श्रीहरि: दस महाव्रत
- कल्याण से साभार
अहिंसा ..........
अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः--- (योगदर्शन 2.35)
'इन हिंसकों का पालन अच्छा नहीं! 'बगल में बैठे केशरीशावक की ओर संकेत करके किशोर ने माधवराव से कहा। ये किसीके होते नहीं। पता नहीं इन्हें कब क्रोध आ जाय। कम-से-कम इस प्रकार स्वतंत्र तो नहीं ही रखना चाहिए।' 'ओह यह भोला शिशु' माधवराव ने उस सिंहशिशु के मस्तक पर हाथ फेरते हुए कहा। 'इसे क्या बाँधकर रक्खा जा सकता है? तुम देखते नहीं कि यह मुझे कितना चाहता है। कुत्ते के समान मेरे पीछे लगा फिरता है।' 'फिर भी....'किशोर ने रोका; परंतु माधवराव बिना रुके बोलते गये। 'फिर भी यह हिंसक है और धोखा दे सकता है, तुम यही तो कहना चाहते हो? सच पूछो तो मैंने इसे इसीलिए पाला भी है। इसकी सहोदरा मेरे द्वारा रक्षित न हो सकी। वह बेचारी इसे अकेली छोड़ गयी। अभी एक महीना ही तो हुआ है उसे मरे। और इसकी माँ--इसके देखते -देखते मैंने इसकी माँ का बध किया है। 'माधवराव के नेत्र टपकने लगे। कण्ठ भर आया। आँसुओं को पोंछकर उन्होंने अपने पालतू सिंह को देखा। वह चुपचाप इनके मुख को इस प्रकार देख रहा था, मानो वह भी इनके कष्ट से रोना चाहता हो। 'मैं इसकी माता का हत्यारा हूँ। यदि यह मुझसे अपनी माताका बदला ले तो वह न्याय होगा। अपने दुष्कर्म का इस प्रकार प्रतिकार करने का अवसर प्राप्त करने की आशा से ही मैंने इसका पालन किया, किंतु यह अपनी माता के वधिक पर भी विश्वास करता है। देखो न! उलटे मेरे दुःख से पीड़ित होता है। इससे प्रतिकार की भी आशा कहाँ? वृक्षों की आड़ थी; फिर भी घोड़े की टापों के शब्द ने सिंहनी को सावधान कर दिया। अपनी गुफा से वह बाहर आयी और तनकर खड़ी हो गयी। उसके साथ उसके दोनों बच्चे भी निकल आये। यद्यपि सिंहनी ने उन्हें गुफा में ढकेलना चाहा; किंतु बच्चे तो बच्चे ही ठहरे। वे तो परिस्थिति समझते नहीं। इधर-उधर खिसककर वे माँ के पास ही रहना चाहते थे। इधर घोड़े के पैरों का शब्द पास आ गया था और सिंहनी को अवकाश नहीं था बच्चों को गुफा के भीतर लेकर जाने का। उसने उन्हें गुफा के द्वार पर ढकेल दिया और आप कान खड़े करके गुर्राने लगी। बच्चा देने पर तो गाय भी मारने दौड़ती है बच्चे के पास जाने वालों को, फिर सिंहनी तो सिंहनी ही है। बच्चे समीप होने पर वह असह्या हो जाती है। माधवराव -जैसा प्रवीण शिकारी इसे भलीभाँति जानता था। उसे पता था कि यदि प्रथम लक्ष्य में ही वह धराशायी नहिं हो गयी तो शिकारी को स्वयं शिकार बनने में देर न लगेगी। उसके कराल आक्रमण में सावधानी से लक्ष्य लेना सरल नहीं है। भीलों ने ठीक पता बतला दिया था, जहाँ सिंहनी ने गुफा में बच्चे दिये थे। झाड़ियों की सघनता का आश्रय लेते हुए माधवराव का घोड़ा बढ़ा आ रहा था। अन्त में एक झाड़ी के पीछे नन्हें-से मैदान में अपनी ओर मुख किये वह मृगेन्द्रवधू दृष्टि पड़ी। घोड़ा रुक गया। धनुष पर बाण चढ़ चुका था। एक सधा हुआ हाथ छूटा। चीत्कार से जंगल गूँज उठा। सिंहनी तड़पी और गिर गयी। निपुण शिकारी समझ गया कि अब वह उठ नहीं सकती। घोड़े से उतर कर उसे पेड़ की डाल से बाँध दिया और स्वयं सिंहनी की ओर बढ़ा। बाण ठीक मस्तक के मध्य में लगा था। सिंहनी आड़ी पड़ी थी और उसके दोनों बच्चे उसके पास दौड़ आये थे। एक स्तन पी रहा था , दूसरा मुख सूँघ रहा था। शिकारी स्तम्भित हो गया। उसने देखा - मस्तक से बाण के पास से रक्त टपक रहा है। दो भोले शिशु माँ के पास हैं और सिंहनी का वह निष्प्राण शरीर अब भी उसे अपने अग्निनेत्रों से घूर रहा है। 'हत्यारे इन्हें भी मार! 'मानों वह कह रही है। दो क्षण वह रुका रहा और तब धनुष फेंककर दौड़ा और सिंहनी के मुख और पंजों के मध्य गिर पड़ा। मानो सिंहनी अभी जीवित है और उसे उसके कृत्य का बदला देगी। किंतु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। सिंहनी ज्यों-की त्यों उसे घूरती पड़ी रही। अब वह सिंहनी का शव-मात्र था। केवल वे बच्चे इस अपरिचित से डरकर गुफा में भाग गये। अन्ततः माधवराव गम्भीर व्यक्ति थे। वे उठे और उन्होंने सीटी दी। उनके सहचर जो उन्हें ढूँढ ही रहे थे, आ गये। बड़े आदर पूर्वक उन्होंने सिंहनी के शव को श्रीनर्मदाजी में प्रवाहित कर दिया। सिंहचर्म का इस प्रकार व्यर्थ जाना उनके अनुगतों को सह्य नहीं था; किंन्तु वे अपने नायक की कठोर एवं व्याकुल मुद्रा के सम्मुख कुछ भी कहने का साहस न कर सके। वे दोनों बच्चे माधवराव के घर लाये गये। कहना नहीं होगा कि माधवराव ने वह फेंका हुआ धनुष फिर कभी नहीं उठाया। सहसा चौंककर माधवराव ने पीछे देखा। उनका केशरी एक बछड़े को पटक चुका था और वह बछड़ा डकार रहा था। 'केशरी!' स्वामी के दृढ़ स्वर एवं कठोर नेत्र को देखकर वह सिंह संकुचित हो गया। अपराधी की भाँति सिर झुकाये वह उनके समीप आकर खड़ा हो गया। बछड़ा उठा और प्राण लेकर भागा। 