गोदान
- लेखक - मुंशी प्रेमचंद
:श्री :
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होरीराम ने दोनों बैलों को सानी-पानी देकर अपनी स्त्री धनिया से कहा-गोबर को ऊख गोड़ने भेज देना. मैं न जाने कब लौटूं. जरा मेरी लाठी दे दे. धनिया के दोनों हाथ गोबर से भरे थे. उपले पाथकर आयी थी. बोली- अरे, कुछ रस-पानी तो कर लो. ऐसी जल्दी क्या है? होरी ने अपने झुर्रियों से भरे हुए माथे को सिकोड़कर कहा तुझे रस-पानी की पड़ी है, मुझे यह चिन्ता है कि अबेर हो गयी, तो मालिक से भेंट न होगी. स्नान -पूजा करने लगेंगे,तो घण्टों बैठे बीत जायेगा. `इसी से तो कहती हूं,कुछ जलपान कर लो. और आज न जाओगे, तो कौन हरज होगा. अभी तो परसों गये थे.' `तू जो बात नहीं समझती, उसमें टांग क्यों अड़ाती है भाई? मेरी लाठी दे दे और अपना काम देख. यह इसी मिलते-जुलते रहने का परसाद है कि अब तक जान बची हुई है, नहीं कहीं पता न लगता कि किधर गये. गांव में इतने आदमी तो हैं, किस पर बेदखली नहीं आयी, किस पर कुड़की नहीं आयी. जब दूसरे के पावों-तलें अपनी गर्दन दबी हुई है, तो उन पांवों को सहलाने में ही कुशल है.' धनिया इतनी व्यवहारकुशल न थी. उसका विचार था कि हमने जमींदार के खेत जोते हैं,तो वह अपना लगान ही तो लेगा. उसकी खुशामद क्यों करें,उसके तलवे क्यों सहलाये? यद्यपि अपने विवाहित जीवन के इन बीस बरसों में उसे अच्छी तरह अनुभव हो गया था कि चाहे कितनी ही कतर-ब्योंत करो, कितना ही पेट-तन काटो, चाहे एक-एक कौड़ी को दांत से पकड़ो, मगर लगान बेबाक होना मुश्किल है. फिर भी वह हार नहीं मानती थी और इस विषय पर स्त्री-पुरुष में आये दिन संग्राम छिड़ा रहता था. उसकी छः संतानों में अब केवल तीन जिन्दा हैं, एक लड़का गोबर कोई सोलह साल का और दो लड़कियां सोना और रूपा, बारह और आठ साल की. तीन लड़के बचपन ही में मर गये.उसका मन आज भी कहता था, अगर उनखी दवा-दारू होती, तो वे बच जाते, पर वह एक धेले की दवा भी न मंगवा सकी थी. उसकी ही उम्र अभी क्या थी. छत्तीसवां ही साल तो था, पर सारे बाल पक गये थे, चेहरे पर झुर्रियां पड़ गयी थी, वह सुन्दर गेहुंआ रंग संवला गया था और आंखों से भी कम सूझने लगा था. पेट की चिन्ता ही के कारण तो. कभी तो जीवन का सुख न मिला.इस चिरस्थायी जीर्णावस्था ने उसके आत्मसम्मान को उदासीनता का रूप दे दिया था.जिस गृह- स्थी में पेट को रोटियां भी न मिलें, उसके लिए इतनी खुशामद क्यों? इस परिस्थिति से उसका मन बराबर विद्रोह किया करता था और दो-चार घुड़कियां खा लेने पर ही उसे यथार्थ का ज्ञान होता था. उसने परास्त होकर होरी की लाठी, मिरजई, जूते, पगड़ी और तमाखू का बटुआ लाकर सामने पटक दिये. होरी ने उसकी ओर आंखें तरेर कर कहा-क्या ससुराल जाना है, जो पांचों पोशाक लायी है? ससुराल में भी तो कोई जवान साली-सलहज नहीं बैठी है, जिसे जाकर दिखाऊं. होरी के गहरे सांवले, पिचके हुए चेहरे पर मुसकराहट की मृदुता झलक पड़ी. धनिया ने लजाते हुए कहा- ऐसे ही तो बड़े सजीले जवान हो कि साली-सलहजें तुम्हें देखकर रीझ जायेंगी! होरी ने फटी हुई मिरजई को बड़ी सावधानी से तह करके खाट पर रखते हुए कहा-तो तो क्या तू समझती है, मैं बूढ़ा हो गया? अभी तो चालीस भी नहीं हुए.मर्द साठे पर पाठे होते हैं. `जाकर सीसे में मुंह देखो. तुम जैसे मर्द साठे पर पाठे नहीं होते. दूध-घी-अञ्जन लगाने तक को तो मिलता नहीं, पाठे होंगे! तुम्हारी दशा देख देखकर तो मैं और भी सूखी जाती हूं कि भगवान यह बुढ़ापा कैसे कटेगा? किसके द्वार पर भीख मागेंगे?' होरी की यह क्षणिक मृदुता यथार्थ की इस आंच में जैसे झुलस गयी. लकड़ी संभालता हुआ बोला-साठ तक पहुंचनेकी नौबत न आने पायेगी धनिया! इसके पहले ही चल देंगे. धनिया ने तिरस्कार किया-अच्छा रहने दो,मत असुभ मुंह से निकालो. तुमसे कोई अच्छी बात भी कहे, तो लगते हो कोसने. होरी कन्धे पर लाठी रखकर घर से निकला, तो धनिया द्वार पर खड़ी उसे देर तक देखती रही. उसके इन निराशा-भरे शब्दों ने धनिया के चोट खाये हुए हृदय में आतंकमय कम्पन डाल दिया था. वह जैसे अपने नारीत्व के सम्पूर्ण तप और व्रत से अपने पति को अभय-दान दे रही थी.उसके अन्तःकरण से जैसे आशीर्वादों का व्यूह-सा निकलकर होरी को अपने अन्दर छिपाये लेता था. विपन्नता के इस अथाह सागर में सोहाग ही वह तृण था, जिसे पकड़े हुए वह सागर को पार कर रही थी.इन असंगत शब्दों ने यथार्थ के निकट होने पर भी,मानो झटका देकर उसके हाथ से वह तिनकेका सहारा छीन लेना चाहा,बल्कि यथार्थ के निकट होने के कारण ही उनमें इतनी वेदना-शक्ति आ गयी थी. काना कहने से काने को जो दुख होता है, वह क्या दो आंखों वाले आदमी को हो सकता है? होरी कदम बढ़ाये चला जाता था. पगडण्डी के दोनों ओर ऊख के पौधों की लहराती हुई हरियाली देखकर उसने मन में कहा- भगवान कहीं गौं से बरखा कर दें और डांडी भी सुभीते से रहे,तो एक गाय जरूर लेगा.