्रेजी पढ़े हुए नवयुवक इन व्यवहारों से उदासीन थे । वे इस गँवार मंडली में बोलना अथवा सम्मिलित होना अपनी प्रतिष्ठा के प्रतिकूल समझते थे । आज बुद्धिराम के बड़े लड़के मुखराम का तिलक आया है । यह उसी का उत्सव है । घर के भीतर स्त्रियाँ गा रही थीं और रूपा मेहमानों के लिए भोजन के प्रबन्ध में व्यस्त थी। भट्टियों पर कड़ाह चढ़ रहे थे । एक में पूड़िया-कचौड़िया निकल रही थीं, दूसरे में अन्य पकवान बनते थे । एक बड़े हण्डे में मसालेदार तरकारी पक रही थी । घी और मसाले की क्षुधावर्धक सुगंधि चारों ओर फैली हुई थी ! बूढ़ी काकी अपनी कोठरी में शोकमय विचार की भाँति बैठी हुई थीं । स्वाद मिश्रित सुगंधि उन्हें बेचैन कर रही थी । वे मन ही मन विचार कर रही थीं, सम्भवतः मुझे पूड़ियाँ न मिलेंगी । इतनी देर हो गयी, कोई भोजन लेकर नहीं आया । मालूम होता है, सब लोग भोजन कर चुके हैं । मेरे लिए कुछ न बचा । यह सोच कर उन्हें रोना आया; परन्तु अपशकुन के भय से वह रो न सकी । "आहा ! कैसी सुगंधि है ? अब मुझे कौन पूछता है ? जब रोटियों ही के लाले पड़े हैं तब ऐसे भाग्य कहाँ कि भर पेट पुड़ियाँ मिलें ?" यह विचार कर उन्हें रोना आया, कलेजे में हूक-सी उठने लगी । परंतु रूपा के भय से उन्होंने फिर मौन धारण कर लिया । बूढ़ी काकी देर तक इन्हीं दुःखदायक विचारों में डूबी रहीं ! घी और मसालों की सुगंधि रह-रहकर मन को आपे से बाहर किये देती थी । मुँह में पानी भर-भर आता था । पूड़ियों का स्वाद स्मरण करके हृदय में गुदगुदी होने लगती थी । किसे पुकारूँ; आज लाड़ली बेटी भी नहीं आयी । दोनों छोकड़े सदा दिक किया करते हैं । आज उनका भी कहीं पता नहीं । कुछ मालूम तो होता कि क्या बन रहा है । बूढ़ी काकी की कल्पना में पूड़ियों की तस्वीर नाचने लगी । खूब लाल-लाल , फूली-फूली नरम-नरम होंगी । रूपा ने भली-भाँति भोजन दिया होगा । कचौड़ियों में अजवाइन और इलायची की महँक आ रही होगी । एक पूड़ी मिलती तो जरा हाथ में ले कर देखती । क्यों न चल कर कड़ाह के सामने ही बैठूँ । पूड़ियाँ छन-छन कर तैयार होंगी । कड़ाह से गरम- गरम निकालकर थाली में रखी जाती होंगी । फूल हम घर में भी सूँघ सकते हैं; परंतु बाटिका में और बात है । इस प्रकार निर्णय करके बूढ़ी काकी उकड़ूँ बैठ कर हाथों के बल सरकती हुई बड़ी कठिनाई में चौखट से उतरी और धीरे-धीरे रेंगती हुई कड़ाह के पास आ बैठी । यहाँ आने पर उन्हें उतना ही धैर्य हुआ जितना भूखे कुत्ते को खाने वाले के सम्मुख बैठने में होता है । रूपा उस समय कार्य भार से उद्विग्न हो रही थी । कभी इस कोठे में जाती, कभी उस कोठे में, कभी कड़ाह के पास आती, कभी भंडार में जाती । किसी ने बाहर से आकर कहा- महाराज ठंडाई माँग रहे हैं ।" ठंडाई देने लगी । इतने में फिर किसी ने आ कर कहा - "भाट आया है, उसे कुछ दे दो ।" भाट के लिए सीधा निकाल रही थी कि एक तीसरे आदमी ने आ कर पूछा -अभी भोजन तैयार होने में कितना विलम्ब है ? जरा ढोल मजीरा उतार दो " बेचारी अकेली स्त्री दौड़ते-दौड़ते व्याकुल हो रही थी, झुँझलाती थी, कुढ़ती थी, किंतु क्रोध प्रकट करने का अवसर न पाती थी । भय होता, कहीं पड़ोसिनें यह कहने लगे कि इतने में उबल पड़ीं । प्यास से स्वयं कंठ सूख रहा था । गर्मी के मारे फूँकी जाती थी, परन्तु इतना अवकाश भी नहीं था कि जरा पानी पी ले अथवा पंखा ले कर झले । वह भी खटका था कि जरा आँख हटी और चीजों की लूट मची । इस अवस्था में उसने बूढ़ी काकी को कड़ाह के पास बैठी देखा तो जल गयी । क्रोध न रुक सका । इसका भी ध्यान न रहा कि पड़ोसिनें बैठी तुम्हें मन में क्या कहेंगी, पुरुषों में लोग सुनेंगे तो क्या कहेंगे । जिस प्रकार मेंढ़क केंचुएँ पर झपटता है, उसी प्रकार वह बूढ़ी काकी पर झपटी और उन्हें दोनों हाथों से झटककर बोली- ऐसे पेट में आग लगे, पेट है या भाड़ ? कोठरी में बैठते हुए क्या दम घुटता था ? अभी मेहमानो ने नहीं खाया, भगवान को भोग नहीं लगा, तब तक धैर्य न हो सका ? आकर छाती पर सवार हो गयी । जल जाय ऐसी जीभ । दिन भर खाती न होती तो न जाने किसकी हाँड़ी में मुँह डालती ? गाँव देखेगा तो कहेगा कि बुढ़िया भर पेट खाने को नहीं पाती तभी तो इस तरह मुँह बाये फिरती है । डायन न मरे न माँचा छोड़े । नाम बेचने पर लगी है । नाक कटवा कर दम लेगी । इतना ठूँसती है, न जाने कहाँ भस्म हो जाता है । लो, भला चाहती हो तो जाकर कोठरी में बैठो, जब घर के लोग खाने लगेंगे तब तुम्हें भी मिलेगा । तुम कोई देवी नहीं हो कि चाहे किसी के मुँह में पानी न जाय, परंतु तुम्हारी पूजा पहले ही हो जाय । बूढ़ी काकी ने सिर न उठाया; न रोई न बोलीं । चुपचाप रेंगती हुई अपनी कोठरी में चली गयीं । आवाज ऐसी कठोर थी कि हृदय और मस्तिष्क की सम्पूर्ण शक्तियाँ, सम्पूर्ण विचार और सम्पूर्ण भार उसी ओर आकर्षित हो गये थे । नदी में जब करार का कोई वृहद खंड कट कर गिरता है तो आस-पास का जल-समूह चारों ओर उसी स्थान को पूरा करने के लिए दौड़ता है !

(3)

भोजन तैयार हो गया। आँगन में पत्तलें पड़ गयीं, मेहमान खाने में स्त्रियों ने जेवनार गीत गाना आरम्भ कर दिया । मेहमानों के नाई और सेवक गण भी उसी मंडली के साथ किंतु कुछ हट कर भोजन करने बैठे थे, परंतु सभ्यतानुसार जब तक सब के सब खा न चुके कोई उठ नहीं सकता था । दो एक मेहमान जो कुछ पढ़े लिखे थे, सेवकों के दीर्घाहार पर झुँझला रहे थे । वे इस बंधन को व्यर्थ और बे-सिर-पैर की बात समझते थे। बूढ़ी काकी अपनी कोठरी में जा कर पश्चाताप कर रही थीं कि मैं कहाँ से कहाँ गयी । उन्हें रूपा पर क्रोध नहीं था । अपनी जल्दीबाजी पर दुःख था सच ही तो है जब तक मेहमान लोग भोजन कर न चुकेंगे, घरवाले कैसे खायेंगे । मुझसे इतनी देर भी नहीं रहा गया । सबके सामने पानी उतर गया । अब जब तक कोई बुलाने न आयेगा, न जाऊँगी । मन ही मन इसी प्रकार का विचार कर वह बुलावे की प्रतीक्षा करने लगी परन्तु घी की रुचिकर सुबास बड़ी धैर्य-परीक्षक प्रतीत हो रही थी । उन्हे एक एक पल एक एक युग के समान मालूम होता था । अब पत्तल बिछ गयी होगी अब मेहमान आ गये होंगे । । लोग हाथ-पैर धो रहे हैं, नाशई पानी दे रहा है । मालूम होता है लोग खाने बैठ गये । जेवनार गाया जा रहा है, यह विचार कर वह मन को बहलाने के लिए लेट गयीं । धीरे धीरे एक गीत गुनगुनाने लगी । उन्हें मालूम हुआ कि मुझे गाते देर हो गयी । क्या इतनी देर तक लोग भोजन कर ही रहे होंगे । किसी की आवाज नहीं सुनायी देती । अवश्य ही लोग खा-पीकर चले गये । मुझे कोई बुलाने नहीं आया । रूपा चिढ़ गयी, क्या जाने न बुलाये सोचती हो कि आप ही आवेंगी, वह कोई मेहमान तो नहीं जो उन्हें बुलाऊँ । बूढ़ी काकी चलने के लिए तैयार हुई । यह विश्वास कि एक मिनट में पूड़ियाँ और मसालेदार तरकारियाँ सामने आयेंगी, उनकी स्वादेन्द्रियों को गुद-गुदाने लगा । उन्होंने मन में तरह तरह के मन्सूबे बाँधे - पहले तरकारी से पूड़ियाँ खाऊँगी, फिर दही और शक्कर से, कचौरियाँ रायते के साथ मजेदार मालूम होंगी । चाहे कोई बुरा माने चाहे भला, मैं तो माँग-माँग कर खाऊँगी । यही न लोग कहेंगे कि इन्हें विचार नहीं ? कहा करें, इतने दिन के बाद पूड़ियाँ मिल रही हैं तो मुँह झूठा करके थोड़े ही उठ जाऊँगी । वह उकड़ू बैठ कर हाथों के बल सरकती हुई आँगन में आयीं । परंतु हाय दुर्भाग्य ! अभिलाषा ने अपने पुराने स्वभाव के अनुसार समय की मिथ्या कल्पना की थी । मेहमान- मंडली अभी बैठी हुई थी । कोई खा कर उँगलियाँ चाटता था, कोई तिरछे नेत्रों से देखता था कि और लोग अभी खा रहे हैं या नहीं । कोई इस चिंता में था कि पत्तल पर पूड़ियाँ छूटी जाती हैं किसी तरह इन्हें भीतर रख लेता । कोई दही खा कर जीभ चटकारता था, परंतु दूसरा दोना माँगते संकोच करता था इतने में बूढ़ी काकी रेंगती हुई उनके बीच में जा पहुँची । कई आदमी चौंक कर उठ खड़े हुए । पुकारने लगे - अरे यह बुढ़िया कौन है । यह कहाँ से आ गयी ? देखो किसी को छू न दे । पंडित बुद्धिराम काकी को देखते ही क्रोध से तिलमिला गये । पूड़ियों का थाल लिये खड़े थे । थाल को जमीन पर पटक दिया और जिस प्रकार निर्दयी महाजन अपने किसी बेईमान और भगोड़े कर्जदार को देखते ही झपटकर उसका टेंटुआ पकड़ लेता है उसी तरह लपक कर उन्होंने काकी के दोनों हाथ पकड़े और घसीटते हुए लाकर उन्हें अँधेरी कोठरी में धम से पटक दिया । आशा रूपी वाटिका लू के एक झोंके में नष्ट-विनष्ट हो गयी । मेहमानों ने भोजन किया । बाजेवाले, धोबी, चमार भी भोजन कर चुके, परंतु बूढ़ी काकी को किसी ने न पूछा । बुद्धिराम और रूपा दोनों ही बूढ़ी काकी को उनकी निर्लज्जता के लिए दंड देने का निश्चय कर चुके थे । उनके बुढ़ापे पर , हतज्ञान पर किसी को करुणा न आयी थी । अकेली लाड़ली उनके लिए कुढ़ रही थी । लाड़ली की काकी से अत्यंत प्रेम था । बेचारी भोली लड़की थी । बाल विनोद और चंचलता की उसमें गंध तक न थी । दोनों बार जब उसके माता-पिता ने काकी को निर्दयता से घसीटा तो लाड़ली का हृदय ऐंठ कर रह गया । वह झुँझला रही थी कि यह लोग काकी को क्यों बहुत-सी पूड़ीयाँ नहीं दे देते ? क्या मेहमान सब की सब खा जायेंगे ? और यदि काकी ने मेहमानों के पहले खा लिया तो क्या बिगड़ जायगा ? वह काकी के पास जा कर उन्हें धैर्य देना चाहती थी, परंतु माता के भय से न जाती थी । उसने अपने हिस्से कि पूड़ियाँ बिल कुल न खायी थीं । अपनी गुड़ियों की पिटारी में बंद कर रखी थीं । वह उन पूड़ियों को काकी के पास ले जाना चाहती थी । उसका हृदय अधीर हो रहा था । बूढ़ी काकी मेरी बात सुनते ही उठ बैठेंगी, पूड़ियाँ देखकर कैसी प्रसन्न होंगी! मुझे खूब प्यार करेंगी !

(4)

रात के ग्यारह बज गये थे । रूपा आँगन में पड़ी सो रही थी । लाड़ली की आँखों में नींद न आती थी । काकी को पूड़ियाँ खिलाने की खुशी उसे सोने न देती थी । उसने गुड़ियों की पिटारी सामने ही रखी थी । जब विश्वास हो गया कि अम्माँ सो रही हैं; तो वह चुपके से उठी और विचारने लगी, कैसे चलूँ चारों ओर अँधेरा था । केवल चूल्हों में आग चमक रही थी, और चूल्हों के पास एक कुत्ता लेटा हुआ था । लाड़ली की दृष्टि द्वार के सामने वाले नीम की ओर गयी । उसे मालूम हुआ कि उस पर हनुमान जी बैठे हुए हैं । उनकी पूँछ उनकी गदा, सब स्पष्ट दिखलाई दे रही है । मारे भय के उसने आँखें बंद कर ली । इतने में कुत्ता उठ बैठा, लाड़ली को ढाढ़स हुआ । कई सोये हुए मनुष्यों के बदले एक भागता हुआ कुत्ता उसके लिए अधिक धैर्य का कारण हुआ । उसने पिटारी उठायी और बूढ़ी काकी की कोठरी की ओर चली ।

(5)

बूढ़ी काकी को केवल इतना स्मरण था कि किसी ने मेरे हाथ पकड़ कर घसीटे, फिर ऐसा मालूम हुआ जैसे कोई पहाड़ पर उड़ाये लिये जाता है । उनके पैर बार बार पत्थरों से टकराये तब किसी ने उन्हें पहाड़ पर से पटका वे मूर्छित हो गयीं । जब वे सचेत हुई तो किसी की जरा भी आहट न मिलती थी । समझी कि सब लोग खा-पीकर सो गयी । रात कैसे कटेगी ? राम ! क्या खाऊँ ? पेटे काटने से धन जुड़ जायगा ? इन लोगों को इतनी भी दया नहीं आती कि न जाने बुढ़िया कब मर जाय ? उसका जी क्यों दुखावें ? मैं पेट की रोटियाँ ही खाती हूँ कि और कुछ ? इस पर यह हाल । मैं अंधी अपाहिज ठहरी , न कुछ सुनूँ न बूझूँ । यदि आँगन में चली गयी तो क्या बुद्धिराम से इतना कहते न बनता था कि काकी अभी लोग खा रहे हैं, फिर आना । मुझे घसीटा, पटका । उन्हीं पूड़ियों के लिए रूपा ने सबके सामने गालियाँ दी । उन्हीं पूड़ियों के लिए इतनी दुर्गति करने पर भी उनका पत्थर का कलेजा न पसीजा । सबको खिलाया, मेरी बात तक न पूछी । जब तब ही न दीं, तब अब क्या देंगे ? यह विचार कर काकी निराशामय संतोष के साथ लेट गयीं । ग्लानि से गला भर-भर आता था, परंतु मेहमानों के भय से रोती न थीं । सहसा उनके कानों में आवाज आयी - "काकी उठो; मैं पूड़ियाँ लायी हूँ" काकी ने लाड़ली की बोली पहचानी । चटपट उठ बैठीं । दोनों हाथों से लाड़ली को टटोला और उसे गोद में बैठा लिया । लाड़ली ने पूड़ियाँ निकाल कर दीं । काकी ने पूछा - क्या तुम्हारी अम्मा ने दी हैं ? लाड़ली ने कहा - नहीं, यह मेरे हिस्से की हैं । काकी पूड़ियों पर टूट पड़ीं । पाँच मिनट में पिटारी खाली हो गयी । लाड़ली ने पूछा- काकी पेट भर गया । जैसे थोड़ी-सी वर्षा ठंडक के स्थान पर और भी गर्मी पैदा कर देती है उसी भाँति इन थोड़ी पूड़ियों ने काकी की क्षुधा और इच्छा को और उत्तेजित कर दिया था । बोली- नहीं बेटी, जा कर अम्माँ से और माँग लाओ । लाड़ली ने कहा - अम्माँ सोती हैं, जगाऊँगी तो मारेंगी। काकी ने पिटारी को फिर टटोला । उसमें कुछ खुर्चन गिरे थे । उन्हें निकाल कर वे खा गयीं । बार-बार होंठ चाटतीं थीं चटखारें भरती थीं । हृदय मसोस रहा था कि और पूड़ियाँ कैसे पाऊँ । संतोष-सेतु जब टूट जाता है तब इच्छा का बहाव अपरिमित हो जाता है । मतवालों को मद का स्मरण करना उन्हें मदांध बनाता है । काकी का अधीर मन इच्छा के प्रबल प्रवाह में बह गया । उचित और अनुचित का विचार जाता रहा । वे कुछ देर तक उस इच्छा को रोकती रहीं । सहसा लाड़ली से बोलीं - मेरा हाथ पकड़ कर वहाँ ले चलो जहाँ मेहमानों ने बैठ कर भोजन किया है । लाड़ली उनका अभिप्राय समझ न सकी । उसने काकी का हाथ पकड़ा और ले जाकर झूठे पत्तलों के पास बैठा दिया । दीन, क्षुधातुर हत-ज्ञान बुढ़िया पत्तलों से पूड़ियों के टुकड़े चुन-चुन कर भक्षण करने लगी । ओह दही कितना स्वादिष्ट था, कचौड़ियाँ कितनी सलोनी, खस्ता कितने सुकोमल । काकी बुद्धि हीन होते हुए भी इतना जानती थीं कि मैं वह काम कर रही हूँ, जो मुझे कदापि न करना चाहिए । मैं दूसरों की झूठी पत्तल चाट रही हूँ । परंतु बुढ़ापा तृष्णा रोग का अंतिम समय है, जब सम्पूर्ण इच्छाएँ एक ही केंद्र पर आ लगती हैं । बूढ़ी काकी में यह केंद्र उनकी स्वादेन्द्रिय थी । ठीक उसी समय रूपा की आँखें खुलीं । उसे मालूम हुआ कि लाड़ली मेरे पास नहीं है। वह चौंकी, चारपाई के इधर-उधर ताकने लगी कि कहीं नीचे तो नहीं गिर पड़ी । उसे वहाँ न पाकर वह उठी तो क्या देखती है कि लाड़ली जूठे पत्तलों के पास चुपचाप खड़ी है और बूढ़ी काकी पत्तलों पर से पूड़ियों के टुकड़े उठा-उठा कर खा रही है । रूपा का हृदय सन्न हो गया । किसी गाय की गर्दन पर छुरी चलते देख कर जो अवस्था उसकी होती, वही उस समय हुई । एक ब्राह्मणी दूसरों की झूठी पत्तल टटोले, इससे अधिक शोकमय दृश्य असम्भव था । पूड़ियोंके कुछ ग्रासों के लिए उसकी चचेरी सास ऐसी पतित और निकृष्ट कर्म कर रही है ! यह वह दृश्य था जिसे देखकर देखनेवालों के हृदय काँप उठते हैं । ऐसा प्रतीत होता मानों जमीन रुक गयी, आसमान चक्कर खा रहा है । संसार पर कोई विपत्ति आनेवाली है । रूपा को क्रोध न आया । शोक के सम्मुख क्रोध कहाँ ? करुणा और भय से उसकी आँखें भर आयीं । इस अधर्म के पाप का भागी कौन है ? उसने सच्चे हृदय से गगन-मंडल की ओर हाथ उठाकर कहा- परमात्मा, मेरे बच्चों पर दया करो । इस अधर्म का दंड मुझे मत दो, नहीं तो मेरा सत्यानाश हो जायगा । रूपा को अपनी स्वार्थपरता और अन्याय इस प्रकार प्रत्यक्ष रूप में कभी नहीं देख पड़े थे । वह सोचने लगी - हाय ! कितनी निर्दय हूँ । जिसकी सम्पत्ति से मुझे दो सौ रुपया वार्षिक आय हो रही है, उसकी यह दुर्गति ! और मेरे कारण ! हे दयामय भगवान् ! मुझसे बड़ी भारी चूक हुई है, मुझे क्षमा करो । आज मेरे बेटे का तिलक था ।सैकड़ों मनुष्यों ने भोजन पाया । मैं उनके इशारों की दासी बनी रही । अपने नाम के लिए सैकड़ों रुपये व्यय कर दिये , परंतु जिसकी बदौलत हजारों रुपये खाये उसे इस उत्सव में भी भर पेट भोजन न दे सकी । केवल इसी कारण तो, वह वृद्धा असहाय है । रूपा ने दिया जलाया, अपने भंडार का द्वार खोला और एक थाली में सम्पूर्ण सामग्रियाँ सजा कर लिए हुए बूढ़ी काकी की ओर चली । आधी रात जा चुकी थी, आकाश पर तारों के थाल सजे हुए थे और उन पर बैठे हुए देवगण स्वर्गीय पदार्थ सजा रहे थे, परंतु उनमें किसी को वह परमानन्द प्राप्त न हो सकता था जो बूढ़ी काकी को अपने सम्मुख थाल देख कर प्राप्त हुआ । रूपा ने कंठावरुद्ध स्वर में कहा - काकी उठो, भोजन कर लो । मुझसे आज बड़ी भूल हुई, उसका बुरा न मानना । परमात्मा से प्रार्थना कर दो वह मेरा अपराध क्षमा कर दें । भोले-भाले बच्चों की भाँति, जो मिठाइयाँ पा कर मार और तिरस्कार सब भूल जाता है, बूढ़ी काकी वैसे ही सब भूला कर बैठी हुई खाना खा रही थी । उसके एक एक रोएँ से सच्ची सदिच्छाएँ निकल रही थीं और रूपा बैठी इस स्वर्गीय दृश्य का आनन्द लेने में निमग्न थी ।