'सिंह बिगड़ गया है'- इस भय से पास के खेत का किसान भी हल-बैल छोड़कर भाग चुका था। माधवराव ने एक बार गम्भीर दृष्टि से सिंह को देखा और फिर घर की ओर लौट पड़े। गुरुदेव ने कहा था कि 'जिसके हृदय में हिंसा नहीं है, उसके समीप पहुँचते ही सभी प्राणी हिंसा भूल जाते हैं। 'दूसरे प्राणियों की बात तो दूर रही मेरा पालतू केशरी भी अपनी हिंसा नहीं भूल पाता। अभी उस दिन उसने नौकर पर पंजा चलाया था और आज बछड़े को दबा बैठा। जब दूध पिलाकर पालने पर भी वह अपनी हिंसा न छोड़ सका तो दूसरों की क्या चर्चा? तब क्या गुरुदेव ने ठीक नहीं.....ऐसा कैसे हो सकता है? सच तो यह है कि मैंने केवल शिकार छोड़ा है। हाथों से हिंसा छोड़ने पर भी मैं अहिंसक कहाँ हूँ? अभी कल नौकर के द्वारा लालटेन का शीशा टूटने पर जल उठा, परसों बच्चे को मारते-मारते रुका। माधवराव गम्भीरता से सोच रहे थे। 'यह हाथ में लाठी? कुत्ता, सर्प, पशु आदि आक्रमण करे तो उसका निवारण होगा। सीधे शब्दों में उसे मारूँगा। यह हिंसा नहीं है! उन्होंने लाठी फेंक दी। 'यह पहरेदार? कोई चोर, डाकू आये तो....'उन्होंने पहरेदार को विदा कर दिया वेतन देकर। इसी प्रकार वे और भी बहुत कुछ करते एवं सोचते रहे। यह क्रम चला कई दिनों तक। उनके पास न तो पहरेदार रहा और न कुत्ता। घर के सब अस्त्र-शस्त्र बाँट दिये गये। यहाँ तक कि तालाकुंजी भी नहीं रक्खा। लोग समझते थे कि माधवराव पागल हो गये हैं। कुछ ऐसे भी लोग थे जो उन पर श्रद्धा भी करने लगे। जो भी हो, माधवराव ने अपनी समस्त सम्पत्ति जो केशरी के नाम करादी वह किसी को अच्छा नहीं लगा। और तब तो सब को और भी बुरा लगा जब केशरी के बीमार होकर मर जाने पर वे बच्चों की भाँति फूट-फूटकर रोने लगे। अन्ततः उन्होंने उसकी चिकित्सा एवं सेवा में कुछ उठा तो रक्खा नहीं था। फिर एक घातक पशु के लिये इतना व्याकुल होना कहाँ की समझदारी है? लोगों ने समझा कि सिंह क्या मरा; एक विपत्ति टली। अन्यथा उससे सर्वदा खटका लगा ही रहता था। आलोचनाएँ तो होती ही हैं और माधवराव की अधिक हुई, किन्तु वे थे अपनी धुन के पक्के। लोगों की ओर से उन्होंने अपने को वज्रबधिर बना दिया। उनका मकान था ग्राम के एक और। मकान के सम्मुख थोड़ा हटकर उन्होंने केशरी की एक पूरे कद की प्रस्तर-मूर्ति निर्मित कराकर उसे एक पक्के चबूतरे पर स्थापित करा दी। प्रायः संध्याको वे उस मूर्ति के समीप चबुतरे पर बैठे या उस पर हाथ फेरते थे। दो साँढ़ लड़ रहे थे, माधवराव उधरसे निकल गये। दोनों ने लड़ना तो दिया छोड़ और छोटे बछड़ों के समान उछलकर उनके समीप आ गये। उन्होंने दोनों को पुचकारा, उनके सिर एवं शरीर पर हाथ फेरा। 'आपस में लड़ा नहीं करते! 'मानो उनके आदेश को पशुओं ने समझ लिया। दोनों परस्पर परिचित के समान खेलने लगे। 'माधवराव तो संत हो गये! 'एक देखनेवाले ने कहा- 'देखो न, साँढ़ भी उनकी आज्ञा मानते हैं!' दूसरे ने कहा- 'साँढ़ तो फिर भी सीधे होते हैं, मैंने स्वयं देखा है कि उस सिंह-मूर्ति के चबूतरे पर-से वे एक बिच्छू को हाथ से उठाकर नीचे रख रहे थे। बिच्छू ने डंक मारना तो दूर, शरीर भी नहीं हिलाया! 'किंतु मैं तो उस दिन घबरा गया जब मैंने देखा कि मेरी छोटी बच्ची उस चबूतरे पर एक काले सर्प को दोनों हाथों से थप-थपा रही है और साँप काटने के बदले फण बचाता फिरता है। इतना ही नहीं वहीं एक भेड़िया भी गुम-सुम बैठा था और रामू की बकरी के बच्चे कभी चबूतरे से उसकी पीठ पर और कभी उसकी पीठ से चबूतरे पर उछल रहे थे।' सब अपनी-अपनी सुना रहे थे, इतनी देर में पटेल भी आ गये। उन्होंने अपना अनुभव बताया - 'उस दिन मैं जमादार पर बहुत असंतुष्ट था। कहीं मिलता तो खाल खींच लेता। ढूँढ़ते-ढूँढ़ते उसका पता लगा माधवराव के दालान में। मैं आगबबूला हुआ पहुँचा। दालान के पास जाते-न-जाते मेरा क्रोध पानी हो गया। राव को देखते ही मुझे बड़ी लज्जा आयी। तभी से मैंने समझ लिया कि वे अवश्य कोई सिद्ध महात्मा हैं।+ + +
माधवराव का शरीर अब नहीं रहा। उनके प्रस्तर केशरी को लोगों ने सिन्दूर से रंग दिया है और देवी का वाहन समझकर वे उसकी पूजा करते हैं। देखा-देखी मध्यप्रांत एवं बरार के अधिकांश ग्रामों में ग्राम से बाहर पत्थर या मिट्टी की सिंह अथवा व्याग्र मूर्ति बनाकर पूजने की प्रथा चल पड़ी, जो अब तक चल रही है। ग्रामीणों का विश्वास है कि इस प्रकार की पूजा से वनपशु उन्हें तंग नहीं करेंगे। सुना जाता है कि उस सिंहमूर्ति के समीप अब भी कोई प्राणी दूसरे पर अपना क्रोध प्रकट नहीं करता।सत्य
सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम् (योगदर्शन 2 .26) -------------------