देशी गायें तो न दूध दें, न उनके बछवे ही किसी काम के हों, बहुत हुआ तो तेली के कोल्हू में चले नहीं, वह पछांई गाय लेगा. उसकी खूब सेवा करेगा. कुछ नहीं, तो चार-पांच सेर दूध होगा. गोबर दूध के लिये तरस -तरस कर रह जाता है. इस उमिर में न खाया-पिया, तो फिर कब खायेगा? साल-भर भी दूध पी ले, तो देखने लायक हो जाये. बछवे भी अच्छे बैल निकलेंगे. दो सौ से कम की गोई न होगी. फिर, गऊ से ही तो द्वार की सोभा है. सबेरे- -गऊ के दरसन हो जायें, तो क्या कहना! न जाने कब यह साध पूरी होगी, कब वह शुभ दिन आयेगा! हर एक गृहस्थ की भांति होरी के मन में भी गऊ की लालसा चिरकाल से सञ्चित चली आती थी. यही उसके जीवन का सबसे बड़ा स्वप्न, सबसे बड़ी साध थी. बैंक सूद से चैन करने या जमीन खरीदने या महल बनवाने की विशाल आकांक्षाएं उसके नन्हे-से हृदय में कैसे समाती? जेठ का सूर्य आमों के झुरमुट से निकलकर आकाश पर छायी हुई लालिमा को अपने रजत-प्रताप से तेज करता हुआ ऊपर चढ़ रहा था और हवा में गरमी आने लगी थी. दोनो ओर खेतों में काम करने वाले किसान उसे देखकर राम-राम करते और सम्मान-भाव से चिलम पीने का निमंत्रण देते थे, पर होरी को इतना अवकाश कहां था! उसके अन्दर बैठी हुई सम्मान-लालसा ऐसा आदर पाकर उसके सूखे मुख पर गर्व की झलक पैदा कर रही थी. मालिकों से मिलते-जुलते रहने ही का तो यह प्रसाद है कि सब उसका आदर करते हैं, नहीं उसे कौन पूछता? पाँच बीघे के किसान की बिसात ही क्या? यह कम आदर नहीं है कि तीन-तीन,चार-चार हलवाले महतो भी उसके सामने सिर झुकाते हैं. अब वह खेतों के बीच की पगडण्डी छोड़ कर एक खलेटी में आ गया था,जहाँ बरसात में पानी भर जाने के कारण तरी रहती थी और जेठ में कुछ हरियाली नजर आती थी. आस-पास के गाँवों की गायें यहाँ चरने आया करती थी. उस समय में भी यहाँ की हवा में कुछ ताजगी और ठण्डक थी. होरी ने दो-तीन साँसें जोर से लीं. उसके जी में आया, कुछ देर यहीं बैठ जाये. दिन-भर तो लू लपट में मरना है ही. कई किसान इस गड््ढे का पट्टा लिखाने को तैयार थे. अच्छी रकम देते थे, पर ईश्वर भला करे रायसाहब का कि उन्होने साफ कह दिया,यह जमीन जानवरों की चराई के लिये छोड़ दी गयी है और किसी दाम पर भी न उठायी जायेगी. कोई स्वार्थी जमींदार होता,तो कहता, गायें जायें भाड़ में, हमें मिलते हैं, क्यों छोड़ें? पर रायसाहब अभी तक पुरानी मर्यादा निभाते आते हैं. जो मालिक प्रजा को न पाले, वह भी कोई आदमी है! सहसा उसने देखा, भोला अपनी गायें लिये इसी तरफ चला आ रहा है. भोला इसी गाँव से मिले पुरवे का ग्वाला था और दूध-मक्खन का व्यवसाय करता था. अच्छा दाम मिल जाने पर कभी-कभी किसानों के हाथ गायें बेच भी देता था. होरी का मन उन गायों को देख कर ललचा गया. अगर भोला वह आगेवाली गाय उसे दे दे, तो क्या कहना, रुपये आगे-पीछे देता रहेगा. वह जानता था, घर में रुपये नहीं हैं. अभी तक लगान नहीं चुकाया जा सका,बिसेसर साह का देना भी बाकी है, जिस पर आने रुपये का सूद चढ़ रहा है, लेकिन दरिद्रता में जो एक प्रकार की अदूरदर्शिता होती है, वह निर्लज्जता के तकाजे, गाली और मार से भी भयभीत नहीं होती, उसने उसे प्रोत्साहित कर दिया. भोला के समीप जाकर बोला- राम-राम भोला भाई, कहो, क्या रंग-ढंग हैं? सुना, अबकी मेले से नयी गायें लाये हो? भोला ने रुखाई से जबाब दिया. होरी के मन की बात उसने ताड़ ली थी-हाँ, दो बछियें और दो गायें लाया. पहलेवाली गायें सब सूख गयीं थीं. बंधी पर दूध न पहुँचें,तो गुजर कैसे हो? होरी ने आगेवाली गाय के पुट्ठे पर हाथ रखकर कहा- दुधार तो मालूम होती है. कितने में ली? भोला ने शान जमायी-अबकी बाजार बड़ा तेज रहा महतो, इसके अस्सी रुपये देने पड़े. आँखे निकल गयीं. तीस-तीस रुपये तो दोनों कलोरों के दिये. तिस पर ग्राहक रुपये का आठ सेर दूध माँगता है. `बड़ा भारी कलेजा है तुम लोगों का भाई, लेकिन फिर लाये भी, तो वह माल कि यहाँ दस- पाँच गाँवों में तो किसी के पास निकलेगी नहीं.' भोला पर नशा चढ़ने लगा. बोला-रायसाहब इसके सौ रुपये देते थे. दोनों कलोरों के पचास पचास रुपये, लेकिन हमने न दिये. भगवान ने चाहा, तो सौ रुपये इसी ब्यात में पीट लूंगा. `इसमें क्या संदेह है भाई? मालिक क्या खा के लेगें? नजराने में मिल जाये, तो भले ले लें. यह तुम्हीं लोगों का गुर्दा है कि अंजुली-भर रुपये तकदीर के भरोसे गिन देतो हो. यही जी चाहता है कि इसके दरसन करता रहूँ. धन्य है तुम्हारा जीवन कि गउओं की इतनी सेवा करते हो! हमें तो गाय का गोबर भी मयस्सर नहीं. गिरस्त के घर में एक गाय भी न हो, तो कितनी लज्जा की बात है. साल-के-साल बीत जाते हैं, गोरस के दरसन नहीं होते. घरवाली बार-बार कहती है, `भोला भैया से क्यों नहीं कहते? मैं कह देता हूँ, कभी मिलेंगे,तो कहूँगा. तुम्हारे