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15 - हार की जीत

- लेखक - मुंशी प्रेमचंद

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केशव से मेरी पुरानी लाग-डाँट थी । लेख और वाणी, हास्य और विनोद सभी क्षेत्रों में मुझसे कोसों आगे था । उसके गुणों की चंद्र-ज्योति में मेरे दीपक का प्रकाश कभी प्रस्फुटित न हुआ । एक बार उसे नीचा दिखाना मेरे जीवन की सबसे बड़ी अभिलाषा थी । उस समय मैंने कभी स्वीकार नहीं किया । अपनी त्रुटियों को कौन स्वीकार करता है- पर वास्तव में मुझे ईश्वरने उसकी जैसी बुद्धि-शक्ति न प्रदान की थी । अगर मुझे कुछ तस्कीन थी तो यह कि विद्याक्षेत्र में चाहे मुझे उनसे कंधा मिलाना कभी नसीब न हो, पर व्यवहार की रंगभूमि में सेहरा मेरे ही सिर रहेगा । लेकिन दुर्भाग्य से जब प्रणय सागर में भी उसने मेरे साथ गोता मारा और रत्न उसी के हाथ लगता हुआ नजर आया तो मैं हताश हो गया । हम दोनों ने ही एम0 ए0 के लिए साम्यवाद का विषय लिया था । हम दोनों ही साम्यवादी थे । केशव के विषय में तो यह स्वाभाविक बात थी । उसका कुल बहुत प्रतिष्ठित न था, न वह समृद्धि ही थी जो इस कमी को पूरा कर देती । मेरी अवस्था इसके प्रतिकूल थी । मैं खानदान का ताल्लुकेदार और रईस था । मेरी साम्यवादिता पर लोगों को कुतूहल होता था । हमारे साम्यवाद के प्रोफेसर बाबू हरिदास भाटिया साम्यवाद के सिद्धांतों के कायल थे, लेकिन शायद धन की अवहेलना न कर सकते थे । अपनी लज्जा वती के लिए उन्होंने कुशाग्र बुद्धि केशव को नहीं, मुझे पसंद किया । एक दिन संध्या -समय वह मेरे कमरे में आये और चिंतित भाव से बोले - शारदाचरण, मैं महीनों से एक बढ़ी चिंता में पड़ा हुआ हूँ ! मुझे आशा है कि तुम उसका निवारण कर सकते हो ! मेरे कोई पुत्र नहीं है । मैंने तुम्हें और केशव दोनों ही को पुत्र-तुल्य समझा है । यद्यपि केशव तुमसे चतुर है, पर मुझे विश्वास है कि विस्तृत संसार में तुम्हें जो सफलता मिलेगी, वह उसे नहीं मिल सकती । अतएव मैंने तुम्हीं को अपनी लज्जा के लिए वरा है । क्या मैं आशा करूँ कि मेरा मनोरथ पूरा होगा । मैं स्वतंत्र था मेरे माता-पिता मुझे लड़कपन ही में छोड़ कर स्वर्ग चले गये थे । मेरे कुटुम्बियों में अब ऐसा कोई न था, जिसकी अनुमति लेने की मुझे जरूरत होती । लज्जावती जैसी सुशीला, सुंदरी, सुशिक्षित स्त्री को पाकर कौन पुरुष होगा जो अपने भाग्य को न सराहता । मैं फूला न समाया । लज्जा एक कुसुमित वाटिका थी, जहाँ, गुलाब की मनोहर सुगंधि थी और हरियाली की मनोरम शीतलता, समीर की शुभ्र तरंगे थीं और पक्षियों का मधुर संगीत । वह स्वयं साम्यवाद पर मोहित थी । स्त्रियों के प्रतिनिधित्व और ऐसे ही अन्य विषयों पर उसने मुझसे कितनी ही बार बातें की थी । लेकिन प्रोफेसर भाटिया की तरह केवल सिद्धांतों की भक्त न थी, उनको व्यवहार में भी लाना चाहती थी । उसने चतुर केशव को अपना स्नेह-पात्र बनाया था । तथापि मैं जानता था कि प्रोफेसर भाटिया के आदेश को वह कभी नहीं टाल सकती, यद्यपि उसकी इच्छा के विरुद्ध मैं उसे अपनी प्रणयिनी बनाने के लिए तैयार न था । इस विषय में मै स्वेच्छा के सिद्धांत का कायल था । इसलिए मैं केशव की विरक्ति और क्षोभ से आशातीत आनन्द न उठा सका । हम दोनों ही दुःखी थे, और मुझे पहली बार केशव से सहानुभुति हुई । मैं लज्जावती से केवल इतना पूछना चाहता था कि उसने मुझे क्यों नजरों से गिरा दिया । पर उसके सामने ऐसे नाजुक प्रश्नों को छेडँते हुए मुझे संकोच होता था, और यह स्वाभाविक था क्योंकि कोई रमणी अपने अंतःकरण के रहस्यों को नहीं खोल सकती । लेकिन शायद लज्जावती इस परिस्थिति को मेरे सामने प्रकट करना अपना कर्तव्य समझ रही थी । वह इसका अवसर ढूँढ़ रही थी । संयोग से उसे शीघ्र ही अवसर मिल गया । संध्या का समय था । केशव राजपूत होस्टल में साम्यवाद पर एक व्याख्यान देने गया हुआ था । प्रोफेसर भाटिया उस जलसे के प्रधान थे । लज्जा अपने बंगले में अकेली बैठी हुई थी । मैं अपने अशांत हृदय के भाव छिपाये हुए, शोक और नैराश्य की दाह से जलता हुआ उसके समीप आ कर बैठ गया । लज्जा ने मेरी ओर एक उड़ती हुई निगाह डाली और सदय भाव से बोली-कुछ चिंतित जान पड़ते हो ? मैंने कृत्रिम उदासीनता से कहा - तुम्हारी बला से । लज्जा - केशव का व्याख्यान सुनने नहीं गये ! मेरी आँखों से ज्वाला सी निकलने लगी । जब्त करके बोला - आज सिर में दर्द हो रहा था यह कहते कहते अनायास ही मेरे नेत्रों से आँसू की कई बूँदें टपक पड़ीं । मैं अपने शोक को प्रदर्शित करके उसका करुणापात्र बनना नहीं चाहता था । मेरे विचार में रोना स्त्रियों के ही स्वभावानुकूल था । मैं उस पर क्रोध प्रकट करना चाहता था और निकल पड़े आँसू । मन के भाव इच्छा के अधीन नहीं होते । मुझे रोते देखकर लज्जा की आँखों से आँसू गिरने लगे । मै कीना नहीं रखता, मलिन हृदय नहीं हूँ, लेकिन न मालूम क्यों लज्जा के रोने पर मुझे इस समय एक आनन्द का अनुभव हुआ । उस शोकावस्था में भी मैं उस व्यंग्य करने से बाज न रह सका । बोला - लज्जा, मैं तो अपने भाग्य को रोता हूँ । शायद तुम्हारे अन्याय की दुहाई दे रहा हूँ; लेकिन तुम्हारे आँसू क्यों ? लज्जा ने मेरी ओर तिरस्कार-भाव से देखा और बोली - मेरे आँसुओं का रहस्य तुम न समझोगे क्योंकि तुमने कभी समझने की चेष्टा नहीं की । तुम मुझे कटु वचन सुना कर अपने चित्त को शांत कर लेते हो । मैं किसे जलाऊँ ? तुम्हें क्या मालूम है कि मैंने कितना आगा-पीछा सोचकर, हृदयको कितना दबाकर,कितनी रातें करवटें बदल कर और कितने आँसू बहा कर यह निश्चय किया है । तुम्हारी कुल-प्रतिष्ठा रियासत एक दीवार की भाँति मेरे रास्ते में खड़ी है । उस दीवार को मैं पार नहीं कर सकती । मैं जानती हूँ कि इस समय तुम्हें कुल-प्रतिष्ठा और रियासत का लेशमात्र भी अभिमान नहीं है । लेकिन यह भी जानती हूँ कि तुम्हारा कालेज की शीतल छाया में पला हुआ साम्यवाद बहुत दिनों तक सांसारिक जीवन की लू और लपट को न सह सकेगा । उस समय तुम अवश्य अपने फैसले पर पछताओगे और कुढ़ोगे । मैं तुम्हारे दूध कि मक्खी और हृदय का काँटा बन जाऊँगी । मैंने आर्द्र होकर कहा - जिन कारणों से मेरा साम्यवाद लुप्त हो जायगा, क्या वह तुम्हारे साम्यवाद को जीता छोड़ेगा ? लज्जा - हाँ ,मुझे पूरा विश्वास है कि मुझ पर उनका जरा भी असर न होगा । मेरे घर में कभी रियासत नहीं रही और कुल की अवस्था तुम भली भाँति जानते हो । बाबू जी ने केवल अपने अविरल परिश्रम और अध्यवसाय से यह पद प्राप्त किया है । मुझे वह नहीं भूला है जब मेरी माता जीवित थीं और बाबू जी 11 बजे रात को प्राइवेट ट्यूशन करके घर आते थे । तो मुझे रियासत और कुल-गौरव का अभिमान कभी मिट नहीं सकता । यह घमंड मुझे उसी दशा में होगा जब मैं स्मृतिहीन हो जाऊँगी । मैंने उद्दंडता से कहा - कुल प्रतिष्ठा को तो मैं मिटा नहीं सकता, मेरे वश की बात नहीं है, लेकिन तुम्हारे लिए मैं आज रियासत को तिलांजलि दे सकता हूँ । लज्जा क्रूर मुसकान से बोली - फिर वही भावुकता ! अगर यह बात तुम किसी अबोध बालिका से करते तो कदाचित् वह फूली न समाती । मैं एक ऐसे गहन विषय में,जिस पर दो प्राणियों के समस्त जीवन का सुख-दुख निर्भर है, भावुकता का आश्रय नहीं ले सकती । शादी बनावट नहीं है । परमात्मा साक्षी है मैं विवश हूँ, मुझे अभी तक स्वयं मालूम नहीं है कि मेरी डोंगी किधर जायेगी; लेकिन मैं तुम्हारे जीवन को कंटकमय नहीं बना सकती । मैं यहाँ से चला तो इतना निराश न था जितना सचिंत । लज्जा ने मेरे सामने एक नयी समस्या उपस्थित करदी थी । हम दोनों साथ साथ एम0 ए0 हुए । केशव प्रथम श्रेणी में आया, मैं द्वितीय श्रेणी में । उसे नागपुर के एक कालेज में अध्यापक का पद मिल गया । मैं घर आ कर अपनी रियासत का प्रबन्ध करने लगा । चलते समय हम दोनों गले मिल कर और रो कर विदा हुए । विरोध और ईर्ष्या को कालेज में छोड़ दिया । मैं अपने प्रांत का पहला ताल्लुकेदार था, जिसने एम0 ए0 पद प्राप्त किया हो । पहले तो राज्याधिकारियों ने मेरी खूब आवभगत की, लेकिन जब मेरे सामाजिक सिद्धांतों से अवगत हुए तो उनकी कृपादृष्टि कुछ शिथिल पड़ गयी । मैंने भी उनसे मिलना-जुलना छोड़ दिया । अपना अधिकांश समय असामियों के ही बीच में व्यतीत करता । पूरा साल भर भी न गुजरने पाया कि एक ताल्लुकेदार की परलोक यात्रा ने कौंसिल में एक स्थान खाली कर दिया । मैंने कौंसिल में जाने की अपनी तरफ से कोई कोशिश नहीं की । लेकिन काश्तकारों ने अपने प्रतिनिधित्व का भार मेरे ही सिर रखा । बेचारा केशव तो अपने कालेज में लेक्चर देता था, किसी को खबर भी न थी कि वह कहाँ है और क्या कर रहा है और मैं अपनी कुल-मर्यादा की बदौलत कौंसिल का मेम्बर हो गया । मेरी वक्तृताएँ समाचार-पत्रों में छपने लगीं । मेरे प्रश्नों की प्रशंसा होने लगी । कौंसिल में मेरा विशेष सम्मान होने लगा कई सज्जन ऐसे निकल आये जो जनता वाद के भक्त थे । पहले वह परिस्थितियों से कुछ दबे हुए थे, अब यह खुल पड़े । हम लोगों ने लोकवादियों का अपना एक पृथक दल बना लिया और कृषकों के अधिकारों को जोरों के साथ व्यक्त करना शुरू किया । अधिकांश भूपतियों ने मेरी अवहेलना की । कई सज्जनों ने धमकियाँ भी दी; लेकिन मैंने अपने निश्चित पथ को न छोड़ा । सेवा के इस सुअवसर को क्योंकर हाथ से जाने देता दूसरा वर्ष समाप्त होते होते जाति के प्रधान नेताओं में मेरी गणना होने लगी । मुझे बहुत परिश्रम करना, बहुत पढ़ना, बहुत लिखना और बहुत बोलना पड़ता, पर जरा भी न घबराता । इस परिश्रमशीलता के लिए केशव का ऋणी था । उसी ने मुझे इतना अभ्यस्त बना दिया था । मेरे पास केशव और प्रोफेसर भाटिया के पत्र बराबर आते रहते थे । कभी -कभी लज्जावती भी मिलती थी । उसके पत्रों में श्रद्धा और प्रेम की मात्रा दिनों दिन बढ़ती जाती थी वह मेरी राष्ट्र सेवा का बड़े उदार, बड़े उत्साहमय शब्दों में बखान करती । मेरे विषय में उसे पहले जो शंकाए थी, वह मिटती जाती थीं । मेरी तपस्या देवी को आकर्षित करने लगी थी । केशव के पत्रों से उदासीनता टपकती थी । उसके कालेज में धन का अभाव था । तीन वर्ष हो गये थे, पर उसकी तरक्की न हुई थी । पत्रों से ऐसा प्रतीत होता था मानों वह जीवन से असंतुष्ट है । कदाचित् इसका मुख्य कारण यह था कि अभी तक उसके जीवन का सुखमय स्वप्न चरितार्थ न हुआ था । तीसरे वर्ष गर्मियों की तातील में प्रोफेसर भाटिया मुझसे मिलने आये और बहुत प्रसन्न हो कर गये । उसके एक ही सप्ताह पीछे लज्जावती का पत्र आया । अदालत ने तजबीज सुना दी मेरी डिग्री हो गई । केशव कि पहली बार मेरे मुकाबले में हार हुई । मेरे हर्षोल्लास की कोई सीमा न थी । प्रो0 भाटिया का इरादा भारतवर्ष के सब प्रांतो में भ्रमण करने का था । वह साम्यवाद पर एक ग्रन्थ लिख रहे थे जिसके लिए प्रत्येक बड़े नगर में कुछ अन्वेषण करने की जरूरत थी । लज्जा को अपने साथ ले जाना चाहते थे । निश्चय हुआ कि उनके लौट आने पर आगामी चैत के महीने में हमारा संयोग हो जाय । मैं यह वियोग के दिन बड़ी बेसब्री से काटने लगा । अब तक मैं जानता था कि बाजी केशव के हाथ रहेगी मैं निराश था, पर शांत था । अब आशा थी और उसके साथ घोर अशांति थी ।

(3)

मार्च का महीना था । प्रतीक्षा की अवधि पूरी हो चुकी थी । कठिन परिश्रम के दिन गये, फसल काटने का समय आया । प्रोफेसर साहब ने ढाका से पत्र लिखा था कि कई अनिवार्य कारणों से मेरा लौटना मार्च में नहीं मई में होगा । इसी बीच में काश्मीर के दीवान लाला सोमनाथ कपूर नैनीताल आये । बजट पेश था । उन पर व्यवस्थपक सभा में वाद-विवाद हो रहा था । गवर्नर की ओर से दीवान साहब को पार्टी दी गयी । सभा के प्रतिनिधियों को भी निमंत्रण मिला । कौंसिल की ओर से मुझे अभिवादन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । मेरी बकवास को दीवान साहब ने बहुत पसंद किया । चलते समय मुझसे कई मिनट तक बातें की और मुझे अपने डेरे पर आने का आदेश दिया । उनके साथ उनकी पुत्री सुशीला भी थी । वह पीछे सिर झुकाये खड़ी रही । जान पड़ता था, भूमि को पढ़ रही है । पर मैं अपनी आँखों को काबू में न रख सका । वह उतनी ही देर में एक बार नहीं, कई बार उठी और जैसे बच्चा किसी अजनबी की चुमकार से उसकी ओर लपकता है, पर फिर डर कर माँ की गोद से चिमट जाता है, वह भी डर कर आधे रास्ते से लौट गयी । लज्जा अगर कुसुमित बाटिका थी तो सुशीला शीतल सलिल-धारा थी जहाँ वृक्षों के कुंज थे, विनोदशील मृगों के झूंड, विहगावली की अनंत शोभा और तरंगों का मधुर संगीत । मैं घर पर आया तो ऐसा थका हुआ था जैसे कोई मंजिल मार कर आया हूँ । सौंदर्य जीवन- सुधा है । मालूम नहीं क्यों इसका असर इतना प्राणघातक होता है । लेटा तो वही सूरत सामने थी । मैं उसे हटाना चाहता था । मुझे भय था कि एक क्षण भी उस भँवर में पड़ कर मैं अपने को सँभाल न सकूँगा । मैं अब लज्जावती का हो चुका था, वही अब मेरे हृदय की स्वामिनी थी । मेरा उस पर कोई अधिकार न था लेकिन मेरे सारे संयम, सारी दलीलें निष्फल हुई । जल के उद्वेग में नौका को धागे से कौन रोक सकता है ? अंत में हताश होकर मैं अपने को विचारों के प्रवाह में डाल दिया । कुछ दूर तक नौका वेगवती तरंगों के साथ चली, फिर उसी प्रवाह में विलीन हो गयी । दूसरे दिन मैं नियत समय पर दीवान साहब के डेरे पर जा पहुँचा, इस भाँति काँपता और हिचकता जैसे कोई बालक दामिनी की चमक से चौंक-चौंक कर आँख बंद कर लेता है कि कहीं वह चमक न जाय, कहीं मैं उसकी चमक देख न लूँ; भोला-भाला किसान भी अदालत के सामने इतना सशंक न होता होगा । यथार्थ यह था कि मेरी आत्मा परास्त हो चुकी थी, उसमें अब प्रतिकार की शक्ति न रही थी । दीवान साहब ने मुझसे हाथ मिलाया और कोई घंटे भर तक आर्थिक और सामाजिक प्रश्नों पर वार्तालाप करते रहे । मुझे उनकी बहुज्ञता पर आश्चर्य होता था । ऐसा वाक् चतुर मैंने कभी न देखा था । साठ वर्ष की वयस थी, पर हास्य और विनोद के मानों भंडार थे । न जाने कितने श्लोक, कितने कवित्त, कितने शैर उन्हें याद थे । बात-बात पर कोई न कोई सुयुक्ति निकाल लाते थे । खेद है उस प्रकृति के लोग अब गायब होते जाते हैं । वह शिक्षा-प्रणाली न जाने कैसी थी, जो ऐसे-ऐसे रत्न उत्पन्न करती थी । अब तो सजीवता कहीं दिखायी ही नहीं देती । प्रत्येक प्राणी चिन्ता की मूर्ति है, उसके होंठों पर कभी हँसी आती ही नहीं । खैर, दीवान साहब ने पहले चाय मँगवायी, फिर फल और मेवे मँगवाये । मैं रह-रह कर इधर-उधर उत्सुक नेत्रों से देखता था । मेरे कान उसके स्वर का रसपान करने के लिए मुँह खोले हुए थे, आँखें द्वार की ओर लगी हुई थीं । भय भी था और लगाव भी, झिझक भी थी और खिंचाव भी । बच्चा झूले से डरता है पर उस पर बैठना भी चाहता है । लेकिन रात के नौ बज गये, मेरे लौटने का समय आ गया । मन में लज्जित हो रहा था कि दीवान साहब दिल में क्या कह रहे होंगे । सोचते होंगे इसे कोई काम नहीं है ? जाता क्यों नहीं, बैठै-बैठे दो ढाई घंटे तो हो गये । सारी बातें समाप्त हो गयीं । उनके लतीफे भी खत्म हो गये । वह नीरवता उपस्थित हो गयी, जो कहती है कि अब चलिए फिर मुलाकात होगी । यार जिंदा व सोहबत बाकी । मैंने कई बार उठने का इरादा किया, लेकिन इंतजार में आशिक की जान भी नहीं निकलती, मौत को भी इंतजार का सामना करना पड़ता है । यहाँ तक कि साढ़े नौ बज गये और अब मुझे विदा होने के सिवाय कोई मार्ग न रहा, जैसे दिल बैठ गया । जिसे मैंने भय कहा है, वह वास्तव में भय नहीं था, वह उत्सुकता की चरम सीमा थी । यहाँ से चला तो ऐसा शिथिल और निर्जीव था मानो प्राण निकल गये हो । अपने को धिक्कार ने लगा । अपनी क्षुद्रता पर लज्जित हुआ । तुम समझते हो कि हम भी कुछ हैं । यहाँ किसी को तुम्हारे मरने-जीने की परवाह नहीं । माना उसके लक्षण क्वारियों के-से हैं । संसार में क्वारी लड़कियों की कमी नहीं । सौंदर्य भी ऐसी दुर्लभ वस्तु नहीं । अगर प्रत्येक रूपवती और क्वारी युवती को देखकर तुम्हारी वही हालत होती रही तो ईश्वर ही मालिक है । वह भी तो अपने दिल में यही विचार करती होगी । प्रत्येक रूपवान युवक पर उसकी आँखें क्यों उठे । कुलवती स्त्रियों के यह ढंग नहीं होते । पुरुषों के लिए अगर यह रूप- तृष्णा निंदाजनक है तो स्त्रियों के लिए विनाशकारक है । द्वैत से अद्वैत को भी इतना आघात नहीं पहुँच सकता, जितना सौंदर्य को । दूसरे दिन शाम को मैं अपने बरामदे में बैठा पत्र देख रहा था । क्लब जाने को भी जी नहीं चाहता था । चित्त कुछ उदास था । सहसा मैंने दीवान साहब को फिटन पर आते देखा । मोटर से उन्हें घृणा थी । वह इसे पैशाचिक उड़नखटोला कहा करते थे । उनके बगल में सुशीला भी थी । मेरा हृदय धक्-धक् करने लगा । उसकी निगाह मेरी तरफ उठी हो या न उठी हो, पर मेरी टकटकी उस वक्त तक लगी रही जब तक फिटन अदृश्य न हो गयी । तीसरे दिन मैं फिर बरामदे में आ बैठा । आँखें सड़क की ओर लगी हुई थीं । फिटन आयी और चली गयी । अब यही उसका नित्यप्रति का नियम हो गया है । मेरा अब यही काम था कि सारे दिन बरामदे में बैठा रहूँ । मालूम नहीं फिटन कब निकल जाय । विशेषतः तीसरे पहर तो मैं अपनी जगह से हिलने का नाम भी न लेता था । इस प्रकार एक मास बीत गया । मुझे अब कौंसिल के कामों में कोई उत्साह न था । समाचार पत्रों में ,उपन्यासों में जी न लगता । कहीं सैर करने का भी जी न चाहता । प्रेमियों को न जाने जंगल-पहाड़ में भटकने की, काँटों में उलझने की सनक कैसे सवार होती है । मेरे तो जैसे पैरों में बेड़ियाँ-सी पड़ गई थी । वह बरामदा था और मैं, और फिटन का इंतजार । मेरी विचारशक्ति भी शायद अंतर्धान हो गयी थी । मैं दीवान को या अँगरेजी शिष्टता के अनुसार सुशीला को ही अपने यहाँ निमंत्रित कर सकता था, पर वास्तव में मैं अभी तक उससे भयभीत था । अब भी लज्जावती को अपनी प्रणयिनी समझता था । वह वह अब भी मेरे हृदय की रानी थी, चाहे उस पर किसी दूसरी शक्ति का अधिकार ही क्यौं न हो गया हो ! एक महीना और निकल गया, लेकिन मैंने लज्जा को कोई पत्र न लिखा मुझमें अब उसे पत्र लिखने की भी सामर्थ्य न थी । शायद उससे पत्र व्यवहार करने को मैं नैतिक अत्याचार सम झता था । मैंने उससे दगा की थी । मुझे अब उसे अपने मलिन अंतःकरण में भी अपवित्र करने का कोई अधिकार न था । इसका अंत क्या होगा ? यही चिंता अहर्निश मेरे मन पर कुहर मेघ की भाँति शून्य हो गई थी । चिंता-दाह से दिनों-दिन घुलता जाता था । मित्रजन अक्सर पूछा करते, आपको क्या मरज है ? मुख निस्तेज, कांतिहीन हो गया था । भोजन औषधि के समान लगता । सोने जाता तो जान पड़ता, किसी ने पिंजरे में बंद कर दिया है । कोई मिलने आता तो चित्त उससे कोसों भागता । विचित्र दशा थी एक दिन दीवान साहब की फिटन मेरे द्वार पर आकर रुकी । उन्होंने अपने व्याख्यानों का एक संग्रह प्रकाशित कराया था । उसकी प्रति मुझे भेंट करने के लिए आये थे । मैंने उन्हें बैठने के लिए बहुत आग्रह किया ,लेकिन उन्होंने यही कहा, सुशीला को यहाँ आने में संकोच होगा और फिटन पर वह अकेली घबरायेगी । वह चले तो मैं भी साथ हो लिया और फिटन तक पीछे-पीछे आया । जब वह फिटन पर बैठने लगे तो मैंने सुशीला को निःशंक हो आँख भर कर देखा, जैसे कोई प्यासा पथिक गर्मी के दिन में अफर कर पानी पिये कि न जाने कब उसे जल मिलेगा । मेरी उस एक चितवन में उग्रता, वह याचना, वह उद्वेग, वह करुणा, वह श्रद्धा, वह आग्रह, वह दीनता थी, जो पत्थर की मूर्ति को भी पिघला देती । सुशीला तो फिर स्त्री थी । उसने भी मेरी ओर देखा, निर्भीक सरल नेत्रों से, जरा भी झेंप नहीं, जरा भी झिझक नहीं । मेरे परास्त होने में जो कसर रह गयी थी, वह पूरी हो गयी । इसके साथ उसने मुझ पर मानों अमृत वर्षा कर दी । मेरे हृदय और आत्मा में एक नयी शक्ति का संचार हो गया । मैं लौटा तो ऐसा प्रसन्न-चित्त था मानों कल्पवृक्ष मिल गया हो । एक दिन मैंने प्रोफेसर भाटिया को पत्र लिखा - मैं थोड़े दिनों से किसी गुप्त रोग से ग्रस्त हो गया हूँ । सम्भव है, तपेदिक (क्षय) का आरम्भ हो इस लिए मैं इस मई में विवाह करना उचित नही समझता । मैं लज्जावती से इस भाँति परांगमुख होना चाहता था कि निगाहों में मेरी इज्जत कम न हो । मैं कभी-कभी अपनी स्वार्थपरता पर क्रुद्ध होता लज्जा के साथ यह छल-कपट, यह बेवफाई करते हुए मैं अपनी ही नजरों में गिर गया था लेकिन मन पर कोई वश न था । उस अबला को जितना दुःख होगा, यह सोच कर मैं कई बार रोया । अभी तक मैं सुशीला के स्वभाव विचार, मनोवृत्तियों से जरा भी परिचित न था । केवल उसके रूप-लावण्य पर अपनी लज्जा की चिरसंचित अभिलाषाओं का बलिदान कर रहा था । अबोध बालकों की भाँति मिठाई के नाम पर अपने दूध चावल को ठुकराये देता था । मैंने प्रोफेसर को लिखा था, लज्जावती से मेरी बीमारी का जिक्र न करें; लेकिन प्रोफेसर साहब इतने गहरे न थे । चौथे ही दिन लज्जा का पत्र आया, जिसमें उसने अपना हृदय खोल कर रख दिया था । वह मेरे लिए सब कुछ यहाँ तक कि वैधव्य की यंत्रणाएँ भी सहने के लिए तैयार थी । उसकी इच्छा थी कि अब हमारे संयोग में एक क्षण का भी विलम्ब न हो, अस्तु ! इस पत्र को लिये घंटों एक संज्ञाहीन दशा में बैठा रहा । इस अलौकिक आत्मोत्सर्ग के सामने अपनी क्षुद्रता,अपनी स्वार्थपरता, अपनी दुर्बलता कितनी घृणित थी ।