दिन विदा होने को था। सूर्य भगवान् अस्ताचल पर पहुँच चुके थे। संध्या की लालिमा ने दिशाओं के साथ तरुपल्लवों एवं पृथ्वी को भी अनुरंजित कर दिया था। निर्झर का निर्मल प्रवाह सिन्दूरी हो चुका था। पक्षी कलरव करते नीड़ों को लौट रहे थे। मयूरों की केका से कानन मुखरित हो उठा। गन्तव्य अभी सुदूर था। पथिक श्रान्त हो चुका था और उसके पैर अब सत्याग्रह करने लगे थे। भाल पर पसीने के बड़े-बड़े बिन्दु चमक रहे थे। उसने अञ्जलि भरकर अपने मुख को प्रवाह के जल से धोया और तृषा शान्त की। इसके अनन्तर वह कलियों के भार से झुके हरसिंगार के नीचे की स्वच्छ शिलापर अपने कंधे का कम्बल डालकर उसी पर लेट गया कुछ ही क्षणों में उसकी नासिका से खर्राटे की आवाज निकलने लगी। शरद् की वही शुभ्र पूर्णिमा थी, जिसमें कभी लीलाधर के अधरों से लगी वंशी ने त्रिभुवन को सुधा-स्नात किया था। धवल ज्योत्सना की गोद में नीरव शान्त वनस्थली सुषुप्ति-सुख का अनुभव कर रही थी। पथिक एक पूरी निद्रा ले लेने के बाद जगा। निशीथ में उसे क्षुधा ने क्षुभित किया और अपने झोले से वह साथ लाया पाथेय निकालकर भोजन करने लगा। क्षुधा शान्त हो गयी। निर्झर के मधुर जलने उसे संतुष्ट कर दिया। प्रगाढ़ निद्रा ने पथ-श्रम दूर कर ही दिया था। शशांक के इस महोत्सव में पथिक प्रफुल्ल था। उसका हृदय शान्त और प्रसन्न था। हरसिंगार की कलिकाएँ खिलने लगी थीं। उनकी मधुर सुगन्धि से वायु आनन्द प्रदान कर रहा था। पथिक ने पुनः शयन का विचार नहीं किया। इतने शान्त सुहावने समय को वह यों ही निद्रा में खोना नहीं चाहता था। उसने उसी कम्बल पर आसन लगाया और अपने झोले से कुछ कागज, नोटबुक, पेन्सिल प्रभृति निकालकर वह अपने आगे के कार्यक्रम को निश्चित करने में लग गया। नोटबुक में उसी ने कभी लिखा था - 'सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम्'और इस पंक्ति के नीचे लाल पेन्सिल से चिह्न लगा था। वह सोचने लगा - 'सत्य की प्रतिष्ठा से कर्म का इच्छित फल प्राप्त होता है। 'यह महर्षि पतञ्जलि वचन है। मैंने इस पर चिह्न भी लगाया है कि अवसर पड़ने पर इस पर विचार करूँगा। महर्षि का वाक्य मिथ्या तो हो नहीं सकता, फिर क्यों न सब जंजाल और दाँव-पेंच को छोड़कर इसी से काम निकालूं। पथिक को पुनः आलस्य प्रतीत हुआ। कर्तव्य के सम्बन्थ में वह निश्चिन्त हो गया था, अतः लेट गया। पिण्डारों (ठगों) ने बड़ा उत्पात मचा रखा था। वे यात्रियों को तो लूटते ही थे, अवसर देखकर ग्राम एवं बाजारों को भी लूट लेते थे। उनका दल बढ़ता ही जाता था। छत्तीसगढ़ में उनका प्राबल्य था और उसमें भी रायपुर-राज्य में। उन्होंने अब अपना सुदृढ़ संगठन बना लिया था एवं वे डकैती करने लगे थे। यात्रियों तक हो तो कोई बात भी है, ग्राम और बाजारों से बढ़ते-बढ़ते पिण्डारों ने आज राज्य का तहसील से आता हुआ खजाना भी लूट लिया था। खजाने के साथ आनेवाले सिपाहियों को उन्होंने मार दिया था। इससे सैनिकों में बड़ी उत्तेजना थी। सभी को प्राण प्यारे होते हैं। सभी जगह उपर्युक्त घटना की चर्चा थी और सिपाही नगर से बाहर कहीं भी खजाने के साथ न जाने की सलाह कर रहे थे। बात मंत्री तक पहुँची और उसने महाराज को एक की दो बनाकर समझाया; क्योंकि कुशल सचिव चाहता था कि पिन्डारों का शीघ्र दमन हो। यही कारण है कि मोहनसिंह के समान शान्त और राज्य की ओर से कान में तेल डालकर महल में पड़े रहनेवाला राजा भी आज व्यग्र था। उसे चिन्ता हो गयी थी कि कहीं पिण्डारे और बढ़कर पूरे राज्य पर अधिकार न कर बैठें। अपनी सत्ता की रक्षा के विचार से राजा आज व्याकुल था। लगभग सब चतुर, शिक्षित एवं वीर नागरिक निमंत्रित हुए। उन दिनों के राज्य ही कितने बड़े थे? नगर को एक अच्छा बाजार कहना चाहिए। महाराज का दरबार लगा। प्रश्न था - 'पिण्डारों का दमन कैसे हो? 'अन्त में मन्त्री की सम्मति सब को प्रिय लगी कि 'पिण्डारों के गुप्त अड्डे का पता लगाया जाय। वहाँ वे सब लोग कब एकत्र और असावधान रहते हैं, यह ज्ञात किया जाय। उसी समय उन पर अचानक आक्रमण हौ।' यह काम करे कौन? बड़ा टेढ़ा प्रश्न था। महाराज ने बीड़ा रक्खा और पद, पुरस्कार तथा जागीर का लोभ दिखाया। प्राण पर खेलने का प्रश्न था। सबके सिर झुके थे। बड़ी देर हो गयी, पर किसी ने बीड़ा उठाया नहीं। अन्त में एक ब्राह्मण युवक उठा। साँवला -दुबला शरीर, भाल पर भस्म का त्रिपुण्ड और भुजा तथा कण्ठ में रुद्राक्ष की माला। सब ने आश्चर्य से देखने लगे। उसने बीड़ा उठाकर मुख में रक्खा और बिना किसी को बोलने का अवसर दिये सभा से शीघ्रता के साथ चला गया। 'आप कहाँ जा रहे हैं? एक पथिक से एक वृक्ष के नीचे बैठे दूसरे व्यक्ति ने पूछा जो वेष-भूषा से पथिक ही जान पड़ता था। 'पिण्डारों के अड्डे पर। 'बिना किसी संकोच के उसे उत्तर मिला। प्रश्नकर्त्ता को ऐसा उत्तर पाने की तनिक भी आशा न थी। वह भौंचक्का रह गया और घूरकर उस पथिक के मुख को देखने लगा। 'भाई! मैं भी यात्री हूँ। इधर वन में भय है। इसलिये साथी की प्रतीक्षा में बैठ गया था। आप मुझसे हँसी क्यों करते हैं? मैं पिण्डारा थोड़े ही हूँ। 