सुभाव से बड़ी परसन रहती है. कहती है ऐसा मर्द ही नहीं देखा कि जब बातें करेंगे, नीची आंखें करके , कभी सिर नहीं उठाते.' भोला पर जो नशा चढ़ रहा था, उसे इस भरपूर प्याले ने और गहरा कर दिया. बोला- आदमी वही है, जो दूसरों की बहू-बेटी को अपनी बहू-बेटी समझे. जो दुष्ट किसी मेहरिया की ओर ताके, उसे गोली मार देना चाहिए. `यह तुमने लाख रुपये की बात कह दी भाई! बस, सज्जन वही, जो दूसरों की आबरू को अपनी आबरू समझे.' `जिस तरह मर्द के मर जाने से औरत अनाथ हो जाती है, उसी तरह औरत के मर जाने से मर्द के हाथ-पांव टूट जाते हैं. मेरा तो घर उजड़ गया महतो, कोई एक लोटा पानी देने वाला भी नहीं.' गत वर्ष भोला की स्त्री लू लग जाने से मर गयी थी. यह होरी जानता था, लेकिन पचास बरस का खंखड़ भोला भीतर से इतना स्निग्ध है,वह न जानता था. स्त्री की लालसा उसकी आंखो में सबल हो गयी थी. होरी को आसन मिल गया. उसकी व्यावहारिक कृषक बुद्धि सजग हो गई. `पुरानी मसल झूठी थोड़ी है-बिन घरनी घर भूत का डेरा.कहीं सगाई क्यों नहीं ठीक कर लेते?' `ताक में हूं महतो, पर कोई जल्दी फंसता नहीं. सौ-पचास खरच करने को भी तैयार हूँ. जैसी भगवान् की इच्छा.' `अब मैं भी फिकर में रहूँगा. भगवान चाहेंगे, तो जल्दी घर बस जायेगा.' `बस, यही समझ लो कि उबर जाऊंगा भैया. घर में खाने को भगवान् का दिया बहुत है. चार पसेरी रोज दूध हो जाता है, लेकिन किस काम का!' 'मेरे ससुराल में एक मेहरिया हैं. तीन-चार साल हुए, उसका आदमी उसे छोड़कर कलकत्ते चला गया. बेचारी पिसाई करके गुजारा कर रही है. बाल-बच्चा भी कोई नहीं. देखने सुनने में अच्छी है. बस लच्छमी समझ लो.' भोला का सिकुड़ा हुआ चेहरा चिकना गया. आशा में कितनी सुधा है! बोला- अब तो तुम्हारा ही आसरा है महतो! छुट्टी हो, तो चलो एक दिन देख आयें. `मैं ठीक-ठाक करके तब तुमसे कहूंगा. बहुत उतावली करने से भी काम बिगड़ जाता है.' ` जब तुम्हारी इच्छा हो तब चलो. उतावली काहे की? इस कबरी पर मन ललचाया हो, तो ले लो.' `यह गाय मेरे मान की नहीं है दादा. मैं तुम्हे नुकसान नहीं पहुँचाना चाहता अपना धरम यह नहीं है कि मित्रों का गला दबायें! जैसे इतने दिन बीते हैं वैसे और भी बीत जायेंगे.' `तुम तो ऐसी बातें करते हो होरी,जैसे हम- तुम दो हैं. तुम गाय ले जाओ,दाम जो चाहे देना. जैसे मेरे घर रही,वैसे तुम्हारे घर रही.अस्सी रुपयें में ली थी, तुम अस्सी रुपये ही देना. जाओ.' `लेकिन मेरे पास नगद नहीं है दादा, समझ लो.' `तो तुमसे नगद मांगता कौन है भाई?' होरी की छाती गज-भर की हो गई. अस्सी रुपये में गाय महंगी न थी. ऐसा अच्छा डील-डौल, दोनों जून में छः-सात सेर दूध, सीधी ऐसी कि बच्चा भी दुह ले. इसका तो एक-एक बाछा सौ-सौ का होगा. द्वार पर बंधेगी, तो द्वार की शोभा बढ़ जायेगी. उसे अभी कोई चार सौ रुपये देने थे, लेकिन उधार को वह एक तरह से मुफ्त समझता था. कहीं भोला की सगाई ठीक हो गयी, तो साल-दो-साल, तो वह बोलेगा भी नहीं. सगाई न भी हुई, तो होरी का क्या बिगड़ता है! यही तो होगा, भोला बार-बार तगादा करने आयेगा,बिगड़ेगा,गालियां देगा. लेकिन होरी को इसकी ज्यादा शर्म न थी. इस व्यवहार का वह आदी था. कृषक के जीवन का तो यह प्रसाद है. भोला के साथ वह छल कर रहा था और यह व्यापार उसकी मर्यादा के अनुकूल था. अब भी लेन-देन में उसके लिए लिखा-पढ़ी होने और न होने में कोई अन्तर न था. सूखे-बूड़े की विपदाएं उसके मन को भीरु बनाये रहती थीं. ईश्वर का रौद्र रूप सदैव उसके सामने रहता था. पर यह छल उसकी नीति में छल न था. यह केवल स्वार्थ-सिद्धि थी और यह कोई बुरी बात न थी. इस तरह का छल तो वह दिन रात करता रहता था. घर में दो चार रुपये पड़े रहने पर भी महाजन के सामने कसमें खा जाता था कि एक पाई भी नहीं है. सन को कुछ गीला कर देना और रुई में कुछ बिनौले भर देना उसकी नीति में जायज था. और यहाँ तो केवल स्वार्थ न था, थोडा-सा मनोरंजन भी था, बुड्ढों का बुढ़भस हास्यास्पद वस्तु है और ऐसे - -बुड्ढों से अगर कुछ ऐंठ भी लिया जायें, तो कोई दोष-पाप नहीं. भोला ने गाय की पगहिया होरी के हाथ में देते हुए कहा-ले जाओ महतो, तु भी याद करोगे. ब्याते ही छः सेर दूध ले लेना.