(4)

लज्जावती सावित्री ने क्या सब कुछ जानते हुए भी सत्यवान से विवाह नहीं किया था ? फिर मैं क्यों डरूँ ? अपने कर्तव्य मार्ग से क्यों डिगूँ । मैं उनके लिए व्रत रखूँगी, तीर्थ करूँगी, तपस्या करूँगी । भय मुझे उनसे अलग नहीं कर सकता । मुझे उनसे कभी इतना प्रेम न था । कभी इतनी अधीरता न थी । यह मेरी परीक्षा का समय है, और मैंने निश्चय कर लिया है । पिता जी अभी यात्रा से लौटे हैं, हाथ खाली है, कोई तैयारी नहीं कर सके हैं । इसलिए दो चार महीनों के विलम्ब से उन्हें, तैयारी करने का अवसर मिल जाता; पर मैं अब विलम्ब न करूँगी । हम और वह इसी महीने में एक दूसरे के हो जायँगे, हमारी आत्माएँ सदा के लिए संयुक्त हो जायँगी, फिर कोई विपत्ति, दुर्घ टना मुझे इनसे जुदा न कर सकेगी । मुझे अब एक दिन की देर भी असह्य है । मैं रस्म और रिवाज की लौंडी नहीं हूँ । न वही इसके गुलाम हैं । बाबू जी रस्मों के भक्त नहीं । फिर क्यों न तुरंत नैनीताल चलूँ ? उनकी सेवा-सुश्रूषा करूँ, उन्हें ढाढ़स दूँ । मैं उन्हें सारी चिंताओं से, समस्त विघ्न-बाधाओं से मुक्त कर दूँगी । इलाके का सारा प्रबंध अपने हाथों में लूँगी । कौंसिल के कामों में इतना व्यस्त हो जाने के कारण ही उनकी यह दशा हुई है । पत्रों में अधिकतर उन्हीं के प्रश्न, उन्हीं की आलोचनाएँ उन्हीं की वक्तृताएँ दिखायी देती हैं । मैं उनसे याचना करूँगी कि कुछ दिनों के लिए कौंसिल से इस्तीफा दे दें, वह मेरा गाना कितने चाव से सुनते थे । मैं उन्हें अपने गीत सुना कर प्रसन्न करूँगी, किस्से पढ़ कर सुनाऊँगी, उनको समुचित रूप से शांत रखूँगी । इस देश में तो इस रोग की दवा नहीं हो सकती । उनके पैरों पर गिर कर प्रार्थना करूँगी कि कुछ दिनों के लिए यूरोप के किसी सैनिटोरियम चलें और विधिपूर्वक इलाज करायें । मैं कल ही कालेज के पुस्तकालय से इस रोग के सम्बन्ध की पुस्तकें लाऊँगी, और विचारपूर्वक उनका अध्ययन करूँगी । दो चार दिन में कालेज बंद हो जायगा । मैं आज ही बाबू जी से नैनीताल चलने की चर्चा करूँगी ।

(5)

आह मैंने कल इन्हें देखा तो पहचान न सकी । कितना सुर्ख चेहरा था, कितना भरा हुआ शरीर । मालूम होता था, ईंगुर भरी हुई है ! कितना सुन्दर अंग विन्यास था ? कितना शौर्य्य था ! तीन ही वर्षों में यह काया पलट हो गयी,मुख पीला पड़ गया है, शरीर घुल कर काँटा हो गया । आहार आधा भी नहीं रहा, हरदम चिंता में मग्न रहते है । कहीं आते-जाते नहीं देखती । इतने नौकर हैं, इतना सुरम्य स्थान है ! विनोद के सभी सामान मौजूद हैं; लेकिन इन्हें अपना जीवन अब अंधकारमय जान पड़ता है । इस कलमुँही बीमारी का सत्यानाश हो । अगर इसे ऐसी ही भूख थी तो मेरा शिकार क्यों न किया । मैं बड़े प्रेम से इसका स्वागत करती । कोई ऐसा उपाय होता कि यह बीमारी इन्हें छोड़कर मुझे पकड़ लेती ! मुझै देख कर कैसे खिल जाते थे और मैं मुस्कराने लगती थी । एक एक अंग प्रफुल्लित हो जाता था । पर मुझे यहाँ दूसरा दिन है । एक बार भी उनके चेहरे पर हँसी न दिखायी दी । जब मैंने बरामदे में कदम रखा तब जरूर हँसे थे, किंतु कितनी निराश हँसी थी ! बाबूजी अपने आँसुओं को न रोक सके । अलग कमरे में जाकर देर तक रोते रहे । लोग कहते हैं, कौंसिल में लोग केवल सम्मान-प्रतिष्ठा के लोभ से जाते हैं उनका लक्ष्य केवल नाम पैदा करना होता है । बेचारे मेम्बरों पर यह कितना कठोर आक्षेप है, कितनी घोर कृतघ्नता । जाति की सेवा में शरीर को घुलाना पड़ता है, रक्त को जलाना पड़ता है । यही जाति सेवा का उपहार है । पर यहाँ के नौकरों को जरा भी चिंता नहीं है । बाबू जी ने इनके दो-चार मिलने वालों से बीमारी का जिक्र किया; पर उन्होंने भी परवाह न की । यह मित्रों की सहानुभूति का हाल है । सभी अपनी अपनी धुन में मस्त हैं, किसी को खबर नहीं कि दूसरों पर क्या गुजरती है । हाँ, इतना मुझे भी मालूम होता है कि इन्हें क्षय का केवल भ्रम है । उसके लक्षण नहीं देखती । परमात्मा करे, मेरा अनुमान ठीक हो । मुझे तो कोई और ही रोग मालूम होता है । मैंने कई बार टेम्परेचर लिया । उष्णता साधारण थी । उसमें कोई आकस्मिक परिवर्तन भी न हुआ । अगर यही बीमारी है तो अभी आरम्भिक अवस्था है , कोई कारण नहीं कि उचित प्रयत्न से उसकी जड़ न उखड़ जाय । मैं कल से ही इन्हें नित्य सैर कराने ले जाऊँगी । मोटर की जरूरत नहीं, फिटन पर बैठने से ज्यादा लाभ होगा । मुझे यह स्वयं लापरवाह से जान पड़ते हैं । इस मरज के बीमारों को बड़ी एहतियात करते देखा है । दिन में बीसों बार तो थरमामिटर देखते हैं । पथ्यापथ्य का बड़ा विचार रखते हैं । वे फल दूध और पुष्टिकारक पदार्थों का सेवन किया करते हैं । यह नहीं कि जो कुछ रसोइये ने अपने मन से बनाकर सामने रख दिया, वही दो-चार ग्रास खा कर उठ आये । मुझे तो विश्वास होता जाता है कि इन्हें कोई दूसरी ही शिकायत है । जरा अवकाश मिले तो इसका पता लगाऊँ । कोई चिंता तो नहीं है ? रियासत पर कर्ज का बोझ तो नहीं है थोड़ा बहुत कर्ज तो अवश्य हौ होगा । यह तो रईसों की शान है । अगर कर्ज ही इसका मूल कारण है तो अवश्य कोई भारी रकम होगी ।

(6)

चित्त विविध चिंताओं से इतना दबा हुआ है कि कुछ लिखने को जी नहीं चाहता ! मेरे समस्त जीवन की अभिलाषाएँ मिट्टी में मिल गयीं ।हा हतभाग्य ! मैं अपने को कितनी खुशनसीब समझती थी । अब संसार में मुझसे ज्यादा बदनसीब और कोई न होगा । वह अमूल्य रत्न, जो मुझे चिरकाल की तपस्या और उपासना से न मिला, वह इस मृगनयनी सुंदरी को अनायास मिल जाता है । शारदा ने अभी उसे हाल में ही देखा है । कदाचित अभी तक उससे परस्पर बातचीत करने की नौबत नहीं आयी । लेकिन उससे कितने अनुरक्त हो रहे हैं । उसके प्रेम में कैसे उन्मत्त हो गये हैं । पुरुषों को परमात्मा ने हृदय नहीं दिया, केवल आँखें दी हैं । वह हृदय की कद्र करना नहीं जानते, केवल रूप-रंग पर बिक जाते हैं । अगर मुझे किसी तरह विश्वास हो जाय कि सुशीला उन्हें मुझसे ज्यादा प्रसन्न रख सकेगी, उनके जीवन को अधिक सार्थक बना देगी, तो मुझे उसके लिए जगह खाली करने में जरा भी आपत्ति न होगी । वह इतनी गर्ववती इतनी निठुर है कि मुझे भय है कहीं शारदा को पछताना न पड़े । लेकिन यह मेरी स्वार्थ-कल्पना है । सुशीला गर्ववती सही, निठुर सही विलासिनी सही, शारदा ने अपना प्रेम उस पर अर्पण कर दिया है । वह बुद्धिमान है, चतुर हैं दूरदर्शी हैं । अपना हानि-लाभ सोच सकते हैं । उन्होंने सब कुछ सोचकर ही निश्चय किया होगा । जब उन्होंने मन में यह बात ठान ली तो मुझे कोई अधिकार नहीं है कि उनके सुख-मार्ग का काँटा बनू । मुझे सब्र करके, अपने मन को समझा कर यहाँ से निराश, हताश, भग्नहृदय, विदा हो जाना चाहिए । परमात्मा से यही प्रार्थना है कि उन्हें प्रसन्न रखे । मुझे जरा भी ईर्ष्या , जरा भी दम्भ नहीं है । मैं तो उनकी इच्छाओं की चेरी हूँ । अगर उन्हें मुझको विष दे देने से खुशी होती तो मैं शौक से विष का प्याला पी लेती। प्रेम ही जीवन का प्राण है । हम इसी के लिए जीना चाहते हैं । अगर इसके लिए मरने का भी अवसर मिले तो धन्य भाग । यदि केवल मेरे हट जाने से सब काम सँवर सकते हैं तो मुझे कोई इन्कार नहीं । हरि इच्छा ? लेकिन मानव शरीर पा कर कौन मायामोह से रहित होता है ? जिस प्रेम-लता को मुद्दतों से पाला था, आँसुओं से सींचा था , उसको पैरों तले रौंदा जाना नहीं देखा जाता । हृदय विदीर्ण हो जाता है । अब कागज तैरता हुआ जान पड़ता है, आँसू उमड़े चले आते हैं, कैसे मन को खींचू । हाँ ! जिसे अपना समझती थी ; जिसके चरणों पर अपने को भेंट कर चुकी थी, जिसके सहारे जीवन-लता पल्लवित हुई थी, जिसे हृदय-मन्दिर में पूजती थी, जिसके ध्यान में मग्न हो जाना जीवन का सबसे प्यारा काम था, उससे अब अनंत काल के लिए वियोग हो रहा है । आह! किससे अब फरियाद करूँ ? किसके सामने जा कर रोऊँ ? किससे अपनी दुःख कथा कहूँ । मेरा निर्बल हृदय यह वज्राघात नहीं सह सकता । यह चोट मेरी जान लेकर छोड़ेगी । अच्छा ही होगा । प्रेम-विहीन हृदय के लिए संसार काल कोठरी है, नैराश्य और अंधकार से भरी हुई । मैं जानती हूँ अगर आज बाबू जी उनसे विवाह के लिए जोर दें तो वह तैयार हो जायँगे, बस मुरौवत के पुतले हैं । केवल मेरा मन रखने के लिए अपनी जान पर खेल जायेंगे । वह उन शीलवान पुरुषों में जिन्होंने `नही' करना ही नहीं सीखा । अभी तक उन्होंने दीवान साहब से सुशीला के विषय में कोई बातचीत भी नहीं की । शायद मेरा रुख देख रहे हैं । इसी असमंजस ने उन्हें इस दशा को पहुँचा दिया है । वह मुझे हमेसा प्रसन्न रखने की चेष्टा करेंगे । मेरा दिल कभी न दुखावेंगे, सुशीला की चर्चा भूल कर भी न करेंगे । मैं उनके स्वभाव को जानती हूँ । वह नर रत्न है । लेकिन मैं उनके पैरों की बेड़ी नहीं बनना चाहती । जो कुछ बीते अपने ही ऊपर भीते । उन्हें क्यों समेटूँ ? डूबना ही है तो आप क्यों न डूबूँ उन्हें अपने साथ क्यों डूबाऊँ । यह भी जानती हूँ कि यदि शोक ने घुला-घुला कर मेरी जान ले ली तो यह अपने को भी क्षमा न करेंगे । उनका समस्त जीवन क्षोभ और ग्लानि के भेंट हो जायगा । उन्हें कभी शांति न मिलेगी । कितनी विकट समस्या है । मुझे मरने की भी स्वाधीनता नहीं । मुझे इनको प्रसन्न रखने के लिए अपने को प्रसन्न रखना होगा । उनसे निष्ठुरता करनी पड़ेगी । त्रियाचरित्र खेलना पड़ेगा । दिखाना पड़ेगा कि इस बीमारी के कारण अब विवाह की बातचीत अनर्गल है । वचन को तोड़ने का अपराध अपने सिर पर लेना पड़ेगा । इसके सिवाय उद्धार की और कोई व्यवस्था नहीं ? परमात्मा मुझे बल दो कि इस परीक्षा में सफल हो जाऊँ ।

(7)

शारदाप्रसाद एक ही निगाह ने निश्चय कर दिया । लज्जा ने मुझे जीत लिया । एक ही निगाह से सुशीला ने भी मुझे जीता था । उस निगाह में प्रबल आकर्षण था, एक मनोहर सारल्य , एक आनन्दो- द्गार, जो किसी भाँति छिपाये नहीं छिपता था, एक बालोचित उल्लास, मानो उसे कोई खिलोना मिल गया हो । लज्जा की चितवन में क्षमा थी और थी करुणा, नैराश्य तथा वेदना । वह अपने को मेरी इच्छा पर बलिदान कर रही थी । आत्म-परिचय में उससे सिद्धि है । उसने अपनी बुद्धिमानी से सारी स्थिति ताड़ ली और तुरंत फैसला कर लिया । वह मेरे सुख में बाधक नहीं बनना चाहती थी । उसके साथ ही यह भी प्रकट करना चाहती थी कि मुझे तुम्हारी परवाह नहीं है । अगर तुम मुझसे जौ भर खिचोंगे तो मैं तुमसे गज भर खिंच जाऊँगी । लेकिन मनोवृत्तियाँ सुगंध के समान हैं जो छिपाने से नहीं छिपतीं । उसकी निठुरता में नैराश्यमय वेदना थी, उसकी मुसकान में आँसुओं की झलक । वह मेरी निगाह बचा कर क्यों रसौई में चली जाती थी । और कोई न कोई पाक, जिसे वह जानती है कि मुझे रुचिकर है, बना लेती थी ? वह मेरे नौकरों को क्यों आराम से रखने की गुप्त रीति से ताकीद किया करती थी ? समाचार पत्रों को क्यों मेरी निगाह से छिपा दिया करती थी । क्यों संध्या समय मुझे सैर करने को मजबूर किया करती थी ? उनकी एक-एक बात उसके हृदय का परदा खोल देती थी । उसे कदाचित मालूम नहीं है कि आत्म-परिचय रमणियों का विशेष गुण नहीं । उस दिन जब प्रोफेसर भाटिया ने बातों ही बातों में मुझ पर व्यंग्य किये मुझे वैभव और सम्पत्ति का दास कहा और मेरे साम्यवाद की हँसी उड़ानी चाही तो उसने कितनी चतुरता से बात टाल दी । पीछे से मालूम नहीं उसने उनसे क्या कहा; पर मैं बरामदे में बैठा सुन रहा था कि बाप और बेटी बगीचे में बैठे हुए किसी विषय पर बहस कर रहे हैं । कौन ऐसा हृदयशून्य प्राणी है जो निष्काम सेवा के वशीभूत न हो जाय । लज्जावती को मैं बहुत दिनों से जानता हूँ । पर मुझे ज्ञात हुआ कि इसी मुलाकात में मैंने उसका यथार्थ रूप देखा । पहले मैं उसकी रूपराशि का, उसके विचारों का, उसकी मृदुवाणी का भक्त था । उसकी उज्ज्वल, दिव्य आत्मज्योति मेरी आँखों से छिपी हुई थी । मैंने अबकी ही जाना कि उसका प्रेम कितना गहरा, कितना पवित्र, कितना अगाध है । इस अवस्था में कोई दूसरी स्त्री ईर्ष्या से बावली हो जाती, मुझसे नहीं तो सुशीला से तो अवश्य ही जलने लगती, आप कुढ़ती, उसे व्यंग्यों से छेदती और मुझे धूर्त, कपटी, पाषाण, न जाने क्या-क्या कहती । पर लज्जा ने जितने विशुद्ध प्रेम-भाव से सुशीला का स्वागत किया, वह मुझे कभी न भूलेगा -मालिन्य, संकीर्णता, कटुता का लेश न था । इस तरह उसे हाथों-हाथ लिये फिरती थी मानों छोटी बहिन उसके यहाँ मेहमान है । सुशीला इस व्यवहार पर मानो मुग्ध हो गयी । आह! वह दृश्य भी चिरस्मरणीय है, जब लज्जावती मुझसे विदा होने लगी । प्रोफेसर भाटिया मोटर पर बैठे हुए थे । वह मुझसे कुछ खिन्न हो गये और जल्दी से जल्दी भाग जाना चाहते थे । लज्जा एक उज्ज्वल साड़ी पहने हुए मेरे सम्मुख आ कर खड़ी हो गयी । वह एक तपस्विनी थी, जिसने प्रेम पर अपना जीवन अर्पण कर दिया हो, श्वेत पुष्पों की माला थी जो किसी देवमूर्ति के चरणों पर पड़ी हुई हो ! उसने मुस्करा कर मुझसे कहा - कभी-कभी पत्र लिखते रहना, इतनी कृपा की मैं अपने को अधिकारिणी समझती हूँ । मैंने जोश से कहा - हाँ, अवश्य । लज्जावती ने फिर कहा - शायद यह हमारी अंतिम भेंट हो । न जाने मैं कहाँ रहूँगी, कहाँ जाऊँगी; फिर कभी आ सकूँगी या नहीं । मुझे बिलकुल भूल न जाना । अगर मेरे मुँह से कोई ऐसी बात निकल आयी हो जिससे तुम्हें दुःख हुआ हो तो क्षमा करना और...अपने स्वास्थ्य का बहुत ध्यान रखना । यह कहते हुए उसने मेरी तरफ हाथ बढ़ाये । हाथ काँप रहे थे । कदाचित् आँखों में आँसुओं का आवेग हो रहा था । वह जल्दी से कमरे के बाहर निकल जाना चाहती थी । अपने जब्त पर अब उसे भरोसा न था । उसने मेरी ओर दबी आँखों से देखा । मगर इस अर्द्ध चितवन में दबे हुए पानी का वेग और प्रवाह था । ऐसे प्रवाह में मैं स्थिर न रह सका । इस निगाह ने हारी हुई बाजी जीत ली; मैंने उसके दोनों हाथ पकड़ लिये और गद्गद् स्वर से बोला- लज्जा, अब हममें और तुममें भी वियोग न होगा । * * * सहसा चपरासी ने सुशीला का पत्र लाकर सामने रख दिया । लिखा था - प्रिय श्री शारदाचरण जी, हम लोग कल यहाँ से चले जायँगे । मुझे आज बहुत काम करना है, इसलिए मिल न सकूँगी । मेंने आज रात को अपना कर्तव्य स्थिर कर लिया । मैं लज्जावती के बने बनाये घर को उजाड़ना नहीं चाहती । मुझे पहले यह बात न मालूम थी, नहीं तो हममें इतनी घनिष्ठता न होती । मेरा आपसे यही अनुरोध है कि लज्जा को हाथ से न जाने दीजिए । वह नारी रत्न है । मैं जानती हूँ कि मेरा रूप-रंग उससे कुछ अच्छा है और कदाचित आप उसी प्रलोभन में पढ़ गये; लेकिन मुझमें वह त्याग, वह सेवाभाव, वह आत्मोत्सर्ग नहीं है । मैं आपको प्रसन्न रख सकती हूँ, पर आपके जीवन को उन्नत नहीं कर सकती ।, उसे पवित्र और यशश्वी नहीं बना सकती । लज्जा देवी है, वह आपको देवता बना देगी । मैं अपने को इस योग्य नहीं समझती । कल मुझसे भेंट करने का विचार न कीजिए । रोने रुलाने से क्या लाभ । क्षमा कीजिएगा । आपकी- सुशीला मैंने यह पत्र लज्जा के हाथ में रख दिया । वह पढ़ कर बोली - मैं उससे आज ही मिलने जाऊँगी । मैंने उका आशय समझ कर कहा- क्षमा करो, तुम्हारी उदारता की दूसरी बार परीक्षा नहीं लेना चाहता । यह कह कर मैं प्रोफेसर भाटिया के पास गया । वह मोटर पर मुँह फुलाये बैठे थे । मेरे बदले लज्जावती आयी होती तो उस पर जरूर ही बरस पड़ते । मैंने उनके पद स्पर्श किये और सिर झुका कर बोला - आपने मुझे सदैव अपना पुत्र समझा है । अब उस नाते को और भी दृढ़ कर दीजिए । प्रोफेसर भाटिया ने पहले तो मेरी ओर अविश्वासपूर्ण नेत्रों से देखा तब मुस्करा कर बोले - यह तो मेरे जीवन की सबसे बड़ी अभिलाषा थी ।

