हे भले आदमियो !
गोरख पाण्डेय





डबाडबा गई है तारों-भरी





शरद से पहले की यह





अँधेरी नम





रात ।





उतर रही है नींद





सपनों के पंख फैलाए





छोटे-मोटे ह्ज़ार दुखों से





जर्जर पंख फैलाए





उतर रही है नींद





हत्यारों के भी सिरहाने ।





हे भले आदमियो !





कब जागोगे





और हथियारों को





बेमतलब बना दोगे ?





हे भले आदमियो !





सपने भी सुखी और





आज़ाद होना चाहते हैं ।





साभार : http://hi.literature.wikia.com/