चलो, मैं तुम्हारे घर तक पहुँचा दूँ. साइत तुम्हें अनजान समझकर रास्ते में कुछ दिक करे. अब तुमसे सच कहता हूँ, मालिक नब्बे रुपये देते थे,पर उनके यहाँ गउओं की क्या कदर. मुझसे लेकर किसी हाकिम-हुक्काम को दे देते. हाकिमों को गऊ की सेवा से मतलब? वह तो खून चूसना-भर जानते हैं. जब तक दूध देती, रखते, फिर किसी के हाथ बेच देते. किसके पल्ले पड़ती,कौन जाने! रुपया ही सब कुछ नहीं है भैया, कुछ अपना धरम भी तो है,तुम्हारे घर आराम से रहेगी तो. यह न कि तुम आप खाकर सो रहो और गऊ भूखी पड़ी रहे. उसकी सेवा करोगे,चुमकारोगे, गऊ हमें आसिरवाद देगी. तुमसे क्या कहूं भैया, घर में चंगुल-भर भूसा नहीं रहा. रुपये सब बाजार में निकल गये. सोचा था, महाजन से कुछ लेकर भूसा ले लेंगे. लेकिन महाजन का पहला ही न चुका. उसने इन्कार कर दिया. इतने जानवरों को क्या खिलायें,यही चिन्ता मारे डालती है. चुटकी-चुटकी भर खिलाऊं, तो मन भर रोज का खरच है. भगवान ही पार लगाये, तो तो लगे. होरी ने सहानुभूति के स्वर में कहा-तुमने हमसे पहले क्यों नहीं कहा? हमने एक गाड़ी भूसा बेच दिया. भोला ने माथा ठोककर कहा-इसलिये नहीं कहा भैया कि सबसे अपना दुःख क्यों रोऊं. बांटता कोई नहीं,हँसते सब हैं. जो गायें सूख गयी हैं,उनका गम नहीं,पत्ती-सत्ती खिला कर जिला लूंगा, लेकिन अब यह तो रातिब बिना नहीं रह सकती. हो सके, तो दस-बीस रुपये भूसे के लिये दे दो. किसान पक्का स्वार्थी होता है, इसमें सन्देह नहीं. उसकी गांठ से रिश्वत के पैसे बड़ी मुश्किल से निकलते हैं, भाव ताव में भी वह चौकस होता है,ब्याज की एक-एक पाई छुड़ाने के लिए वह महाजन की घण्टों चिरौरी करता है,जब तक पक्का विश्वास न हो जाये, वह किसी के फुसलाने में नहीं आता, लेकिन उसका सम्पूर्ण जीवन प्रकृति से स्थायी सहयोग है. वृक्षों में फल लगते हैं, उन्हें जनता खाती है,खेती में अनाज होता है,वह संसार के काम आता है,गाय के थन में दूध होता है, वह खुद पीने नहीं जाती, दूसरे ही पीते हैं, मेघों से वर्षा होती है, उससे पृथ्वी तृप्त होती है. ऐसी संगति में कुत्सित स्वार्थ के लिये कहाँ स्थान? होरी किसान था और किसी के जलते हुए घर में हाथ सेंकना उसने सीखा ही न था. भोला की संकट-कथा सुनते ही उसकी मनोवृति बदल गयी. पगहिया को भोला के हाथ में लौटाता हुआ बोला-रुपये तो दादा मेरे पास नहीं हैं. हाँ थोड़ा-सा भूसा बचा है, वह तुम्हे दूंगा. चलकर उठवा लो.भूसे के लिये तुम गाय बेचोगे,और मैं लूंगा! मेरे हाथ न कट जायेंगे. भोला ने आर्द्र कण्ठ से कहा-तुम्हारे बैल भूखों न मरेंगे! तुम्हारे पास भी ऐसा कौन- सा बहुत-सा रखा है. `नहीं दादा, अबकी भूसा अच्छा हो गया था.' ` मैंने तुमसे नाहक भूसे की चर्चा की.' `तुम न कहते और पीछे से मालूम होता, तो मुझे बड़ रंज होता कि तुमने मुझे इतना गैर समझ लिया. अवसर पड़ने पर भाई की मदद भाई भी न करे, तो काम कैसे चले!' `मुदा यह गाय तो लेते जाओ.' `अभी नहीं दादा, फिर ले लूंगा.' `तो भूसे के दाम दूध में कटवा लेना.' होरी ने दुःखित स्वर में कहा-दाम कौड़ी की इसमें कौन बात है दादा, मैं एक-दो जून तुम्हारे घर खा लूं, तो तुम मुझसे दाम मांगोगे? 10. `लेकिन तुम्हारे बैल भूखे मरेंगे कि नहीं?' `भगवान कोई-न-कोई सबील निकालेंगे ही. असाढ़ सिर पर है. कड़वी बो लूंगा' `मगर यह गाय तुम्हारी हो गयी. जिस दिन इच्छा हो, आकर ले जाना.' किसी भाई का नीलाम पर चढ़ा हुआ बैल लेने में जो पाप है, वह इस समय तुम्हारी गाय लेने में है. होरी में बाल की खाल निकालने की शक्ति होती, तो वह खुशी से गाय लेकर घर की राह लेता. भोला जब नकद रुपये मांगता,तो स्पष्ट था कि वह भूसे के लिये गाय नहीं बेच रहा है, बल्कि इसका कुछ और आशय है,लेकिन जैसे पत्तों के खड़कने पर घोड़ा अकारण ही ठिठक जाता है और मारने पर भी आगे कदम नहीं उठाता,वही दशा होरी की थी. संकट की चीज लेना पाप है, यह बात जन्म-जन्मान्तरों से उसकी आत्मा का अंश बन गयी थी. भोला ने गद्गद कण्ठ से कहा-तो किसी को भेज दूं भूसे के लिए? होरी ने जबाब दिया-अभी मैं रायसाहब की ड्योढ़ी पर जा रहा हूं. वहाँ से घड़ी-भर में लौटूंगा, तभी किसी को भेजना. भोला की आखों में आंसू भर आये. बोला-तुमने आज मुझे उबार लिया होरी भाई! मुझे अब मालूम हुआ कि मैं संसार में अकेला नहीं हूं, मेरा भी कोई हितू है. एक क्षण के बाद उसने फिर कहा-उस बात को भूल न जाना. होरी आगे बढ़ा, तो उसका चित्त प्रसन्न था. मन में एक विचित्र स्फूर्ति हो रही थी. क्या हुआ,दस-पांच मन भूसा चला जायेगा,बेचारे को संकट में पड़कर अपनी गाय तो न बेचनी पड़ेगी.जब मेरे पास चारा हो जायेगा, तब गाय खोल लाऊंगा. भगवान करे मुझे कोई मेहरिया मिल जाये. फिर तो बात ही नहीं. उसने पीछे फिरकर देखा. कबरी गाय पूंछ से मक्खियां उड़ाती, सिर हिलाती,मस्तानी मण्द गति से झूमती चली जाती थी, जैसे बांदियों के बीच में कोई रानी हो. कैसा शुभ होगा वह दिन, जब यह कामधेनु उसके द्वार पर बंधेगी?: 2 :