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16 - दफ्तरी

- लेखक - मुंशी प्रेमचंद

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रफाकत हुसेन मेरे दफ्तर का दफ्तरी था । 10 रु0 मासिक वेतन पाता था । दो तीन रुपये बाहर के फुटकर काम से मिल जाते थे । यही उसकी जीविका थी । पर वह अपनी दशा पर संतुष्ट था । उसकी आंतरिक अवस्था तो ज्ञात नहीं, पर वह सदैव साफ-सुथरे कपड़े पहनता और प्रसन्न चित्त रहता । कर्ज इस श्रेणी के मनुष्यों का आभूषण है । रफाकात पर इसका जादू न चलता था । उसकी बातों में कृत्रिम शिष्टाचार की झलक भी न होती । बेलाग और खरी कहता था, अमलों में जो बुराइयाँ देखता, साफ कह देता । इसी साफगोई के कारण लोग उसका सम्मान हैसियत से ज्यादा करते थे । उसे पशुओं से विशेष प्रेम था । एक घोड़ी, एक गाय, कई बकरियाँ, एक बिल्ली और एक कुत्ता और कुछ मुर्गियाँ पाल रखी थी । इन पशुओं पर जान देता था । बकरियों के लिए पत्तियाँ तोड़ लाता, घोड़ी के लिए घास छील लाता । यद्यपि उसे आये दिन मवेशीखानेके दर्शन करने पड़ते, और बहुधा लोग उसके पशु-प्रेम की हँसी उड़ाते थे, पर वह किसी की न सुनता था और उसका यह निःस्वार्थ प्रेम था । किसी ने उसे मुर्गियों के अंडे बेचते नहीं देखा । उसकी बकरियों के बच्चे कभी बूचड़ की छुरी के नीचे नहीं गये और उसकी घोड़ी ने कभी लगाम का मुँह नहीं देखा । गाय का दूध कुत्ता पीता था । बकरी का दूध बिल्ली के हिस्से में जाता था । जो कुछ बचा रहता, वह आप पीता था । सौभाग्य से उसकी पत्नी भी साध्वी थी । यद्यपि उसका घर बहुत छोटा था, पर किसी ने उसे द्वार पर झाँकते नहीं देखा । वह गहने-कपड़ों के तगादों से पति की नींद हराम न करती थी । दफ्तरी उसकी पूजा करता था । वह गाँव का गोबर उठाती, घोड़ों को घास डालती, बिल्ली को अपने साथ बिठा कर खिलाती , यहाँ तक कि कुत्ते को नहलाने से भी उसे घृणा न होती थी ।

(2)

बरसात थी, नदियों में बाढ़ आयी हुई थी । दफ्तर के कर्मचारी मछलियों का शिकार खेलने चले । शामत का मारा रफाकत भी उनके साथ हो लिया । दिन भर लोग शिकार खेला किये, शाम को मूसलाधार पानी बरसने लगा । कर्मचारियों ने तो एक गाँव में रात काटी, दफ्तरी घर चला, पर अँधेरी रात में राह भूल गया और सारी रात भटकता फिरा । प्रातःकाल घर पहुँचा तो अभी अँधेरा ही था, लेकिन दोनों द्वार-पट खुले हुए थे । उसका कुत्ता पूँछ दबाये करुण स्वर से कराहता हुआ आकर ,उसके पैरों पर लोट गया । द्वार खुले देख कर दफ्तरी का कलेजा सन्न-से हो गया । घर में कदम रखे तो बिलकुल सन्नाटा था । दो-तीन बार स्त्री को पुकारा, किंतु कोई उत्तर न मिला । घर भाँय-भाँय कर रहा था । उसने दोनों कोठरियों में जाकर देखा । जब वहाँ भी उसका पता न मिला तो पशुशाला गया । भीतर जाते हुए अज्ञात भय हो रहा था जो किसी अँधेरे खोह में जाते हुए होता है । उसकी स्त्री वहीं भूमि पर चित्त पड़ी हुई थी । मुँह पर मक्खियाँ बैठी हुई थीं , होंठ नीले पड़ गये थे, आँखें पथरा गयी थीं । लक्षणों से अनुमान होता था कि साँप ने डस लिया है । दूसरे दिन रफाकात आया तो उसे पहचानना मुश्किल था । मालूम होता था, बरसों का रोगी है । बिलकुल खोया हुआ, गुमसुम बैठा रहा मानों किसी दूसरी ही दुनिया में है। संध्या होते ही वह उठा और स्त्री की कब्र पर जा कर बैठ गया । अँधेरा हो गया । तीन- चार घड़ी रात बीत गयी, पर दीपक के टिमटिमाते हुए प्रकाश में उसी कब्र पर नैराश्य और दुःख की मूर्ति बना बैठा रहा, मानों मृत्यु की राह देख रहा हो । मालूम नहीं, कब घर आया । अब यही उसका नित्य का नियम हो गया । प्रातःकाल उठ कर मजार पर जाता, झाड़ू लगाता, फूलों के हार चढ़ाता, लोबान जलाता और नौ बजे तक कुरान का पाठ करता । संध्या समय फिर यही क्रम शुरू होता । अब यही उसके जीवन का नियमित कर्म था । अब वह अंतर्जगत में बसता था । बाह्य जगत् से उसने मुँह मोड़ लिया था शोक ने विरक्त कर दिया था ।

(3)

कई महीने तक यही हाल रहा । कर्मचारियों को दफ्तरी से सहानुभूति हो गयी थी । उसके काम कर लेते, उसे कष्ट न देते । उसकी पत्नि भक्ति पर लोगों को विस्मय होता था लेकिन मनुष्य सर्वदा प्राणलोक में नहीं रह सकता । वहाँ का जलवा उसके अनुकूल नहीं । वहाँ वह रूपमय, रसमय, भावनाएँ कहाँ ? विराग में वह चिंतामय उल्लास कहाँ । वह आशामय आनन्द कहाँ ? दफ्तरी को आधीरात तक ध्यान में डूबे रहने के बाद चूल्हा जलाना पड़ता, प्रातःकाल पशुओं की देखरेख करनी पड़ती है । यह बोझा उसके लिए असह्य था । अवस्था ने भावुकता पर विजय पायी । मरुभूमि के प्यास से पथिक की भाँति दफ्तरी फिर दाम्पत्यसुख जल स्रोत की ओर दौड़ा । वह फिर जीवन का यही सुखद अभिनय देखना था । पत्नी की स्मृति दाम्पत्य-सुख के रूप में विलीन होने लगी । यहाँ तक कि छः महीने में उस स्थिति का चिह्न भी शेष न रहा । इस मुहल्ले के दूसरे सिरे पर बड़े साहब का एक अरदली रहता था । उसके यहाँ से विवाह की बातचीत होने लगी, मियाँ रफाकत फूले न समाये । अरदली साहब का सम्मान मुहल्ले में किसी वकील से कम न था । उनकी आमदनी पर अनेक कल्पनाए की जाती थीं । साधारण बोलचाल में कहा जाता था "जो कुछ मिल जाय वह थोड़ा है ।" वह स्वयं कहा करते थे कि तकाबी के दिनों में मुझे जेब की जगह थैली रखनी पड़ती थी । दफ्तरी ने समझा भाग्य उदय हुआ । इस तरह टूटे जैसे बच्चे खिलौने पर टूटते हैं । एक ही सप्ताह में सारा विधान पूरा हो गया और नववधू घर में आ गयी । जो मनुष्य कभी एक सप्ताह पहले संसार से विरक्त, जीवन से निराश बैठा हो, उसे मुँह पर सेहरा डाले घोड़े पर सवार नवकुसुम की भाँति विकसित देखना मानव-प्रकृति की एक विलक्षण विवेचना थी । किंतु एक ही अठवारे में नववधू के जौहर खुलने लगे । विधाता ने उसे रूपेन्द्रिय से वंचित रखा था । पर उसकी कसर पूरी करने के लिए अति तीक्ष्ण वाक्येन्द्रिय प्रदान की थी । इसका सबूत उसकी वह वाक्पटुता थी जो अब बहुधा पड़ोसियों को दिनोंदिन और दफ्तरी को अपमानित किया करती थी । उसने आठ दिन तक दफ्तरी के चरित्र का तात्विक दृष्टि से अध्ययन किया और तब एक दिन उससे बोली - तुम विचित्र जीव हो । आदमी पशु पालता है अपने आराम के लिए न कि जंजाल के लिए । यह क्या कि गाय का दूध पियें, बकरियों का दूध बिल्ली चट कर जाय । आज से सब दूध घर में लाया करो । दफ्तरी निरुत्तर हो गया । दूरे दिन घोड़ी का रातिब बंद हो गया । वह चने अब भाड़ में भुनने और नमक-मिर्च से खाये जाने लगे । प्रातःकाल ताजे दूध का नाश्ता होता, आये दिन तस्मई बनती । बड़े घर की बेटी, पान बिना क्यों कर रहती ? घी, मसाले का भी खर्च बढ़ा । पहले ही महीने में दफ्तरी को विदित हो गया कि मेरी आमदनी गुजर के लिए काफी नहीं है । उसकी दशा उस मनुष्य की-सी थी, जो शक्कर के धोखे में कुनैन फाँक गया हो । दफ्तरी बड़ा धर्मपरायण मनुष्य था । दो-तीन महीने तक यह विषम वेदना सहता रहा पर उसकी सूरत उसकी अवस्था को शब्दों से अधिक व्यक्त कर देती थी । वह दफ्तरी जो अभाव में भी संतोष का आनन्द उठाता था, अब चिंता की सजीव मूर्ति था । कपड़े मैले, सिर के बाल बिखरे हुए, चेहरे पर उदासी छायी हुई, अहर्निश हाय-हाय किया करता था । उसकि गाय अब हड्डियों की ढाँचा थी, घोड़ी को जगह से हिलना कठिन था, बिल्ली पड़ोसियों के छींकों पर उचकती और कुत्ता घूरों पर हड्डियाँ नोचता फिरता था । पर अब भी वह हिम्मत का धनी इन पुराने मित्रों को अलग न करता था । सबसे बड़ी विपत्ति पत्नि की वह वाक्प्रचुरता थी जिसके सामने कभी उसका धेर्य, उसकी कर्मनिष्ठा, उसकी उत्साह शीलता प्रस्थान कर जाती और अपनी अँधेरी कोठरी के एक कोने में बैठ कर खूब फूट-फूट कर रोता । संतोष के आनन्द को दुर्लभ पाकर रफाकत का पीड़ित हृदय उच्छ्रंखलता की ओर प्रवृत्त हुआ । आत्माभिमान जो संतोष का प्रसाद है, उसके चित्त से लुप्त हो गया । उसने । फाकेमस्ती का पथ ग्रहण किया । अब उसके पास पानी रखने के लिए कोई बरतन न था । वह उस कुएँ से पानी खींच कर उसी दम पी जाना चाहता था जिसमें वह जमीन पर बह न जाय । वेतन पाकर अब वह महीने भर का सामान न जुटाता, ठंडे पानी और रूखी रोटियों से अब उसे तस्कीन न होती, बाजार से बिस्कुट लाता, मलाई के दोनों ओर कलमी आमों की ओर लपकता । दस रुपये की भुगत ही क्या ? एक सप्ताह में सब रुपये उड़ जाते , तब जिल्द-बंदियों की पेशगी पर हाथ बढ़ाता, फिर दो एक उपवास होता, अंत में उधार माँगने लगता । शनैः शनैः यह दशा हो गयी कि वेतन देनदारों ही के हाथों में चला जाता और महीने के पहले ही दिन कर्ज लेना शुरू करता । वह पहले दूसरों को मितव्ययिता का उपदेश दिया करता था, अब लोग उसे समझाते, पर वह लापरवाही से कहता था - साहब, आज मिलता है खाते हैं कल का खुदा मालिक है; मिलेगा खायेंगे नहीं पड़ कर सो रहेंगे । उसकी अवस्था अब उस रोगी की सी हो गयी जो आरोग्य लाभ से निराश होकर पथ्यापथ्य का विचार त्याग दे, जिसमें मृत्यु के आने तक वह भोज्य-पदार्थों से भली-भाँति तृप्त हो जाय । लेकिन अभी तक उसने घोड़ी और गाय न बेची, यहाँ तक कि एक दिन दोनों मवेशीखाने में दाखिल हो गयीं । बकरियाँ भी तृष्णा व्याघ्र के पंजे में फँस गयीं । पोलाव और जरदे के चस्के ने नानबाई का ऋणी बना दिया था । जब उसे मालूम हो गया कि नगद रूपये वसूल न होंगे तो एक दिन सभी बकरियाँ हाँक ले गया । दफ्तरी मुँह ताकता रह गया । बिल्ली ने भी स्वामि-भक्ति से मुँह मोड़ा । गाय और बकरियों के जाने के बाद अब उसे दूध के बर्तनों को चाटने की भी आशा न रही , जो उसके स्नेह-बंधन का अंतिम सूत्र था । हाँ कुत्ता पुराने सद््व्यवहारों की याद करके अभी तक आत्मीयता का पालन करता जाता था, किंतु उसकी सजीवता विदा हो गयी थी । यह वह कुता न था जिसके सामने द्वार पर किसी अपरिचित मनुष्य या कुत्ते का निकल जाना असम्भव था । वह अब भी भूँकता था, लेकिन लेटे लेटे और प्रायः छाती में सिर छिपाये हुए मानो अपनी वर्तमान स्थिति पर रो रहा हो । या तो उसमें अब उठने की शक्ति ही न थी, या वह चिरकालीन कृपाओं के लिए इतना कीर्तिमान पर्याप्त समझता था ।

(5)

संध्या का समय था । मैं द्वार पर बैठा हुआ पत्र पढ़ रहा था कि अकस्मात् दफ्तरी को आते देखा । कदाचित् कोई किसान सम्मन पाने वाले चपरासी से भी इतना भयभीत न होगा, बालवृन्द टीका लगाने वाले से भी इतना न डरते होंगे । मैं अव्यवस्थित हो कर उठा और चाहा कि अंदर जा कर बंदकर लूँ कि इतने में दफ्तरी लपक कर सामने आ पहुँचा । अब कैसे भागता ? कुर्सी पर बैठ गया, पर नाक-भौं चढ़ाये हुए । दफ्तरी किसलिए आ रहा था इसमें मुझे लेशमात्र भी शंका न थी । ऋणेच्छुओं की हृदय-चेष्टा उनकी मुखाकृति पर, उनके आचार व्यवहार पर उज्ज्वल रंगों से अंकित होती है । वह एक विशेष नम्रता, संकोचमय परवशता होती है जिसे एक बार देखकर फिर नहीं भुलाया जा सकता । दफ्तरी ने आते ही बिना किसी प्रस्तावना के अभिप्राय कह सुनाया जो मुझे पहले ही ज्ञात हो चुका था । मैंने रुखाई से उत्तर दिया - मेरे पास रुपये नहीं हैं । दफ्तरी ने सलाम किया और उल्टे पाँव लौटा । उसके चेहरे पर ऐसी दीनता और बेकसी छायी थी कि मुझे उस पर दया आ गयी । उसका इस भाँति बिना कुछ कहे-सुने लौटना कितना सार पूर्ण था ! इसमें लज्जा थी, संतोष था, पछतावा था । उसके मुँह से एक शब्द भी न निकला , लेकिन उसका चेहरा कह रहा था, मुझे विश्वास था कि आप यही उत्तर देंगे । इसमें मुझे जरा भी संदेह न था । लेकिन यह जानते हुए भी मैं यहाँ तक आया, मालूम नहीं क्यों ? मेरी समझ में स्वयं नहीं आता । कदाचित् आपकी दयाशीलता, आपकी वात्सल्यता मुझे यहाँ तक लायी । अब जाता हूँ, वह मुँह ही नहीं रहा कि अपनी कुछ कथा सुनाऊँ । मैंने दफ्तरी को आवाज दी - जरा सुनो तो, क्या काम है ? दफ्तरी को कुछ उम्मेद हुई । बोला-आपसे क्या अर्ज करूँ, दो दिन से उपवास हो रहा है । मैंने बड़ी नम्रता से समझाया - इस तरह कर्ज ले कर कै दिन तुम्हारा काम चलेगा । तुम समझदार आदमी हो, जानते हो कि आजकल सभी को अपनी फिक्र सवार रहती है । किसी के पास फालतू रुपये नहीं रहते और यदि हों भी तो वह ऋण दे कर रार क्यों लेने लगा । तुम अपनी दशा सुधारते क्यों नहीं । दफ्तरी ने विरक्त भाव से कहा - यह सब दिनों का फेर है और क्या कहूँ । जो चीज महीने भर के लिए लाता हूँ, वह एक दिन में उड़ जाती है, मैं घर वाली के चटोरेपन से लाचार हूँ । अगर एक दिन दूध न मिले तो महनामथ मचा दे, बाजार से मिठाइयाँ न लाऊँ तो घर में रहना मुश्किल हो जाय, एक दिन गोस्त न पके तो मेरी बोटियाँ नोच खाय । खानदान का शरीफ हूँ । यह बेइज्जती नहीं सही जाती कि खाने के पीछे स्त्री से झगड़ा-तकरार करूँ । जो कुछ कहती है सिर के बल पूरा करता हूँ । अब खुदा से यही दुआ है कि मुझे इस दुनिया से उठा ले । इसके सिवाय मुझे दूसरी कोई सूरत नहीं नजर आती, सब कुछ करके हार गया ।मैंने संदूक से 5 रु0 निकाले और उसे देकर बोला - यह लो , यह तुम्हारे पुरुषार्थ का इनाम है । मैं नही जानता कि तुम्हारा हृदय इतना उदार, इतना वीररसपूर्ण है । गृहदाह में जलनेवाले वीर, रणक्षेत्र के वीरों से कम महत्त्वपूर्ण नहीं होते ।

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17 - विध्वंस

- लेखक - मुंशी प्रेमचंद

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जिला बनारस में बीरा नाम का एक गाँव है । वहाँ एक विधवा वृद्धा, संतानहीन , गोंड़िन रहती थी, जिसका भुनगी नाम था । उसके पास एक धुर भी जमीन न थी और न रहने का घर ही था । उसके जीवन का सहारा केवल एक भाड़ था । गाँव के लोग प्रायः एक बेला चबैना या सत्तू पर निर्वाह करते ही है, इसलिए भुनगी के भाड़ पर नित्य भीड़ लगी रहती थी । वह जो कुछ भुनाई पाती वहीं भून या पीस कर खा लेती और भाड़ ही की झोपड़ी के एक कोने में पड़ रहती । वह प्रातःकाल उठती और चारों ओर से भाड़ झोंकने के लिए सुखी पत्तियाँ बटोर लाती भाड़ के पास ही पत्तियों का एक बड़ा ढेर लगा रहता था । दोपहर के बाद उसका भाड़ जलता था । लेकिन जब एकादशी या पूर्णमासी के दिन प्रथानुसार भाड़ न चलता , या गाँव के जमींदार पंडित उदयभानु पाँडे के दाने भुनने पड़ते, उस दिन उसे भूखे ही सो रहना पड़ता था । पंडित जी उससे बेगार में दाने ही न भुनवाते थे, उसे उनके घर का पानी भी भरना पड़ता था । और कभी-कभी इस हेतु से भी भाड़ बंद रहता था । वह पंडित जी के गाँव में रहती थी, इसलिए उन्हें उससे सभी प्रकार की बेगार लेने का पूरा अधिकार था । उसे अन्याय नहीं कहा जा सकता । अन्याय केवल इतना था कि बेगार सूखी लेते थे । उनकी धारणा थी कि जब खाने ही को दिया गया तो बेगार कैसी । किसान को पूरा अधिकार है कि बैलों को दिन भर जोतने के बाद शाम को खूँटे से बाँध दे । यदि वह ऐसा नहीं करता तो यह उसकी दयालुता नहीं है, केवल अपनी हित चिन्ता है । पंडित जी को इसकी चिंता न थी । क्योंकि एक तो भुनगी दो एक दिन भूखी रहने से मर नहीं सकती थी और यदि देवयोग से मर भी जाती तो उसकी जगह दूसरा गोंड़ बड़ी आसानी से बसाया जा सकता था । पंडित जी की यही क्या कम कृपा थी कि वह भुनगी को अपने गाँव में बसाये हुए थे ।