'चोर की दाढ़ी में तिनका, पथिक के उत्तर से उस पूछनेवाले को, जो सचमुच एक प्रधान था, संदेह हो गया कि यह मुझे पहचानकर व्यंग कर रहा है। 'मैं हँसी नहीं करता 'गम्भीरता से पथिक ने कहा। 'सचमुच ही मैं पिण्डारों के अड्डे पर जाना चाहता हूँ, किंतु अभी मेरे गन्तव्य का मुझे कुछ भी पता नहीं लग सका है। कितना अच्छा होता कि कोई पिण्डारा मुझे मिल जाता।' 'और तुम्हें ठिकाने लगाकर कपड़े-लत्ते लेकर चम्पत होता! 'हँसकर ठगने बात पूरी की और ध्यान से अपने शब्दों के प्रभाव को पथिक के मुख पर देखने लगा। 'ठिकाने लगाने या चम्पत होने की तो कोई बात नहीं' पथिक की गम्भीरता अखण्ड थी। 'मेरे पास आठ अशर्फियाँ हैं और ये वस्त्र, इन्हें मैं प्रसन्नता से दे सकता हूँ। फिर कोई ब्राह्मण को व्यर्थ क्यों मारेगा?' 'देवता! तब आपको पता होना चाहिये कि मैं ही यहाँ के पिण्डारों का सरदार हूँ।' उसने ब्राह्मण के मुख पर अपने नेत्र गड़ा दिये। पथिक उल्लसित हो उठा- 'जय शंकर भगवान् की! मुझे व्यर्थ में भटकना न होगा। आप चाहें तो ये अशर्फियाँ ले लें और कहें तो लँगोटी लगाकर सब कपड़े भी उतार दूँ, किंतु आप इतनी कृपा और करें कि अपना अड्डा मुझे दिखा दें। 'अशर्फियों को ब्राह्मण ने झोले से निकाल कर ठग के आगे रख दिया। 'आप मेरे अड्डे पर क्यों जाना चाहते हैं? सरदार ने ब्राह्मण की निःस्पृहता और प्रसन्नता से कुतूहल में पड़कर पूछा। उसने मुहरें उठा ली थीं और वस्त्र उतरवाने की बात भी भूल चुका था। ब्राह्मण एक क्षण रुका 'क्या यहाँ भी सत्य....निश्चय। जब सत्य बोलने से इतनी सफलता हुई है तो आगे झूठ नहीं बोलूँगा। 'उसने स्पष्ट बतला दिया कि 'मैं रायपुर-राज्य का गुप्तचर होकर आया हूँ। 'उसने कहा-- 'मैंने अनेकों युक्तियाँ सोचीं, किन्तु महर्षि पतञ्जलि के सूत्र ने सब को दबा दिया। मैंने निश्चय किया कि 'मैं झूँठ नहीं बोलूँगा और अब तो प्रतिज्ञा करता हूँ कि जीवन में कभी भी असत्य का आश्रय नहीं लूँगा।' ब्राह्मण युवक के मुख पर सात्विक दृढ़ता थी। ठगों के सरदार का हृदय भी मनुष्य ही हृदय था। वह उसकी ओर फिर सिर उठाकर देख नहीं सका। चुपचाप घूमकर नेत्र पोंछें और ब्राह्मण को पीछे आने का संकेत करके घनी झाड़ियों के बीच में घुसने लगा। रायपुर के महाराज का दरबार लगा था। रुद्रदेव शर्मा पिण्डारों के अड्डे का पता, वहाँ का मार्ग, उनकी शक्ति प्रभृति सबका पता लगाकर आ गये थे। राजसभा में उन्होंने सब बातों को सविस्तार सुनाया। केवल उन्होंने छोड़ दिया कुछ सोचकर या व्यर्थ का विस्तार समझ अपने यात्रा के वर्णन को। 'पिण्डारों पर चढ़ाई का भार कौन लेगा? 'महाराज ने पूछा। 'किन्तु पिण्डारे तो परास्त हो चुके हैं। उन पर अब चढ़ाई होगी क्यों? 'एक हट्टे-कट्टे पुरुष ने प्रवेश करते हुए कहा। 'गुरुदेव की सत्यता ने पिण्डारों को पूरी तरह परास्त कर दिया है और उनका सरदार अब उनका स्वेच्छा-बंदी है। 'उस ब्राह्मण के चरणों पर गिरकर वह फूट-फूटकर रोने लगा। सब चकित थे और ब्राह्मण कर्तव्यविमूढ़! पूरा वृतान्त ज्ञात होनेपर महाराज सिंहासन से उतर पड़े। उन्होंने ब्राह्मण के चरणों में मस्तक रक्खा और उस सरदार को उठाकर हृदय से लगा लिया। रुद्रदेव शर्मा राजगुरु हो गये एवं अभयसिंह पिण्डारा रायपुर-राज्य के मंत्रित्व को सँभालने के लिए विवश हुए। इतिहास अस्थिर होता है, किन्तु महत्कर्म उसे भी स्थायी बना ही जाते हैं। छत्तीसगढ़ जंगली जातियों में अब भी शपथ देते समय 'झूठ बोलूँ तो रुद्र की सौगन्ध' कहने की प्रथा है। विश्वास किया जाता है कि रुद्र का नाम लेकर झूठ बोलनेवाले के घर या तो चोरी होती है या डाका पड़ता है। रुद्र वहाँ सत्य के प्रतीक हो चुके हैं।अस्तेय
अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम्। (योगदर्शन 2. 37)
'गुरुदेव! कलसे भूखा हूँ!' 'तुम इसी योग्य हो कि भूखों मरो!' बेचारे बालक के नेत्र भर आये। वह नहीं जान सका कि गुरुदेव उससे इतने असंतुष्ट क्यों हैं। उसके शरीर पर एकमात्र कौपीन थी और इस शीतकाल से दो दिन से उसके पेट में एक दाना भी नहीं गया था। उसका अंग-अंग ठिठुरा जाता था। ऊपर से यह फटकार। धीरे-धीरे वह सिसकने लगा। 'रामदास! 'गुरुदेव द्रवित हुए और स्नेह से पुचकारा- 'मैं चार दिन के लिए बाहर गया और आश्रम खाली हो गया , सोचो ऐसा क्यों हुआ? 'बालक सिसकता जाता था। आश्रम में ऐसा था ही क्या जो खाली हो गया? गुरुदेव कुल आध सेर तो आटा छोड़ गये थे। उसी को उलटा-सीधा सेंककर बिना नमक के ही उसने दो दिन किसी प्रकार काम चलाया। उनके समय जिन भक्तों की भीड़ लगी रहती थी, उनकी अनुपस्थिति में उनमें-से कोई मुख दिखाने भी नहीं आया था। 'देखो, झोले में थोड़े फल हैं और कुछ मीठा भी। उन्हें निकाल लो। 'गुरुदेव की इस आज्ञाका पालन नहीं हुआ ; क्योंकि शिष्य इतना दुखी हो गया था कि उसे रोने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं सूझता था। वह रोता जाता था और अपने हाथों से आँसू भी पोंछता जाता था। 