सेमरी और बेलारी दोनों अवध प्रांत के गाँव हैं. जिले का नाम बताने की कोई जरूरत नहीं. होरी बेलारी में रहता है,रायसाहब अमरपाल सिंह सेमरी में. दोनों गावों में केवल पांच मील का अन्तर है.पिछले सत्याग्रह-संग्राम में रायसाहब ने बड़ा यश कमाया था. कौंसिल की मेम्बरी छोड़कर जेल चले गये थे. तब से उनके इलाके के असामियों को उनसे बड़ी श्रद्धा हो गई थी. यह नहीं कि उनके इलाके में असामियों के साथ कोई खास रियायत की जाती हो या डांड़ और बेगार की कड़ाई कुछ कम हो,मगर यह सारी बदनामी मुख्तारों के सिर जाती.राय साहब की कीर्ति पर कोई कलंक न लग सकता था.वह बेचारे भी तो उसी व्यवस्था के गुलाम थे. जाब्ते का काम तो जैसे होता चला आया है,वैसा ही होगा, रायसाहब की सज्जनता उस पर कोई असर न डाल सकती थी, इसलिए आमदनी और अधिकार में जौ-भर की भी कमी न होने पर भी उनका यश मानो बढ़ गया था. असामियों से वह हँसकर बोल लेते थे, यही क्या कम है? सिंह का काम तो शिकार करना है. अगर वह गरजने और गुर्राने के बदले मीठी बोली बोल सकता,तो उसे घर बैठे मनमाना शिकार मिल जाता. शिकार की खोज में जंगल में न भटकना पड़ता. रायसाहब राष्टृवादी होने पर भी हुक्काम से मेल-जोल बनाये रखते थे, उनकी नजरें और डालियाँ और कर्मचारियों की दस्तूरियां जैसी की तैसी चली आती थीं. साहित्य-संगीत के प्रेमी थे,ड्रामा के शौकीन,अच्छे वक्ता थे, अच्छे लेखक,अच्छे निशानेबाज़.उनकी पत्नि को मरे आज दस साल हो चुके थे ! मगर दूसरी शादी न की थी। हँस-बोलकर अपने विधुर जीवन को बहलाते थे। होरी ड्योढ़ी पर पहुँचा तो देखा, जेठ के दशहरे के अवसर पर होनेवाले धनुष यज्ञ की बड़ी जोरों से तैयारियाँ हो रही हैं ; कहीं रंग-मंच बन रहा था, कहीं मंडप, कहीं मेहमानों का आतिथ्यगृह, कहीं दूकानदारों के लिए दुकानें। धूप तेज हो गई थी ; पर राय साहब खुद काम में लगे हुए थे। अपने पिता से सम्पत्ति के साथ-साथ उन्होंने राम की भक्ति भी पाई थी और धनुष-यज्ञ को नाटक का रूप देकर उसे शिष्ट मनोरंजन का साधन बना दिया था। इस अवसर पर उनके यार-दोस्त, हाकिम-हुक्काम सभी निमन्त्रित होते थे। और दो-तीन दिन इलाके में बड़ी चहल-पहल रहती थी। राय साहब का परिवार बहुत विशाल था। कोई डेढ़ सौ सरदार एक साथ भोजन करते थे। कई चचा थे। दरजनों चचेरे भाई, कई सगे भाई, बीसियों नाते के भाई। एक चचा साहब राधा के अनन्य उपासक थे और बराबर वृंन्दावन में रहते थे। भक्ति-रस के कितने ही कवित्त रच डाले थे और समय-समय पर उन्हें छपवाकर दोस्तों की भेंट कर देते थे। एक दूसरे चचा था, जो राम के परम भक्त थे और फारसी भाषा में रामायण का अनुवाद कर रहे थे। रियासत से सबके वसीके बँधे हुए थे। किसी को कोई काम करने की जरूरत न थी। होरी मंडप में खड़ा सोच रहा था कि अपने आने की सूचना कैसे दे कि सहसा रायसाहब उधर ही आ निकले और उसे देखते ही बोले-अरे ! तू आ गया होरी, मैं तो तुझे बुलानेवाला था। देख, अबकी तुझे राजा जनक का माली बनना पड़ेगा। समझ गया न, जिस वक्त श्री जानकी जी मन्दिर में पूजा करने जाती हैं, उसी वक्त तू एक गुलदस्ता लिए खड़ा रहेगा और जानकीजी को भेंट करेगा, गलती न करना देख, असामियों से ताकीद करके कह देना कि सब-के-सब शगुन करने आएँ। मेरे साथ कोठी में आ, तुझसे कुछ बातें करनी हैं। वह आगे-आगे कोठी की ओऱ चले, होरी पीछे-पीछे चला। वहीं एक घने वृक्ष की छाया में एक कुर्सी पर बैठ गये और होरी को जमीन पर बैठने का इशारा करके बोले-समझ गया, मैंने क्या कहा। कारकुन को तो जो कुछ करना है, वह करेगा ही ; लेकिन असामी जितने मन से असामी की बात सुनता है, कारकुन नहीं सुनता। हमें इन्हीं पाँच-सात दिनों में बीस हजार का प्रबन्ध करना है। कैसे होगा, समझ में नहीं आता। तुम सोचते होगे, मुझ टके के आदमी से मालिक क्यों अपना दुखड़ा ले बैठे। किससे अपने मन की कहूँ ? न जाने क्यों, तुम्हारे ऊपर विश्वास होता है। इतना जानता हूँ कि तुम मन में मुझ पर हँसोगे नहीं। और हँसो भी, तो तुम्हारी हँसी मैं बरदाश्त कर सकूँगा। नहीं सह सकता उनकी हँसी, जो अपने बराबर के हैं, क्योंकि उनकी हँसी में ईर्ष्या, व्यंग और जलन है। औऱ वे क्यों न हँसगे ? मैं भी तो उनकी दुर्दशा और विपत्ति और पतन पर हँसता हूँ, दिल खोलकर, तालियाँ बजाकर। सम्पत्ति सह्रदयता में बैर है। हम भी दान देते हैं, धर्म करते हैं। लेकिन जानते हो ? क्यों ? केवल अपने बराबरवालों को नीचा दिखाने के लिए। हमारा दान और धर्म कोरा अहंकार है, विशुद्ध अहंकार। हममें से किसी पर डिग्री हो जाए, कुर्की आ जाए, बकाया मालगुजारी की इल्लत में हवालात हो जाए, किसी का जवान बेटा मर जाए, किसी की विधवा बहू निकल जाए, किसी के घर में आग लग जाए, कोई वैश्या के हाथों उल्लू बन जाए, या अपने असामियों के हाथों पिट जाए, तो उसके और सभी भाई उस पर हँसेंगे, बगलें बजाएँगे, मानो सारे संसार की सम्पदा मिल गई है। और मिलेंगे तो इतने प्रेम से, जैसे हमारे पसीने की जगह खून बहाने को तैयार हैं। अरे, और तो औऱ, हमारे चचेरे, फुफेरे, ममेरे, मौसेरे भाई जो इसी रियासत की बदौलत मौज उड़ा रहे हैं, कविता कर कर रहे हैं और जुए खेल रहे हैं, शराब पी रहे हैं और ऐयाशी कर रहे हैं, वह भी मुझसे जलते हैं, आज मर जाऊं तो घी के चिराग जलाएँ। मेरे दुःख को दुःख समझने वाला कोई नहीं। उनकी नजरों में मुझे दुखी होने का कोई अधिकार ही नहीं है। मैं अगर होता हूँ, तो दुःख की हँसी उड़ाता हूँ। अगर मैं बीमार होता हूँ, तो मुझे सुख होता है। मैं अगर अफना ब्याह करके घर में कलह नहीं बढ़ाता, तो यह 11 मेरी नीच स्वार्थपरता है, अगर ब्याह कर लूं, तो यह विलासान्धता होगी. अगर शराब नहीं पीता,तो मेरी कंजूसी है.