(2)

चैत का महीना था और संक्रांति का पर्व । आज के दिन नये अन्न का सत्तू खाया और दान दिया जाता है । घरों में आग नहीं जलती । भुनगी का भाड़ आज बड़े जोरों पर था । उसके सामने एक मेला सा लगा हुआ था । साँस लेने का भी अवकाश न था । गाहकों की जल्दीबाजी पर कभी-कभी झुँझला पड़ती थी, कि इतने में जमींदार साहब के यहाँ से दो बड़े-बड़े टोकरे अनाज से भरे हुए आ पहुँचे और हुक्म हुआ कि अभी भून दे । भुनगी दोनों टोकरे देखकर सहम उठी । अभी दोपहर था पर सूर्यास्त के पहले इतना अनाज भूनना असंभव था । घड़ी दो घड़ी और मिल जाते तो एक अठवारे के खाने भर को अनाज हाथ आता । दैव से इतना भी न देखा गया, इन यमदूतों को भेज दिया । अब पहर रात तक सेंतमेंत में भाड़ में जलना पड़ेगा; एक नैराश्य भाव से दो टोकरे ले लिये । चपरासी ने डाँट कर कहा- देर न लगे, नहीं तो तुम जानोगी । भुनगी - यहीं बैठो रहो, जब भुन जाय तो ले कर जाना किसी दूसरे के दाने छुऊँ तो हाथ काट लेना । चपरासी - बैठने की हमें छुट्टी नहीं है, लेकिन तीसरे पहर तक दाने भुन जाय । चपरासी तो यह ताकीद करके चलते बने और भुनगी अनाज भुनने लगी लेकिन मन भर अनाज भुनना कोई हँसी तो थी नहीं, उस पर बीच-बीच में बंद करके भाड़ भी झोंकना पड़ता था । अतएव तीसरा पहर हो गया और आधा काम भी न हुआ । उसे भय हुआ कि जमींदार के आदमी आते होंगे । आते ही गालियाँ देंगे , मारेंगे । उसने और वेग से हाथ चलाना शुरू किया। रास्ते की ओर ताकती और बालू नाँद में छोड़ती जाती थी । यहाँ तक कि बालू ठंडी हो गयी सेवड़े निकलने लगे । उसकी समझ में न आता था, क्या करे । न भूनते बनता था न छोड़ते बनता था । सोचने लगी कैसी विपत्ति आई । पंडितजी कौन मेरी रोटियाँ चला देते हैं, कौन मेरे आँसू पोंछ देते हैं । अपना रक्त जलाती हूँ तब कहीं दाना मिलता है । लेकिन जब देखो खोपड़ी पर सवार रहते हैं, इसलिए न कि उनकी चार अंगुल धरती से मेरा निस्तार हो रहा है । क्या इतनी-सी जमीन का इतना मोल है ? ऐसे कितने ही टुकड़े गाँव में बेकार पड़े हैं,कितनी ही बखरियाँ उजाड़ पड़ी हुई हैं । वहाँ तो केसर नहीं उपजती फिर मुझी पर क्यों यह आठों पहर धौंस रहती है । कोई बात हुई और यह धमकी मिली कि भाड़ खोद कर फेंक दूँगा, उजाड़ दूँगा, मेरे सिर पर भी कोई होता तो क्यों बोछारें सहनी पड़तीं । वह इन्हीं कुत्सित विचारों में पड़ी हुई थी कि दोनों चपरासियों ने आकर कर्कश स्वर में कहा - क्यों री, दाने भुन गये । भुनगी ने निडर होकर कहा - भून तो रही हूँ । देखते नहीं हो । चपरासी - सारा दिन बीत गया और तुमसे इतना अनाज न भूना गया ? यह तू दाना भून रही है कि उसे चौपट कर रही है । यह तो बिलकुल सेवड़े हैं इनका सत्तू कैसे बनेगा । हमारा सत्यानाश कर दिया । देख तो आज महाराज तेरी क्या गति करते हैं । परिणाम यह हुआ कि उसी रात को भाड़ खोद डाला गया और वह अभागिनी विधवा निरावलम्ब हो गयी

(3)

भुनगी को अब रोटियों का कोई सहारा न रहा । गाँववालों को भी भाड़ के विध्वंस हो जाने से बहुत कष्ट होने लगा । कितने ही घरों में तो दोपहर को दाना ही मयस्सर न होता । लोगों ने जाकर पंडित जी से कहा कि बुढ़िया को भाड़ जलाने की आज्ञा दे दीजिए,लेकिन पंडित जी ने कुछ ध्यान न दिया । वह अपना रोब न घटा सकते थे । बुढ़िया से उसके कुछ शुभचिंतकों ने अनुरोध किया कि जा कर किसी दूसरे गाँव में क्यों नहीं बस जाती । लेकिन उसका हृदय इस प्रस्ताव को स्वीकार न करता । इस गाँव में उसने अदिन के पचास वर्ष काटे थे । यहाँ के एक-एक पेड़ पत्ते से उसे प्रेम हो गया था । जीवन के सुख-दुख इसी गाँव में भोगे थे । अब अंतिम समय वह इसे कैसे त्याग दे ! यह कल्पना ही उसे संकटमय जान पड़ती थी । दूसरे गाँव के सुख से यहाँ का दुःख भी प्यारा था । इस प्रकार एक पूरा महीना गुजर गया । प्रातः काल था । पंडित उदयभान अपने दो-तीन चपरासियों को लिये लगान वसूल करने जा रहे थे । कारिंदो पर उन्हें विश्वास न था । नजराने में, डाँड़-बाँध में, रसूम में वह किसी अन्य व्यक्ति को शरीक न करते थे । बुढ़िया के भाड़ की ओर ताका तो बदन में आग-सी लग गयी । उसका पुनरुद्धार हो रहा था । बुढ़िया बड़े वेग से उस पर मिट्टी के लोंदे रख रही थी । कदाचित उसने कुछ रात रहते ही काम में हाथ लगा दिया था और सूर्योदय से पहले ही उसे समाप्त कर देना चाहती थी। उसे लेशमात्र भी शंका न थी कि मैं जमींदार के विरुद्ध कोई काम कर रही हूँ । क्रोध इतना चिरजीवी हो सकता है इसका समाधान भी उसके मन में न था । एक प्रतिभाशाली पुरुष किसी दीन अबला से इतना कीना रख सकता है उसे इसका ध्यान भी न था । वह स्वभावतः मानव चरित्र को इससे कहीं ऊँचा समझती थी । लेकिन हा! हतभागिनी ! तूने धूप में ही बाल सफेद किये । सहसा उदयभान ने गरज कर कहा - किसके हुक्म से ? भुनगी ने हकबका कर देखा तो सामने जमींदार महोदय खड़े हैं । उदयभान ने फिर पूछा - किसके हुक्म से बना रही है ? भुनगी डरते हुए बोली सब लोग कहने लगे बना लो, तो बना रही हूँ उदयभान - मैं अभी इसे फिर खुदवा डालूँगा । यह कह उन्होंने भाड़ में एक ठोकर मारी । गीली मिट्टी सब कुछ लिये बैठ गयी । दूसरी ठोकर नाँद पर चलायी लेकिन बुढ़िया सामने आ गयी और ठोकर उसकी कमर पर पड़ी अब उसे क्रोध आया । कमर सहलाते हुए बोली महाराज, तुम्हें आदमी का डर नहीं है तो भगवान का डर तो होना चाहिए । मुझे इस तरह उजाड़ कर क्या पाओगे ? क्या इस चार अंगुल धरती में सोना निकल आयेगा ? मैं तुम्हारे ही भले कि कहती हूँ, दीन की हाय मत लो । मेरा रोआँ दुखी मत करो । उदयभान - अब तो यहाँ फिर भाड़ न बनायेगी । भुनगी - भाड़ न बनाऊँगी तो खाऊँगी क्या ? उदयभान - तेरे पेट का हमने ठेका नहीं लिया है । भुनगी - टहल तो तुम्हारी करती हूँ खाने कहाँ जाऊँ ? उदयभान - गाँव में रहोगी तो टहल करनी पड़ेगी । भुनगी - टहलतो तभी करूँगी जब भाड़ बनाऊँगी । गाँव में रहने के नाते टहल नहीं कर सकती । उदयभान - तो छोड़ कर निकल जा । भुनगी - क्यों छोड़ कर निकल जाऊँ ? बारह साल खेत जोतने से असामी काश्तकार हो जाता है । मैं तो इस झोपड़े में बूढ़ी हो गयी । मेरे सास-ससुर और उनके बाप-दादे इसी झोपड़े में रहे । अब इसे यमराज को छोड़ कर और कोई मुझसे नहीं ले सकता । उदयभान - अच्छा तो अब कानून भी बघारने लगी । हाथ-पैर पड़ती तो चाहे मैं रहने देता लेकिन अब मुझे निकाल कर तभी दम लूँगा । (चपरासियों से ) अभी जा कर इसके पत्तियों के ढेर में आग लगा दो, देखे कैसे भाड़ बनता है ।

(4)

एक क्षण में हाहाकार मच गया । ज्वाला-शिखर आकाश से बातें करने लगा । उसकी लपटें किसी उन्मत्त की भाँति इधर-उधर दौड़ने लगीं । सारे गाँव के लोग उस अग्नि -पर्वत के चारों ओर जमा हो गये । भुनगी अपने भाड़ के पास उदासीन भाव में खड़ी यह लंकादहन देखती रही । अकस्मात् वह वेग से आग के उसी अग्नि-कुंड में कूद पड़ी । लोग चारों तरफ से दौड़े, लेकिन किसी की हिम्मत न पड़ी कि आग के मुँह में जाय । क्षणमात्र में उसका सूखा हुआ शरीर अग्नि में समाविष्ट हो गया । उसी दम पवन भी वेग से चलने लगा । ऊर्द्वगामी लपटें पूर्व दिशा की ओर दौड़ने लगीं । भाड़ के समीप ही किसानों की कई झोपड़ियाँ थीं, वह सब उन्मुत्त ज्वालाओं का ग्रास बन गयीं । इस भाँति प्रोत्साहित हो कर लपटें और आगे बढ़ी ,सामने पंडित उदयभान की बखार थी, उस पर झपटीं । अब गाँव में हलचल पड़ी । आग बुझाने की तैयारियाँ होने लगीं । लेकिन पानी के छींटों ने आग पर तेल का काम किया । ज्वालाएँ और भड़कीं और पंडित जी के विशाल भवन को दबोच बैठीं । देखते ही देखते वह भवन उस नौका की भाँति जो उदात्त तरंगों के बीच में झकोरे खा रही हो, अग्नि-सागर में विलीन हो गया और वह क्रंदन- ध्वनि जो उसके भस्मावशेष में प्रस्फुटित होने लगी भुनगी के शोकमय विलाप से भी अधिक करुणाकारी थी ।

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18 - स्वत्व रक्षा

- लेखक - मुंशी प्रेमचंद

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मीर दिलावर अली के पास एक बड़ी रास का कुम्मैत घोड़ा था । कहते तो वह यही थे कि मैंने अपनी जिन्दगी की आधी कमाई इस पर खर्च की है, पर वास्तव में उन्होंने इसे पलटन में सस्ते दामों मोल लिया था । यों कहिए कि यह पलटन का निकाला हुआ घोड़ा था । शायद पलटन के अधिकारियों ने इसे अपने यहाँ रखना उचित न समझ कर नीलाम कर दिया था । मीर साहब कचहरी में मोहर्रिर थे । शहर के बाहर मकान था । कचहरी तक आने में तीन मील की मंजिल तय करनी पड़ती थी, एक जानवर की फिक्र थी । घोड़ा सुभीते से मिल गया, ले लिया । पिछले तीन वर्षों से वह मीर साहब की ही सवारी में था । देखने में तो उसमें कोई ऐब न था, पर कदाचित आत्म-सम्मान की मात्रा अधिक थी । उसे उसकी इच्छा के विरुद्ध या अपमान-सूचक काम में लगाना दुस्तर था । खैर , मीर साहब ने सस्ते दामों में कलाँ रास का घोड़ा पाया, तो फूले न समाये । ला कर द्वार पर बाँध दिया । साईस का इंतजाम करना कठिन था । बेचारे खुद ही शाम-सवेरे उस पर दो चार हाथ फेर लेते थे । शायद घोड़ा इस सम्मान से प्रसन्न होता था । इसी कारण रातिब की मात्रा बहुत कम होने पर भी वह असंतुष्ट नहीं जान पड़ता था । उसे मीर साहब से कुछ सहानुभूति हो गयी थी । इस स्वामि-भक्ति में उसका शरीर बहुत क्षीण हो चुका था ; पर वह मीर शाहब को नियत समय पर प्रसन्नता पूर्वक कचहरी पहुँचा दिया करता था । उसकी चाल उसके आत्मिक संतोष की द्योतक थी । दौड़ना वह अपनी स्वाभाविक गम्भीरता के प्रतिकूल समझता था । उसकी दृष्टि में उच्छृंखलता थी । स्वामि-भक्ति में उसने अपने कितने ही चिर-संचित स्वत्वों का बलिदान कर दिया । अब अगर किसी स्वत्व से प्रेम था तो वह रविवार का शांतिनिवास था । मीर साहब इतवार को कचहरी न जाते थे । घोड़े को मलते, नहलाते, तैराते थे । इसमें उसे हार्दिक आनन्द प्राप्त होता था । वहाँ कचहरी में पेड़ के नीचे बँधे हुए सूखी घास पर मुँह मारना पड़ता था, लू से सारा शरीर झुलस जाता था; कहाँ इस दिन छप्परों की शीतल छाँह में हरी-हरी दूब खाने को मिलती थी । अतएव इतवार को आराम वह अपना हक समझता था और मुमकिन न था कि कोई उसका यह हक छीन सके । मीर साहब ने कभी-कभी बाजार जाने के लिए इस दिन उस पर सवार होने की चेष्टा की, पर इस उद्योग में बुरी तरह मुँह की खायी । घोड़े ने मुँह में लगाम तक न ली । अंत को मीर साहब ने अपनी हार स्वीकार कर ली । वह उसके आत्म-सम्मान को आघात पहुँचा कर अपने अवयवों को परीक्षा में न डालना चाहते थे ।

(2)

मीर साहब के पड़ोस में एक मुंशी सौदागरलाल रहते थे । उनका भी कचहरी से कुछ सम्बन्ध था । वह मुहर्रिर न थे , कर्मचारी भी न थे । उन्हें किसी ने कभी कुछ लिखते-पढ़ते न देखा था । पर उनका वकीलों और मुख्तारों के समाज में बड़ा मान था । मीर साहब से उनकी दाँत-काटी रोटी थी । जेठ का महीना था । बारातों की धूम थी बाजे वाले सीधे मुँह बात न करते थे । आतिशबाज के द्वार पर गरज के बावले लोग चर्खी की भाँति चक्कर लगाते थे । भाँड़ और कत्थक लोगों को उँगलियों पर नचाते थे । पालकी के कहार पत्थर के देवता बने हुए थे, भेंट ले कर भी न पसीजते थे । इसी सहालगों की धूम में मुंशी जी ने भी लड़के का विवाह ठान दिया । दबाववाले आदमी थे । धीरे-धीरे बारात का और सब सामान तो जुटा लिया, पर पालकी का प्रबंध न कर सके । कहारों ने ऐन वक्त पर बयाना लौटा दिया । मुंशी जी बहुत गरम पड़े, हरजाने कि धमकी दी, पर कुछ फल न हुआ । विवश होकर यही निश्चय किया कि वर को घोड़ा पर बिठा कर वर यात्रा की रस्में पूरी कर ली जायँ । छः बजे शाम को बारात चलने का मुहुर्त था । चार बजे मुंशीजी ने आ कर मीर साहब से कहा यार अपना घोड़ा दे दो, वर को स्टेशन तक पहुँचा दें । पालकी तो कहीं मिलती ही नहीं । मीरसाहब - आपको मालूम नहीं, आज एतवार का दिन है । मुंशीजी - मालूम क्यों नहीं है, पर आखिर घोड़ा ही तो ठहरा । किसी न किसी तरह स्टेशन तक पहुँचा ही देगा । कौन दूर जाना है ? मीरसाहब - यों आपका जानवर है ले जाइए । पर मुझे उम्मीद नहीं कि आज वह पुट्ठे पर हाथ तक रखने दे । मुंशीजी - अजी मार के आगे भूत भागता है । आप डरते हैं । इसलिए आपसे बदमाशी करता है बच्चा पीठ पर बैठ जायगा तो कितना ही उछले कूदे पर उन्हें हिला न सकेगा । मीरसाहब - अच्छी बात है, ले जाइए । और अगर उसकी यह जिद्द आप लोगों ने तोड़ दी, तो मैं आप का बड़ा एहसान मानूँगा ।

(3)

मगर ज्योंही मुंशी जी अस्तबल में पहुँचे, घोड़े ने शशंक नेत्रों से देखा और एक बार हिनहिना कर घोषित किया कि तुम आज मेरी शांति में विघ्न डालने वाले कौन होते हो । बाजे की धड़-धड़, पों-पों से वह उत्तेजित हो रहा था । मुंशीजी जब पगहे को खोलना शुरु किया तो उसने मनौतियाँ खड़ी की और अभिमानसूचक भाव से हरी-हरी घास खाने लगा । लेकिन मुंशीजी भी चतुर खिलाड़ी थे । तुरंत घर से थोड़ा-सा दाना मँगवाया और घोड़े के सामने रख दिया । घोड़े ने इधर बहुत दिनों से दाने की सूरत न देखी थी ! बड़े रुचि से खाने लगा और तब कृतज्ञ नेत्रों से मुंशी जी को ओर ताका, मानो अनुमति दी कि मुझे आप के साथ चलने में कोई आपत्ति नहीं है । मुंशी जी के द्वार पर बाजे बज रहे थे । वर वस्त्राभूषण पहने हुए घोड़े की प्रतीक्षा कर रहा था । मुहल्ले की स्त्रियाँ उसे विदा करने के लिए आरती लिये खड़ी थीं । पाँच बज गये थे । सहसा मुंशी जी घोड़ा लाते हुए दिखाई दिये । बाजेवालों ने आगे की तरफ कदम बढ़ाया । एक आदमी मीरसाहब के घर से दौड़ कर साज लाया । घोड़े को खींचने की ठहरी, मगर वह लगाम देखकर मुँह फेर लेता था । मुंशी जी ने चुमकारा-पुचकारा, पीठ सुहलायी, फिर दाना दिखलाया । पर घोड़े ने मुँह तक न खोला, तब उन्हें क्रोध आ गया । ताबड़ तोड़ कई चाबुक लगाये । घोड़े ने जब अब भी मुँह में लगाम न ली, तो उन्होंने उसके नथनों पर चाबुक के बेंत से कई बार मारा । नथनों से खून निकलने लगा । घोड़े ने इधर उधर दीन और विवश आँखों से देखा । समस्या कठिन थी । इतनी मार उसने कभी न खायी थी । मीर साहब की अपनी चीज थी । यह इतनी निर्दयता से कभी न पेश आते थे । सोचा, मुँह नहीं खोलता तो नहीं मालूम और कितनी मार पड़े । लगाम ले ली । फिर क्या था, मुंशीजी की फतह हो गयी । उन्होंने तुरंत जीन भी कस दी । दुल्हा कूद कर घोड़े पर सवार हो गया ।

(4)