'बेटा, रो मत। झौला उठा तो ला! 'चुपचाप उसने आज्ञा का पालन किया और फिर एक ओर खिसक कर आँसू पोंछने लगा। गुरुदेव ने बहुत-से फल निकाले और कुछ लड्डू भी। अञ्जलि भरकर उसे देने लगे। अब उससे रहा नहीं गया। वह उनके चरणों में मस्तक रखकर फूट पड़ा। घिग्घी बँध गयी। गुरुदेव ने उठाकर उसे गोद में बैठा लिया। आँसू पोंछ दिये। कमण्डलु के जल से स्वयं मुख धो दिया और स्वयं उसे फल छीलकर खिलाने लगे। 'बच्चे, तुम सदा बच्चे ही नहीं रहोगे अपने को समझो और यह तुच्छ मोह दूर करो! 'गुरुदेव यों ही कुछ कहते जाते थे। वे प्रायः ऐसी बातें करते थे, जो उनका बालशिष्य समझ नहीं पाता था। बालक का दुःख कितनी देर का? गुरु के स्नेह से वह चुप हो गया। उनकी गोद से उतरकर वह स्वयं उन फलों से क्षुधा शान्त करने लगा। केवल चोर को अभाव होता है। जो चोरी नहीं करता, उसके चरणों में विश्व की सम्पत्ति लौटा करती है। जब किसी को फटे हाल और भूखों मरते देखो तो समझ लो कि वह चोर है। यदि कोई किसी प्रकार की तनिक भी चोरी न करे तो भी उसे कभी भी आर्थिक कष्ट न होगा।' एक छोटा सा ब्राह्मणकुमार था। सुन्दर गौर एवं लम्बे शरीर का। माता-पिता उसे बचपन में छोड़ चुके थे। वह समीप के प्रसिद्ध संत सिद्धमहाराज के आश्रम पर आया। महाराज न तो किसी को शिष्य बनाते थे और न आश्रम-पर रहने देते थे, किंतु न जाने इस बालक में उन्होंने क्या देखा अथवा बालक का प्रारब्ध समझिये, इसे उन्होंने अपना लिया। पुत्र की भाँति वे इसका पालन करते और बालक पिता से कहीं अधिक उन्हें मानता। यों तो श्रद्धालु भक्तों की सदा ही आश्रम पर भीड़ लगी रहती थी; पर आज अभी तक कोई आया नहीं था। महाराज बाहर से लौटे थे, इससे सम्भवतः भक्तों को अभी पता नहीं लगा होगा। एकान्त पाकर वे अपने शिष्य को समझा रहे थे जो अपनी लम्बी जटाओं को एक हाथ से सहलाता हुआ कौपीन लगाये उनके सामने बैठा उत्सुकता से उनके वचनों को सुन रहा था। 'देखो, संसार का यह नियम है कि तुम दूसरों के जिस पदार्थ को हानि पहुँचाओगे, तुम्हारा वही पदार्थ तुमसे छिन जायगा। यही भगवान् का न्याय है। जो दूसरे के लड़कों को सताता या उनसे द्वेष करता है, उसे लड़के नहीं होते या होकर मर जाते हैं। जो दूसरों के स्वास्थ्य को बिगाड़ता है, वह रोगी होता है। जो चोरी करता है, वह दरिद्र होता है। इसी प्रकार दूसरों के ऊपर तुम जो चोट करते हो, वह दीवार पर मारी हुई गेंद की भाँति तुम्हारे ही ऊपर लौट आती है' बालक अभी बालक ही था। उसकी बुद्धि इतने उपदेशों को ग्रहण नहीं कर सकती थी। उसने स्वाभाविक चपलता से बीच में ही पूछा - 'गुरुदेव! चोर तो धन चुराता है, फिर उसके पास खूब धन रहेगा। वह दरिद्र कैसे होगा?' गुरुदेव ने गम्भीरता से शिष्य को देखा - 'मैं पहले ही समझता था कि तेरा अधिकार अस्तेय साधन से ही प्रारम्भ करने का है। ठीक है, माता प्रकृति तुझे उत्सुक और उत्थित कर रही है। 'फिर उन्होंने स्वाभाविक स्वर में कहा- 'इसे फिर समझाऊँगा! अभी तो मुझे आज संध्या को पुनः एक यात्रा करनी है। तुम भी साथ चलने को तैयार रहो!' गुरुदेव के साथ यात्रा मे चलने का आदेश सुनकर बालक खिल उठा और वह झटपट उठकर उनका झोला ठीक करने में लग गया। 'यहीं खड़े रहो और देखो!' 'इस गन्दी सँकरी गली के पास तो खड़े रहने को जी नहीं चाहता और इस अँधेरी रात्रि में यहाँ देखने को है भी क्या? कोई यहाँ खड़ा देखेगा तो जाने क्या समझेगा। 'अभी यहाँ बहुत कुछ होनेवाला है। तुम शान्त होकर देखो! बोलना मत! आओ, इधर एक ओर छिपकर खड़े रहो! 'एक अँधेरी गली में श्रावण की तससाच्छन्न रजनी में एक साधु अपने शिष्य से उपर्युक्त बातें कर रहे थे। आकाश में बादल छाये थे और छोटी-छोटी बूँद गिरने लगी थीं। दोनों एक कोने में छिप रहे। गली में किसी के आने की आहट हुई। दो व्यक्तियों की अस्पष्ट फुसफुसाहट सुनायी पड़ी। गली दो अट्टालिकाओं का पिछवाड़ा था। उनमें-से एक की खिड़की खुली थी। सर्र से एक ध्वनि हुई और तनिक देर में कोई काली बड़ी-सी वस्तु ऊपर को जाती दिखलायी दी। एक छोटा-सा खटका हुआ। वह काली वस्तु खिड़की के भीतर चली गयी। खिड़की से आता धीमा प्रकाश बन्द हो गया। बड़ी देर तक गली में सन्नाटा रहा। साधुका बालक शिष्य अपने भीतर की आकुलता दबाये चुपचाप खड़ा था। मन में बहुत कुछ पूछने की उत्सुकता थी; किन्तु गुरुजी बार-बार हाथ दबाकर उसे शान्त रहने का संकेत कर रहे थे। ऊपर से हल्की ताली बजी, नीचे से भी किसी ने वैसे ही संकेत किया। अबकी बार ऊपर से क्रमशः दो काली-काली वस्तुएँ उतरीं। फिर सन्नाटा हो गया। साधु अपने शिष्य को लेकर गली से निकले और उसे चुप रहने को कहकर एक ओर तीव्रता से चल पड़े। बड़ी दूर नगर से बाहर जाकर दो तीन नाले पार करके एक झाड़ी के पास वे रुक गये। थोड़ी दूर पर एक बत्ती जलती थी। दो व्यक्ति बैठे थे, जो अभी-अभी कहीं से एक सन्दूक लाये थे। प्रकाश में उनका मुख स्पष्ट