शराब पीने लगूं,तो वह प्रजा का रक्त होगा. अगर ऐयाशी नहीं करता, तो अरसिक हूँ, ऐयाशी करने लगूं, तो फिर कहने ही क्या!इन लोगों ने मूझे भोग- विलास में फँसाने के लिये कम चालें नहीं चली और अब तक चलते जाते हैं. उनकी यही इच्छा है कि मैं अंधा हो जाऊँ, और ये लोग मुझे लूट लें, और मेरा धर्म यह है कि सब कुछ देखकर भी कुछ न देखूं. सब कुछ जानकर भी गधा बना रहूँ. रायसाहब ने गाड़ी को आगे बढ़ने के लिये दो बीड़े पान खाये और होरी के मुंह की ओर ताकने लगे, जैसे उसके मनो भावों को पढ़ना चाहते हों. होरी ने साहस बटोरकर कहा-हम समझते थे कि ऐसी बातें हमीं लोगों में होती है,पर जान पड़ता है,बड़े आदमियों में भी उनकी कमी नहीं है. रायसाहब ने मुँह पान से भरकर कहा-तुम हमें बढ़ा आदमी समझते हो? हमारे नाम बड़े हैं, पर दर्शन थोड़े. गरीबों में अगर ईर्ष्या या वैर है, तो स्वार्थ के लिये या पेट के लिए. ऐसी ईर्ष्या और वैर को में क्षम्य समझता हूँ. हमारे मुँह की रोटी कोई छीन ले, तो उसके गले में उंगली डालकर निकालना हमारा धर्म हो जाता है. अगर हम छोड़ दें, तो देवता हैं. बड़े आदमियों की ईर्ष्या और वैर केवल आनन्द के लिए है. हम इतने बड़े आदमी हो गये हैं कि हमें नीचता और कुटिलता मे ही निःस्वार्थता और परम आनन्द मिलता है.हम देवतापन के उस दर्जे पर पहुंच गए हैं, जब हमें दूसरों के रोने पर हंसी आती है. इसे तुम छोटी साधना मत समझो. जब इतना बड़ा कुटुम्ब है, तो कोई- न-कोई तो हमेशा बीमार तो रहेगा ही. और बड़े आदमियों को रोग भी होते हैं.वह बड़ा आदमी ही क्या जिसे कोई छोटा रोग हो.मामूली ज्वर भी आ जाये, तो हमें सरसाम की दवा दी जाती है,मामूली फुंसी भी निकल आये,तो वह ज़हरबाद बन जाती है. अब छोटे सर्जन और मझोले सर्जन और बड़े सर्जन तार मे बुलाये जा रहें हैं,मसीहुलमुल्क को लाने के लिए दिल्ली आदमी भेजा जा रहा है, भिषगाचार्य को लाने के लिए कलकत्ता.उधर देवालय में दुर्गापाठ हो रहा है और ज्योतिषाचार्य कुण्डली का विचार कर रहें हैं और तंन्त्र के आचार्य अपने अनुष्ठान में लगे हुए हैं. राजासाहब को यमराज के मुंह से निकालने के लिए दौड़ लगी हुई है. वैद्य और डाक्टर इस ताक में रहते हैं कि कब इनके सिर में दर्द हो और कब उनके घर में सोने की वर्षा हो. और ये रुपया तुमसे और तुम्हारे भाइयों से वसूल किये जाते हैं, भाले की नोक पर. मुझे तो यही आश्चर्य होता है कि क्यों तुम्हारी आहों का दावानल हमें भस्म नहीं कर डालता, मगर नहीं, आश्चर्य करने की कोई बात नहीं,भस्म होने में तो बहुत देर नहीं लगती,वेदना भी थोड़ी ही देर की होती है.हम जौ-जौ और पोर-पोर भस्म हो रहे हैं. उस हाहाकार से बचने के लिये हम पुलिस की, हुक्काम की,अदालत की, वकीलों की शरण लेते हैं और रूपवती स्त्री की भांति सभी के हाथों का खिलौना बनते हैं. दुनिया समझती है, हम बड़े सुखी हैं,हमारे पास इलाके, महल सवारियां, नौकर चाकर, कर्ज ,वैश्याएं,क्या नहीं है, लेकिन जिसकी आत्मा में बल नहीं अभिमान नहीं, वह और चाहे कुछ हो, आदमी नहीं है, जिसे दुश्मन के भय के मारे रात को नींद न आती हो,जिसके दुःख पर सब हँसे और रोने वाला कोई न हो, जिसकी चोटी दूसरों के पैरों के नीचे दबी हो,जो भोग-विलास के नशे में अपने को बिलकुल भूल गया हो,जो हुक्काम के तलवे चाटता हो और अपने अधीनों का खून चूसता हो, उसे मैं सुखी नहीं कहता. वह तो संसार का सबसे अभागा प्राणी है साहब शिकार खेलने आयें या दौरे पर, मेरा कर्तव्य है कि उनकी दुम के पीछे लगा रहूँ. उनकी भौहों पर शिकन पड़ी और हमारे प्राण सूखे. उन्हें प्रसन्न करने के लिये हम क्या नहीं करते? मगर वह पचड़ा सुनाने लगूं, तो शायद तुम्हें विश्वास न आये. डालियों और रिश्वतों तक तो खैर गनीमत है,हम सिजदे करने को भी तैयार रहते हैं. मुफ्तखोरी ने हमें अपंग बना दिया है, हमें अपने पुरुषार्थ पर लेशमात्र भी विश्वास नहीं, केवल अफसरों के सामने दुम हिला-हिलाकर किसी तरह उनके कृपापात्र बने रहना और उनकी सहायता से अपनी प्रजा पर आतंक जमाना ही हमारा उद्यम है. पिछलग्गुओं की खुशामद ने हमें इतना अभिमानी और तुनकमिजाज बना दिया है कि हममें शील, विनय और सेवा का लोप हो गया है. मैं तो कभी- कभी सोचता हूं कि अगर सरकार हमारे इलाके छीनकर हमें अपनी रोजी के लिए मेहनत करना सिखा दे, तो हमारे साथ महान् उपकार करे, और यह तो निश्चय है कि अब सरकार भी हमारी रक्षा न करेगी. हमसे अब उसका कोई स्वार्थ नहीं निकलता. लक्षण कह रहें हैं कि बहुत जल्द हमारे वर्ग की हस्ती मिट जाने वाली है. मैं उस दिन का स्वागत करने को तैयार बैठा हूँ. ईश्वर वह दिन जल्द लाये. वह हमारे उद्धार का दिन होगा. हम परिस्थितियों के शिकार बने हुए हैं. यह परिस्थिति ही हमारा सर्वनाश कर रही है. और जब तक सम्पत्ति की यह बेड़ी हमारे पैरों से न निकलेगी, जब तक यह अभिशाप हमारे सिर पर मंडराता रहेगा, हम मानवता का वह पद न पा सकेंगे, जिस पर पहुँचना ही जीवन का अन्तिम लक्ष्य है. रायसाहब ने फिर गिलौरीदान निकाला और कई गिलौरियां निकालकर मुंह में भर लीं. कुछ और कहने वाले थे कि एक चपरासी ने आकर कहा सरकार, बेगारों ने काम करने से इन्कार कर दिया है, कहते हैं,जब तक हमें खाने को न मिलेगा, हम काम न करेंगे.