जब वर ने घोड़े की पीठ पर आसन जमा लिया, तो घोड़ा मानो नींद से जागा । विचार करने लगा, थोड़े-से दाने के बदले अपने इस स्वत्व से हाथ धोना एक कटोरे कढ़ी के लिए अपने जन्मसिद्ध अधिकारों को बेचना है । उसे याद आया कि मैं कितने दिनों से आज के दिन आराम करता रहा हूँ, तो आज क्यों यह बेगार करूँ ? ये लोग मुझे न जाने कहाँ ले जायँगे, लौंडा आसन का पक्का जान पड़ता है, मुझे दौड़ायेगा, एँड़ लगायेगा, चाबुक से मार-मार कर अधमुँआ कर देगा, फिर न जाने भोजन मिले या नहीं । यह सोच विचार कर उसने निश्चय किया कि मैं यहाँ से कदम न उठाऊँगा । यही न होगा मारेंगे, सवार को लिये हुए जमीन पर लौट जाऊँगा, आप ही छोड़ देंगे । मेरे मालिक मीरसाहब भी तो यहीं कहीं होंगे । उन्हें मुझ पर इतनी मार पड़ती कभी पसंद न आयेगी कि कल उन्हें कचहरी भी न ले जा सकूँ । वर ज्यों ही घोड़े पर सवार हुआ स्त्रियों ने मंगलगान किया, फूलों की वर्षा हुई । बारात के लोग आगे बढ़े । मगर घोड़ा ऐसा अड़ा कि पैर ही नहीं उठाता । वर उसे एड़ लगाता है , चाबुक मारता है, लगाम को झटके देता है, मगर घोड़े के कदम मानों जमीन में ऐसे गड़ गये हैं कि उखड़ने का नाम नहीं लेते । मुंशीजी को ऐसा क्रोध आता था कि अपना जानवर होता तो गोली मार देते । एक मित्र ने कहा-अड़ियल जानवर है, यों न चलेगा । इसके पीछे से डंडे लगाओ, आप दौड़ेगा । मुंशी जी ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया । पीछे से जाकर कई डंडे लगाये, पर घोड़े ने पैर न उठाये, उठाये तो भी अगले पैर ,और आकाश की ओर । दो-एक बार पिछले पैर भी, जिससे विदित होता था कि वह बिलकुल प्राणहीन नहीं है । मुंशी जी बाल-बाल बच गये । तब दूसरे मित्र ने कहा- इसकी पूँछ के पास एक जलता हुआ कुंदा चलाओ, आँच के डर से भागेगा । यह प्रस्ताव भी स्वीकृत हुआ । फल यह हुआ कि घोड़े की पूँछ जल गयी । वह दो-तीन बार उछला-कूदा पर आगे न बढ़ा । पक्का सत्याग्रही था कदाचित् इन यंत्रणाओं ने उसके संकल्प को और भी दृढ़ कर दिया । इतने में सूर्यास्त होने लगा । पंडित जी ने कहा - "जल्दी कीजिए नहीं तो मुहुर्त टल जायगा ।" लेकिन अपने वश की बात तो थी नहीं । जल्दी कैसे होती । बराती लोग गाँव के बाहर जा पहुँचे । यहाँ स्त्रियों और बालकों का मेला लग गया । लोग कहने लगे " कैसा घोड़ा है कि पग ही नहीं उठाता ।" एक अनुभवी महाशय ने कहा -"मार-पीट से काम न चलेगा थोड़ा-सा दाना मँगवाइए । एक आदमी इसके सामने तोबड़े में दाना दिखाता हुआ चले । दाने के लालच से खट-खट चला जायगा । मुंशीजी ने यह उपाय भी करके देखा पर सफल मनोरथ न हुए । घोड़ा अपने स्वत्व को किसी दाम पर बेचना न चाहता था । एक महाशय ने कहा-"इसे थोड़ी-सी शराब पिला दीजिए, नशे में आकर खूब चौकड़ियाँ भरने लगेगा" शराब की बोतल आयी । एक तसले में शराब उँडेल कर घोड़े के सामने रखी गयी, पर उसने सूँघी तक नहीं । अब क्या हो ? चिराग जल गये मुहुर्त टल चुका था । घोड़ा यह नाना दुर्गतियाँ सह कर दिल में खुश होता था और अपने सुख में विघ्न डालनेवाले की दुरवस्था और व्यग्रता का आनन्द उठा रहा था । उसे इस समय इनलोगों की प्रयत्नशीलता पर एक दार्शनिक आनंद प्राप्त हो रहा था । देखें आप लोग अब क्या करते हैं । वह जानता था कि अब मार खाने की सम्भावना नहीं है । लोग जान गये कि मारना व्यर्थ है । वह केवल उनकी सुयुक्तियों की विवेचना कर रहा था । पाँचवें सज्जन ने कहा - अब एक ही तरकीब और है । वह जो खेत में खाद फेंकने की दो पहिया गाड़ी होती है, उसे घोड़े के सामने ला कर रखिये । इसके दोनों अगले पैर उसमे रख दिये जायँ और हम लोग गाड़ी को खींचे । तब तो जरूर ही इसके पैर उठ जायँगे । अगले पैर आगे बड़े, तो पिछले, पैर भी झख मार कर उठेंगे ही । घोड़ा चल निकलेगा । मुंशी जी डूब रहे थे । कोई तिनका सहारे के लिए काफी था । दो आदमी गये । दो-पहिया गाड़ी निकाल लाये । वर ने लगाम तानी । चार-पाँच आदमी घोड़े के पास डंडे ले कर खड़े हो गये । दो आदमियों ने उसके अगले पाँव जबरदस्ती उठा कर गाड़ी पर रक्खे । घोड़ा अभी तक यह समझ रहा था कि मैं यह उपाय भी न चलने दूँगा, लेकिन जब गाड़ी चली, तो उसके पिछले पैर आप ही आप उठ गये । उसे जान पड़ा, मानो पानी में बहा जा रहा हूँ । कितना ही चाहता था कि पैरों को जमा लूँ पर कुछ अक्ल काम न करती थी । चारों ओर शोर मचा -'चला-चला ।' तालियाँ पड़ने लगीं । लोग ठट्ठे मार-मार हँसने लगे । घोड़े को यह उपहास और यह अपमान असह्य था, पर करता क्या ? हाँ, उसने धैर्य न छोड़ा । मन में सोचा इस तरह कहाँ तक ले जायेंगे । ज्यों ही गाड़ी रुकेगी मैं भी रुक जाऊँगा । मुझसे बढ़ी भूल हुई मुझे गाड़ी पर पैर ही न रखना चाहिए था । अंत में वही हुआ जो उसने सोचा था । किसी तरह लोगों ने सौ कदम तक गाड़ी खींची आगे न खींच सके । सौ दो सौ कदम हीं खींचना होता, तो शायद लोगों की हिम्मत बँध जाती पर स्टेशन पूरे तीन मील परम था । इतनी दूर घोड़े को खींच ले जाना दुस्तर था । ज्यों ही गाड़ी रुकी घोड़ा भी रुक गया ! वर ने फिर लगाम को झटके दिये, एँड़ लगायी । चाबुकों की वर्षा कर दी, पर घोड़े ने अपनी टेक न छोड़ी । उसके नथनों से खून निकल रहा था, चाबुकों से सारा शरीर छिल गया था, पिछले पैरों में घाव हो गये थे, पर वह दृढ़-प्रतिज्ञ घोड़ा अपनी आन पर अड़ा हुआ था ।

(5)

पुरोहित ने कहा -"आठ बज गये । मुहूर्त टल गया । " दीन-दुर्बल घोड़े ने मैदान मार लिया । मुंशी जी क्रोधोन्मुक्त हो कर रो पड़े । वर एक कदम भी पैदल नहीं चल सकता । विवाह के अवसर पर भूमि पर पाँव रखना वर्जित है, प्रतिष्ठा भंग होती है, निंदा होती है, कुल को कलंक लगता है पर अब पैदल चलने के सिवा अन्य उपाय न था । आ कर घोड़े के सामने खड़े हो गये और कुंठित स्वर से बोले- महाशय, अपना भाग्य बखानो कि मीरसाहब के घर हो । यदि मैं तुम्हारा मालिक होता तो तुम्हारी हड्डी-पसली का पता न लगता । इसके साथ ही मुझे आज मालूम हुआ कि पशु भी अपनी स्वत्व की रक्षा किस प्रकार कर सकता है । मैं न जानता था , तुम व्रतधारी हो । बेटा, उतरो, बारात स्टेशन पहुँच रही होगी । चलो पैदल ही चलें ।हम आपस ही के दस बारह आदमी हैं, हँसनेवाला कोई नहीं । ये रंगीन कपड़े उतार दो । रास्ते में लोग देखेंगे तो हँसेंगे कि पाँव-पाँव व्याह करने जाता है । चल बे अड़ियल घोड़े तुझे मीरसाहब के हवाले कर आऊँ ।

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19 - पूर्व संस्कार

- लेखक - मुंशी प्रेमचंद

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सज्जनों के हिस्से में भौतिक उन्नति कभी भूल कर ही आती है । रामटहल विलासी, दुर्व्यसनी,चरित्रहीन आदमी थे, पर सांसारिक व्यवहारों में चतुर, सूद-ब्याज के मामले में दक्ष और मुकदमे-अदालत में कुशल थै । उनका धन बढ़ता जाता था । सभी उनके आसामी थे । उधर उन्हीं के छोटे भाई शिवटहल साधु भक्त, धर्म-परायण और परोपकारौ जीव थे उनका धन घटता जाता था । उनके द्वार पर दो-चार अतिथि बने रहते थे । बड़े भाई का सारे महल्ले पर दबाव था । जितने नीच श्रेणी के आदमी थे,उनका हुक्म पाते ही फौरन उनका काम करते । उनके घर की मरम्मत बेगार में हो जाती । ऋणी कुँजड़े साग-भाजी भेंट में दे जाते हैं । ऋणी ग्वाला उन्हें बाजार-भाव से ड्योढ़ा दूध देता । छोटे भाई का किसी पर रोब न था । साधु-संत आते और इच्छापूर्ण भोजन करके अपनी राह लेते । दो-चार आदमियों को रुपये उधार दिये भी तो सूद के लालच से नहीं, बल्कि संकट से छुड़ाने के लिए । कभी जोर दे कर तगादा न करते कि कहीं उन्हें दुःख न हो । इस तरह कई साल गुजर गये । यहाँ तक कि शिवटहल की सारी सम्पत्ति परमार्थ में उड़ गयी । रुपये भी बहुत डूब गये ! उधर रामटहल ने नया मकान बनवा लिया । सोने-चाँदी की दूकान खोल ली । थोड़ी जमीन भी खरीद ली और खेती-बारी भी करने लगे । शिवटहल को अब चिंता हुई । निर्वाह कैसे होगा ? धन न था कि कोई रोजगार करते । वह व्यावहारिक बुद्धि भी न थी, जो बिना धन के भी अपनी राह निकाल लेती है । किसी से ऋण लेने की हिम्मत न पड़ती थी । रोजगार में घाटा हुआ तो देंगे कहाँ से ? किसी दूसरे आदमी की नौकरी भी न कर सकते थे । कुल-मर्यादा भंग होती थी । दो चार महीने तो ज्यों-त्यों करके काटे, अंत में चारों ओर से निराश होकर बड़े भाई के पास गये और कहा- भैया, अब मेरा और मेरे परिवार के पालन का भार आपके ऊपर है । आपके सिवा अब किसकी शरण लूँ । रामटहल ने कहा - इसकी कोई चिन्ता नहीं । तुमने कुकर्म में तो धन उड़ाया नहीं । जो कुछ किया, उससे कुल-कीर्ति फैली है । मैं धूर्त हूँ; संसार को ठगना जानता हूँ । तुम सीधे-सादे आदमी हो । दूसरों ने तुम्हें ठग लिया । यह तुम्हारा ही घर है । मैंने जो जमीन ली है, उसकी तहसील वसूल करो, खेती-बारी का काम सँभालो । महीने में तुम्हें जितना खर्च पड़े, मुझसे ले जाओ । हाँ, एक बात मुझसे न होगी । मैं साधु-संतों का सत्कार करने को एक पैसा भी न दूँगा और न तुम्हारे मुँह से अपनी निंदा सुनँगा । शिवटहल ने गद्गद् कंठ से कहा- भैया, मुझसे इतनी भूल अवश्य हुई है कि मैं सबसे आपकी नींदा करता रहा हूँ, उसे क्षमा करो । अब से मुझे आपकी निंदा करते सुनना तो जो चाहे दंड देना । हाँ, आपसे भी मेरी एक विनय है । मैंने अब तक अच्छा किया या बुरा, पर भाभी जी को मना कर देना कि उसके लिए मेरा तिरस्कार न करें । रामटहल - अगर वह कभी तुम्हें ताना देंगी, तो मैं उनकी जीभ खींच लूँगा ।

(2)

रामटहल की जमीन शहर से दस-बारह कोस पर थी । वहाँ एक कच्चा मकान भी था । बैल गाड़ी, खेती की अन्य सामग्रियाँ वहीं रहती थीं । शिवटहल ने अपना घर भाई को सौंपा और अपने बाल-बच्चों को लेकर गाँव से चले गये । वहाँ उत्साह के साथ काम करने लगे । नौकरों ने काम में चौकसी की । परिश्रम का फल मिला । पहले ही साल उपज ड्योढ़ी हो गयी और खेती का खर्च आधा रह गया ।पर स्वभाव को कैसे बदलें ? पहले की तरह तो नहीं, पर अब भी दो-चार मूर्तियाँ शिवटहल की कीर्ति सुनकर आ ही जाती थीं और शिवटहल को विवश होकर उनकी सेवा और सत्कार करना ही पड़ता था । हाँ, अपने भाई से यह बात छिपाते थे कि कहीं वह अप्रसन्न होकर जीविका का यह आधार भी न छीन लें । फल यह होता कि उन्हें भाई से छिपा कर अनाज, भूसा , खली आदि बेचना पड़ता । इस कमी को पूरा करने के लिए वह मजदूरों से और भी कड़ी मेहनत लेते थे और स्वयं भी कड़ी मेहनत करते । धूप-ठंड, पानी- बूँदी की बिलकुल परवाह न करते थे । मगर कभी इतना परिश्रम तो किया न था । शरीर शक्तिहीन होने लगा । भोजन भी रूखा-सुखा मिलता था । उस पर कोई ठीक समय नहीं । कभी दोपहर को खाया, कभी तीसरे पहर । कभी प्यास लगी, तो तालाब का पानी पी लिया । दुर्बलता रोग का पूर्व रूप है । बीमार पड़ गये । देहात में दवा-दारू का सुभीता न था भोजन में भी कुपथ्य करना पड़ता था । रोग ने जड़ पकड़ ली । ज्वर ने पलीहा का रूप धारण किया और पलीहा ने छह महीने में काम तमाम कर दिया । रामटहल ने यह शोक समाचार सुना; तो उन्हें बढ़ा दुःख हुआ । इन तीन वर्षों में उन्हें एक पैसे का नाज नहीं लेना पड़ा । शक्कर, गुड़, घी, भूसा-चारा, उपले -ईंधन सब गाँव से चला आता था । बहुत रोये पछतावा हुआ कि मैंने भाई की दवा-दरपन की कोई फिक्र नहीं की ; अपने स्वार्थ की चिंता में उसे भूल गया । लेकिन मैं क्या जानता था कि मलेरिया का ज्वर प्राणघातक ही होगा ! नहीं तो यथा-शक्ति अवश्य इलाज करता । भगवान की यही इच्छा थी कि मेरा क्या वश ! अब कोई खेती का सँभालने वाला न था । इधर रामटहल को खेती का मजा मिल गया था! उस पर विलासिता ने उसका स्वास्थ्य भी नष्ट कर डाला था । अब वह देहात के स्वच्छ जलवायु में रहना चाहते थे । निश्चय किया कि खुद ही गाँव में जाकर खेती-बारी करूँ । लड़का जवान हो गया था । शहर का लेन-देन उसे सौंपा और देहात चले आये । यहाँ उनका समय और चित्त विशेषकर गौओं की देखभाल में लगता था । उनके पास एक जमुना पारी बड़ी रास की गाय थी । उसे कई साल हुए, बड़े शौक से खरीदा था । दूध खूब देती थी और सीधी वह इतनी कि बच्चा भी सींग पकड़ ले, तो न बोलती ! वह इन दिनों गाभिन थी । उसे बहुत प्यार करते थे । शाम-सवेरे उसकी पीठ सुहलाते, अपने हाथों से नाज खिलाते । कई आदमी उसके ड्योढ़े दाम देते थे, पर रामटहल ने न बेची । जब समय पर गऊ ने बच्चा दिया, तो रामटहल ने धूमधाम से उसका जन्मोत्सव मनाया, कितने ही ब्राह्मणों को भोजन कराया। कई दिन तक गाना-बजाना होता रहा । इस बछड़े का नाम रखा गया 'जवाहिर ।' एक ज्योतिष से उसका जन्म-पत्र भी बनवाया गया । उसके अनुसार बछड़ा बड़ा होनहार, बड़ा भाग्यशाली, स्वामि-भक्त निकला ।केवल छठे वर्ष उस पर एक संकट की शंका थी । उससे बच गया तो फिर जीवन पर्यंत सुख से रहेगा । बछड़ा श्वेत-वर्ण था । उसके माथे पर एक लाल तिलक था । आँखें कजरी थीं । स्वरूप का अत्यन्त मनोहर और हाथ-पाँव का सुडौल था । दिन-भर कलोलें किया करता । रामटहल का चित्त उसे छलाँग भरते देख कर प्रफुल्लित हो जाता था । वह उनसे इतना हिलमिल गया कि उनके पीछे -पीछे कुत्ते की भाँति दौड़ा करता था । जब वह शाम और सुबह को अपनी खाट पर बैठ कर असामियों से बातचीत करने लगते, तो जवाहिर उनके पास खड़ा हो कर उनके हाथ या पाँव को चाटता था । वह प्यार से उसकी पिठ पर हाथ फेरने लगते, तो उसकी पूँछ खड़ी हो जाती और आँखें हृदय के उल्लास से चमकने लगतीं । रामटहल को भी उससे इतना स्नेह था कि जब तक वह उनके सामने चौके में न बैठा हो भोजन में स्वाद न मिलता । वह उसे बहुधा गोद में चिपटा लिया करते । उसके लिए चाँदी का हार, रेशमी फूल, चाँदी की झाँझें बनवायीं । एक आदमी उसे नित्य नहलाता और झाड़ता-पोंछता रहता था । जब कभी वह किसी काम से दूसरे गाँव में चले जाते तो उन्हें घोड़े पर आते देख कर जवाहिर कुलेलें मारता हुआ उसके पास पहुँच जाता और उनके पैरों को चाटने लगता । पशु और मनुष्य में यह पिता पुत्र सा प्रेम देख कर लोग चकित हो जाते ।

(4)

जवाहिर की अवस्था ढाई वर्ष की हुई । रामटहल ने उसे अपनी सवारी की बहली के लिए निकालने का निश्चय किया । वह सब बछड़े से बैल हो गया था । उसका डील; गठे हुए अंग, सुदृढ़ मासपेशियाँ, गर्दन के ऊपर उठने डील, चौड़ी छाती और मस्तानी चाल थी । ऐसा दर्शनीय बैल सारे इलाके में न था । बड़ी मुश्किल से उसका बाँधा मिला । पर देखने वाले साफ कहते थे कि जोड़ नहीं मिला । रुपये सामने बहुत खर्च किये हैं, पर कहाँ जवाहिर और कहाँ यह ! कहाँ लैंप और कहाँ दीपक ! पर कौतूहल की बात यह थी कि जवाहिर को कोई गाड़ीवान हाँकता तो वह आगे पैर न उठाता । गर्दन हिला-हिला कर रह जाता । मगर जब रामटहल आप पगहा हाथ मेंले लेते और एक बार चुमकार कर कहते - चलो बेटा, तो जवाहिर उन्मत्त होकर गाड़ी को ले उड़ता । दो-दो कोस तक बिना रुके, एक ही साँस में दौड़ता चला जाता । घोड़े भी उसका मुकाबला न कर सकते । एक दिन संध्या समय जब जवाहिर नाँद में खली और भूसा खा रहा था और रामटहल उसके पास खड़े उसकी मक्खियाँ उड़ा रहे थे, एक साधु महात्मा आकर द्वार पर खड़े हो गये । रामटहल ने अविनय-पूर्ण भाव से कहा - यहाँ क्या खड़े हो महाराज, आगे आओ ! साधु - कुछ नहीं बाबा, इसी बैल को देख रहा हूँ । मैंने ऐसा सुन्दर बैल नहीं देखा । रामटहल - (ध्यानदेकर) घर ही का बछड़ा है । साधु - साक्षात देवरूप है । यह कह कर महात्मा जी जवाहिर के निकट गये और उसके खुर चूमने लगे । रामटहल आपका शुभागमन कहाँ से हुआ ? आज यहीं विश्राम कीजिए तो बड़ी दया हो । साधु - नहीं बाबा , क्षमा करो । मुझे आवश्यक कार्य से रेलगाड़ी पर सवार होना है । रातों-रात चला जाऊँगा । ठहरने से विलम्ब होगा । रामटहल - तो फिर और कभी दर्शन होंगे ? साधु - हाँ, तीर्थ-यात्रा से तीन वर्ष में लौट कर इधर से फिर जाना होगा । तब आपकी इच्छा होगी तो ठहर जाऊँगा ! आप बड़े भाग्यशाली पुरुष हैं कि आपको ऐसे देवरूप नंदी की सेवा का अवसर मिल रहा है । इन्हें पशु न समझिए, यह कोई महान् आत्मा है । इन्हें कष्ट न दीजिएगा । इन्हें कभी फूल से भी न मारिएगा । यह कह कर साधु ने फिर जवाहिर के चरणों पर सीस नवाया और चले गये ।

(5)

उस दिन से जवाहिर की और भी खातिर होने लगी । वह पशु से देवता हो गया । रामटहल उसे पहले रसोई के सब पदार्थ खिला कर तब आप भोजन करते । प्रातः-काल उठ कर उसके दर्शन करते । यहाँ तक कि वह उसे अपनी बहली में भी न जोतना चाहते । लेकिन जब उनको कहीं जाना होता और बहली बाहर निकाली जाती, तो जवाहिर उसमें जुतने के लिए इतना अधीर और उत्कंठित हो जाता, सिर हिला-हिला कर इस तरह अपनी उत्सुकता प्रगट करता कि रामटहल को विवश हो कर उसे जोतना पड़ता । दो-एक बार वह दूसरी जोड़ी जोत कर चले गये तो जवाहिर को इतना दुःख हुआ कि उसने दिन भर नाँद में मुँह नहीं डाला । इसलिए वह अब बिना किसी विशेष कार्य के कहीं जाते ही न थे । उनकी श्रद्धा देखकर गाँव के अन्य लोगों ने भी जवाहिर को अन्न ग्रास देना शुरू किया । सुबह उसके दर्शन करने तो प्रायः सभी आ जाते थे । इस प्रकार तीन साल और बीते । जवाहिर को छठा वर्ष लगा । राम टहल को ज्योतिषी की बात याद थी । भय हुआ, कहीं उसकी भविष्य वाणी सत्य न हो । पशु-चिकित्सा की पुस्तकें मँगा कर पढ़ीं । पशु-चिकित्सक से मिले और कई औषधियाँ ला कर रखीं । जवाहिर को टीका लगवा दिया । कहीं नौकर उसे खराब चारा या गंदा पानी न खिला पिला दें, इस आशंका से वह अपने हाथों से उसे खोलने-बाँधने लगे । पशुशाला का फर्श पक्का करा दिया जिसमें कोई कीड़ा-मकोड़ा न छिप सके । उसे नित्यप्रति खूब धुलवाते भी थे । संध्या हो गयी थी । रामटहल नाँद के पास खड़े जवाहिर को खिला रहे थे कि इतने में सहसा वही साधु महात्मा आ निकले जिन्होंने आज से तीन वर्ष पहले दर्शन दिये थे । रामटहल उन्हें देखते ही पहचान गये । जा कर दंडवत की, कुशल-समाचार पूछे और उनके भोजन का प्रबन्ध करने लगे । इतने में अकस्मात् जवाहिर ने जोर से डकार ली और धम-से भूमि पर गिर पड़ा । रामटहल दौड़े हुए उसके पास आये । उसकी आँखें पथरा रही थीं । पहले एक स्नेहपूर्ण दृष्टि उन पर डाली और चित्त हो गया । रामटहल घबराये हुए घर से दवाएँ लाने दौड़े । कुछ समझ में न आया कि खड़े-खड़े इसे क्या हो क्या गया । जब वह घर में से दवाइयाँ ले कर निकले तब जवाहिर का अन्त हो चुका था । रामटहल शायद अपने छोटे भाई की मृत्यु पर भी इतने शोकातुर न हुए । वह बार-बार लोगों के रोकने पर भी दौड़-दौड़ कर जवाहिर के शव के पास जाते और उससे लिपट कर रोते । रात उन्होंने रो-रो कर काटी । उसकी सूरत आँखों से न उतरती थी । रह रह कर हृदय में एक वेदना-सी होती और शोक से विह्वल हो जाते । प्रातःकाल लाश उठायी गयी, किन्तु रामटहल ने गाँव की प्रथा के अनुसार उसे चमारों के हवाले नहीं किया । यथाविधि उसकी दाह-क्रिया की, स्वयं आग दी । शास्त्रानुसार सब संस्कार किये । तेरहवें दिन गाँव के ब्राह्मणों को भोजन कराया गया । उक्त साधु महात्मा को उन्होंने अब तक जाने नहीं दिया था । उनकी शांति देने वाली बातों से रामटहल को बड़ी सांत्वना मिलती थी ।