दिखायी देता था। उन्होंने बक्स के ताले को रेती से काटकर बक्स खोला। उसमें-से सोने के आभूषण और मुहरें निकालीं। बक्स इन्हीं से भरा था। इतना शिष्य को दिखलाकर गुरु उसे लेकर एक ओर चले। ठीक एक सप्ताह बाद- दोपहरी में साधु अपने शिष्य के साथ नगर में घूम रहे थे। एक झोपड़ी के बाहर दो भाई परस्पर झगड़ रहे थे। झगड़ा था पावभर सत्तू को लेकर। उनमें उस सत्तू का बँटवारा हो रहा था और प्रत्येक चाहता था कि अधिक भाग प्राप्त करना। उनके वस्त्र चिथड़े हो रहे थे। शरीर धूल से भरा था। मुख देखने से पता लगता था कि सम्भवतः कई दिन पर इन्हें यह सत्तू प्राप्त हुआ है। सत्तू सानकर बाँटना निश्चित हुआ। जल मिलाकर उन्होंने उसका पिण्ड बनाया। फिर बाँटने के लिए झगड़ा हो ही रहा था कि पीछे से कूदकर एक बन्दर उसे उठा ले गया। उनकी इस दीनता पर वह बालक साधु रो पड़ा। 'रामदास! इन्हें पहले पहचानो और तब रोओ!' गुरु के वचनों से बालक को कुछ स्मरण हुआ। उसने ध्यान से देखा - 'ये तो उस रातवाले चोर हैं! इनके वे गहने और मुहरें क्या हुईं?' साधु हँसे - 'तू तो कहता था कि चोर धन चुराकर धनी हो जायगा।' 'गुरुदेव! पर इनका धन हो क्या गया?' 'इन्होंने आभूषण और मुहरें छिपाने के लिए उन्हें एक सेठ के यहाँ रक्खा। उसे भी उसमें भाग देने को कहा। उसे लोभ सवार हुआ। जब ये दुबारा माँगने गये तो देना तो दूर, उसने इन्हें पकड़वा देने की धमकी दी। विवश होकर ये लौट आये। इनसे सेठ को भय था कि यहाँ रहेंगे तो बदला लेंगे। अतएव उसने अपने आदमियों से इनके घर के सब बर्तन, वस्त्र, पशु प्रभृति चोरी करवा दिये। इस प्रकार घर की पूँजी भी खोकर अब ये दाने-दाने को तरस रहे हैं!' गुरुदेव! इन्होंने तो चोरी की थी, तब भूखों मर रहे हैं। मैंने क्या अपराध किया जो दो दिन मुझे अन्न नहीं मिला और आपने कहा कि तुम इसी योग्य हो कि भूखों मरो!' 'चोरी केवल धन की ही नहीं होती। जिस वस्तु में दूसरों को भाग मिलना चाहिए, उसे छिपाकर खा लेना, दूसरे की वस्तु को बिना माँगे ले लेना आदि भी चोरी ही है। बेटा! बड़ी चोरी से तो बहुत लोग बचते हैं, किन्तु इन छोटी चोरियों से ही बचना कठिन है। तुम्हें स्मरण है कि एक दिन भक्त तुम्हें इलायची दे रहा था। तुमने उसके देने पर तो अस्वीकार कर दिया और उसके हटने पर दो इलायची चुपके-से उठा लीं। इसी चोरी के फलस्वरूप तुम्हें दो दिन अन्न नहीं मिला।' शिष्य के नेत्र भर आये। गुरु के चरणों में मस्तक रख कर उसने फिर कभी चोरी न करने की प्रतिज्ञा की। + + + समर्थ रामदास जब किसी को शिष्य रूप में स्वीकार करते थे तो किसी प्रकार की कोई भी छोटी-से-छोटी चोरी न करने की प्रतिज्ञा कराते थे। उनके शिष्यों ने इस प्रतिज्ञा का कितना पालन किया, सो पता नहीं, किन्तु सभी जानते हैं कि छत्रपति शिवाजी की समस्त राज्य विभूति श्रीसमर्थ के चरणों मे लुण्ठित उन्हीं की प्रसाद स्वरूप थी। यह समर्थ की अस्तेय-प्रतिष्ठा का प्रताप था।ब्रह्मचर्य ---------------------
ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यलाभ: (योगदर्शन 2.38 )
पयस्विनी के पावन तट पर एक शिलापर बैठा मैं बार-बार अपनी पुस्तक को खोलता और उपर्युक्त सूत्र को पढ़कर फिर बंद कर देता। मेरे सिर पर एक पारिजात का वृक्ष झूम रहा था। वायु के कोमल शीतल स्पर्श से प्रसन्न होकर वह अपनी सुरभित निधि बार-बार मेरे ऊपर उँड़ेलता जाता था और मैं उसकी इस सुमनवृष्टि को आदर से स्वीकार करके कभी-कभी इकत्र भी कर लेता था - चरणों के नीचे कलकल करती भागती जाती पयस्विनी की लोल लहररूपी बालिकाओं को खेलने के लिये अञ्जलि भरकर पुन: पुन: प्रदान करने एवं उस क्रीड़ा से नेत्रों को तृप्त करने के लिए। उस पार थी सघन वनावली और उसके दक्षिण कक्ष में भवनों के शिखर दृष्टि पड़ते थे। अपने पीछे की छोटी झाड़ी के पार खेतों की श्रेणी को मैं भूल गया था। इस समय तो यात्रा में साथ लाये योगदर्शन से उलझा बैठा था और बीच-बीच में स्वभावत: हाथ सुमनों को एकत्र करके जल में डालते भी जा रहे थे। यह क्रीड़ा थी, अर्चन नहीं। मैं सोच रहा था - एक बच्चा भी जानता है कि यदि पैसा खर्च न किया जाय तो बचेगा। यदि भोजन न करें तो अन्न बच रहेगा। इसी प्रकार ब्रह्मचर्यपालन से वीर्यलाभ तो स्वाभाविक है। इसे कोई मूर्ख भी सरलता से जान सकता है या जानता ही है। फिर महर्षि पतञ्जलि ने यह सूत्र क्यों बनाया? स्वभाव का विधान तो कोई अर्थ नहीं रखता। जैसे दूसरे यम-नियम का उन्होंने महत्व बतलाया है, वैसे ही इसका भी क्यों नहीं बताया? वीर्यलाभ तो कोई विशेष बात हुई नहीं। ब्रह्मचर्य कोई उपेक्षणीय विषय है भी नहीं तब ऐसा क्यों हुआ? मैं ठहरा ज्ञान लव-दुर्विदग्ध, अतः संसार में अपने को सबसे बड़ा समझदार माननेवाला मेरा मस्तिष्क गतिशील हुआ-- महर्षि भी तो मनुष्य ही थे, मनुष्य से भूल होती ही है। यहाँ उन्होंने भूल की है। तब यहाँ ठीक क्या होगा! ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठा से बल मिलता है। नहीं- मेरे पास के ग्राम में सुखरामसिंह कितने प्रसिद्ध पहलवान हैं; किंतु वे ब्रह्मचारी तो हैं नहीं। उनके स्त्री है, कई बच्चे हैं। उनके अखाड़े में जाने वाले कई एक को तो मैं जानता ही हूँ। उनमें जैसी गंदी बातें होती रहती हैं, उससे कोई सभ्य पुरुष उनके पास बैठना भी पसन्द नहीं करेगा। अतः ब्रह्मचर्य से बल होता है, यह तो ठीक नहीं। तब? ब्रह्मचर्य से शरीर मोटा होता है? यह तो उपहासास्पद है। थुलथुल मोटे क्या ब्रह्मचारी हैं सभी? ब्रह्मचर्य से तेज होता है। बात कुछ ठीक लगी। ऐं! तेज या चमक तो अग्नि का गुण है। पित्त-प्रकृति वालों के मुख पर चमक हो सकती है। मेरे ग्राम के जमींदार का ललाट चमकता है; किंतु आचरण के सम्बन्ध में तो उनका पर्याप्त अयश है। स्मरण आया-प्राकृतिक चिकित्सा के आचार्यों का मत है कि ललाट पर मेद की मुटाई या चमक रोग का चिह्न है। वह सूचित करता है कि उदर का विजातीय द्रव्य मस्तक तक पहुँच चुका है। बल, शरीर की गठन एवं दृढ़ता, मोटापन, तेज, स्फूर्ति - ये सब ब्रह्मचर्य के प्रधान लक्षण नहीं हैं। ये ब्रह्मचर्य से प्राप्त नहीं होते , ऐसा नहीं कहा जा सकता। इनकी पूर्णता अवश्य ब्रह्मचर्य से ही होती हे। फिर भी इनकी उपलब्धि ब्रह्मचर्य के बिना सम्भव है। बल एवं शरीरगठन मासँपेशियों से होता है। पुष्टिकर भोजन और व्यायाम से ये प्राप्य हैं। मोटापन स्निग्ध पदार्थों की भोजन में अधिकता या किसी भी कारण से शरीर में मेद की वृद्धि से होता है। पित्त की भाल पर पहुँच तेज का कारण है और वह रोग का पूर्वरूप भी हो सकता है। स्फूर्ति आती है अभ्यास से। सैनिकों में और चोर-डाकुओं में वह पर्याप्त होती है। तब क्या पाश्चात्य लोगों की सम्मति ही ठीक है? ब्रह्मचर्य व्यर्थ की कल्पना है, उस से कुछ बनता-बिगड़ता नहीं; 'ब्रह्मचर्य से वीर्यलाभ '-यह तो कोई लाभ नहीं हुआ! वीर्यलाभ न भी हो तो क्या हानि? उसके अतिरिक्त भी हो तो उपाय हैं जो सबल, सशक्त, सतेज रखते हैं। क्यों उसी पर बल दिया जाय? ब्रह्मचर्य, जिसका शास्त्रों में इतना महत्व है, जो भारतीय संस्कृति के धार्मिक एवं सामाजिक जीवन की रीढ़ है, वही व्यर्थ हृदय इसे स्वीकार करने को तनिक भी प्रस्तुत नहीं हो रहा था। मैं चला था समस्या को सुलझाने, वह दुगुनी उलझ गयी। अनेक प्रकार के तर्क उठने लगे। साँढ़ ब्रह्मचारी नहीं होता- पर वह बैलों से सुदृढ़ होता है। बैल यदि बधिया न हों और संयत रहें? साँढ़ अल्पायु भी तो होता है! मैं इन तर्कों के जाल में उलझकर श्रान्त हो गया और पता नहीं कि कब मुझे उस शीतल मन्द समीर की कोमल थपकियों ने उसी शिलापर पारिजात की सुरभित गोद में सुला दिया। 'दुबला-पतला शरीर, कमर में कौपीन और सिर पर जटा, ये ब्रह्मचारी हैं! सो भी आजन्म ब्रह्मचारी! 'मुझे तो विश्वास नहीं होता था। 'चर्म अस्थियों से चिमटा और मुख पर भी कोई विशेषता नहीं। इन्हें कौन ब्रह्मचारी कहेगा? 'उन्होंने संकेत किया और मैं उनके पीछे चलने लगा। पता नहीं क्या हुआ, वे उपवास करने लगे उनके साथ मैं भी। एक दिन गया, दो दिन गया और तीसरा दिन भी बीत गया। हम लोग कहीं जंगल में थे , जहाँ यमुनाजी भी थीं। एक मिट्टी का घड़ा था। उसे कोई भरता नहीं था। फिर भी जब मैं उसमें से पानी उँड़ेलता तो वह भरा ही मिलता। वही यमुनाजलमात्र हम दोनों पीते थे। पेट में चूहों ने डंड लगाना छोड़कर चौकड़ियाँ भरना प्रारम्भ कर दिया। भूख के मारे मेरी दुर्दशा होती जा रही थी। प्यास न लगने पर भी भूख मिटाने के लिए बार-बार जल पीता था। दिनभर पड़ा रहता था चटाई पर! पानी लेने को भी उठना भारी प्रतीत होता था। सिर में चक्कर आने लगता था। मेरी तो यह दशा थी और वे ब्रह्मचारी? उनकी कुछ मत पूछिये। पता नहीं वे पत्थर के बने थे या लोहे के। स्नान करने यमुना जी जाते तो दौड़कर, फिर जल में भली प्रकार तैराई करते। जाने कहाँ-कहाँ से पुष्प एकत्र करके अपने नन्हें ठाकुर को सजाते। पूजा-पाठ से छूट्टी पाकर इधर-उधर फुदकते फिरते। भागवत का पाठ करते। कुछ न होता तो मेरी दुर्बलता पर खिलखिलाकर हँसते और मेरी हँसी उड़ाते। जैसे कभी भूख लगती ही नहीं। 'आपको भूख नहीं लगती क्या?' 'लगती क्यों नहीं?' 'भूख लगती तो ऐसे फुदकते फिरते!' 'वे हँस पड़े - 'ब्रह्मचारी के वीर्य में भी तो कुछ शक्ति होती है। जो तनिक से कष्ट से व्याकुल हो जाय, वह कैसा ब्रह्मचारी?' 'ओह! ......'मैं कुछ और कहनेवाला था, इतने में हमारे झोंपड़े के द्वार में एक नृसिंहदेव के लघु भ्राता व्याघ्रदेव ने अपना श्रीमुख दिखलाया। कुछ न पूछिये-मेरा हृदय उछलने लगा। रक्त शीतल होने लगा। उस अशक्ति में भी मैं उठा और उछलकर कोने में जा रहा। 'आइये भगवन्! 'ब्रह्मचारीजी हँसकर बोले। 