हमने धमकाया,तो सब काम छोड़कर अलग हो गये. राय साहब के माथे पर बल पड़ गये. आंखें निकाल कर बोले-चलो, मैं इन दुष्टों को ठीक करता हूं. जब कभी खाने को नहीं दिया, तो आज यह नयी बात क्यों? एक आने रोज के हिसाब से मजूरी मिलेगी,जो हमेशा मिलती रही है, और इस मजूरी पर उन्हें काम करना होगा, सीधे करें या टेढ़े. फिर होरी की ओर देख कर बोले-तुम अब जाओ होरी, अपनी तैयारी करो. जो बात मैंने कही है है, उसका खयाल रखना. तुम्हारे गांव से मुझे कम-से-कम पांच सौ की आशा है. रायसाहब झल्लाते हुए चले गये. होरी ने मनमें सोचा, अभी यह कैसी-कैसी नीति और धरम की बातें कर रहे थे और एकाएक इतने गरम हो गये सूर्य सिर पर आ गया था. उसके तेज से अभिभूत होकर वृक्षों ने अपना पसार समेट लिया. आकाश पर मटियाली गर्द छायी हुई थी और सामने की पृथ्वी कांपती हुई जान पड़ती थी. होरी ने अपना डण्डा उठाया और घर चला. शगुन के रुपये कहां से आयेंगे, यही चिन्ता उसके सिर पर सवार थी.: 3 :
होरी अपने गांव के समीप पहुँचा तो देखा, अभी तक गोबर खेत में ऊख गोड़ रहा है और दोनों लड़कियां भी उसके साथ काम कर रही हैं. लू चल रही थी, बगूले उठ रहे थे, भूतल धधक रहा था. जैसे प्रकृति ने वायु में आग घोल दी हो. यह सब अभी तक खेत में क्यों हैं? क्या काम के पीछे सब जान देने पर तुले हुए हैं? वह खेत की ओर चला और दूर ही से चिल्लाकर बोला-आता क्यों नहीं गोबर,क्या काम ही करता रहेगा? दोपहर ढल गयी, कुछ सूझता है कि नहीं? उसे देखते ही तीनों ने कुदालें उठा लीं और उसके साथ हो लिये. गोबर सांवला, लम्बा, एकहरा युवक था, जिसे इस काम में रुचि न मालूम होती थी. प्रसन्नता की जगह मुख पर असन्तोष और विद्रोह था. वह इसलिये काम में लगा हुआ था कि वह दिखाना चाहता था, उसे खाने पीने की कोई फिक्र नहीं है. बड़ी लड़की सोना लज्जाशील कुमारी थी, सांवली, सुडौल, प्रसन्न और चपल. गाढ़े की लाल साड़ी, जिसे वह घुटनों से मोड़कर कमर में बांधे हुए थी, उसके हलके शरीर पर कुछ लदी हुई-सी थी और उसे प्रोढ़ता की गरिमा दे रही थी. छोटी रूपा पांच साल की छोकरी थी, मैली, सिर पर बालों का एक घोसला-सा बना हुआ,एक लंगोटी कमर में बांधे,बहुत ही ढ़ीठ और रोनी. रूपा ने होरी की टांगो में लिपट कर कहा-काका! देखो, मैंने एक ढेला भी नहीं छोड़ा. बहिन कहती है, जा पेड़ तले बैठ. ढेले न तोड़े जायेंगे काका, तो मिट्टी कैसे बराबर होगी? होरी ने उसे गोद में उठाकर प्यार करते हुए कहा-तूने बहुत अच्छा किया बेटी, चल, घर चलें. कुछ देर अपने विद्रोह को दबाये रखने के बाद गोबर बोला-यह तुम रोज-रोज मालिकों की खुशामद करने क्यों जाते हो? बाकी न चुके, तो प्यादा आकर गालियाँ सुनाता है, बेगार देनी ही पड़ती है,नजर नजराना सब तो हमसे भराया जाता है. फिर किसी की क्यों सलामी करो? इस समय यही भाव होरी के मन में आरहे थे, लेकिन लड़के के इस विद्रोह-भाव को दबाना जरुरी था. बोला- सलामी करने न जायें, तो रहें कहां? भगवान ने जब गुलाम बना बना दिया है, तो अपना क्या बस है? यह इसी सलामी की बरकत है कि द्वार पर मड़ैया डाल ली और किसी ने कुछ नहीं कहा. घूरे ने द्वार पर खूंटा गाड़ा था, जिस पर कारिन्दों ने दो रुपये डांड़ ले लिये थे. तलैया से कितनी मिट्टी हमने खोदी, कारिन्दा ने कुछ नहीं कहा, दूसरा खोदे, तो नजर देनी पड़े. अपने मतलब के लिये सलामी करने जाता हूं, पांव में सनीचर नहीं है और न सलामी करने में कोई बड़ा सुख मिलता है. घण्टों खड़े रहो,तब जाकर मालिक को खबर होती है. कभी बाहर निकलते हैं, कभी कहला देते हैं कि फुरसत नहीं है. गोबर ने कटाक्ष किया-बड़े आदमियों की हां में हां मिलाने में कुछ न कुछ आनन्द तो मिलता ही है. नहीं लोग मेम्बरी के लिये क्यों खड़े हों? `जब सिर पर पड़ेगी, तब मालूम होगा बेटा, अभी जो चाहे कह लो. पहले मैं भी यही सब बातें सोचा करता था, पर अब मालूम हुआ कि हमारी गरदन दूसरों के पैरो के नीचे दबी हुई है,अकड़कर निबाह नहीं हो सकता.' पिता पर अपना क्रोध उतार कर गोबर कुछ शान्त हो गया और चुपचाप चलने लगा. सोना ने देखा, रूपा बाप की गोद में चढ़ी बैठी है, तो ईर्ष्या हुई. डांटकर बोली-अब गोद से उतरकर