राग आसावरी


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मैं देख्यौं जसुदा कौ नंदन खेलत आँगन बारौ री ।


ततछन प्रान पलटि गयौ, तन-तन ह्वै गयौ कारौ री ॥


देखत आनि सँच्यौ उर अंतर, दै पलकनि कौ तारौ री ।


मोहिं भ्रम भयौ सखी उर अपनैं, चहुँ दिसि भयौ उज्यारौ री ॥


जौ गुंजा सम तुलत सुमेरहिं, ताहू तैं अति भारौ री ।


जैसैं बूँद परत बारिधि मैं, त्यौं गुन ग्यान हमारौ री ॥


हौं उन माहँ कि वै मोहिं महियाँ, परत न देह सँभारौ री ।


तरु मैं बीज कि बीज माहिं तरु, दुहुँ मैं एक न न्यारौ री ॥


जल-थल-नभ-कानन, घर-भीतर, जहँ लौं दृष्टि पसारौ री ।


तित ही तित मेरे नैननि आगैं निरतत नंद-दुलारौ री ॥


तजी लाज कुलकानि लोक की, पति गुरुजन प्यौसारौ री ।


जिनकि सकुच देहरी दुर्लभ, तिन मैं मूँड़ उधारौं री ॥


टोना-टामनि जंत्र मंत्र करि, ध्यायौ देव-दुआरौ री ।


सासु-ननद घर-घर लिए डोलति, याकौ रोग बिचारौ री ॥


कहौं कहा कछु कहत न आवै, औ रस लागत खारौ री ।


इनहिं स्वाद जो लुब्ध सूर सोइ जानत चाखनहारौ री ॥


भावार्थ / अर्थ :-- (एक गोपिका कहती है-) मैंने आँगनमें खेलते बालक यशोदानन्दनको (एक दिन) देखा, तत्काल ही मेरे प्राण (मेरा जीवन) बदल गया, मेरा शरीर और मन भी काला (श्याममय) हो गया । मैंने उसे देखते ही लाकर हृदयमें संचित कर दिया (बैठा दिया) और पलकोंका ताला लगा दिया । लेकिन सखी । मुझे मनमें बड़ा संदेह हुआ कि (मैंने बैठाया तो श्यामको, किंतु) हृदय में चारों ओर प्रकाश हो गया । जैसे गुंजा (घुँघची) से सुमेरुकी तुलना हो ( मेरी अपेक्षा श्याम तो) उससे भी बहुत भारी (महान्) थे । जैसे (जलकी) बूँद समुद्रमें पड़ जाय, वैसे ही मेरे गुण और ज्ञान उसमें लीन हो गये । पता नहीं, मैं उनमें हूँ या वे मुझमें हैं? मुझे तो अब अपने शरीरकी सुधि भी नहीं रहती । वृक्षमें बीज है या बीजमें वृक्ष (इस उलझनसे लाभ क्या ? सच तो यह है कि) दोनों मेंसे कोई पृथक नहीं है ! (इसी प्रकार मैं श्यामसे एक हो गयी । अब तो यह दशा है कि) जल, स्थल तथा आकाशमें, वनमें या घरके भीतर जहाँ भी दृष्टि जाती है, वहीं- वहीं मेरे नेत्रों के सम्मुख श्रीनन्दनन्दन नृत्य करते (दीखते) हैं । लोक की लज्जा, कुलीन होने का संकोच मैंने त्याग दिया । पति, गुरुजन तथा मायके (पिताके घरके लोग) जिनके संकोचसे देहली देखना (द्वारतक आना) मेरे लिये दुर्लभ था, उनके बीच ही नंगे सिर घूमती हूँ (संकोचहीनहो गयी हूँ) 'मेरी सासु और ननद मुझे घर-घर लिये घूमती हैं (सबसे कहती हैं-) इसके रोगका विचार करो ।'(इसे क्या हो गया, यह बताओ तो) टोना-टोटका करती हैं, यन्त्र बाँधती हैं, मन्त्र जपती हैं और देवताओंका ध्यान करके मनौतियाँ करती है । 'मैं क्या कहूँ, कुछ कहते बन नहीं पड़ता । (संसारके) दूसरे सब रस (सुख) मुझे खारे (दुःखद) लगते हैं।' सूरदासजी कहते हैं--इन (मोहन) के रूप रसके स्वादका जो लोभी है, उसका आनन्द तो वही-- उसके चखनेवाला (उसका रसास्वाद करनेवाला) ही जानता है (उस रसका वर्णन सम्भव नहीं है)।


[75]


जब तैं आँगन खेलत देख्यौ, मैं जसुदा कौ पूत री ।


तब तैं गृह सौं नातौं टूट्यौ, जैसैं काँचौं सूत री ॥


अति बिसाल बारिज-दल-लोचन, राजति काजर-रेख री ।


इच्छा सौं मकरंद लेत मनु अलि गोलक के बेष री ॥


स्रवन सुनत उतकंठ रहत हैं, जब बोलत तुतरात री ।


उमँगै प्रेम नैन-मग ह्वै कै, कापै रोक्यौ जात री ॥


दमकति दोउ दूधकी दँतियाँ,जगमग जगमग होति री ।


मानौ सुंदरता-मंदिर मैं रूप रतन की ज्योति री ॥


सूरदास देखैं सुंदर मुख, आनँद उर न समाइ री ।


मानौ कुमद कामना-पूरन, पूरन इंदुहिं पाइ री ॥


भावार्थ / अर्थ :-- (दूसरी गोपिका कहती है-) 'सखी ! जबसे मैंने श्रीयशोदानन्दनको आँगन में खेलते देखा, तबसे घरका सम्बन्ध तो ऐसे टूट गया जैसे कच्चा सूत टूट जाय । उनके अत्यन्त बड़े बड़े कमलदलके समान लोचनों में काजलकी रेखा इस प्रकार शोभित थी मानो नेत्र-गोलकका वेष बनाकर भ्रमर बड़ी चाह से मकरन्द ले रहे हों । जब वे तुत लाते हुए बोलते हैं, तब उस वाणीको सुननेके लिये कान उत्कण्ठित हो रहते हैं और नेत्रों के मार्ग से प्रेम उमड़ पड़ता है( प्रेमाश्रु बहने लगते हैं)। भला किससे वे अश्रु रोके जा सकते हैं । दूधकी दोनों दँतुलियाँ (छोटे दाँत) प्रकाशित होते (चमकते) हैं, उनकी ज्योति इस प्रकार जगमग-जगमग करती हैं मानो सौन्दर्यके मन्दिरमें रूपके रत्नकी ज्योति हों । सूरदासजी कहते हैं कि उस सुन्दर मुखको देखकर हृदयमें आनन्द समाता नहीं, मानो पूर्ण चन्द्रमाको पाकर कुमुदिनीकी कामना पूर्ण हो गयी हो (वह पूर्ण हो उठी हो)।