(6)

एक दिन रामटहल ने साधु से पूछा - महात्मा जी, कुछ समझ में नहीं आता कि जवाहिर को कौन-सा रोग हुआ था । ज्योतिषी जी ने उसके जन्म-पत्र लिखा था कि उसका छठा साल अच्छा न होगा । लेकिन मैंने इस तरह किसी जानवर को मरते नहीं देखा । आप तो योगी हैं, यह रहस्य कुछ आपकी समझ में आता है ? साधु - हाँ, कुछ थोड़ा-थोड़ा समझता हूँ । रामटहल - कुछ मुझे भी बताइए । चित्त को धैर्य नहीं आता । साधु - वह उस जन्म का कोई सच्चरित्र , साधु-भक्त, परोपकारी जीव था । उसने आपकी सारी सम्पत्ति धर्म-कार्यों में उड़ा दी थी । आपके सम्बन्धियों में ऐसा कोई सज्जन था ? रामटहल - हाँ महाराज, था । साधु - उसने तुम्हें धोखा दिया - तुमसे विश्वासघात किया । तुमने उसे अपना कोई काम सौंपा था । वह तुम्हारीं आँख बचा कर तुम्हारे धन से साधुजनों की सेवा-सत्कार किया करता था । रामटहल - मुझे उस पर इतना सन्देह नहीं होता । वह इतना सरल प्रकृति, इतना सच्चरित्र था कि बेईमानी करने का उसे कभी ध्यान भी नहीं आ सकता था । साधु - लेकिन उसने विश्वासघात अवश्य किया । अपने स्वार्थ के लिए नहीं अतिथि-सत्कार के लिए सही, पर था वह विश्वासघाती । रामटहल - संभव है दुरवस्था ने उसे धर्म-पथ से विचलित कर दिया हो । साधु- हाँ, यही बात है । उस प्राणी को स्वर्ग में स्थान देने का निश्चय किया गया । पर उसे विश्वासघात का प्रायश्चित करना आवश्यक था । उसने बेईमानी से तुम्हारा जितना धन हर लिया था, उसकी पूर्ति करने के लिए उसे तुम्हारे यहाँ पशु का जन्म दिया गया । यह निश्चय कर लिया गया कि छह वर्ष में प्रायश्चित पूरा हो जायगा । इतनी अवधि तक वह तुम्हारे यहाँ रहा । ज्यों ही अवधि पूरी हो गयी । त्यों ही उसकी आत्मा निष्पाप और निर्लिप्त हो कर निर्वाणपद को प्राप्त हो गयी । * * * महात्मा जी तो दूसरे दिन विदा हो गये, लेकिन रामटहल के जीवन में उस दिन से एक बड़ा परिवर्तन देख पड़ने लगा । उनकी चित्त-वृत्ति बदल गयी । दया और विवेक से हृदय परिपूर्ण हो गया । वह मन में सोचते, जब ऐसे धर्मात्मा प्राणी को जरा से विश्वासघात के लिए इतना कठोर दंड मिला तो मुझ जेसे कुकर्मी की क्या दुर्गति होगी ! यह बात उनके ध्यान से कभी न उतरती थी ।

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20 - दुस्साहस

- लेखक - मुंशी प्रेमचंद

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लखनऊ के नौबस्ते मुहल्ले में एक मुंशी मैकूलाल मुख्तार रहते थे । बड़े उदार , दयालु और सज्जन पुरुष थे । अपने पेशे में इतने कुशल थे कि ऐसा बिरला ही कोई मुकदमा होता था जिसमें वह किसी न किसी पक्ष की ओर से न रखे जाते हों । साधु-संतो से भी उन्हें प्रेम था । उनके सत्संग से उन्होंने कुछ तत्वज्ञान और कुछ गाँजे-चरस का अभ्यास प्राप्त कर लिया था । रही शराब, यह उनकी कुल-प्रथा थी । शराब के नशे में वह कानूनी मंसौदे खूब लिखते थे, उनकी बुद्धि प्रज्जवलित हो जाती थी । गाँजे और चरस का प्रभाव उनके ज्ञान पर पड़ता था । दम लगा कर वह वैराग्य और ध्यान में तल्लीन हो जाते थे । मोहल्ले वालों पर उनका बड़ा रोब था । लेकिन यह उनकी कानूनी प्रतिभा का नहीं; उनकी उदार सज्जनता का फल था । मोहल्ले के एक्केवान, ग्वाले और कहार उनके आज्ञाकारी थे, सौ काम छोड़ कर उनकी खिदमत करते थे । उनकी मद्यजनित उदारता ने सबों को वशीभूत कर लिया था । वह नित्य कचहरी से आते ही अलगू कहार के सामने दो रुपये फेंक देते थे । कुछ कहने-सुनने की जरूरत न थी, अलगू इसका आशय समझता था । शाम को शराब की एक बोतल और कुछ गाँजा तथा चरस मुँशी जी के सामने आ जाता था । बस, महफिल जम जाती । यार लोग आ पहुँचते । एक ओर मुवक्किलों की कतार बैठती, दूसरी ओर सहवासियों की । वैराग्य की ओर ज्ञान की चर्चा होने लगती । बीच-बीच में मुवक्किलों से भी मुकदमे की दो-एक बातें कर लेते ! दस बजे रात को वह सभा विसर्जित होती थी । मुंशी जी अपने पेशे और ज्ञान चर्चा के सिवा और कोई दर्द सिर मोल न लेते थे । देश के किसी आन्दोलन, किसी सभा, किसी सामाजिक सुधार से उनका सम्बन्ध न था । इस विषय में वह सच्चे विरक्त थे । बंग-भंग हुआ, नरम-गरम दल बने, राजनैतिक सुधारों का आविर्भाव हुआ, स्वराज्य की आकांक्षा ने जन्म लिया, आत्म-रक्षा की आवाजें देश में गूँजने लगीं, किंतु मुंशीजी की अविरल शांति में जरा भी विघ्न न पड़ा । अदालत और शराब के सिवाय वह संसार कि सभी चीजों को माया समझते थे, सभी से उदासीन रहते थे ।

(2)

चिराग जल चुके थे । मुंशी मैकूलाल की सभा जम गयी थी, उपासकगण जमा हो गये थे, अभी तक मदिरा देवी प्रकट न हुई थी । अलगू बाजार से न लौटा था । सब लोग बार-बार उत्सुक नेत्रों से ताक रहे थे । एक आदमी बरामदे में प्रतिक्षास्वरूप खड़ा था, दो- तीन सज्जन टोह लेने के लिए सड़क पर खड़े थे, लेकिन अलगू नजर न आता था । आज जीवन में पहला अवसर था कि मुंशीजी को इतनी इंतजार खींचनी पड़ी । उनकी प्रतीक्षाजनक उद्विगनता ने गहरी समाधि का रूप धारण कर लिया था, न कुछ बोलते थे, न किसी ओर देखते थे । समस्त शक्तियाँ प्रतीक्षाबिंदु पर केंद्रीभूत हो गयी । अकस्मात् सूचना मिली कि अलगू आ रहा है । मुंशी जी जाग पड़े, सहवासीगण खिल गये, आसन बदल कर सँभल बैठे, उनकी आँखें अनुरक्त हो गयीं । आशामय विलम्ब आनन्द को और बढ़ा देता है । एक क्षण में अलगू आ कर सामने खड़ा हो गया । मुंशी जी ने उसे डाँटा नहीं, यह पहला अपराध था, इसका कुछ न कुछ कारण अवश्य होगा, दबे हुए पर उत्कंठायुक्त नेत्रों से अलगू के हाथ की ओर देखा । बोतल न थी । विस्मय हुआ, विश्वास न आया, फिर गौर से देखा बोतल न थी । यह अप्राकृतिक घटना थी, पर इस पर उन्हें क्रोध न आया, नम्रता के साथ पूछा - बोतल कहाँ है । अलगू - आज नहीं मिली । मैकूलाल - यह क्यों ? अलगू - दूकान के दोनों नाके रोके हुए सुराजवाले खड़े हैं, किसी को उधर जाने ही नहीं देते । अब मुंशी जी को क्रोध आया, अलगू पर नहीं, स्वराज्यवालों पर । उन्हें मेरी शराब बन्द करने का क्या अधिकार है भाव से बोले - तुमने मेरा नाम नहीं लिया ? अलगू -बहुत कहा, लेकिन वहाँ कौन किसी की सुनता था ? सभी लोग लौट आते थे, मैं भी लौट आया । मुंशी - चरस लाये ? अलगू - वहाँ भी यही हाल था । मुंशी - तुम मेरे नौकर हो या स्वराज्य वालों के ? अलगू - मुँह में कालिख लगवाने के लिए थोड़े ही नौकर हूँ ? मुंशी - तो क्या बदमाश लोग मुँह में कालिख भी लगा रहे हैं ? अलगू - देखा तो नहीं, लेकिन सब यही कहते थे । मुंशी - अच्छी बात है, मैं खुद जाता हूँ, देखूँ किसकी मजाल है जो रोके । एक एक को लाल घर दिखा दूँगा, यह सरकार का राज है, कोई बदमिली नहीं । वहाँ कोई पुलिस का सिपाही नहीं था ? अलगू - थानेदार साहब आप ही खड़े सबसे कहते थे जिसका जी चाहे जाय शराब ले या पीये लेकिन लौट आते उनकी कोई न सुनता था । मुंशी - थानेदार मेरे दोस्त हैं, चलो जी ईदू चलते हो । रामबली, बेचन, ननकू, सब चलो एक-एक बोतल ले लो, देखूँ कौन रोकता है । कल ही तो मजा चखा दूँगा ।

(3)

मुंशी जी अपने चारों साथियों के साथ शराबखाने की गली के सामने पहुँचे तो वहाँ बहुत भीड़ थी । बीच में दो सौम्य मूर्तियाँ खड़ी थी । एक मौलाना जामिन थे जो शहर के मशहूर मुजतहिद थे, दूसरे स्वामी घनानंद थे जो वहाँ की सेवासमिति के संस्थापक और प्रजा के बड़े हितचिंतक थे । उनके सम्मुख ही थानेदार साहब कई कानेस्टेबलों के साथ खड़े थे । मुंशी जी और उनके साथियों को देखते ही थानेदार साहब प्रसन्न होकर बोले - आइए मुख्तार साहब, क्या आज आप ही को तकलीफ करनी पड़ी ? यह चारों आपही के हमराह हैं न ? मुंशीजी बोले - जी हाँ, पहले आदमी भेजा, वह नाकाम वापस गया । सुना आज यहाँ हड़बोंग मची हुई है, स्वराज्यवाले किसी को अंदर जाने ही नहीं देते । थानेदार - जी नहीं यहाँ किसकी मजाल है जो किसी के काम में हाजिर हो सके । आप शौक से जाइए । कोई चूँ तक नहीं कर सकता । आखिर मैं यहाँ किस लिए हूँ ? मुंशीजी ने गौरवोन्मत्त दृष्टि से अपने साथियों को देखा और गली में घुसे कि इतने में मौलाना जामिन ने ईदू से बड़ी नम्रता से कहा - दोस्त, यह तुम्हारी नमाज का वक्त है, यहाँ कैसे आये ? क्या इसी दीनदारी के बल पर खिलाफत का मसला हल करेंगे ? ईदू के पैरों में जैसे लोहे की बेड़ी पड़ गयी । लज्जित भाव से खड़ा भूमि की ओर ताकने लगा । आगे कदम रखने का साहस न हुआ । स्वामी घनानंद ने मुंशी जी और उनके बाकी तीनों साथियों से कहा - बच्चा, यह पंचामृत लेते जाओ, तुम्हारा कल्याण होगा । झिनकू, रामबली और बेचन ने अनिवार्य भाव से हाथ फैला दिये और स्वामी जी से पंचामृत ले कर पी गये । मुंशी जी ने कहा - इसे आप खुद पी जाइए । मुझे जरूरत नहीं । स्वामीजी उनके सामने हाथ जोड़कर खड़े हो गये और विनोद भाव से बोले - इस भिक्षुक पर आज दया कीजिए, उधर न जाइए । लेकिन मुंशी जी ने उनका हाथ पकड़ कर सामने से हटा दिया और गली में दाखिल हो गये । उनके तीनों साथी स्वामीजी के पीछे सिर झुकाये खड़े रहे । मुँशी - रामबली , झिनकू आते क्यों नहीं ? किसकी ताकत है कि हमें रोक सके ? झिनकू - तुम ही काहे नाहीं लौट आवत हौ। साधु-संतन की बात माने का होत है । मुंशी - तो इसी हौसले पर घर से निकले थे ? रामबली - निकले थे कि कोई जबर्दस्ती रोकेगा तो उससे समझेंगे । साधु संतो से लड़ाई करने थोड़े ही चले थे । मुंशी - सच कहा है, गँवार भेड़ होते हैं । बेचन - आप शेर हो जायँ, हम भेड़ ही बने रहेंगे ! मुंशीजी अकड़ते हुए शराबखाने में दाखिल हुए । दूकान पर उदासी छायी हुई थी, कलवार अपनी गद्दी पर बैठा ऊँघ रहा था । मुंशीजी की आहट पा कर चौंक पड़ा उन्हें तीव्र दृष्टि से देखा मानों यह कोई विचित्र जीव है, बोतल भर दी और ऊँघने लगा मुंशी जी गली के द्वार पर आये तो अपने साथियों को न पाया । बहुत से आदमियों ने उन्हें चारों ओर से घेर लिया और निंदासूचक बोलियाँ बोलने लगे । एक ने कहा - दिलावर हो तो ऐसा हो । दूसरा बोला - शर्मचे कुत्तीस्त कि पेशे मरदाँ बिवाअद ( मरदों के सामने लज्जा नहीं आ सकती ।) तीसरा बोला - है कोई पुराना पियक्कड़ पक्का लतियल । इतने में थानेदार साहब ने आकर भीड़ हटा दी । मुंशी जी ने उन्हें धन्यवाद दिया और घर चले । एक कानस्टेबल भी रक्षार्थ उनके साथ चला ।

(4)

मुंशीजी के चारों मित्रों ने बोतलें फेंक दी और आपस में बातें करते हुए चले । झिनकू - एक बेर हमारा एक्का बेगार में पकड़ जात रहे तो यही स्वामी जी चपरासी से कह-सुन के छुड़ाय दिहेन रहा । रामबली - पिछले साल जब हमारे घर में आग लगी थी तब भी तो यही सेवा-समिति वालों को ले कर पहुँच गये थे, नहीं तो घर में एक सूत न बचता । बेचन मुख्तार अपने सामने किसी को गिनते ही नहीं । आदमी कोई बुरा काम करता है तो छिपा के करता है, यह नहीं कि बेहाई पर कमर बाँध ले । झिनकू - भाई पीठ पीछे कोऊ कि बुराई न करै चाहीं । और जौन कुछ होय पर आदमी बड़ा अकबाली हौ । उतने आदमियत के बीच माँ कैसा घुसत चला गवा । रामबली - यह कोई अकबाल नहीं है । थानेदार न होता तो आटे दाल का भाव मालूम हो जाता । बेचन - मुझे तो कोई पचास रुपये देता तो भी गली में पैर न रख सकता । शर्म से सिर ही नहीं उठता था ! ईदू - इनके साथ आ कर आज बड़ी मुसीबत में फँस गया । मौलाना जहाँ देखेंगे वहाँ आड़े हाथों लेंगे । दीन के खिलाफ ऐसा काम क्यों करें कि शर्मिंदा होना पड़े । मैं तो आज मारे शर्म के गड़ गया । आज तोबा करता हूँ । अब इसकी तरफ आँख उठा कर भी न देखूँगा । रामबली - शराबियों की तोबा कच्चे धागे से मजबूत नहीं होती । ईदू - अगर फिर कभी मुझे पीते देखना तो मुँह में कालिख लगा देना बेचन - अच्छा तो इसी बात पर आज से मैं भी इसे छोड़ता हूँ । अब पीऊँ तो गऊ-रक्त बराबर । झिनकू - तो का हम ही सबसे पापी हन । फिर कभू जो हमका पियत देख्यो, बैठाय के पचास जूता लगायो । रामबली - अरे जा अभी मुंशीजी बुलायेंगे तो कुत्ते की तरह दौड़ते हुए जाओगे । झिनकू - मुंशी जी के साथ बैठे देख्यो तो सौ जूता लगायो, जिनके बात में फरक है उनके बाप में फरक है । रामबली - तो भाई मैं भी कसम खाता हूँ कि आज से गाँठ के पैसे निकाल कर न पीऊँगा। हाँ, मुफ्त की पीने में इन्कार नहीं बेचन - गाँठ के पैसे तुमने कभी खर्च किये हैं ? इतने में मुंशी मैकूलाल लपके हुए आते दिखायी दिये । यद्यपि वह बाजी मार कर गये थे, मुख पर विजय गर्व की जगह खिसियानापन छाया हुआ था । किसी अव्यक्त कारणवश वह इस विजय का हार्दिक आनंद न उठा सकते थे । हृदय के किसी कोने में छिपी हुई लज्जा उन्हें चुटकियाँ ले रही थीं । वह स्वयं अज्ञात थे, पर उस दुस्साहस का खेद उन्हें व्यथित कर रहा था । रामबली ने कहा - आइए मुख्तार साहब, बड़ी देर लगायी । मुंशी - तुम सब के सब गावदी ही निकले, एक साधु के चकमें में आ गये । रामबली - इन लोगों ने तो आज से शराब पीने की कसम खा ली है । मुंशी - ऐसा तो मैंने मर्द ही नहीं देखा जो एक बार उसके चंगुल में फँस कर निकल जाय मुंह से बकना दूसरी बात है । ईदू - जिन्दगी रही तो देख लीजियेगा । झिनकू - दाना-पानी तो कोऊ से नाही छूट सकता है और बातन का जब मनमा आवे छोड़ देव । बस चोट लग जाय का चाही, नशा खाये बिना कोऊ मर नाहीं जात है । मुंशी - देखूँगा तुम्हारी बहादुरी भी । बेचन - देखना क्या है, छोड़ देना कोई बड़ी बात नहीं । यही न होगा कि दो चार दिन जी सुस्त रहेगा । लड़ाई में अँगरेजी ने छोड़ दिया था जो इसे पानी की तरह पीते हैं तो हमारे लिए कोई मुश्किल काम नहीं । यही बातें करते हुए लोग मुख्तार साहब के मकान पर आ पहुँचे ।

(5)

दीवानखाने में सन्नाटा था । मुवक्किल चले गये थे । अलगू पड़ा सो रहा था । मुंशी जी मसनद पर जा बैठे और आलमारी से ग्लास निकालने लगे । उन्हें अभी तक अपने साथियों की प्रतिज्ञा पर विश्वास न आता था । उन्हें पूरा यकीन था कि शराब की सुगंध और लालिमा देखते ही सभों की तोबा टूट जायगी । जहाँ मैंने जरा बढ़ावा दिया वहीं सब के सब आकर डट जायँगे और महफिल जम जायगी । जब ईदू सलाम करके चलने लगा और झिनकू ने अपना डंडा सँभाला तो मुंशी जी ने दोनों हाथ पकड़ लिये और बड़े मृदुल शब्दों में बोले - यारों, यों साथ छोड़ना अच्छा नहीं । आओ जरा आज इसका मजा तो चखो, खास तौर पर अच्छी है । मुंशी - अजी आओ तो, इन बातों में क्या धरा है ? ईदू - आपही को मुबारक रहे, मुझे जाने दीजिए । झिनकू- हम तो भगवान् चाही तो एके नियर न जाब; जूता कौन खाय ? यह कहकर दोनों अपने-अपने हाथ छोड़ा कर चले गये तब मुख्तार साहब ने बेचन का हाथ पकड़ा जो बरामदे से नीचे उतर रहा था, बोले - बेचन क्या तुम भी बेवफाई करोगे ? बेचन - मैंने बड़ी कसम खायी है । जब एक बार इसे गऊ-रक्त कह चुका तो फिर इसकी ओर ताक भी नहीं सकता । कितना ही गया बीत हूँ तो क्या गऊ-रक्त की लाज भी न रखूँगा । अब आप भी छोड़िए, कुछ दिन राम राम कीजिए । बहुत दिन तो पीते हो गये । यह कह कर वह भी सलाम करके चलता हुआ। अब अकेले रामबली रह गया । मुंशी जी ने उससे शोकातुर हो कर कहा - देखो रामबली, इन सभों की बेवफाई ? यह लोग ऐसे ढुलमुल होंगे, मैं न जानता था । आओ आज हमीं तुम सही । दो सच्चे दोस्त ऐसे दरजनों कचलोहियों से अच्छे हैं । आओ बैठ जाओ रामबली - मैं तो हाजिर ही हूँ, लेकिन मैंने भी कसम खायी है कि कभी गाँठ के पैसे खर्च करके न पीऊँगा । मुंशी - अजी जब तक मेरे दम में दम है, तुम जितना चाहो पीयो, गम क्या है । रामबली - लेकिन आप न रहे तब ? ऐसा सज्जन फिर कहाँ पाऊँगा । मुंशी- अजी तब देखी जायगी, मैं आज मरा थोड़े ही जाता हूँ । रामबली - जिन्दगी का कोई एतबार नहीं, आप मुझसे पहले जरूर ही मरेंगे, तो उस वक्त मुझे कौन रोज पिलायेगा । तब तो छोड़ भी न सकूँगा । उससे बेहतर यही है कि अभी से फिक्र करूँ । मुंशी - यार ऐसी बातें करके दिल न छोटा करो । आओ बैठ जाओ, एक ही गिलास ले लेना । रामबली - मुख्तार साहब, अब ज्यादा मजबूर न कीजिये । जब ईदू और झिनकू जैसे लतियों ने कसम खाली जो औरतों के गहने बेच-बेच पी गये और निरे मूर्ख हैं, तो मैं इतना निर्लज्ज नहीं हूँ कि इसका गुलाम बना रहूँ । स्वामी जी ने मेरा सर्वनाश होने से बचाया है । उसकी आज्ञा मैं किसी तरह नहीं टाल सकता । यह कह कर रामबली भी विदा हो गया ।

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मुंशीजी ने प्याला मुँह से लगाया, लेकिन दूसरा प्याला भरने के पहले उनकी मद्यातुरता गायब हो गयी थी । जीवन में यह पहला अवसर था कि उन्हें एकांत में बैठ कर दवा की भाँति शराब पीनी पड़ी । पहले तो सहवासियों पर झुँझलाये । दगाबाजों को मैंने सैकड़ों रुपये खिला दिये होंगे, लेकिन आज जरा सी बात पर सब के सब फिरंट हो गये । अब मैं भूत की भाँति अकेला पड़ा हुआ हूँ, कोई हँसने-बोलने वाला नहीं । यह तो सोहबत की चीज है, जब सोहबत का आनन्द ही न रहा तो पी कर खाट पर पड़ रहने से क्या फायदा ? मेरा आज कितना अपमान हुआ ! जब मैं गली में घुसा हूँ तो सैकड़ों ही आदमी मेरी ओर आग्नेय दृष्टि से ताक रहे थे । शराब लेकर लौटा हूँ तब तो लोगों का वश चलता तो मेरी बोटियाँ नोच खाते । थानेदार न होता तो घर तक आना मुश्किल था । यह अपमान और लोकनिंदा किसलिए ? इसलिए कि घड़ी भर बैठ कर मुँह कड़वा करूँ और कलेजा जलाऊँ । कोई हँसी चुहल करने वाला तक नहीं । लोग इसे कितनी त्याज्य-वस्तु समझते हैं; इसका अनुभव मुझे आज ही हुआ, नहीं तो एक सन्यासी के जरा-से इशारे पर बरसों के लत्ती पियक्कड़ यों मेरी अवहेलना न करते । बात यही है कि अंतःकरण से सभी इसे निषिद्ध समझते हैं जब मेरे साथ के ग्वाले, एक्केवान और कहार तक इसे त्याग सकते हैं तो क्या मैं उनसे भी गया गुजरा हूँ ? इतना अपमान सह कर, जनता की निगाह में पतित हो कर सारे शहर में बदनाम हो कर, नक्कू बन कर एक क्षण के लिए सिर में सरूर पैदा कर लिया तो क्या काम किया ? कुवासना के लिए आत्मा को इतना नीचे गिराना क्या अच्छी बात है ! यह चारों इस घड़ी मेरी निन्दा कर रहें होंगे, मुझे दुष्ट बना रहे होंगे, मुझे नीच समझ रहे होंगे । इन नीचों की दृष्टि में मैं नीचा हो गया । यह दुरवस्था नहीं सही जाती । आज इस वासना का अंत कर दूँगा, अपमान का अंत कर दूँगा । एक क्षण में धड़ाके की आवाज हुई । अलगू चौंक कर उठा तो देखा कि मुँशी जी बरामदे में खड़े हैं और बोतल जमीन पर टूटी पड़ी है !