पांव- पांव क्यों नहीं चलती,क्या पांव टूट गये हैं? रूपा ने बाप की गरदन में हाथ डालकर ढिठाई से कहा- न उतरेंगे, जाओ. काका, बहिन हमको रोज चिढ़ाती है कि तू रूपा है, मैं सोना हूं. मेरा नाम कुछ और रख दो. होरी ने सोना को बनावटी रोष से देखकर कहा-तू इसे क्यों चिढाती है सोनिया? सोना तो देखने को है. निबाह तो रूपा से होता है. रूपा न हो, तो रुपये कहां से बनें, बता? सोना ने अपने पक्ष का समर्थन किया-सोना न हो, तो मोहनमाला कैसे बने,नथुनियां कहां से आये, कण्ठा कैसे बने? गोबर भी इस विनोदमय विवाद में शरीक हो गया. रूपा से बोला-तू कह दे कि सोना तो सूखी पत्ती की तरह पीला होता है, रूपा तो उजला होता है, जैसे सूरज. सोना बोली-शादी-ब्याह में पीली साड़ी पहनी जाती है,उजली साड़ी कोई नहीं पहनता. रूपा इस दलील से परास्त हो गई. गोबर और होरी की कोई दलील इसके सामने न ठहर सकी. उसने क्षुब्ध आंखों से होरी को देखा. होरी को एक नयी युक्ति सूझ गयी. बोला-सोना बड़े आदमियों के लिये है. हम गरीबों के लिये तो रूपा ही है.जैसे जौ को राजा कहते हैं,गेहूं को चमार, इसलिये न कि गेहूं बड़े आदमी खाते हैं, जौ हम लोग खाते हैं. सोना के पास इस सबल युक्ति का कोई जबाब न था. परास्त होकर बोली-तुम सब जने एक ओर हो गये, नहीं रुपिया को रुलाकर छोड़ती. रूपा ने उंगली मटकाकर कहा-ए राम, सोना चमार-ए राम, सोना चमार. इस विजय का उसे इतना आनंद हुआ कि बाप की गोद में रह न सकी. जमीन पर कूद पड़ी और उछल-उछलकर यही रट लगाने लगी-रूपा राजा, सोना चमार-रूपा राजा,सोना चमार! ये लोग घर पहुँचे, तो धनिया द्वार पर खड़ी इनकी बाट जोह रही थी. रुष्ट होकर बोली-आज इतनी देर क्यौं की गोबर? काम के पीछे कोई परान थोड़े ही देता है. फिर पति से गरम होकर कहा- तुम भी वहां से कमाई करके लौटे, तो खेत में पहुंच गये. खेत कहीं भागा जाता था? द्वार पर कुआं था. होरी और गोबर ने एक एक कलसा पानी सिर पर उड़ेला, रूपा को नहलाया और भोजन करने गये. जौ की रोटियां थीं, पर गेहूं जैसी सफेद और चिकनी. अरहर की दाल थी,जिसमें कच्चे आम पड़े हुए थे. रूपा बाप की थाली में खाने बैठी. सोना ने उसे ईर्ष्या-भरी आंखों से देखा, मानो कह रही ती ,वाह रे दुलार. धनिया ने पूछा- मालिक से क्या बातचीत हुई? होरी ने लोटा-भर पानी चढ़ाते हुए कहा-यही तहसील-वसूल की बात थी, और क्या! हम लोग समझते हैं,बड़े आदमी बहुत सुखी होंगे, लेकिन सच पूछो,तो वह हमसे भी ज्यादा दुखी हैं. हमें अपने पेट की चिन्ता हैं, उन्हें हजारों चिन्ताएं घेरे रहती हैं. रायसाहब ने और क्या -क्या कहा था, कुछ होरी को याद न था. उस सारे कथन का खुलासा-मात्र उसके स्मरण में चिपका रह गया था. गोबर ने व्यंग किया-तो फिर अपना इलाका हमें क्यों नहीं दे देते? हम अपने खेत, बैल, हल, सब उन्हें देने को तैयार हैं. करेंगे बदला? यह सब धूर्तता है,निरी मोटमरदी. जिसे दुःख होता है,वह दरजनों मोटरें नहीं रखता, महलों में नहीं रहता, हलवा-पूरी नहीं खाता और न नाच- रंग में लिप्त रहता है. मजे से राज का सुख भोग रहे हैं, उस पर दुखी हैं! होरी ने झुंझलाकर कहा- अब तुमसे बहस कौन करे भाई? जैजात किसी से छोड़ी जाती है कि वही छोड़ देंगे. हमीं को खेती से क्या मिलता है? एक आने नफरी की मजूरी भी तो नहीं पड़ती. जो दस रुपये महीने का भी नौकर है,वह भी हमसे अच्छा खाता-पहनता है, लेकिन खेतों को छोड़ा तो नहीं जाता. खेती छोड़ दें ,तो क्या?नौकरी कहीं मिलता है? फिर मर जाद भी तो पालना पड़ता है. खेती में जो मरजाद है, वह नौकरी में तो नहीं है. इसी तरह जमींदारों का हाल भी समझ लो. उनकी जान को भी तो सैकड़ों रोग लगे हुए हैं, हाकिमों को रसद पहुँचाओ,उनकी सलामी करो, अमलों को खुश करो. तारीख पर मालगुजारी न चुका दें, तो हवालात हो जाय, कुड़की आ जाय, हमें तो कोई हवालात नहीं ले जाता. दो चार गालियां-घुड़कियां ही तो मिलकर रह जाती हैं. गोबर ने प्रतिवाद किया-यह सब कहने की बातें हैं. हम लोग दाने दाने को मुहताज हैं, देह पर साबित कपड़े नहीं हैं, चोटी का पसीना एड़ी तक आता है,तब भी गुजर नहीं होता. उन्हें क्या, मजे से गद्दी-मसनद लगाये बैठे हैं, सैकड़ों नौकर-चाकर हैं,हजारों आद मियों पर हुकुमत है. रुपये न जमा होते हों, पर सुख तो सभी तरह का भोगते हैं. धन लेकर आदमी और क्या करता हैं? `तुम्हारी समझ में हम और वह बराबर हैं?' `भगवान ने तो सबको बराबर ही बनाया है' `यह बात नहीं है बेटा छोटे -बड़े भगवान के घर से बनकर आते हैं.सम्पत्ति बड़ी तपस्य से मिलती है. उन्होने पूर्व जन्म में जैसे कर्म किये हैं, उनका आनंद भोग रहें हैं. हमने कुछ नहीं संचा, तो भोगें क्या?' यह सब मन को समझाने की बातें हैं.भगवान सबको बराबर बनाते हैं. यहां जिसके हाथ में लाठी है,वह गरीबों को कुचल कर बड़ा आदमी बन जाता है.' `यह तुम्हारा भरम है. मालिक आज भ