'आप भी यमुनाजल पीकर हमारे संग उपवास कीजिए!' उन्हें भय भी नहीं लगता था। बाघने मुख फाड़ा और मैं चीख पड़ा। ब्रह्मचारी ने एक बार मेरी ओर देखा। मुझे हाथ-पैर पेट में किये दीवार में प्रविष्ट होने का व्यर्थ प्रयत्न करते देख वे फिर जोर से हँसे। 'हमारे मित्र आपसे डर रहे हैं; उन्हें कष्ट है; अतः आपका लौट जाना अच्छा है।' गम्भीर होकर उन्होंने व्याघ्र पर दृष्टि डाली। उसके दोनों पैर भीतर आ गये थे और वह मुझे घूरने लगा था। 'उधर नहीं, पीछे! 'और तब एक क्षण रुककर ब्रह्मचारी ने उस बनराज के मस्तक पर एक चपत जड़ दी। 'लौटता है या नहीं? 'उन्होंने अपनी खड़ाऊँ उठायी। जैसे वह कोई चूहा हो, जो खड़ाऊँसे ठीक किया जा सके। आप हँसेंगे, मुझे भी अब हँसी आती है, किंतु उस समय मेरी दूसरी ही दशा थी उस खड़ाऊँ से भी आशा जा अटकती थी। 'डूबते को तिनके का सहारा।' बाघ ने एक बार एकटक ब्रह्मचारी को एक क्षण देखा और फिर पीधे मुड़ा। उसने मुड़ते ही छलाँग भरी, साथ ही कठोर गर्जना की। मैं चौंक पड़ा। उस गर्जना का भय अब भी हृदय को धड़का रहा था। श्वास का वेग बढ़ गया था। कुशल यही थी कि मैं पयस्विनी के तीर पर उसी शिलापर था। मेरे ऊपर हरश्रृङ्गार के पुष्प पड़े थे। झटपट उठ कर बैठ गया। पुस्तक अब भी शिलापर एक ओर खुली पड़ी थी मैने उसे उठाया। सर्वप्रथम उसी सूत्र पर दृष्टि पड़ी , जिस पर विचार करते-करते मैं सो गया था। अभय, धैर्य, साहस, ओज, मनोबल-ये सब वीर्य के अन्तर्गत आ जाते हैं। मुझे यह समझने की आवश्यकता रह नहीं गयी थी। ब्रह्मचारी तितिक्षु, धीर, निर्भय, स्वभावप्रसन्न एवं अन्तर्मुख होता है; क्योंकि वह वीर्यशाली होता है। उसे वीर्य की प्रप्ति होती है। मेरा हृदय उत्फुल्ल था और श्रद्धा से मेरा मस्तक उसी ग्रन्थ पर झुका हुआ था।अपरिग्रह अपरिग्रहस्थैर्य जन्मकथन्तासम्बोधः। (योगदर्शन 2.39)
समाचार-पत्रों में कई बार ऐसे बच्चों का वर्णन मैंने पढ़ा है, जो अपने पूर्वजन्मकी की स्मृति रखते हैं। अपने पूर्वजन्म के माता-पिता, घर प्रभृति को पहचान भी लेते हैं। मेरे पड़ोस में आज डिप्टी श्रीरमाशंकरजी चतुर्वेदी आये हैं। मैंने इनकी कन्या के सम्बन्ध में पढ़ा था कि वह भी पूर्वजन्म की स्मृति रखती है। मैंने अपने यहाँ के साप्ताहिक-पत्र 'निगम' की पुरानी प्रतियों को उलटने-पुलटने में बहुत समय व्यतीत किया और अन्त में वह प्रति प्राप्त कर ली जिसमें डिप्टी साहब की पुत्री कुमारी कला के पूर्वजन्म की स्मृति का विवरण दिया गया था। डिप्टी साहब फैजाबाद से बदलकर परसों मथुरा आये हैं और ठहरे हैं मेरे पड़ोस के बँगले में। बड़े सज्जन हैं। कल संध्या समय स्वयं मेरे यहाँ टहलते आये और बड़ी देर तक इधर-उधर की बातें करते रहे। उनके जाने पर मुझे उनकी कन्या के सम्बन्ध में समाचार-पत्रों में निकले समाचार का ध्यान आया। कल की भेंट ने संकोच को दूर कर ही दिया था, मैं स्वयं डिप्टी साहब के यहाँ पहुँचा। बँगले के सामने घास पर कुर्सी डाले वे बैठे थे। मुझे देखते ही हाथ जोड़कर उठ खड़े हुए। 'नमस्कार डाक्टर बाबू! 'मैंने उनके अभिवादन का उत्तर दिया और उनके पास ही नौकरद्वारा लायी हुई कुर्सी पर बैठ गया। 'आपसे कुछ जानने आया हूँ।' 'कहिये क्या?' उनके आग्रह के उत्तर में मैंने 'निगम' की प्रति खोलकर उनके हाथ में दी और उस समाचार की ओर संकेत कर दिया। 'यह प्रति कब की है? 'उन्होंने समाचार का शीर्षक-मात्र देखकर फिर अपने प्रश्न के साथ कवर-पृष्ठ देखा और तब हँसकर बोले- 'आप इतना पुराना समाचार कहाँ से ढूँढ़ लाये हैं? यह तो दो वर्ष की पुरानी प्रति है और अब तो कला सब भूल-भाल गयी है। 'उन्होंने पत्र मुझे लौटा दिया। 'क्या बच्चों को बुला देंगे! 'उनकी उदासी मुझे अखरी। मैंने अपनी उत्सुकता को बिना दबाये हुए आग्रह किया। 'क्यों नहीं'- उन्होंने लड़की को पुकारा और आयी पिताजी! 'कहने के एक मिनट बाद ही दस वर्ष की एक भोली बालिका उनके पास आ गयी। 'यही है'- डिप्टी साहब ने उसे मेरे सामने कर दिया हाथ पकड़कर। लड़की ने मुझे प्रणाम किया। मैंने उसे पास बुला लिया। वह संकोच से सिकुड़ी जाती थी। 'बच्ची, तुम्हारा नाम क्या है? इस प्रकार परिचय बढ़ाने के लिए मैंने उससे कई प्रश्न किये। उसने सबका उत्तर दिया। प्रश्नों के ही क्रम में मैंने पूछा - 'तुम बता सकती हो कि इससे पहले तुम्हारा जन्म कहाँ हुआ था? 'लड़की चुप हो गयी। कई बार पुचकारकर मैंने और डिप्टी साहब ने पूछा, तब कहीं उसने कहा -'काशी में'। 'काशी में किसके घर? 'लड़की को और कुछ भी स्मरण नहीं था। वह आगे कुछ भी बता नहीं सकी। डिप्टी साहब-जैसे सम्पन्न, सरल और धार्मिक व्यक्ति भला समाचार-पत्रों में क्यों झूठा आडम्बर करेंगे? अतः उस साप्ताहिक-पत्र के विवरण को डिप्टी साहब के स्वीकार कर लेने के पश्चात् संदिग्ध समझने का कोई कारण नहीं था। यह एक समस्या अवश्य थी कि बच्चे बड़े होकर उस पूर्वजन्म की स्मृति को क्यों विस्मृत हो जाते हैं? डिप्टी साहब के पास भी इसका कोई समाधान नहीं था। जाड़े के दिन थे और संध्या का समय। मैं ड