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21 - बौड़म

- लेखक - मुंशी प्रेमचंद

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मुझे देवीपुर गये पाँच दिन हो चुके थे, पर ऐसा एक दिन भी न होगा बौड़म की चर्चा न हुई हो । मेरे पास सुबह से शाम तक गाँव के लोग रहते थे । मुझे अपनी बहुज्ञता के प्रदर्शित करने का न कभी ऐसा अवसर मिला था और न प्रलोभन ही । मैं बैठा-बैठा इधर-उधर की गप्पें उड़ाया करता बड़े लाट ने गाँधी बाबा से यह कहा और गाँधी बाबा ने यह जवाब दिया । अभी आप लोग क्या देखते हैं, आगे देखिएगा क्या-क्या गुल खिलते हैं । पूरे पचास हजार जवान जेल जाने को तैयार बैठे हुए हैं । गाँधीजी ने आज्ञा दी है कि हिन्दुओं में छूत-छात का भेद न रहे, नहीं तो देश को और भी अदिन देखना पड़ेंगे । अस्तु ! लोग मेरी बातों को तन्मय हो कर सुनते । उनके मुख फूल की तरह खिल जाते । आत्माभिमान की आभा मुख पर दिखायी देती । गद्गद् मुख से कहते , अब तो महात्मा जी ही का भरोसा है । न हुआ बौड़म नहीं आपका गला न छोड़ता । आपको खाना-पीना कठिन हो जाता । कोई उससे ऐसी बातें किया करे तो रात की रात बैठा रहे । मैने एक दिन पूछा, आखिर यह बौड़म है कौन ? कोई पागल है क्या ? एक सज्जन ने कहा -"महाशय, पागल क्या है, बस बौड़म है । घर में लाखों की सम्पत्ति है, शक्कर की एक मिल सिवान में है, दो कारखाने छपरे में हैं, तीन-तीन सौ के तलबवाले आदमी नौकर हैं, पर इसे देखिए फटे-हाल घूमा करता है । घर वालों ने सिवान भेज दिया था कि जा कर वहाँ निगरानी करे । दो ही महीने में मैनेजर से लड़ बैठा, उसने यहाँ लिखा, मेरा इस्तीफा लीजिए । आप का लड़का मजदूरों को सिर चढ़ाये रहता है, वे मन से काम नहीं करते । आखिर घरवालों ने बुला लिया नौकर चाकर लूटते खाते हैं उसकी तो जरा भी चिंता नहीं, पर जो सामने आम का बाग है उसकी रात-दिन रखवाली किया करता है, क्या मजाल कि कोई एक पत्थर भी फेंक सके ।" एक मियाँ जी बोले -"बाबू जी, घर में तरह-तरह के खाने पकते हैं, मगर इसकी तकदीर में वही रोटी और दाल लिखी हुई है और कुछ खाता ही नहीं । बाप अच्छे-अच्छे कपड़े खरीदते हैं,लेकिन वह उनकी तरफ निगाह तक नहीं उठाता । बस, वही मोटा कुरता पहने, गाढ़े की तहमद बाँधे मारा-मारा फिरता है ।आपसे उसकी सिफत कहाँ तक कहें,बस पूरा बौड़म है ।"

(2)

ये बातें सुन कर मुझे भी इस विचित्र व्यक्ति से मिलने की उत्कंठा हुई । सहसा एक आदमी ने कहा -' देखिए, बौड़म आ रहा है ।मैंने कुतूहल से उसकी ओर देखा । एक 20-21 वर्ष का हृष्ट-पुष्ट युवक था । नंगे सिर, एक गाढ़े का कुरता पहने, गाढ़े का ढीला पाजामा पहने चला आता था ! पैरों में जूते थे । पहले मेरी ही ओर आया । मैंने कहा- "आइए बैठिए ।" उसने मंडली की ओर अवहेलना की दृष्टि से देखा और बोला - "अभी नहीं, फिर आऊँगा ।" यह कह कर चला गया । जब संध्या हो गयी और सभा विसर्जित हुई तो वह आम के बाग की ओर से धीरे धीरे आ कर मेरे पास बैठ गया और बोला - इन लोगों ने तो मेरी खूब बुराइयाँ की होंगी । मुझे यहाँ बौड़म का लकब मिला है । मैंणे सकुचाते हुएअ कहा - हाँ, आप की चर्चा लोग रोज करते थे । मेरी आप से मिलने की बड़ी इच्छा थी । आपका नाम क्या है ? बौड़म ने कहा - नाम तो मेरा मुहम्मद खलील है, पर आस-पास के दस-पाँच गाँवों में मुझे लोग उर्फ के नाम से ज्यादा जानते हैं । मेरा उर्फ बौड़म है । मैं - आखिर लोग आपको बौड़म क्यों कहते हैं ? खलील- उनकी खुशी और क्या कहूँ ? मैं जिन्दगी को कुछ और समझता हूँ, पर मुझे इजाजत नहीं है कि पाँचों वक्त की नमाज पढ़ सकूँ । मेरे वालिद हैं, चचा हैं । दोनों साहब पहर रात से पहर रात तक काम में मसरूफ रहते हैं । रात-दिन हिसाब-किताब, नफा-नुकसान मंदी-तेजी के सिवाय और कोई जिक्र ही नहीं हैं वह पहर रात तक शीरे के पीपों के पास खड़े हो कर उन्हें गाड़ी पर लदवाते हैं । वालिद साहब अक्सर अपने हाथों से शक्कर का वजन करते हैं । दोपहर का खाना शाम को और शाम का खाना आधी रात को खाते हैं किसी को नमाज पढ़ने की फुर्सत नहीं । मैं कहता हूँ, आप लोग इतना सिर मगजन क्यों करते हैं । बड़े कारबार में सारा काम एतबार पर होता है । मालिक को कुछ न कुछ बल खाना ही पड़ता है । अपने बल बूते पर छोटे कारोबार ही चल सकते हैं । मेरा उसूल किसी को पसंद नहीं, इसलिए मैं बौड़म हूँ । मैं - मेरे ख्याल में तो आपका उसूल ठीक है । खलील - ऐसा भूलकर भी न कहिएगा, वरना एक की जगह दो बौड़म हो जायेंगे । लोगों को कारबार के सिवा न दीन से गरज है न दुनिया से । न मुल्क से, न कौम से । मैं अखबार मँगाता हूँ, स्मर्ना फंड में कुछ रुपये भेजना चाहता हूँ । खिलाफत-फंड को मदद करना भी अपना फर्ज समझता हूँ । सबसे बड़ा सितम है कि खिलाफत का रजाकार भी हूँ । क्यों साहब, जब कौम पर मुल्क पर और दीन पर चारों तरफ से दुश्मनों का हमला हो रहा है तो क्या मेरा फर्ज नहीं है कि जाति के फायदे को कौम पर कुर्बान कर दूँ ? इसीलिए घर और बाहर मुझे बौड़म का लकब दिया गया है । मैं - आप तो कह रहे हैं कि जिसकी इस वक्त कौम की जरूरत है । खलील - मुझे खौफ है कि इस चौपट नगरी से आप बदनाम हो कर जायेंगे । तब मेरे हजारों भाई जेल में पड़े हुए हैं, उन्हें गजी गाढ़ा तक पहनने को मयस्सर नहीं तो मेरी गैरत गवारा नहीं करती कि में मीठे लुकमें उड़ाऊँ और चिकन के कुर्ते पहनूँ, जिन की कलाइयों और मुड्ढों पर सीजनकारी की गयी हो । मैं - आप यह बहुत ही मुनासिब करते है । अफसोस है कि और लोग आपका-सा त्याग करने के काबिल नहीं । खलील - मैं इसे त्याग नहीं समझता, न दुनिया को दिखाने के लिए यह भेष बना के घूमता हूँ । मेरा जी ही लज्जत और शौक से फिर गया है । थोड़े दिन होते हैं वालिद ने मुझे सिवान के मिल में निगरानी के लिए भेजा, मैंने वहाँ जाकर देखा तो इंजीनियर साहब के खानसामे, बैरे, मेहतर, धोबी, माली.,चौकीदार सभी मजदूरों की जैल में लिखे हुए थे । काम साहब का, करते थे , मजदूरी कारखाने से पाते थे । साहब बहादुर खुद तो बेइसूल हैं, पर मजदूरों पर इतनी सख्ती थी कि अगर पाँच मिनट की देर हो जाय तो उनकी आधे दिन की मजदूरी कट जाती थी । मैंने साहब की मिजाज-पुरसी करनी चाही । मजदूरों के साथ रियायत करनी शुरू की । फिर क्या था ? साहब बिगड़ गये, इस्तीफे की धमकी दी । घरवालों को उनके सब हालत मालूम हैं । पल्ले दरजे का हरामखोर आदमी है । लेकिन उसकी धमकी पाते ही सबके होश उड़ गये । मैं तारसे वापस बुला लिया गया और मेरी खूब ले-दे हुई । बौड़म होने में कुछ कोरकसर थी, वह पूरी हो गयी । न जाने साहब से लोग क्यों इतना डरते हैं ? मैं - आपने वही किया जो इस हालत में मैं भी करता । बल्कि मैं तो पहले साहब पर गबन का मुकदमा दायर करता, बदमाशों से पिटवाता, तब बात करता । ऐसे हरामखोरों की यही सजाएँ हैं । खलील - फिर तो एक और, दो हो गये । अफसोस यही है कि आपका यहाँ कयाम न रहेगा । मेरा जौ चाहता है, कि चंद रोज आपके साथ रहूँ । मुद्दत के बाद आप ऐसे आदमी मिले हैं जिससे मैं अपने दिल की बातें कह सकता हूँ । इन गँवारों से मैं बोलता भी नहीं । मेरे चाचा साहब को जवानी में एक चमारिन से ताल्लुक हो गया था । उससे दो बच्चे एक लड़का और एक लड़की पैदा हुए । चमारिन लड़की को गोद में छोड़कर मर गयी । तब से इन दोनों बच्चों की मेरे यहाँ वही हालत थी जो यतीमों की होती है । कोई बात न पूछता उनको खाने-पहनने को भी न मिलता । बेचारे नौकरों के साथ खाते और बाहर झोपड़े में पड़े रहते । जनाब मुझसे यह न देखा गया । मैंने उन्हें अपने दस्तरखान पर खिलाया और अब भी खिलाता हूँ । घर में कुहराम मच गया । जिसे देखिए मुझ पर त्योरियाँ बदल रहा है, मगर मैंने परवाह न की आखिर है वह भी तो हमारा ही खून । इसलिए मैं बौड़म कहलाता हूँ । मैं - जो लोग आपको बौड़म कहते हैं, वे खुद बौड़म हैं । खलील - जनाब इनके साथ रहना अजीब है । शाहे काबुल ने कुर्बानी की मुमानियत कर दी । हिंदुस्तान के उलमा ने भी यही फतवा दिया पर यहाँ खास मेरे घर कुर्बानी हुई मैंने हर चंद बावेला मचाया, पर मेरी कौन सुनता है ? उसका कफारा (प्रायश्चित ) मैंने यह अदा किया कि अपनी सवारी का घोड़ा बेच कर 300 फकीरों को खाना खिलाया और तब से कसाइयों को गायें लिये जाते देखता हूँ तो कीमत दे कर खरीद लेता हूँ, इस वक्त तक दस गायों की जान बचा चुका हूँ । वे सब यहाँ हिंदुओं के घरों में है, पर मजा यह है कि जिन्हें मैंने गायें दी हैं, वे भी मुझे बौड़म कहते हैं । मैं भी इस नाम का इतना आदी हो गया हूँ कि अब मुझे इससे मुहब्बत हो गयी है । मैं - आप ऐसे बौड़म काश मुल्क में और ज्यादा होते । खलील - लीजिए आपने भी बनाना शुरू कर दिया । यह देखिए आम का बाग है । मैं उसकी रखवाली करता हूँ । लोग कहते हैं जहाँ हजारों का नुकसान हो रहा है वहाँ तो देख-भाल करता नहीं,, जरा-सी बगिया की रखवाली में इतना मुस्तेद । जनाब, यहाँ लड़कों का यह हाल है कि एक आम तो खाते हैं और पच्चीस आम गिराते हैं । कितने ही पेड़ चोट खा जाते हैं और फिर किसी काम के नहीं रहते । मैं चाहता हूँ कि आम पक जायें, टपकने लगें, तब जिसका जी चाहे चुन ले जाय । कच्चे आम खराब करने से क्या फायदा ? यह भी मेरे बौड़मपन में दाखिल है ।

(3)

ये बातें हो ही रही थी कि सहसा तीन चार आदमी एक बनिये को पकड़े घसीटते हुए आते दिखायी दिये । पूछा तो उन चारों आदमियों में से एक ने जो सूरत से मौलवी मालूम होते थे, कहा - यह बड़ा बेईमान है, इसके बाँट कम हैं । अभी इसके यहाँ से सेर भर घी ले गया हूँ । घर पर तौलता हूँ तो आध पाव गायब । अब जो लौटाने आया हूँ तो कहता है मैंने तो पूरा तौला था । पूछो अगर तूने पूरा तौला था तो क्या मैं रास्ते में खा गया । अब ले चलता हूँ थाने पर, वहीं इसकी मरम्मत होगी । दूसरे महाशय, जो वहाँ डाकखाने के मुंशी थे बोले - इसकी हमेशा की यही आदत है, कभी पूरा नहीं तौलता । आज ही दो आने की शक्कर मँगवायी लड़का घर ले कर गया तो मुश्किल से एक आने की थी । लौटाने आया तो आँखें दिखाने लगा । इसके बाँटों की आज जाँच करानी चाहिए । तीसरा आदमी अहीर था । अपने सिर पर से खली की गठरी उतार कर बोला - साहब, यह आठ आने की खली है । 6 सेर के भाव से दी थी । घर पर तौला तो 2सेर हुई । लाया कि लौटा दूँगा, पर यह लेता ही नहीं ! अब इसका निबटारा थाने ही मे होगा । इस पर कई आदमियों ने कहा - यह सचमुच बेईमान आदमी है । बनिये ने कहा - अगर मेरे बाँट रत्ती भर कम निकलें तो हजार रुपये डाँड दूँ । मौलवी साहब ने कहा - तो कमबख्त, तू टाँकी मारता होगा । मुंशी जी बोले - टाँकी मार देता है, यही बात है । अहीर ने कहा - दोहरे बाँट रखे हैं । दिखाने के और, बेचने के और । इसके घर की पुलिस तलाशी ले । बनिये ने फिर प्रतिवाद किया, पकड़नेवालों ने फिर आक्रमण किया, इसी तरह कोई आध घंटा तक तकरार होती रही । मेरी समझ मे न आता था कि क्या करूँ । बनिये को छुड़ाने के लिए जोर दूँ या जाने दूँ । बनिये से सभी जले हुए मालूम होते थे । खलील को देखा तो गायब ? न जाने कब उठकर चला गया ? बनिया किसी तरह न दबता था, यहाँ तक कि थाने से भी न डरता था ।

(4)

ये लोग थाने जाना ही चाहते थे कि बौड़म सामने से आता दिखायी दिया । उसके एक हाथ में एक टोकरा था, दूसरे हाथ में एक टोकरी और पीछे एक 7-8 बरस का लड़का । उसने आते ही मौलवी साहब से कहा - यह कटोरा आप ही का है काजी जी ? मौलवी - (चौंककर) हाँ है तो, फिर ? तुम मेरे घर से इसे क्यों लाये ? बौड़म - इसलिए कि कटोरे में वही आध पाव घी है जिसके विषय में आप कहते हैं कि बनिये ने कम तौला । घी वही है । वजन वही है । बेईमानी गरीब बनिये की नहीं है, बल्कि काजी हाजी मौलवी जहूर अहमद की । मौलवी - तुम अपना बौड़मपना यहाँ न दिखाना नहीं तो मैं किसी से डरने वाला नहीं हूँ । तुम लखपती होगे तो अपने घर के होगे । तुम्हें क्या मजाल था मेरे घर में जाने का ! बौड़म - वही जो आपको बनिये को थाने में ले जाने का है । अब यह घी भी थाने जायगा । मौलवी - (सिटपिटा कर) सबके घर में थोड़ी बहुत चीज रखी ही रहती है । कसम कुरान शरीफ की, मैं अभी तुम्हारे वालिद के पास जाता हूँ, आज तक गाँव भर में किसी ने मुझ पर ऐसा इलजाम नहीं लगाया था । बनिया - मौलवी साहब आप जाते कहाँ हैं ? चलिए हमारा आपका फैसला थाने मे होगा । मैं एक न मानूँगा । कहलाने को मौलवी, दीनदार, ऐसे बनते हैं कि देवता ही है । पर घर में चीज रख कर दूसरों को बेईमान बनाते हैं । यह लम्बी दाढ़ी धोखा देने के लिए बढ़ायी है मगर मौलवी साहब न रुके । बनिये को छोड़कर खलील के बाप के पास चले गये, जो इस वक्त शर्म से बचने का महज बहाना था । तब खलील ने अहीर से कहा - क्यों बे तू भी थाने जा रहा है ? चल मैं भी चलता हूँ । तेरे घर से यह सेर भर खली लेता आया हूँ अहीर ने मौलवी साहब की दुर्गति देखी तो चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं, बोला - भैया जवानी की कसम है, मुझे मौलवी साहब ने सिखा दिया था । खलील - दूसरों के सिखाने से तुम किसी के घर में आग लगा दोगे ? खुद तो बच्चा दूध में आधा पानी मिला-मिला कर बेचते हो, मगर आज तुमको इतनी मुटमरदी सवार हो गयी कि एक भले आदमी को तबाह करने पर आमादा हो गये । खली उठा कर घर में रख ली, उस पर बनिये से कहते हो कि कम तौला । बनिया - भैया, मेरी लाख रुपये की इज्जत बिगड़ गयी । मैं थाने में रपट किये बिना न मानूँगा । अहीर - साहू जी, अबकी माफ करो , नहीं तो कहीं का न रहूँगा । तब खलील ने मुंशी जी से कहा - कहिए जनाब, आपकी कलई खोलूँ या चुपके से घर की राह लीजिएगा । मुंशी - तुम बेचारे मेरी कलई क्या खोलोगे । मुझे भी अहीर समझ लिया है कि तुम्हारी भपकियों में आऊँगा । खलील - (लड़के से) क्यों बेटा, तुम शक्कर ले कर सीधे घर चले गये थे ? लड़का - (मुंशी जी को सशंक नेत्रों से देखकर ) बताऊँगा । मुंशी - लड़कों को जैसा सिखा दोगे वैसा कहेंगे । खलील - बेटा, अभी तुमने मुझसे जो कहा था, वही फिर कह दो । लड़का - दादा मारेंगे । मुंशी - क्या तूने रास्ते में शक्कर फाँक ली थी ! लड़का रोने लगा । खलील - जी हाँ, इसने मुझसे खुदकहा; पर आपने उससे तो पूछा नहीं,बनिये के सिर हो गये । यही शराफत है । मुंशी - मुझे क्या मालूम था कि उसने रास्ते में यह शराफत की ? खलील - तो ऐसे कमजोर सबूत पर आप थाने क्योंकर चले थे । आप गँवारों को मनीआर्डर के रुपये देते हैं तो उस रुपये पर दो आने अपनी दस्तूरी काट लेते हैं । टके के पोस्ट कार्ड आने में बेचते हैं, जब कहिए तब साबित कर दूँ । उसे क्या आप बेईमानी नहीं समझते हैं । मुंशी जी ने बौड़म के मुँह लगना मुनासिब न समझा । लड़के को मारते हुए घर ले गये । बनिये ने बौड़म को खूब आशीर्वाद दिया । दर्शक लोग भी धीरे-धीरे चले गये । तब मैंने खलील से कहा - आपने इस बनिये कि जान बचा ली नहीं तो बेचारा बेगुनाह पुलिस के पंजे में फँस जाता । खलील - आप जानते हैं कि मुझे क्या सिला (इनाम) मिलेगा । थानेदार मेरे दुश्मन हो जायँगे । कहेंगे यह मेरे शिकारों को भगा दिया करता है । वालिद साहब पुलिस से थर-थर काँपते हैं । मुझे हाथों लेंगे कि तू दूसरों के बीच में क्यों दखल देता है ? यहाँ यह भी बौड़मपन मैं दाखिल है । एक बनिये के पीछे मुझे भले आदमियों की कलई खोलनी मुनासिब न थी । ऐसी हरकत बौड़म लोग किया करते हैं । मैंने श्रद्धापूर्ण शब्दों में कहा - अब मैं आपको इस नाम से पुकारूँगा । आज मुझे मालूम हुआ कि बौड़म देवताओं को कहा जाता है ! जो स्वार्थ पर आत्मा को भेंट कर देता है वह चतुर है, बुद्धिमान है । जो आत्मा के सामने, सच्चे सिद्धांत के सामने, सत्य के सामने, स्वार्थ की, निंदा की परवाह नहीं करता वह बौड़म है, निर्बुद्धि है ।

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* इति *